रीजनल कॉलेज, अजमेर में प्रथम वर्ष के अध्ययन-काल के दौरान लिखी गई मेरी इस हल्की-फुल्की हास्य कविता को मेरे साथियों-परिचितों ने बहुत सराहा था। प्रस्तुत कर रहा हूँ यह कविता आप सब के लिए--- "आधुनिक मित्र" सोचा मैंने मिलूँ मित्र से, मौसम बड़ा सुहाना था। कृष्ण-सुदामा के ही जैसा, रिश्ता बड़ा पुराना था। मज़ा लिया तफ़री का मैंने, टैक्सी को रुपया दे कर। भौंहें उसकी चढ़ी हुई थीं, जब पहुँचा मैं उसके घर। मैंने समझा उन साहब को मेरा आना अखरा था। पर उनके गुस्से का कारण, एक जनाना बकरा था। पूछा मैंने जरा सहम कर. 'हो उदास कैसे भाई ?' जरा तुनककर वह भी बोला, 'आफत अच्छी घर आई।' चौंक पड़ा मैं, बोला उससे, 'अमां यार, क्या बकते हो! अरसे से मिलने आया हूँ, मुझको आफत कहते हो!' तब वह बोला थोड़ा हँसकर, 'तुम यार, बड़े भोले हो। बस उल्लू के पट्ठे हो या, कुछ दिमाग़ के पोले हो। मेरी बकरी ही आफत है, बस घाटे का ...