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मेरे शहर के मवेशी

शहर की यातायात व्यवस्था को दुरुस्त रख रहे हैं मेरे शहर के मवेशी। उन छोटे-छोटे चौराहों-तिराहों पर जहाँ यातायात-कर्मी नहीं होते हैं, मवेशी बीचों-बीच बैठकर दाएं-बाएं का यातायात व्यवस्थित रखते हैं और कहीं-कहीं तो सड़क के बीच कतार में खड़े हो कर या बैठ कर बाकायदा डिवाइडर भी बनाये रखते हैं। सड़कों पर बेतहाशा दौड़ रहे वाहनों की तीव्र गति को सीमित करने के लिए यदा-कदा यह मवेशी सड़कों पर इधर-उधर टहलते भी रहते हैं। प्रशासनिक अधिकारी भी सन्तुष्ट हैं संभवतः यही सोच कर कि यातायात-व्यवस्था की देख-रेख में इतनी मुस्तैदी तो यातायात-कर्मी भी नहीं दिखा पाते हैं। तो दोस्तों, आओ और देखो हमारे शहर की इस सुव्यवस्था को... 'दो दिन तो गुज़ारो हमारे शहर में ***********

मज़ाक बना रखा है...

    सरकार में मंत्री और ऐसे ही अन्य पद ग्रहण करते समय तथा अदालतों में फरयादी और मुल्जिम द्वारा ईश्वर के नाम पर ली जाने वाली शपथ की उपयोगिता मेरी समझ में तो नहीं आती। दोनों ही मामलों में अधिकांश लोगों के द्वारा झूठी और केवल झूठी शपथ ली जाती है और ऐसा झूठ बाद में प्रमाणित हो जाने पर भी झूठ बोलने के लिए कोई सजा नहीं दी जाती। ऐसी शपथ हास्यास्पद ही नहीं, पाप की श्रेणी में आती है।    बेहतर तो यह है कि शपथ में तो कम से कम सच्चाई रहे और इसके लिए शपथ का प्रारूप निम्नानुसार होना चाहिए - " मैं ईश्वर के नाम पर शपथ लेता / लेती हूँ कि मैं जो कुछ कहूंगा / कहूँगी अथवा करूँगा / करुँगी वह केवल और केवल मेरे और मेरे परिवार के हित के लिये होगा ( देश, समाज और मानवता जायें गुइयाँ के खेत में )।"

आखिर कब तक...?

 प्रिय संपादक जी,   हर बात को इतनी गंभीरता से क्यों लेते हैं आप? जब आप जानते हैं कि हमारे यहाँ सांप निकलने के बाद लाठी पीटी जाती है तो मान भी लीजिये न कि ऐसा ही होता आया है और ऐसा ही होता रहेगा। आप भी नेताओं की तरह से अपनी चमड़ी मोटी क्यों नहीं कर लेते?  गृह मंत्रालय यदि दावा करता रहा है कि बिना इज़ाज़त परिन्दा भी पर नहीं मार सकता तो उसका दावा ग़लत कहाँ है? परिन्दों ने तो वाकई कोई आतंकी वारदात नहीं की, वारदात करने वाले तो वह नामाकूल विदेशी इन्सान थे। अलावा इसके यदि गृहमंत्री जी ने यह कहा कि अगर पडोसी देश के वहां से एक भी गोली चली तो हम अपनी गोलियाँ नहीं गिनेंगे, तो इसमें भी ग़लत क्या कहा है? अरे भाई, हम अपनी तरफ से आगे बढ़कर गोली चलाएंगे तो ही तो गिनेंगे न! हमें तो दुनिया में अपने -आप को अच्छा साबित करना है सो यही कोशिश करे जा रहे हैं...।  रहा सवाल शहीदों का तो हमारे यहाँ शहीद होने के लिए जवानों की क्या कमी है, हमारी जनसंख्या के हिसाब से तो चिंता की ज़रुरत ही नहीं है। हमारे एक-एक नेता के लुभावने भाषणों से हजारों जवान अपने प्राण न्यौछावर करने आगे बढे चले आते हैं। बाद में उनके निर्जीव शरीरों

क्या अपराध है इनका ?

   अभी हाल की खबर है कि चिली के एक चिड़ियाघर में एक जाहिल व्यक्ति आत्महत्या के इरादे से शेरों के बाड़े में कूद पड़ा। आसपास के लोगों ने देखा और शोर मच गया। आनन-फानन में रक्षक-दल वहां आया और उस व्यक्ति को बचाने का अन्य कोई चारा न देख दो शेरों को गोली मार दी। एक निकम्मे इन्सान को बचाया गया निरपराध जानवरों की जान की कीमत पर।      एक अन्य घटना में अमेरिका के सिनसिनाटी शहर के एक चिड़ियाघर में एक चार वर्षीय बच्चा उत्सुकतावश सुरक्षा-बाड़ से सप्रयास निकलकर गोरिल्ला के बाड़े में पानी में गिर गया। वहां मौज़ूद नर गोरिल्ला 'हराम्बे' बच्चे को पकड़ कर पानी में खेलने लगा। यद्यपि गोरिल्ला का बच्चे पर आक्रमण करने का कोई इरादा नज़र नहीं आ रहा था, तथापि खतरे की सम्भावना मानकर गोरिल्ला को गोली मार दी गई।       यहाँ 1986 की ऐसी ही एक घटना का विवरण देना असामयिक नहीं होगा जिसमें अपने बाड़े में गिरे एक बच्चे को एक गोरिल्ला ने संरक्षण देकर सुरक्षित रखा था तथा उसके बाद अभिभावकों व जन्तुशाला-कर्मियों ने बच्चे को सुरक्षित बाहर निकाल लिया था। स्पष्टतः गोरिल्ला शान्त स्वभाव का प्राणी है बशर्ते कि उसे उकसाय

