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दानवीर (कहानी)

                                                                                                          


पहाड़ियों के बीच बसे एक छोटे से शहर में राजा राम नाम का एक भिखारी रहता था। नाम के अनुरूप ही वह दिल से भी राजा था। उसके करीबी लोग उसे ‘राजू’ कह कर पुकारते थे। अपनी बदहाली के बावज़ूद, राजू को हमेशा जरूरतमंद लोगों की मदद करने में खुशी मिलती थी। हर दिन, वह हलचल भरे बाज़ार के पास बैठता था। पैबन्द वाले पायजामे पर पहनी हुई जगह-जगह से फटी कमीज़ और थकी हुई आँखें उसकी गरीबी को बयां करती थीं।

एक शाम, जब सूरज ढ़लने को था, राजू की नज़र सड़क के दूसरे किनारे खड़ी एक किशोरी लड़की पर पड़ी। कागज़ का एक मुड़ा हुआ टुकड़ा हाथ में लिये वह हताश दृष्टि से आते-जाते लोगों को देखते हुए कुछ कह रही थी। उसकी आँखों से निरंतर आँसू बह रहे थे। राजू ने उसकी परेशानी देखी और धीरे से उसके पास आया।

"माफ़ करना बेटी”, उसने धीरे से कहा- "तुम किस बात से इतनी दुखी हो रही हो?"

अपनी परेशानी बताते हुए लड़की की आवाज कांप उठी- “ मेरे पिता बहुत बीमार हैं और भूखे हैं। डॉक्टर ने दवा लिखी है, लेकिन मेरे पास उनकी दवा ख़रीदने के लिए भी पैसे नहीं हैं। मैं मदद की तलाश कर रही हूँ, लेकिन किसी को मेरी बात सुनने की फुर्सत नहीं है।"

“चिंता मत करो बेटी! क्या घर में और कोई नहीं है, जो तुम्हें आना पड़ा है। तुम्हारा नाम क्या है?”

“मैं सीमा हूँ। घर में मेरे अलावा और कोई नहीं है जो मेरे पिता का ख़याल रख सके। मेरी माँ थी, वह भी दो साल पहले हमें छोड़ कर चली गई।”

उसकी बातें सुन कर राजू का दिल पसीज गया। वह अपने स्थान पर गया और बिना आगा-पीछा सोचे, सिक्कों के अपने छोटे से डिब्बे को ले कर वापस आया और सभी सिक्के निकाल कर सीमा को सौंप दिये- "यह लो प्यारी बच्ची! यह ज़्यादा नहीं हैं, लेकिन मुझे आशा है कि तुम अपने पिता के लिए कुछ कर सकोगी।"

सीमा की आंखों में आंसू आ गए। उसने कृतज्ञतापूर्वक पैसे स्वीकार कर कहा-  "धन्यवाद बाबा! आपकी मेहरबानी इस कठिन समय में मेरे लिए आशा की किरण बनी है। आप मेरे लिए भगवान बन कर आये हैं। लेकिन बाबा, आपने सारा पैसा मुझे दे दिया, आप क्या करेंगे अब? रात भी होने वाली है।"

राजू ने मुस्कुरा कर सिर हिलाया- "याद रखना बिटिया, ईश्वर की कृपा से ही कोई किसी की मदद कर सकता है। जब भी संभव हो, तुम भी दूसरों की मदद ज़रूर करना।”

सीमा राजू को दुआयें देती हुई चली गई। 

दिन बीतते गए, हफ़्ते बदलते रहे,  नहीं बदला तो केवल राजू का दिल। वह उन सभी लोगों की मदद  करता रहा, जो उसके संपर्क में आए। वह सब के साथ प्यार से पेश आता था, रूखा-सूखा अपना भोजन साझा करता था और यहाँ तक ​​कि उन लोगों को अपनी झोपड़ी में आश्रय भी देता था  जिनके सिर पर छत नहीं होती थी। उसकी सदाशयता ने कई लोगों को प्रभावित किया और उन्होंने अपनी जीवन-शैली को बदलने का प्रयास भी किया।

एक दोपहर, जब राजू अपने नित्य के स्थान पर बैठा था, एक व्यक्ति उदास चेहरे के साथ उसके पास आ कर बोला-  "बाबा, मेरी नौकरी चली गई है। मेरे पास जो भी बचत थी, सब चुक गई है। मुझे मेरी चिंता नहीं, किन्तु मेरे साथ ही मेरी पत्नी और बच्चा, दोनों कल से भूखे हैं। मैंने आपके बारे में बहुत सुना है। कृपया मुझे रास्ता बताएं कि मैं क्या करूं।" बोलते समय उसकी आवाज़ निराशा से कांप रही थी। 

राजू की आँखें करुणा से भर आईं- "घबराओ मत मेरे दोस्त! हो सकता है कि मेरे पास जो कुछ है, तुम्हारे लिए पर्याप्त न हो, लेकिन जो भी कुछ भी तुम्हारी मदद कर सकता हूँ, ज़रूर करूँगा। तुम्हारा नाम क्या है?" उसने आज की अपनी सारी कमाई उस व्यक्ति को सौंपते हुए पूछा।  

“मेरा नाम चेतन है बाबा! जानता हूँ कि अपना सब पैसा मुझे देने के बाद आपके पास कुछ नहीं बचा है, लेकिन बेशर्म हो कर मुझे यह लेना पड़ेगा, क्योंकि मैं अपने बच्चे को भूखा नहीं देख सकता। भगवान आप का भला करे। नहीं जानता कि मैं आपका अहसान कैसे चुकाऊँगा।”

