Skip to main content

Posts

मेरी पसन्द ...

"ऐसा क्यों" (लघुकथा)

                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********
Recent posts

विनम्र श्रद्धांजलि !

    चींटियों के झुण्ड की तरह उमड़ता जन-सैलाब! प्रशासन भी आखिर संभाले तो कैसे, इस अंधी आस्था को? कुछ लोग इसमें शामिल होकर मोक्ष प्राप्त कर ही लेते हैं, अपने पीछे रोते-बिलखते निकट संबंधियों को छोड़ कर।… और धर्मांध लोगों को प्रेरित करने वाले निर्मोही तथाकथित संत और कथावाचकों ( निर्मोही इसलिए कि वह तो तथाकथित रूप से मोह-माया छोड़ जो चुके हैं ) के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती। वैसे भी वह कानों से ज़्यादा काम नहीं लेते, केवल उनकी जिव्हा चलती है। तो... जाते रहो धर्मान्ध मोक्ष-लाभार्थियों, ऐसी भगदड़ का हिस्सा बन कर मोक्ष पाने के लिए। परलोक सुधरेगा या नहीं, यह तो ईश्वर ही जाने, इहलोक ज़रूर बिगड़ जाएगा। मृतात्माओं को हम सभी की अश्रुपूरित श्रद्धांजलि 🙏🏼!

मुक्तक

                                                                                         मुक्तक            प्रभु से मेरी आरज़ू -                                                 रोटी मिले , कपड़ा मिले , छत मिले हर एक सिर को ,                                                माथे   पर...

बेटी (कहानी)

  “अरे राधिका, तुम अभी तक अपने घर नहीं गईं?” घर की बुज़ुर्ग महिला ने बरामदे में आ कर राधिका से पूछा। राधिका इस घर में झाड़ू-पौंछा व बर्तन मांजने का काम करती थी।  “जी माँजी, बस निकल ही रही हूँ। आज बर्तन कुछ ज़्यादा थे और सिर में दर्द भी हो रहा था, सो थोड़ी देर लग गई।” -राधिका ने अपने हाथ के आखिरी बर्तन को धो कर टोकरी में रखते हुए जवाब दिया।  “अरे, तो पहले क्यों नहीं बताया। मैं तुमसे कुछ ज़रूरी बर्तन ही मंजवा लेती। बाकी के बर्तन कल मंज जाते।” “कोई बात नहीं, अब तो काम हो ही गया है। जाती हूँ अब।”- राधिका खड़े हो कर अपने कपडे ठीक करते हुए बोली। अपने काम से राधिका ने इस परिवार के लोगों में अपनी अच्छी साख बना ली थी और बदले में उसे उनसे अच्छा बर्ताव मिल रहा था। इस घर में काम करने के अलावा वह प्राइमरी के कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। ट्यूशन पढ़ने बच्चे उसके घर आते थे और उनके आने का समय हो रहा था, अतः राधिका तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दी। चार माह की गर्भवती राधिका असीमपुर की घनी बस्ती के एक मकान में छोटे-छोटे दो कमरों में किराये पर रहती थी। मकान-मालकिन श्यामा देवी एक धर्मप्राण, नेक महिल...