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संदेश

डायरी के पन्नों से ..."प्रियतमे, तब अचानक..." (कविता)

     विरहाकुल हृदय प्रकृति के अंक में अपने प्रेम को तलाशता है, उसी से प्रश्न करता है और उसी से उत्तर पाता है।     मन के उद्गारों को अभिव्यक्ति दी है मेरी इस कविता की पंक्तियों ने।    कविता की प्रस्तुति से पहले इसकी रचना के समय-खण्ड को भी उल्लेखित करना चाहूँगा।    मेरे अध्ययन-काल में स्कूली शिक्षा के बाद का एक वर्ष महाराजा कॉलेज, जयपुर में अध्ययन करते हुए बीता। इस खूबसूरत वर्ष में मैं प्रथम वर्ष, विज्ञान का विद्यार्थी था। इसी वर्ष मैं कॉलेज में 'हिंदी साहित्य समाज' का सचिव मनोनीत किया गया था। यह प्रथम अवसर था जब मेरे व अध्यक्ष के सम्मिलित प्रयास से हमारे कॉलेज में अंतरमहाविद्यालयीय कविता-प्रतियोगिता का आयोजन किया जा सका था। मेरा यह पूरा वर्ष साहित्यिक गतिविधियों के प्रति समर्पित रहा था और यह भी कि मेरी कुछ रचनाओं ने इसी काल में जन्म लिया था। साहित्य-आराधना के साइड एफेक्ट के रूप में मेरा परीक्षा परिणाम 'अनुत्तीर्ण' घोषित हुआ।      मुझे पूर्णतः आभास हो गया था कि अध्ययन सम्बन्धी मेरा भविष्य मुझे यहाँ नहीं मिलने वाला है अतः मैंने  जयपुर छोड़कर रीजनल कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन, अजमेर मे

आत्मबोध (कहानी)

                                                                           घर से बाहर आ कर आयुषी सड़क पर पहुँची और एक ऑटो रिक्शा को आवाज़ दी। ऑटो के पास में आने पर वह आदर्श नगर चलने को कह उसमें बैठ गई। आदर्श नगर यहाँ से करीब अठारह कि.मी. दूर था। ऑटो चलने लगा। ऑटो में लगी सी.डी. से गाना आ रहा था- 'जाने वाले, हो सके तो लौट के आना...'   "उफ़्फ़, चेंज करो यह गाना।" -वह झुंझलाई व धीरे-से बुदबुदाई, 'नहीं आना मुझे लौट के।'   "इतना तो अच्छा गाना है मैडम!" -ऑटो वाले ने बिना मुँह फेरे आश्चर्य से कहा।    "देखो, चेंज नहीं कर सकते तो बन्द कर दो इसे, मुझे नहीं सुनना यह गाना।"   ऑटो वाले ने गाना बदल दिया। नया गाना आने लगा- 'आजा, तुझको पुकारे मेरा प्यार..।'     गाना सुन कर आयुषी का मन खिल उठा। 'हाँ, आ रही हूँ तुम्हारे पास', मन ही मन मुस्करा दी वह।     गाना चल रहा था और वह खो गई उसके जीवन के उस  घटनाक्रम के चक्र में, जिसने उसके जीवन में हलचल मचा दी थी।    निखिल आलोक का दोस्त था। आलोक के ऑफिस में जॉब लगने कारण लगभग चार माह पहले ही वह इस शहर मे

विकल्प (लघुकथा)

