Skip to main content

प्रधान मन्त्री से गुजारिश :-Posted on Facebook by me...on Dt. 20-4-13

माननीय प्रधान मन्त्री जी, मेरी आप से गुजारिश है :-

1) दिल्ली के पुलिस-महकमे को समाप्त करवा दीजिये क्योंकि अब इसकी ज़रूरत नहीं रही। पीड़ित को रूपया देकर मामला रफ़ा-दफ़ा करने की पेशक़श तो अपराधी के रिश्तेदार ही कर लेंगे जो अभी पुलिस के कुछ अधिकारी कर रहे हैं।

2) मानवाधिकार- संस्था को भी हटा दीजिये क्योंकि पीड़ित की पीड़ा से अधिक चिंता इसे अपराधी के लिए रहती है जब भी अपराधी को कठोर सज़ा देने की बात उठती है।

3) ऐसे मुख्य मंत्रियों को सचिवालयों से हटाकर उनके घर भेज दीजिये जो आतंकवादियों / अपराधियों को सज़ा नहीं देने की वक़ालत करते हैं, ताकि वह अपनी खेती-बाड़ी सम्हालें।
4) हमारे देश का क़ानून बहुत कमज़ोर है इसलिए इसमें बदलाव करके कठोरतम बनवायें और ऐसा न कर सकें तो गुनहगारों को जनता को सुपुर्द करवा दें ताकि जनता उन दरिन्दों को उचित सजा दे; पांच वर्ष की मासूम बच्ची से दुष्कर्म करने वाले नर-पिशाच के शरीर में उसी तरह बोतल डाल सके जैसा उसने उस बच्ची के साथ किया।
5) अन्तिम प्रार्थना यह है कि कृपया अपना मौन त्यागें और कुछ ऐसा बदलाव व्यवस्था में कराएँ कि हम निडर होकर इस देश में रह सकें, जीना दूभर हो गया है माननीय! आप की संवेदना क्या कहती है नहीं पता, मेरी आँखों से तो आंसू सूख नहीं रहे हैं।

Comments

Popular posts from this blog

बेटी (कहानी)

  “अरे राधिका, तुम अभी तक अपने घर नहीं गईं?” घर की बुज़ुर्ग महिला ने बरामदे में आ कर राधिका से पूछा। राधिका इस घर में झाड़ू-पौंछा व बर्तन मांजने का काम करती थी।  “जी माँजी, बस निकल ही रही हूँ। आज बर्तन कुछ ज़्यादा थे और सिर में दर्द भी हो रहा था, सो थोड़ी देर लग गई।” -राधिका ने अपने हाथ के आखिरी बर्तन को धो कर टोकरी में रखते हुए जवाब दिया।  “अरे, तो पहले क्यों नहीं बताया। मैं तुमसे कुछ ज़रूरी बर्तन ही मंजवा लेती। बाकी के बर्तन कल मंज जाते।” “कोई बात नहीं, अब तो काम हो ही गया है। जाती हूँ अब।”- राधिका खड़े हो कर अपने कपडे ठीक करते हुए बोली। अपने काम से राधिका ने इस परिवार के लोगों में अपनी अच्छी साख बना ली थी और बदले में उसे उनसे अच्छा बर्ताव मिल रहा था। इस घर में काम करने के अलावा वह प्राइमरी के कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। ट्यूशन पढ़ने बच्चे उसके घर आते थे और उनके आने का समय हो रहा था, अतः राधिका तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दी। चार माह की गर्भवती राधिका असीमपुर की घनी बस्ती के एक मकान में छोटे-छोटे दो कमरों में किराये पर रहती थी। मकान-मालकिन श्यामा देवी एक धर्मप्राण, नेक महिल...

तन्हाई (ग़ज़ल)

मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- तन्हाई मौसम बेरहम देखे, दरख़्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है।   बहार आएगी कभी,  ये  भरोसा  नहीं  रहा, पतझड़ का आलम  बहुत लम्बा हो गया है।   रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र  का  सिलसिला  बेइन्तहां  हो  गया  है।    या तो मैं हूँ, या फिर मेरी  ख़ामोशी  है यहाँ, सूना - सूना  सा   मेरा   जहां  हो  गया  है।  यूँ  तो उनकी  महफ़िल में  रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन  फिर भी तन्हा  हो गया है।                          *****  

दलित वर्ग - सामाजिक सोच व चेतना

     'दलित वर्ग एवं सामाजिक सोच'- संवेदनशील यह मुद्दा मेरे आज के आलेख का विषय है।  मेरा मानना है कि दलित वर्ग स्वयं अपनी ही मानसिकता से पीड़ित है। आरक्षण तथा अन्य सभी साधन- सुविधाओं का अपेक्षाकृत अधिक उपभोग कर रहा दलित वर्ग अब वंचित कहाँ रह गया है? हाँ, कतिपय राजनेता अवश्य उन्हें स्वार्थवश भ्रमित करते रहते हैं। जहाँ तक आरक्षण का प्रश्न है, कुछ बुद्धिजीवी दलित भी अब तो आरक्षण जैसी व्यवस्थाओं को अनुचित मानने लगे हैं। आरक्षण के विषय में कहा जा सकता है कि यह एक विवादग्रस्त बिन्दु है। लेकिन इस सम्बन्ध में दलित व सवर्ण समाज तथा राजनीतिज्ञ, यदि मिल-बैठ कर, निजी स्वार्थ से ऊपर उठ कर कुछ विवेकपूर्ण दृष्टि अपनाएँ तो सम्भवतः विकास में समानता की स्थिति आने तक चरणबद्ध तरीके से आरक्षण में कमी की जा कर अंततः उसे समाप्त किया जा सकता है।  दलित वर्ग एवं सवर्ण समाज, दोनों को ही अभी तक की अपनी संकीर्ण सोच के दायरे से बाहर निकलना होगा। सवर्णों में कोई अपराधी मनोवृत्ति का अथवा विक्षिप्त व्यक्ति ही दलितों के प्रति किसी तरह का भेद-भाव करता है। भेदभाव करने वाला व्यक्ति निश्चित रूप स...