“Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ, तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी। **********
चींटियों के झुण्ड की तरह उमड़ता जन-सैलाब! प्रशासन भी आखिर संभाले तो कैसे, इस अंधी आस्था को? कुछ लोग इसमें शामिल होकर मोक्ष प्राप्त कर ही लेते हैं, अपने पीछे रोते-बिलखते निकट संबंधियों को छोड़ कर।… और धर्मांध लोगों को प्रेरित करने वाले निर्मोही तथाकथित संत और कथावाचकों ( निर्मोही इसलिए कि वह तो तथाकथित रूप से मोह-माया छोड़ जो चुके हैं ) के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती। वैसे भी वह कानों से ज़्यादा काम नहीं लेते, केवल उनकी जिव्हा चलती है। तो... जाते रहो धर्मान्ध मोक्ष-लाभार्थियों, ऐसी भगदड़ का हिस्सा बन कर मोक्ष पाने के लिए। परलोक सुधरेगा या नहीं, यह तो ईश्वर ही जाने, इहलोक ज़रूर बिगड़ जाएगा। मृतात्माओं को हम सभी की अश्रुपूरित श्रद्धांजलि 🙏🏼!