सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

"ऐसा क्यों" (लघुकथा)

                             

    “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं।


‘ऐसा क्यों’

आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई।

मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?”
“वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया।
“ऐसा क्यों?”
“मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।
          

  **********

टिप्पणियाँ

  1. ओह!!!
    बहुत ही हृदयस्पर्शी लघुकथा..
    बलात्कारी बस घृणा योग्य ही हैं
    लाजवाब।

    जवाब देंहटाएं
  2. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (16-07-2021) को "चारु चंद्र की चंचल किरणें" (चर्चा अंक- 4127) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
    धन्यवाद सहित।

    "मीना भारद्वाज"

    जवाब देंहटाएं
  3. बलात्कारी किसी काम के नहीं।
    वो घृणा के पात्र होते हैं।
    बहुत सुंदर लघुकथा।

    पधारे पौधे लगायें धरा बचाएं

    जवाब देंहटाएं
  4. सुंदर संदेश देती लघुकथा।
    निर्ममता की हदें पार करते मानव का काश पता चले। हृदयघात को दर्शाती कथा।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सराहना के लिए बहुत आभार महोदया अनीता जी!

      हटाएं
  5. घृणित कार्य करने वालों से सबको घृणा होती है इस सच को दर्शाती सुंदर लघु कथा ।

    जवाब देंहटाएं
  6. मन को मथती
    बहुत अच्छी लघुकथा

    जवाब देंहटाएं
  7. यथार्थपूर्ण, अंतर्मन को छू गयी आपकी लघुकथा।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अन्तःस्तल से आभार व्यक्त करता हूँ महोदया जिज्ञासा जी!

      हटाएं
  8. प्रणाम भट्टसाहब, इतनी व‍िदारक कथा मैंने आज तक नहीं पढ़ी , न‍िश्‍च‍ित ही हम ज‍िन्‍हें पशु अथवा पक्षी मान कर "यूंही" ले लेते हैं वे भी क‍ितना आत्‍मसम्‍मान रखते हैं ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. स्नेहाभिनन्दन अलकनंदा जी! आपकी इस सुन्दर टिप्पणी के लिए आभार प्रदर्शित कर सकूँ, वह शब्द सम्भवतः प्रयास कर के भी नहीं पा सकूंगा🙏।

      हटाएं
  9. प्रभावशाली लेखन - - अर्थपूर्ण लघुकथा - - साधुवाद सह - - नमन।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हृदय- तल से मेरा आभार स्वीकारें बन्धुवर शांतनु जी!

      हटाएं
  10. सटीक ... सोचने पर विवश करती है ये लघु कथा ...

    जवाब देंहटाएं
  11. चील भी घृणित कार्य को समझती है लेकिन इंसान कब समझेगा की ये कार्य घृणित है। बहुत सुंदर लघुकथा।

    जवाब देंहटाएं
  12. प्रणाम ! अभी माता-पिता एवं बच्चों के प्रेम पर आपके विचारों ने स्पष्ट उत्तर दे दिया । सच्चाई से कहूँ तो जल की धारा के प्रवाह ने सब समझा दिया जो संभवत: इस विषय पर लिखने के क्रम में मैं स्वयं समझ नहीं पाई थी । पूर्णतः सहमत हूँ आपके विचारों से । हार्दिक आभार मुझे यथोचित उत्तर एवं आशीर्वाद देने के लिए ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सादर नमस्कार तन्मया जी! आपके इस प्रत्युत्तर ने प्रसन्नता की अनुभूति दी मुझे। आपने भूलवश यह टिप्पणी आपके ब्लॉग पर मेरे कमेन्ट के साथ न दे कर यहाँ अलग स्थान पर दे दी है।

      हटाएं
  13. उम्मीद करते हैं आप अच्छे होंगे

    हमारी नयी पोर्टल Pub Dials में आपका स्वागत हैं
    आप इसमें अपनी प्रोफाइल बना के अपनी कविता , कहानी प्रकाशित कर सकते हैं, फ्रेंड बना सकते हैं, एक दूसरे की पोस्ट पे कमेंट भी कर सकते हैं,
    Create your profile now : Pub Dials

    जवाब देंहटाएं
  14. सच है ! ऐसे नरपिशाच चील-कौओं के लायक भी नहीं हैं

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आभार महोदय! ... मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है!

      हटाएं
  15. हमारे यहां जब कोई गलत काम करता है तो लोग कहते हैं कि तुम्हारा मांस चिल कौवा भी नहीं खाया! और इस बात को आपने बहुत ही बारीकी से और अच्छे से व्यक्त किया बहुत ही सार्थक लघुकथा!

    जवाब देंहटाएं
  16. संघातिक, प्रतीकात्मक शैली में गहन बात कह दी आपने आदरणीय।
    अप्रतिम लघुकथा।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. उत्साहवर्धन के लिए अन्तस्तल से आभार व्यक्त करता हूँ महोदया!

      हटाएं
  17. अप्रतिम है आदरणीय।
    हृदय को झकझोरती।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मैं स्वयं अपनी सभी रचनाओं में इसे सर्वोपरि स्थान पर देखता हूँ। मेरे दिल के बहुत करीब है यह रचना ! आपकी सराहना करती समीक्षात्मक टिपण्णी ने मेरे लेखन को सार्थक कर दिया है। ह्रदय की गहराइयों से आभार आपका महोदया!

