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संवेदना

   कदम-कदम पर जब हम अपने चारों ओर एक-दूसरे को लूटने-खसोटने की प्रवृत्ति देख रहे हैं, तो ऐसे में इस तरह के दृष्टान्त गर्मी की कड़ी धूप में आकाश में अचानक छा गये घनेरे बादल से मिलने वाले सुकून का अहसास कराते हैं। मैं चाहूँगा कि पाठक मेरा मंतव्य समझने के लिए सन्दर्भ के रूप में अख़बार से मेरे द्वारा लिए संलग्न चित्र में उपलब्ध तथ्य का अवलोकन करें। एक ओर वह इन्सान है, जिसने एक व्यक्ति के देहान्त के बाद उससे अस्सी हज़ार रुपये में गिरवी लिये मकान पर अपना अधिकार कर उसकी पत्नी सोनिया वाघेला को परिवार सहित सड़क पर  बेसहारा भटकने के लिए छोड़ दिया और दूसरी ओर वह दिनेश भाई, जिन्होंने उस पीड़ित महिला की स्थिति जान कर अपनी संस्था एवं वाघेला-समाज के लोगों की मदद से सेवाभावी लोगों से चन्दा एकत्र कर आवश्यक धन जुटाया और उस परिवार का  घर वापस दिलवाया। धन्य है यह महात्मा, जिसने अपने नेतृत्व में अन्य सहयोगियों को भी मदद के लिए उत्साहित कर यह पुण्य कार्य किया।  सोनिया बेन घरबदर होने के बाद छः माह से फुटपाथ पर रह कर कबाड़ बीन कर अपने चार बच्चों के साथ गुज़र-बसर कर रही थी। इस लम्बी अवधि में कई और लोग भी उस महिला के हा

मुरझाये फूल (कहानी)

राजकीय बाल गृह में अफरातफरी मच गई थी। बाल गृह की महिला सहायिका ने बाल कल्याण अधिकारी के आने की सूचना चपरासी से मिलते ही अधीक्षक-कक्ष में जा कर अधीक्षक को बताया। अधीक्षक ने कुछ कागज़ात इधर-उधर छिपाये और शीघ्रता से अधिकारी जी की अगवानी हेतु कक्ष से बाहर निकले।  अधिकारी के समक्ष झुक कर नमस्कार करते हुए अधीक्षक ने स्वागत किया- "पधारिये, स्वागत है श्रीमान!"  "धन्यवाद! मैं, बृज गोपाल, बाल कल्याण अधिकारी! मेरी यह नई पोस्टिंग है। कैसा चल रहा है काम-काज?" "बस सर, अच्छा ही चल रहा है आपकी कृपा से। आइये, ऑफिस में पधारिये।" -चेहरे पर स्निग्ध मुस्कराहट ला कर अधीक्षक बोले।  अधीक्षक के साथ कार्यालय में आ कर बृज गोपाल ने चारों ओर नज़र घुमा कर देखा। दो-तीन मिनट की औपचारिक बातचीत के बाद उन्होंने बाल गृह से सम्बन्धित कुछ फाइल्स मंगवा कर देखीं। ऑफिस-रिकॉर्ड के अनुसार अधीक्षक के अलावा बाल गृह में एक महिला व एक कर्मचारी सहायक के रूप में कार्य करते थे। एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी था, जो चौकीदारी का दायित्व भी निभाता था। बाल गृह में कुल 28 बच्चे थे। अधीक्षक-कक्ष के अलावा बारह कमरे और

'गीता-ज्ञान' (लघुकथा)

