आंसू थम नहीं रहे हैं ...बलात्कारी दरिन्दों ने दिल्ली में मेडिकल की छात्रा के साथ जो बहशियाना हरकत की है और उनकी जिस पैशाचिक पराकाष्ठा ने उस मासूम की सांसें भी छीन ली हैं उसे देखते हुए उन राक्षसों के अंग विच्छेद कर दिए जाने चाहियें। नहीं, यह सजा कम होगी, उन्हें फांसी या सूली पर चढ़ा दिया जाना चाहिये। नहीं, उनके टुकड़े-टुकड़े कर के चील-कौओं के सामने फ़ेंक दिया जाना चाहिए। नहीं, नहीं, नहीं ...उनके पाप के लिए ये सजाएं काफी नहीं होंगी, कोई बताये हमारे देश के रहनुमाओं को, न्याय के रक्षकों को या फिर मानवाधिकार के अनुयाइयों को, कि मानवता पर कलंक, उन जंगली भेड़ियों ( भेड़िये क्षमा करें इस तुलना के लिए) के लिए क्या सजा तजवीज हो ? प्रश्न है मेरा- 'क्या उम्र-कैद की वर्तमान अधिकतम सजा उन हैवानों के लिए काफी होगी ?'
“अरे राधिका, तुम अभी तक अपने घर नहीं गईं?” घर की बुज़ुर्ग महिला ने बरामदे में आ कर राधिका से पूछा। राधिका इस घर में झाड़ू-पौंछा व बर्तन मांजने का काम करती थी। “जी माँजी, बस निकल ही रही हूँ। आज बर्तन कुछ ज़्यादा थे और सिर में दर्द भी हो रहा था, सो थोड़ी देर लग गई।” -राधिका ने अपने हाथ के आखिरी बर्तन को धो कर टोकरी में रखते हुए जवाब दिया। “अरे, तो पहले क्यों नहीं बताया। मैं तुमसे कुछ ज़रूरी बर्तन ही मंजवा लेती। बाकी के बर्तन कल मंज जाते।” “कोई बात नहीं, अब तो काम हो ही गया है। जाती हूँ अब।”- राधिका खड़े हो कर अपने कपडे ठीक करते हुए बोली। अपने काम से राधिका ने इस परिवार के लोगों में अपनी अच्छी साख बना ली थी और बदले में उसे उनसे अच्छा बर्ताव मिल रहा था। इस घर में काम करने के अलावा वह प्राइमरी के कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। ट्यूशन पढ़ने बच्चे उसके घर आते थे और उनके आने का समय हो रहा था, अतः राधिका तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दी। चार माह की गर्भवती राधिका असीमपुर की घनी बस्ती के एक मकान में छोटे-छोटे दो कमरों में किराये पर रहती थी। मकान-मालकिन श्यामा देवी एक धर्मप्राण, नेक महिल...
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