      हटाएं
  18. आदरनीय सर बहुत ही मर्मांतक कथा है।पढ़कर भावुक हो गया मन ।बलात्कार की पीड़ाको अबोले प्राणी भी अनुभव कर पाते हैं।और वो प्राणी जो खुद अपनी वीभत्सता के लिए कुख्यात हैं,वे भी बलात्कारी के मरणोपरांत भी बहिष्कार का माद्दा रखते हैं।ये बात स्तब्ध कर गयी।इस अविस्मरणीय लघु कथा के लिए बधाई और शुभकामनाएं।🙏🙏

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मेरी इस लघुकथा को अतुलनीय सम्मान देने के लिए अंतरतम से आभार व्यक्त करता हूँ रेणु जी!

      हटाएं
  19. आदरनीय सर,आपके ब्लॉग पर सीधे टिप्पणी करने में ब्लॉग पर लगे विज्ञापनौं से बहुत असुविधा होती है।मुझे अक्सर कई बार लिखनी पड़ती है टिप्पणी।कृपया विज्ञापन रचना के नीचे या साइड में रखें।आशा है कि सुझाव अन्यथा नहीं लेंगे 🙏🙏

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मैं शीघ्र ही इसके लिए प्रयास करूँगा रेणु जी! आपको हुई असुविधा के लिए खेद है

      हटाएं
  20. निःशब्द कर गई ... लघु नहीं दूर तक जाने वाली, समुन्दर से ज्यादा गहरी बात है ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हृदय-पटल तक उतर जाने वाली आपकी सुन्दरतम टिप्पणी के लिए अंतरतम से आभार प्रकट करता हूँ महोदय!

      हटाएं
  21. कम शब्दों में, घृणित कृत्य के प्रति सही दृष्टिकोण दिखाने वाली कथा ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मेरी इस छोटी सी लघुकथा के मर्म तक पहुँचती आपकी समीक्षा के लिए आपका आभार बंधुवर!

      हटाएं
  22. उत्तर
    1. हार्दिक धन्यवाद कविता जी! देर से देख पाया आपकी टिप्पणी

      हटाएं
  23. सार्थक लघुकथा। पक्षी तक इस घृणित कर्म से नफ़रत करते हैं। लेकिन कुछ इंसानों की यह बात समझ नहीं आती। सादर।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी, सांकेतिक प्रहार है यह ऐसे नराधमों को धिक्कारने के लिए।... हार्दिक धन्यवाद!

      हटाएं
  24. काश घृणित कृत्य के प्रति ऐसी घिन्न समाज के लोग भी रखते हुए सामूहिक बहिष्कार कर पाते तो .................

    जवाब देंहटाएं
  25. निःशब्द करती मारक लघुकथा ।

    जवाब देंहटाएं
  26. नि:शब्द है कलम, मार्मिक रचना

    जवाब देंहटाएं
  27. अद्भुत लेखन बहुत ही सुंदर भावपूर्ण हृदयस्पर्शी लघु कथा

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

तन्हाई (ग़ज़ल)

मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- मौसम बेरहम देखे, दरख्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है।   बहार  आएगी  कभी,  ये  भरोसा  नहीं  रहा, पतझड़ का आलम  बहुत लम्बा हो गया है।   रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र  का  सिलसिला  बेइन्तहां  हो  गया  है।    या तो मैं हूँ, या फिर मेरी  ख़ामोशी  है यहाँ, सूना - सूना  सा  मेरा  जहां  हो  गया  है।  यूँ  तो उनकी  महफ़िल में  रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन फिर भी तन्हा  हो गया है।                          *****  

बेटी (कहानी)

  “अरे राधिका, तुम अभी तक अपने घर नहीं गईं?” घर की बुज़ुर्ग महिला ने बरामदे में आ कर राधिका से पूछा। राधिका इस घर में झाड़ू-पौंछा व बर्तन मांजने का काम करती थी।  “जी माँजी, बस निकल ही रही हूँ। आज बर्तन कुछ ज़्यादा थे और सिर में दर्द भी हो रहा था, सो थोड़ी देर लग गई।” -राधिका ने अपने हाथ के आखिरी बर्तन को धो कर टोकरी में रखते हुए जवाब दिया।  “अरे, तो पहले क्यों नहीं बताया। मैं तुमसे कुछ ज़रूरी बर्तन ही मंजवा लेती। बाकी के बर्तन कल मंज जाते।” “कोई बात नहीं, अब तो काम हो ही गया है। जाती हूँ अब।”- राधिका खड़े हो कर अपने कपडे ठीक करते हुए बोली। अपने काम से राधिका ने इस परिवार के लोगों में अपनी अच्छी साख बना ली थी और बदले में उसे उनसे अच्छा बर्ताव मिल रहा था। इस घर में काम करने के अलावा वह प्राइमरी के कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। ट्यूशन पढ़ने बच्चे उसके घर आते थे और उनके आने का समय हो रहा था, अतः राधिका तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दी। चार माह की गर्भवती राधिका असीमपुर की घनी बस्ती के एक मकान में छोटे-छोटे दो कमरों में किराये पर रहती थी। मकान-मालकिन श्यामा देवी एक धर्मप्राण, नेक महिल...