नैनीताल हाईकोर्ट का अभूतपूर्व निर्णय...

नैनीताल हाईकोर्ट का अभूतपूर्व निर्णय...अभिवादन/सलाम/सैल्यूट!.... कहीं ख़ुशी, कहीं गम! देखना यह है कि किसकी ख़ुशी की उम्र लम्बी होगी। फिलहाल इस निर्णय को कोई भी अपनी हार या जीत मानता है तो वह उसकी नादानी है।...पर जीत तो अवश्य हुई है, जीत हुई है न्यायपालिका की, जीता है न्याय! प्रजातान्त्रिक ढंग से चुनी हुई राज्य-सरकारों को सत्ता की भूख के चलते सत्ता के अहंकार ने पहले भी कई बार धराशायी किया है। इस कुटिल संस्कृति की जनक यही पार्टी 'कॉंग्रेस' है जो अब अपने ही पनपाये भस्मासुर के द्वारा स्वयं जलने चली थी। अब उत्तराखण्ड में शासन किसका होगा- यह महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण वह है जो अब तक हुआ है। काश! पहले ही किसी न्यायपालिका ने अपना यह रौद्र रूप दिखा दिया होता तो प्रजातन्त्र के साथ यों खिलवाड़ तो नहीं होता रहता। देर-आयद, दुरुस्त आयद! अन्ततः न्यायपालिका रूपी हनुमान ने अपनी सुषुप्त शक्ति को जगा लिया है।

लो... निकल गया वह

   लो... निकल गया वह      थानेदार की गश्त के दौरान एक चोर ने जमकर चोरी की। थानेदार का तबादला हो गया और नया थानेदार आया। जनता, मीडिया, आदि ने नए थानेदार को सूचना दी। नया थानेदार मुँह फेरकर खड़ा हो गया और चोर भाग गया। लोग तो लोग हैं, पानी पी-पी कर अगले-पिछले दोनों थानेदारों को गालियां दे रहे हैं।     हमें जहाँ तक जानकारी है चोर न तो तैरना-उड़ना जानता था (उड़ाता ज़रूर था) और न ही मिस्टर इण्डिया था, तो भाई, ज़रूर जमीन में सुरंग खोदकर भागा होगा वह। तो ..... तो भाइयों! अब तो लकीर पीटते रहिये, सांप तो निकल चुका है।    ...... श्श्श्श! ...  सुना है चोर की दोनों थानेदारों के साथ अच्छी घुटती थी।    छोड़िये न, अभी तो ऐसे कई चोर मौज़ूद हैं ..... उन्हें हम भी देख रहे हैं और थानेदार भी। 

आरक्षण रूपी दानव

 आरक्षण-व्यवस्था को संविधान में स्थान मिलने का गुणगान लोग, विशेषकर सत्तालोलुप राजनीतिज्ञ भले ही करते हों, मैं तो इसे बहुत बड़ी ऐतिहासिक भूल मानता हूँ। उद्देश्य कितना ही अच्छा क्यों न रहा हो, तब की यह नादान भूल आज देश के लिए सबसे बड़ा अभिशाप बन गई है। इस व्यवस्था का लाभ शुरुआत में अजा-अजजा वर्गों के लोगों को तो मिल ही रहा था, धीरे-धीरे अन्य वर्गों की जीभ भी लपलपाने लगी इस शहद के छत्ते को पाने के लिए। सत्तासीन सरकारों की सीमाओं और जनता की सुविधा-असुविधा के विवेक को अनदेखा कर समय-समय पर भारतीय समाज के कुछ अन्य वर्गों ने भी अपने-अपने लिए आरक्षण की न केवल मांग की, अपितु इसे प्राप्त करने के लिए किये गए आन्दोलन को जन-बल के आधार पर अराजक और हिंसक रूप देने में भी कोई संकोच नहीं किया। आरक्षण के लिए गुर्जरों के द्वारा हिंसक आन्दोलन किये जाने के बाद पटेलों द्वारा और अब जाटों के द्वारा यह पुनीत कार्य किया गया। हद तो यह हो रही है कि कर्फ्यू के दौरान आधी रात को लोगों के घरों में घुस कर महिलाओं के साथ छेड़छाड़ भी इनके आंदोलन का हिस्सा बन गई थी। पशुता की पराकाष्ठा तो यहाँ तक हो गई कि आन्दोलनकारियों में