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'बेवकूफ (?) जेबकतरा' (कहानी)

    वह एक जेबकतरा था, अपने फ़न में माहिर। अपने उस्ताद अब्दुल्ला से उसने इस करतब में महारत हासिल की थी। अपने होश सम्हालने से पिछले साल तक वह अब्दुल्ला की शागिर्दी में था। उसके अलावा तीन और लड़के थे जो अब्दुल्ला के लिए काम करते थे। सभी उसे 'बावरा' नाम से पुकारते थे। यह नाम उसे अब्दुल्ला ने ही दिया था। इस नामकरण के पीछे की कहानी बावरा को भी मालूम नहीं थी। उसका जन्म कब और कहाँ हुआ था, न उसे मालूम था, न ही अब्दुल्ला को। अब्दुल्ला ने बताया था कि उसे किसी मेले की भीड़ में जब वह लगभग ढ़ाई-तीन साल का था, रोता हुआ मिला था। बस, वह उसे उठा लाया और पाल-पोस कर बड़ा किया।      जब बावरा सात साल का हुआ तो अब्दुल्ला ने उसे जेब काटने का हुनर सिखाना शुरू किया। दो और बच्चे जो उम्र में बावरा से दो-तीन साल  बड़े थे, पहले से ही अब्दुल्ला के साथ यह काम करते थे और अब तक इस कला में माहिर हो चुके थे। बावरा का दिमाग बहुत तेज चलता था और इसीलिए एक वर्ष के भीतर ही वह अपने दोनों साथियों से अधिक पारंगत हो गया था इस खेल में। वह बस्ती के दूसरे बच्चों को स्कूल जाते देखता तो उसे भी इच्छा होती कि वह भी पढाई करने स्कूल जा

'तुम्हारे अधरों की मदिरा'

     ह्रदय में कुछ भाव उमड़े, भावों ने शब्दों का रूप लिया और अन्ततः इस कविता ने जन्म लिया। प्रस्तुत कर रहा हूँ अपने रस-मर्मज्ञ, स्नेही पाठकों के लिए... ! तुम आओ तो ...                           ठुकरा दे गर कोई अपना, तुम किञ्चित ना घबराना, पथ भूल न जाना मेरा तुम, मेरे पास चली आना, बस जाना मेरी आँखों में, पलकों की सेज बिछा दूँगा, तुम आओ तो! दुनिया रोके मेरी राहें, चाहे उल्टी घड़ियाँ हों, जंजीर पड़ी हो पांवों में, हाथों में हथकड़ियां हों, सारे बंधन तोडूँगा मैं, बाधा हर एक मिटा दूँगा, तुम आओ तो! प्यासी हो धरती कितनी भी, छाती उसकी तपती हो, आसमान से शोले बन कर, चाहे आग बरसती हो, मौसम हो पतझड़ का तो भी, मैं दिल को चमन बना दूँगा, तुम आओ तो! वसन कभी जो काटें तन को, हृदय कभी जो घबराये, आभूषण भी बोझ लगें जब, मन उनसे भी कतराए, मैं सूरज, चांद, सितारों से, तुम्हारे अंग सजा दूँगा, तुम आओ तो! जब तन में, मन में हो भटकन, सखियों से मन ना बहले, जब डगमग पाँव लगें होने, यौवन तुमसे न सम्हले, तुम्हारे अधरों की मदिरा, मैं अपने होठ लगा लूँगा, तुम आओ तो!                   *********

कश्मीरियत सुरक्षित रहे - 'एक चिन्तन'

                                                 हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा गृहमंत्री अमित शाह ने जम्मू-कश्मीर से सम्बंधित धारा 370 को समाप्त/अप्रभावी किये जाने के विषय पर साहसिक निर्णय ले ही लिया। दिनांक 5 अगस्त, 2019 को  देश की जनता की चिरप्रतीक्षित साध पूरी हुई। कुछ मंद-बुद्धि व भ्रमित या यूँ कहें कि निहित स्वार्थ से ग्रसित व्यक्तियों के अलावा भारत देश के हर शहर, हर गाँव में समस्त जन-समुदाय ख़ुशी से चहक रहा था, सब का चेहरा गर्व और सन्तोष की आभा से दसमक रहा था। अन्ततः पुरानी, परिस्थितिजन्य भूल का परिमार्जन हो गया व जम्मू-कश्मीर को धारा 370 के दूषित बन्धन से मुक्त कर उससे लद्दाख को पृथक किया गया तथा दोनों को केन्द्र-शासित राज्य का दर्जा देने का प्रस्ताव रखा गया जो राज्य-सभा में उसी दिन पारित हो गया। कल लोक-सभा में भी इसे बहस के बाद पारित कर दिया गया तथा राष्ट्रपति जी के हस्ताक्षर के बाद वैधानिक रूप से मान्य हो गया है।      धारा 370 के प्रभावी रहते देश के जम्मू-कश्मीर राज्य को कुछ ऐसी शक्तियाँ मिली हुई थीं कि भारत का राज्य होते हुए भी भारतीय संविधान के कई प्रावधान वहाँ अ

"तुझ बिन..." (ग़ज़ल)

                                                                                                                                                                        ग़ज़ल                                                   कैसे कह दूँ, तुझे चाहा नहीं था,  धोखा खुद को अब, दिया नहीं जाता।   बढ़ गया है तुझसे फ़ासला इतना, कि मुझसे अब तय, किया नहीं जाता।  ज़माने के पहरे हैं, सांसों पे मेरी,  कदम कोई अब, लिया नहीं जाता।  बन चुका है छलनी, दिल ये मेरा, ज़ख्म अब मुझसे, सीया नहीं जाता।  समन्दर तो मिलते हैं हर कदम पे, पर पानी उनका, पीया नहीं जाता।  हर कूचे, हर गुंचे में, नूर है तेरा, किसी और पे अब, हिया नहीं जाता। जीना तो मैंने चाहा था लेकिन, क्या करूँ तुझ बिन,जीया नहीं जाता।  *******              

'अनजाने रिश्ते' (कहानी)

   अघ्याय (1)  सामने अथाह सागर लहरा रहा था। किनारे पर पड़े एक शिलाखंड पर बैठा रघु समुद्र में रह-रह कर उठ रही दूर से आती लहरों को निर्निमेष निहार रहा था जो एक के बाद एक किनारे की ओर आकर फिर-फिर लौट जाती थीं। कभी-कभार कोई लहर उसके परिधान को छू लेती तो वह कुछ और पीछे की ओर खिसक जाता। लहरों के इस उद्देश्यविहीन आवागमन में उसकी दृष्टि उलझी हुई थी जैसे कहीं कुछ खोज रही हो और उसके दायें हाथ की तर्जनी अनचाहे ही रेत में कुछ अबूझ रेखांकन कर रही थी।   अस्तांचल में ओझल होने जा रहे सूरज से रक्ताभ हो रहे गगन-पटल से बिखर रही लालिमा सुदूर जल-राशि को स्वर्णिम आभा दे रही थी। रघु ने सहसा ऊपर की ओर देखा, बादलों की एक क्षीण उधड़ी-उधडी सी चादर आकाश को ढ़क लेने का प्रयास कर रही थी।   साँझ की निस्तब्धता को भेदता सागर की उन्मत्त लहरों का कोलाहल रघु के मन को भी अशांत करने लगा। अनायास ही वह अतीत की गहराइयों में डूबने-उतराने लगा। पिछले चालीस वर्षों के उसके जीवन-काल के काले-उजले पृष्ठ तीव्र गति से पलटते चले गए।........ मात्र छः वर्ष की उम्र रही होगी तब रघु की, जब उसक