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संदेश

पतनोन्मुख राजनीति

          हमारे देश भारत के प्रधान मंत्री, जो इस गौरवशाली राष्ट्र की जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं, के लिए अपशब्द कहने वाले लोग अच्छे खानदान के नहीं हो सकते। शासन की यह आश्चर्यजनक व विस्मयकारी उदारता है कि ऐसे लोगों के अपराधों को निरन्तर सहन किये जा रहा है। आज से दस वर्ष पहले के दिनों में ऐसी गन्दगी सत्ताधारियों का विरोध करने वाले किसी भी विपक्षी ने कभी नहीं की थी, क्योंकि उस समय के सत्ताधारी आज की तरह उदार नहीं थे। स्व. श्रीमती इन्दिरा गांधी, जिनका मैं भी प्रबल प्रशंसक रहा हूँ, की उनके राजनैतिक विरोधी स्व. अटल बिहारी बाजपेयी ने प्रशंसा करते हुए उन्हें 'देवी दुर्गा' कह कर सम्बोधित किया था। छिप गया है राजनीति का वह उज्ज्वल चेहरा आज के घिनौने राजनीतिज्ञों के अपवित्र अस्तित्व की ओट में। ऐसे निरंकुश नराधमों को देश की प्रबुद्ध जनता सिरे से अस्वीकार कर देगी, यह बात सम्भवतः वह एवं उनके पिछलग्गू नहीं जान रहे। जनता तो उन्हें दंडित करेगी ही, किन्तु उसके पहले कानून को भी अपनी आँख खोलनी चाहिए। हाँ, कानून को सत्य की परख करते समय यह नहीं देखना चाहिए कि अपराधी सत्तासीन दल का है या विपक्ष का। 

खिदमत (कहानी)

(1)    कुछ असामाजिक गतिविधियों के चलते सांप्रदायिक दंगा हो जाने के कारण शहर में दो दिन तक कर्फ्यू रहने के बाद पिछले तीन दिनों से धारा 144 लगी हुई थी। प्रशासन की तरफ से किसी भी खुराफ़ात या दंगे से निपटने के लिए माकूल व्यवस्था की गई थी। शहर में हर घंटे-दो घंटे में सायरन बजाती पुलिस और प्रशासन की जीपें व कारें सड़क पर दौड़ रही थीं।  रात के नौ बज रहे थे। मनसुख शर्मा की तबीयत आज कुछ ठीक नहीं थी। बिस्तर पर अधलेटे पड़े वह अपनी पत्नी मनोरमा के साथ टीवी पर आज की ख़बरें देख रहा था। बेटा उदित और बिटिया अलका दूसरे कमरे में बैठे कैरम खेल रहे थे। किसी के द्वारा ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया जाने पर मनसुख देखने के लिए बरामदे से हो कर दरवाज़े की तरफ जा रहां था कि मनोरमा ने टोका- "देखो, सावधान रहना। रात का समय है, कोई गुंडा-बदमाश ना हो।" मनसुख प्रत्युत्तर में कुछ भी नहीं बोला। उसने बाहर की लाइट ऑन की और दरवाज़े के पास कोने में रखी छोटी लाठी एक हाथ में थाम कर दरवाज़ा थोड़ा सा खोला। बाहर एक अधेड़ उम्र का आदमी खड़ा था।  मनसुख ने पूछा- "बोलो भाई, क्या चाहिए?" "भाई साहब, मैं तकलीफ में हूँ, मुझे भीतर आ

राधे-राधे (लघुकथा)

  वृद्ध दामोदर जी पिछले कई दिनों से एक जटिल रोग से ग्रस्त थे। लम्बी चिकित्सा के बाद थक-हार कर डॉक्टर्स ने एक दिन कह दिया कि अब उनका अधिक समय नहीं बचा है, तो घर वाले उन्हें घर ले आये थे। बड़ा बेटा भी नौकरी से छुट्टी ले कर कल घर आ गया था। वह पूरी तरह से होश में तो थे, किन्तु हालत कुछ ज़्यादा ख़राब हो रही थी। बेटे भगवती लाल ने आज सुबह फोन कर के निकट के कुछ सम्बन्धियों को बुला लिया था। जानकारी मिलने पर पड़ोस से भी तीन-चार लोग आ गए थे।  आगन्तुक मेहमानों में से कुछ तो दामोदर जी के कमरे में रखी एक अन्य चारपाई पर और कुछ कुर्सियों पर बैठे थे।  मोहल्ले में कई लोग ऐसे भी थे, जो सूचना मिलने के बावज़ूद नहीं आये थे। सूचना देने वाले सज्जन को एक महाशय ने तो खुल कर कह भी दिया- “भाई साहब, भगवान उनको जल्दी ठीक करें, पर हम तो उनके वहाँ नहीं जाने वाले।”  “अरे भैया जी, आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? सुना है, वह बेचारे एक-दो दिन के ही मेहमान हैं।” “आप को तो जुम्मे-जुम्मे चार दिन हुए है इस बस्ती में आये। यह दामोदर जी बच्चों-बूढ़ों सभी से चिड़चिड़ाते रहते थे। अब किसका मन करेगा ऐसे आदमी से मिलने जाने का?” “आखिर वज़ह क्या थी उ