                                                                    अस्पताल के वॉर्ड में एक बैड पर लेटे वृद्ध राधे मोहन जी अपने पुत्र का इन्तज़ार कर रहे थे।  बारह पेशेंट्स के इस वॉर्ड में अभी केवल चार पेशेंट्स थे, जिनमें से एक की आज छुट्टी होने वाली थी। उन्हें संतोष था कि वॉर्ड में शांत वातावरण था और स्टाफ भी चाक-चौबंद किस्म का था। नर्स दो बार आ कर गई थी और कह रही थी कि अगर आधे घंटे में इंजेक्शन नहीं आया तो उनकी जान को खतरा हो सकता है। 'पता नहीं कब आएगा मानव? अब तक तो उसे आ जाना चाहिए था', वह चिन्तित हो रहे थे। उसी समय नर्स वापस आई और राधे मोहन जी को एक इंजेक्शन लगा कर बोली- "इंजेक्शन आने में देर रही है तो डॉक्टर ने अभी यह लाइफ सेवर इंजेक्शन लगाने के लिए बोला है। अब वह आप वाला इंजेक्शन एक घंटे के बाद लगेगा।      पाँच-सात मिनट में मानव आ गया। उसने डॉक्टर के पास जा कर बताया कि इंजेक्शन आ गया है। डॉक्टर ने कहा- "ज़रूरी होने से मैंने एक और इंजेक्शन फ़िलहाल लगवा दिया है। अब यह इंजेक्शन एक घंटे बाद ही लग सकेगा। आप इसे अभी अपने पास ही रखिये।"    मानव ने इंजेक्शन अपने पापा

फ़ैसला (लघुकथा)

                                                                 जज साहब अभी तक कोर्ट में नहीं आये थे। आज आखिरी तीन गवाहियाँ होनी थीं। आज से पहले वाली तारीख में दो गवाहियां हो चुकी थीं।     कोर्ट में बैठे वकील विजेन्द्र सिंह विशाखा को धीमी आवाज़ में समझा रहे थे- "विशाखा जी, बहुत सावधानी से बयान देने होंगे आपको। मैंने सुलेखा के पड़ोसी चैनसुख जी को कुछ पैसा दे कर उनके द्वारा पुलिस में दिया बयान बदलने के लिए राजी कर लिया है। अब केवल आपके बयान ही होंगे जो अभिजीत को निर्दोष साबित कर सकेंगे। सरकारी वकील बहुत होशियार है। वह हर पैंतरा इस्तेमाल करेगा, बस आपको मज़बूत रहना होगा।"    "हाँ जी, मैं सोच-समझ कर जवाब दूँगी।" -विशाखा ने जवाब दिया।    विशाखा के पास में ही उनके पति कमलेश व बेटी सोनाक्षी बैठे थे। कमलेश अपनी भावुक व पढ़ी-लिखी पत्नी के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त थे। अभिजीत की बहिन सोनाक्षी गुमसुम बैठी थी व कटघरे में खड़े अपने इकलौते भाई की रिहाई के लिए ईश्वर से मन ही मन प्रार्थना कर रही थी।    जज साहब आये और कोर्ट की कार्यवाही शुरू हुई।    पहले गवाह चैनसुख सरकारी वकील की जिरह क

जीवन-दर्शन (लघुकथा)

                                                           यात्रियों से लबालब भरी बस मंथर गति से अपने गन्तव्य की ओर बढ़ रही थी। कुछ दिन से निरन्तर हो रही वर्षा के कारण सड़क ऊबड़खाबड़ हो गई थी और कोई वैकल्पिक मार्ग नहीं होने से इसी मार्ग से यात्रा करना सब की विवशता थी। छोटी दूरी के यात्री बीच में अपना-अपना गाँव आने पर उतर जाते थे, किन्तु लम्बी दूरी के यात्री बस की धीमी गति से परेशान हो रहे थे। उन्हें भली-भाँति पता था कि इस रास्ते पर अधिक तेज़ गति से गाड़ी चलाना बहुत मुश्किल था, फिर भी किसी विशेष प्रयोजन से यात्रा कर रहे कुछ यात्री तथा कुछ उतावली प्रवृत्ति के लोग बार-बार कण्डक्टर व ड्राइवर से गाड़ी कुछ तेज़ चलाने के लिए आग्रह कर रहे थे। इन लोगों के बारम्बार कहने के उपरान्त भी ड्राइवर अपने ही ढंग से गाड़ी चला रहा था।     यात्री-मानसिकता होती ही ऐसी है कि हर कोई जैसे उड़ कर अपने इच्छित स्थान पर पहुँच जाना चाहता है। सम्भवतः ऐसी ही मनोवृत्ति के चलते ड्राइवर के पास केबिन में बैठे तीन यात्रियों में से एक व्यक्ति ने उद्विग्न हो कर ड्राइवर से पूछा- "ड्राइवर सा'ब! आप गाड़ी थोड़ी तेज़ क्यों नहीं चलाते

