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मार्च, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कोरोना पीड़ित (लघुकथा)

             लॉक डाउन में दो घंटे की सरकारी छूट थी सो कुछ खरीदारी करने मैं बाज़ार की ओर निकला। राह में एक छोटा-सा मन्दिर पड़ता था। वहाँ नज़र गई तो देखा, एक आदमी प्रार्थना में मग्न बैठा था। दर्शन करने की इच्छा से मैं भीतर गया तो अचानक वह व्यक्ति भगवान के सामने रोते हुए गिड़गिड़ाने लगा- "मेरे प्रभु, मेरे मालिक, दया करो मुझ पर! दो दिन से भरपेट नहीं खाया है। कितने ही दिनों से धन्धा चौपट हो गया है। अब तो कोरोना को ख़त्म करो दयालु ! मैं अपनी पहले दिन की पूरी कमाई आपके चरणों में अर्पित...।"    मेरे मन में उसकी सहायता करने की इच्छा बलवती हुई, उसके कंधे पर हाथ रख कर कहा- "भैया, शांत हो जाओ।"   वह  कातर दृष्टि से मेरी ओर देखता हुआ उठ खड़ा हुआ। मैंने अपना वॉलेट निकाल कर 100 रूपये का एक नोट उसकी ओर बढ़ा दिया। उसने वह नोट भगवान के चरणों में रख दिया और हाथ जोड़ कर बोला-  "मेरी पहली कमाई स्वीकार करो प्रभु!"   उसकी निष्ठा से प्रभावित हो कर मैंने एक और नोट उसे दिया और पूछा- " एक दिन में कितना कमा लेते हो भाई?"   "कुछ निश्चित नहीं है। जितना भाग्य में होता है, म

मन का कोरोना (कहानी)

                                                 धर्मिष्ठा कल से बुरी तरह परेशान थी। निखिल पूरे एक साल बाद दो दिन पहले ही जर्मनी से लौटा था, किन्तु आया तभी से घर में किसी से मेल-जोल ही नहीं रख रहा था। उसका कहना था कि कोरोना-संक्रमण की शंका के कारण वह कुछ दिनों के लिए सब लोगों से अलग अपने कमरे में रह रहा है।  'मुझसे दूरी रखने के लिए ही वह मम्मी जी, पापा जी से भी दूरी रखने का नाटक कर रहा है। एयरपोर्ट पर उसकी जांच हो चुकी है फिर भी वह ऐसा क्यों कर रहा है, मैं समझ चुकी हूँ। उसकी यह बेरुखी मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती। देखती हूँ, कब तक वह मुझसे दूर रहता है।', धर्मिष्ठा मन ही मन उलझ रही थी।  आज शाम जब उससे नहीं रहा गया तो उसने निखिल के कमरे के पास जाकर उसे आवाज़ दी। निखिल ने दरवाजा तो खोला,किन्तु नेट वाला दरवाजा नहीं खोला और दूर से ही बोला- "बोलो धर्मिष्ठा, क्या चाहिए तुम्हें?"   "क्यों नाटक कर रहे हो तुम कोरोना का बहाना बना कर और फिर कब तक कर सकोगे यह? तुम्हें मैं पसन्द नहीं हूँ, समझ सकती हूँ। मुझसे दूर रहना है तुम्हें, लेकिन घर के अन्य लोगों से अलग इस कमरे में क्यों

'नया वायरस'

