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मोहब्बत की दुकान (व्यंग्य लघुकथा)

                                                    मोहब्बत की दुकान        

                                          

बाज़ार में टहलकदमी करते हुए एक दुकान के पास पहुँचते ही मेरे पाँव रुक गए। अजीब-सा नाम था उस दुकान का- 'मोहब्बत की दुकान'। 

मैं यह जानने को उत्सुक हुआ कि आखिर इस दुकानदार द्वारा क्या माल बेचा जाता है। नाम देख कर काम जानने की इच्छा होना स्वाभाविक भी था ही। दुकानदार के चेहरे पर मुस्कान थी। असली थी या नकली, यह भला मेरे जैसा सीधा-सादा आदमी कैसे जान सकता था? पास जा कर मैंने पूछा- "भैया जी, क्या बेचते हो?"

दुकान से बाहर आ कर मुस्कुराते हुए उसने जवाब दिया- "दुकान के बोर्ड पर जो नाम लिखा है, तुमने पढ़ा नहीं क्या?"

"पढ़ा है भाई।"

"क्या लिखा है उस पर?"

"मोहब्बत की दुकान।"

"मिठाई की दुकान पर जाते हो तो वहाँ क्या मिलता है?"

"मिठाई! और क्या मिलेगा?"

"वही तो! तो भाई साहब, इसी तरह हमारे यहाँ मोहब्बत मिलती है।"

"वो तो ठीक है, लेकिन यह मोहब्बत भी कोई बेचने की चीज़ है?"

"नहीं समझोगे तुम। अब कैसे समझाऊँ तुमको? नफ़रत के बाज़ार में घूमते-घूमते तुम मोहब्बत ही भूल गए हो।"

"नफ़रत का बाज़ार? वह बाज़ार कहाँ है?"

"यही तो बात है। अरे भाई, जिस बाज़ार में तुम अभी घूम रहे हो, वही तो नफ़रत का बाज़ार है। अब इस बाज़ार में घूमोगे-फिरोगे तो मोहब्बत को कैसे जानोगे?" -दुकानदार अपने चेहरे पर मायूसी लाते हुए बोला। 

"लेकिन अगर इस बाज़ार में नहीं आता, तो आपकी यह मोहब्बत की दुकान कैसे देख पाता?" -प्रत्युत्तर में हँसते हुए मैंने अपना प्रश्न दागा। 

"बहुत आसान है। फिर कभी आओ तो ध्यान रखना। तुम्हें बाज़ार में प्रवेश के पहले विभिन्न पोशाकों में हमारे कुछ प्रतिनिधि मिल जाएँगे। हो सकता है, वह आपस में लड़ते-झगड़ते नज़र आएँ, मगर इस पर ध्यान मत देना, हम सब ‘एक’ हैं। उनसे मिलोगे, तो उनमें से कोई एक तुम्हें सीधा यहाँ ले आएगा। बस रास्ते में नाक की सीध में उसके साथ चले आना। बाज़ार में अगर किसी और व्यक्ति से मिले तो वह तुम्हारे दिल में नफ़रत भर देगा। यहाँ आजू-बाजू नफ़रत के सौदागर बहुत हैं।"

"मैं आपके प्रतिनिधि को पहचानूँगा कैसे?"

"उसके शर्ट पर लगे बैज पर M. K. D. लिखा होगा।"

"M. K. D. यानी? -उसकी बेतुकी बातों से मेरा सिर घूम रहा था। 

"M. K. D. यानी 'मोहब्बत की दुकान' भाई साहब!" -मुस्कुराते हुए उसने ऐसे समझाया, जैसे गीता-महात्म्य समझा रहा हो। 

"एक बात बताओ भैया जी, आपने अपनी यह दुकान इस नफ़रत के बाज़ार में क्यों लगाई है? क्यों नहीं आप बाज़ार से कहीं दूर जा कर लगाते अपनी 'मोहब्बत की दुकान'।"

"नहीं समझोगे तुम। अरे भाई, कुछ साल पहले इस बाज़ार पर हमारा अधिकार था, लेकिन अब गैरों ने इस पर कब्जा कर लिया है।"

"ओह, तो यह 'नफ़रत का बाज़ार' पहले आपका था?" -मैंने व्यंग्यात्मक स्वर में पूछा। 

"तोबा-तोबा! कैसी बात कह दी तुमने? उस समय तो यह बाज़ार 'मोहब्बत का बाज़ार' हुआ करता था।"

"तो आपका वह बाज़ार अब एक दुकान में सिमट कर रह गया है।"

"हाँ भाई! यही तो तकलीफ़ की बात है। परमात्मा है कि हमारी सुन ही नहीं रहा।" -उसके चेहरे पर पीड़ा का समन्दर उमड़ आया था।

"एक मिनट भैया जी! पहले आपने 'तोबा-तोबा' बोला था और अब 'परमात्मा'। यह अलग-अलग जुबान कैसे?"

“तुम नहीं समझे भाई! मैं धर्मनिरपेक्ष हूँ।"

फिर कुछ रुक कर अपनी दायीं आँख दबा कर रहस्यमयी आवाज़ में वह बोला- "उम्मीद बहुत कम है, पर हम कोशिश कर रहे हैं कि इस बाज़ार को वापस हथिया लें।" 

"लेकिन यह तो बताओ, आप लोगों को मोहब्बत कैसे बेचते हो?" -मैंने उसकी बात को तवज्ज़ो नहीं दे कर पूछा। 

"बेचते नहीं हैं, बाँटते हैं। यह थोड़ी पेचीदा बात है,तुम नहीं समझोगे।"

मुझे वाकई में उसकी कोई बात समझ में नहीं आई थी। 

"फिर मिलते हैं।" -कहते हुए मैं वहाँ से चलने को हुआ, जबकि दुबारा उससे मिलने की कोई तमन्ना नहीं थी।  

"ठीक है जी, आते रहना।" -कहते हुए उसने एक फ्लाइंग किस मार दिया। 

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टिप्पणियाँ

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" सोमवार 14 अगस्त 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !  

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    उत्तर
    1. मेरी रचना 'मोहब्बत की दुकान' को इस सुन्दर पटल का हिस्सा बनाने के लिए आपका बहुत आभार भाई दिग्विजय जी!

      हटाएं

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