                                                तीन दिन पहले की ही बात है, जब मैंने गुरुवार को सुबह-सुबह चाय पीते वक्त अख़बार में चन्द्र  प्रकाश के बेटे अवधेश का चयन राजस्थान की रणजी टीम में हो जाने की खबर पढ़ी थी। मुझे यह तो पता था कि अवधेश क्रिकेट का बहुत अच्छा खिलाड़ी है, किन्तु प्रतिस्पर्धा व वर्तमान सिफारिशी दौर में बिना लाग-लपेट वाले किसी बन्दे का चयन हो जाना इतना सहज भी नहीं होता। चंद्र प्रकाश एक निहायत सज्जन किस्म का व्यक्ति है और उसका बेटा अवधेश भी खेलने के अलावा क्रिकेट-राजनीति से कोई वास्ता नहीं रखता था, अत; उसका चयन मेरे लिए आश्चर्य का कारण बन रहा था। बहरहाल उसका चयन हुआ है, यह तो सच था ही, सो मैंने चाय के बाद फोन कर के बाप-बेटा दोनों को बधाई दे दी थी।    फोन पर तो उन्हें बधाई दे दी थी, किन्तु मैं चन्दर (चंद्र प्रकाश को मैं 'चन्दर' कहता हूँ😊) के चेहरे पर ख़ुशी की रेखाएँ देखने को आतुर था। ख़ुशी में जब वह मुस्कराता है, तो बहुत अच्छा लगता है। सोचा- 'आज चन्दर के घर जा कर एक बार और बधाई दे आता हूँ, कई दिनों से मिलना नहीं हुआ है तो मिलना भी हो जाएगा और गप-शप भी हो जाएगी।

फ़ैसला (लघुकथा)

                                                                 जज साहब अभी तक कोर्ट में नहीं आये थे। आज आखिरी तीन गवाहियाँ होनी थीं। आज से पहले वाली तारीख में दो गवाहियां हो चुकी थीं।     कोर्ट में बैठे वकील विजेन्द्र सिंह विशाखा को धीमी आवाज़ में समझा रहे थे- "विशाखा जी, बहुत सावधानी से बयान देने होंगे आपको। मैंने सुलेखा के पड़ोसी चैनसुख जी को कुछ पैसा दे कर उनके द्वारा पुलिस में दिया बयान बदलने के लिए राजी कर लिया है। अब केवल आपके बयान ही होंगे जो अभिजीत को निर्दोष साबित कर सकेंगे। सरकारी वकील बहुत होशियार है। वह हर पैंतरा इस्तेमाल करेगा, बस आपको मज़बूत रहना होगा।"    "हाँ जी, मैं सोच-समझ कर जवाब दूँगी।" -विशाखा ने जवाब दिया।    विशाखा के पास में ही उनके पति कमलेश व बेटी सोनाक्षी बैठे थे। कमलेश अपनी भावुक व पढ़ी-लिखी पत्नी के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त थे। अभिजीत की बहिन सोनाक्षी गुमसुम बैठी थी व कटघरे में खड़े अपने इकलौते भाई की रिहाई के लिए ईश्वर से मन ही मन प्रार्थना कर रही थी।    जज साहब आये और कोर्ट की कार्यवाही शुरू हुई।    पहले गवाह चैनसुख सरकारी वकील की जिरह क

अपहरण (कहानी)

                                            एक नवयौवना युवती की कोमल भावनाओं से सजी दास्तान:-                 करिश्मा को जब होश आया तो वह एक अनजान कमरे में एक पलंग पर लेटी हुई थी और दो अपरिचित व्यक्ति उसके सामने एक दीवान पर बैठे हुए थे। वह हड़बड़ा कर उठ बैठी और अपने पहने हुए कपड़ों की ओर देखने लगी। कपड़े वही थे जो वह घर से पहन कर निकली थी। उसका पर्स उसके पास ही पड़ा हुआ था।    उसने सामने बैठे व्यक्तियों की तरफ देख कर क्रोधित व आशंकित स्वर में पूछा- "मैं कहाँ हूँ?... तुम लोग कौन हो और मुझे यहाँ क्यों ले कर आये हो? तुम लोगों ने मेरे साथ कुछ गलत तो नहीं किया?"   "सब बताएँगे तुम्हें। हमने कुछ भी गलत नहीं किया है। चिंता मत करो, तुम मेरी बेटी के सामान हो।" -एक व्यक्ति ने जो कुछ अधिक उम्र का था, जवाब दिया।   "तो फिर यहाँ क्यों लाये हो मुझे? यह कौन-सी जगह है?" -करिश्मा का क्रोध कुछ कम हुआ। उसने अपनी रिस्टवॉच देखी, रविवार ही था और रात के आठ बज रहे थे। उसे याद आया, शाम पाँच बजे इवनिंग वॉक के लिए वह अपनी सहेली को साथ लेने उसके घर जा रही थी कि सुनसान राह