        धरती पर मानव-संख्या-संतुलन के मद्देनज़र चीन के महान वैज्ञानिकों  😜 ने एक और वायरस का आविष्कार कर लिया है - 'हन्ता वायरस'      चीन में बस में बैठ कर जा रहे एक व्यक्ति की हन्ता वायरस के संक्रमण से मौत हो गई। कहा जा रहा है कि यह वायरस कोरोना से अलग प्रकृति का है अतः बहुत अधिक चिंता की बात नहीं है। यह वायरस कोरोना की तरह मनुष्य से मनुष्य तक नहीं पहुँचता।   आप अपने घर में चूहों का प्रवेश रोक दें और यदि बरामदे में पेड़-पौधे लगे हुए हैं तो उन पर घूम रही गिलहरी से भी सावधान रहें। इन दोनों का मल-मूत्र 'हन्ता वायरस' का जनक है। यदि सावधानी के बावज़ूद आपके हाथ इनके मल-मूत्र के संपर्क में आ जाएँ तो अपने हाथों को साबुन से अच्छी तरह धो लें, अन्यथा आपके संक्रमित हाथ से कोरोना की तरह ही यह वायरस आपके मुँह, नाक या आँख के जरिये शरीर में प्रवेश कर जायेगा। इससे सम्भावित मृत्यु-दर 38% है। अतः सावधान रहें, सुरक्षित रहें। 🙏                                                                 ************

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (???)

    सुना है आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है।... तो बधाई तो दे ही दूँ मैं भी सभी सम्माननीय महिलाओं को!  पुरुष-वर्ग की शुभकामनाएँ व बधाइयाँ प्राप्त कर महिलाएँ प्रसन्न भी हो रही होंगी, किन्तु आज के समाज से पूछें वह कि उनकी इज़्ज़त और सम्मान के लिए क्या प्रयास किये जा रहे हैं! संसद में विराजमान महिला-प्रतिनिधि शासन को स्मरण कराएँ कि निर्भया के साथ हुई दरिन्दगी वाले हालात आज भी यथावत हैं। जब महिला का जीने का, सम्मानपूर्वक जीने का नैसर्गिक अधिकार ही बाधित किया जा रहा है तो इस महिला दिवस को मनाने के ढकोसले का औचित्य ही क्या है!    बहुत व्यथित हो कर अपने यह उद्गार व्यक्त कर रहा हूँ जब देख रहा हूँ कि निर्भया-बलात्कार व हत्याकाण्ड के घोषित व प्रमाणित अपराधी अपने नापाक संरक्षकों की सरपरस्ती में कानून के साथ घिनौना खिलवाड़ कर रहे हैं। प्रशासन व न्याय-रक्षक भी विवश निगाहों से यह सब देख रहे हैं। मैं महसूस कर रहा हूँ, देश का आम नागरिक महसूस कर रहा है न्याय में हो रहे इस निर्लज्ज विलम्ब को देख रोते-रोते अब सूख चली निर्भया की माता की बेबस आँखों में बसी पीड़ा को।       यदि कानून इ

'सुलगती चिन्गारी' (कहानी)

                                                मनोहर कान्त बहुत दुविधा में थे। पत्नी की मृत्यु हुए तीन वर्ष हो चुके थे, किन्तु उसकी याद अभी तक दिल से भुला नहीं सके थे। नज़दीकी रिश्तेदार लम्बे समय से उनसे दूरी बनाये हुए थे, क्योंकि उनकी उन्नति और समृद्धि से सबको कुढ़न थी। उनकी पत्नी के परिवार के लोगों ने भी अब इस परिवार में रुचि लेना बंद कर दिया था, लेकिन कुछ मित्र थे जो अपने-अपने तर्क दे रहे थे - 'एक कुँआरी बेटी है घर में, उसका अकेले मन कैसे लगेगा, फिर उसकी शादी भी तो करनी है। कहते हैं कि साठा उतना पाठा। अभी मात्र 53 वर्ष की उम्र ही तो है आपकी और फिर घर का चिराग भी तो आना चाहिए', कह कर फिर से शादी करने के लिए दबाव बना रहे थे। यही नहीं, उनकी स्वयं की बेटी रवीना भी इसके लिए ज़ोर दे रही थी।  अंततः सब लोगों के निरन्तर आग्रह से विवश हो कर मनोहर कांत ने विवाह के लिए हामी भर दी। आर्थिक रूप से वह समृद्ध थे सो कई विवाह-प्रस्ताव उनके पास आये। कुछ प्रस्तावों पर मनन करने के उपरांत अपने ही कायस्थ सम