मेरे अध्ययन-काल की एक और कविता ...प्रस्तुत है मित्रों- "मन की व्यथा" :- "मन की व्यथा" मन की ये व्यथा मैं, कैसे भुला सकूँगा? अन्तर के आँसू, मैं कैसे छुपा सकूँगा? अन्तर के ये गीले स्वर, कहते यों रो-रो कर। पथ के हमदर्द साथी, जाना न नाराज़ होकर। सूना-सा जीवन, मैं कैसे बिता सकूँगा? मन की ये व्यथा मैं, कैसे भुला सकूँगा? रे उपवन के समीर, इक पुष्प तोड़ लाना। गम मेरा दूर करने, उसे यहाँ छोड़ जाना। दर्द कुछ दिल का, मैं उसे बता सकूँगा। मन की ये व्यथा मैं, कैसे भुला सकूँगा? ओ सागर की लहरों, ये सन्देश भेज देना। फिर यहाँ आकर मुझे, सुख की सेज देना। उत्पीड़न के गीत, मैं तुममें गा सकूँगा। मन की ये व्यथा मैं, कैसे भुला सकूँगा? ओ विरहिणी बदलिया, कहीं दूर जा गरजना। अभितप्त अश्रुधारा से, कहीं और जा बरसना। जान ले दिल का हाल, कथा न कह सकूँगा। मन की ये व्यथा मैं, कैसे भुला सकूँगा? ********