कड़वा सच (लघुकथा)

                               छुट्टी होने पर ऑफिस से घर लौटते हुए देखा, राह में किसी एक्सीडेंट के कारण भीड़ लगी हुई थी। बाइक एक ओर खड़ी कर मैं भी वहाँ का माज़रा देख रहा था कि अनायास ही पास में ही फुटपाथ पर पुराने कपड़े बेचने वाले दुकानदार के सामान पर नज़र पड़ गई। मुझे वहाँ पर अन्य कपड़ों के बीच ठीक वैसा ही स्वेटर नज़र आया जैसा मैंने सुबह घर की गली के बाहर बैठे भिखारी को दिया था। मैंने कपड़े बेचने वाले से पूछा तो उसने बताया कि एक भिखारी यह स्वेटर आज ही उसे बेच कर गया है।   'तो ऐसा काम करते हैं यह भिखारी! वह तो दस रुपये ही माँग रहा था, पर सर्दी से काँपते देख कर मैंने तो उसे अपना स्वेटर ही दे दिया था। ऐसे लोगों पर दया दिखाना फिज़ूल है।' -झुंझलाते हुए घर की ओर चल दिया।  गली के मोड़ पर वह भिखारी उसी स्थान पर बैठा मिला।    उसके पास जा कर मैं क्रोध में बरसा- "तुम लोगों पर क्या दया करना? मैंने सुबह तुम्हें स्वेटर दिया और आज ही तुम उसे बेच आये।"  "शरीर की ठण्ड तो सहन हो जाती है बाबूजी, मगर पेट की आग बर्दाश्त नहीं होती। भीख नहीं मिलने से मुझे दो दिन से खाना नसीब नहीं हुआ थ

'डबल पेनल्टी' (लघुकथा)

                                                        "बस दो सौ- तीन सौ रुपये का जुगाड़ और हो जाए तो हम लोग अपने गाँव के लिए निकल चलेंगे। पता नहीं, हालत कब तक सुधरेगी और कब काम-धंधे शुरू होंगे! कब तक लोगों से दान-दक्षिणा लेते रहेंगे! मेहनत से जो मिलता है, मुझे तो उसी में सुख मिलता है संतोषी!" -गणेश ने अपनी पत्नी से कहा।   "हाँ जी, सही बोला आपने। कारखाने में बित्ते भर पगार मिल रही थी तो भी मन राजी था कि मेहनत की खा रहे हैं। मेरा मन भी नहीं मानता जी कि कोई दया कर के कुछ हाथ में रख देवे और हम खुश हो लेवें। दसवीं के बाद आप थोड़ा और पढ़-लिख गए होते तो ये दिन नहीं देखने पड़ते। पर एक बात बताओ, अपने पास तीन सौ रुपये ही तो पड़े हैं। अगर दो-तीन सौ और मिल भी गये तो भी बस का किराया पूरा कैसे होगा। आधी टिकट तो अपनी बाँसुरी की भी लगे है अब।" -सातवीं पास संतोषी ने संदेह व्यक्त किया।  "अरे, तो थोड़ा बस में और थोड़ा पैदल भी चल लेंगे। घर तो पहुँचना ही है, यहाँ कब तक पड़े रहेंगे?"    माता-पिता की बातों से बेखबर आठ वर्षीया बाँसुरी वहाँ पड़ी किसी पुरानी मासिक पत्रिका