“मेरी चिंता मत करो भाई, मुझे भी ऊपर वाला कुछ न कुछ दे ही देगा। जाओ, अपने परिवार के लिए खाने को कुछ खरीद लो। और हाँ, अगर कर सको तो कभी तुम भी किसी का भला कर देना।”

यह शायद उस ऊपर वाले की ही कृपा थी कि चेतन के जाने के कुछ ही मिनट बाद वहाँ से गुज़र रहे एक धनाढ्य दम्पति ने भरपेट खाया जा सके उतना भोजन व कुछ रुपये राजू को दिये। 

दम्पति का आभार प्रकट कर राजू आकाश की तरफ देख बुदबुदाया- “मेरे प्रभु, आज तो तूने हाथोंहाथ मुझे इतना दे दिया। तेरी कृपा का कोई पार नहीं है।” उसकी आँखों से झर-झर आंसू बह रहे थे।

आने वाले दिनों में राजू और चेतन के बीच अप्रत्याशित दोस्ती हो गई। जब भी समय मिलता, चेतन राजू के पास चला आता था। राजू ने चेतन को करुणा का मूल्य और वह ताकत भी दर्शाई जो दूसरों की मदद करने में पाई जा सकती है। अब से वह अपना समय एक साथ, हाथ में हाथ डाले, जरूरतमंद लोगों तक मदद पहुँचाने में बिताने लगे।

एक तूफानी रात, राजू तक खबर पहुंची कि शहर के एक अनाथालय भवन में आग लग गई है, जिससे बच्चे अंदर फंस गए हैं। तुरन्त राजू वहाँ पहुँच गया और बिना कुछ सोचे-समझे, वह धुएं और आग की लपटों का सामना करते हुए, जलती हुई इमारत के भीतर दौड़ पड़ा। राजू का साहस और दृढ़ता अडिग थी। उसने एक के बाद एक सात-आठ बच्चों को आग से बचाया और बाहर ले आया। घटना की सूचना मिलने पर चेतन भी वहाँ आ पहुँचा था। इस बीच उसने भी बच्चों को बाहर निकालने में राजू की मदद की और दो बच्चों को निकाल कर बाहर ले आया। 

इतने बच्चों को जलते भवन से सुरक्षित निकालने के दुरूह प्रयास में राजू के शरीर का अधिकांश भाग जगह-जगह से जल गया था। चेतन ने राजू का हाथ पकड़ कर कहा- “राजू, अब यहाँ से चलो। तुम्हें इलाज की ज़रुरत है।” 

राजू अनवरत रूप से आग की लपटों को देखे जा रहा था, जो भीषण रूप लेती जा रही थीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सभी बच्चों को बचा लिया गया है, लेकिन तभी भीतर से एक और बच्चे के चीखने की आवाज़ आई। राजू चेतन का हाथ झटक कर तेजी से भीतर की ओर भागा। चेतन भौंचक्का देखता रह गया। 

भीतर रह गए बच्चे को राजू जब दरवाजे से बाहर ला रहा था, उसने देखा, ढहती संरचना का एक बड़ा भाग उन पर गिरने को था। बिजली की गति से राजू ने बच्चे को बाहर की ओर धकेल कर गिरते हुए मलबे से बचा लिया, लेकिन स्वयं को नहीं बचा सका। 

बाहर खड़े अन्य लोगों व चेतन के साथ खड़ा वह बच्चा फटी आँखों से राजू को देख रहा था। जलते मलवे के नीचे दबे राजू के अंतिम शब्द थे- "प्यारे बच्चे, याद रखना कि दयालुता सबसे बड़ा उपहार है जो तुम किसी को दे सकते…।"

राजू के वीरतापूर्ण बलिदान की खबर जंगल की आग की तरह फैल गई। पूरा शहर करुणा की मूरत उस भिखारी की मृत्यु पर शोकाकुल था। शहर के बाहर भी जिसने भी यह कहानी सुनी, राजू के प्रति नतमस्तक था। 

वर्षों बाद, बाहर से एक बच्चे के साथ आई युवती ने बाज़ार से गुज़रते हुए शहर के मुख्य चौराहे पर एक मूर्ति देखी। शिलालेख की इबारत पढ़ कर उसकी आँखों में ख़ुशी से नम हो आईं।

 शिलालेख पर अंकित था :-

"दानवीर राजा राम - एक ऐसी महान आत्मा जिसने स्वयं अभावग्रस्त होते हुए भी ज़रूरतमंद लोगों की मदद के लिए अपना सब कुछ दे दिया। उनकी दयालुता हमें प्रेरित करती रहेगी।"

 युवती अपने बच्चे का हाथ थाम कर आसमान की और देखते हुए मन ही मन बुदबुदाई- “बाबा,  बचपन में मदद करते वक्त दी गई तुम्हारी नसीहत ने ही सीमा को इस काबिल बनाया कि उसने इस अनाथ बच्चे को अपना बेटा मान कर अपनाया है।” फिर मूर्ति की और मुखातिब हो कर सीमा ने बच्चे से कहा- “राजू , बाबा को प्रणाम करो बेटा!

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टिप्पणियाँ

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 03 अगस्त 2023 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

    जवाब देंहटाएं
  2. मेरी रचना को इस सुन्दर पटल पर साझा करने के लिएआभार भाई रवीन्द्र जी! दिन भर की व्यस्तता के बाद मैं अभी उपस्थित हो सका हूँ।

    जवाब देंहटाएं

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