अनमोल उपहार

आज तक समझ नहीं सका हूँ कि मात्र एक साल पहले जो प्राणी इस दुनिया में आया है, कभी रो कर, कभी चिल्ला कर, कभी हाथ-पैर पटक कर कैसे अपनी बात वह हम सब से मनवा लेता है? कैसे मान लेता है कि जिस घर में वह अवतरित हुआ है, उस पर उसका असीमित अधिकार है? अभी हाल ही उसका प्रथम जन्म-दिवस हम सब ने मनाया, तो यही प्रश्न मेरे मस्तिष्क में उभरे हैं। मैं बात कर रहा हूँ अपने एक वर्षीय दौहित्र (नाती) चि. अथर्व की। जब उसकी इच्छा होती है, मेरी बाँहों में आने को लपक पड़ता है और जब निकलने की इच्छा होती है तो लाख थामो उसे, दोनों हाथ ऊँचे कर इस तरह लटक जाता है कि सम्हालना मुश्किल पड़ जाता है। जब भी उसका मूड होता है, अपनी मम्मी या पापा, जिस किसी के भी पास वह हो, हाथ आगे बढ़ा कर मेरे पास आ जाता है और जब उसकी इच्छा नहीं होती, तो कितनी भी चिरौरी करूँ उसकी, चेहरा और हाथ दूसरी तरफ घुमा देता है... और मैं हूँ कि उसके द्वारा इस तरह बारम्बार की गई इंसल्ट को हर बार भूल जाता हूँ और उसे अपने सीने से लगाने को आतुर हो उठता हूँ।  जो भी शब्द वह बोलता है, मैंने विभिन्न शब्दकोशों में ढूंढने की कोशिश की, मगर निदान नहीं पा सका हूँ। बस, समझ

छलावा (कहानी)

  प्रवेश की सुगमता की दृष्टि से शहर का ‘गवर्नमेंट कॉलेज’ विद्यार्थियों की पहली पसंद था। समृद्ध पृष्ठभूमि की लड़की धर्मिष्ठा उस कॉलेज में फाइनल ईयर आर्ट्स में पढ़ती थी। पढाई में तो वह ठीक थी ही, सुन्दर भी बहुत थी। बोलती, तो लगता जैसे आवाज़ में मिश्री घुली हो। कॉलेज में सब के आकर्षण का केन्द्र थी वह। कई लड़के उसके दीवाने थे, किन्तु वह उन्हें घास भी नहीं डालती थी। मितभाषी लड़की मधुमिता उसकी विश्वसनीय सहेली थी जिससे वह अपनी हर बात साझा करती थी और सामान्यतः कॉलेज में उसके साथ ही रहती थी। मधुमिता के अलावा प्रायः चार-पाँच सहपाठियों के साथ ही वह मिलती-जुलती थी। इस तरह से बहुत ही छोटी मित्र-मंडली थी उसकी। उसके उन मित्र सहपाठियों में एक शर्मीला लड़का सोमेश भी था, जो पढ़ने में बहुत होशियार था। सुन्दर नहीं, तो बदसूरत भी नहीं कहा जा सकता था उसे। हाँ, एक सुगठित बदन व सौम्य स्वभाव का मालिक अवश्य था वह। कॉलेज में पढाई करते अच्छा वक्त गुज़र रहा था उन सब का।  एक दिन कॉलेज में क्लास ख़त्म होने के बाद सोमेश कॉलेज कम्पाउण्ड में पहुँचा ही था कि उसने अपने पीछे से आती एक सुरीली आवाज़ सुनी- “अकेले-अकेले कहाँ जा रहे हो,