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इतनी नफरत क्यों ?

     यदि प्रश्न हो कि हिन्दू अच्छा या मुसलमान अच्छा ?  (वैसे यह प्रश्न एकदम बेहूदा है)      तो इसका एक ही उत्तर होगा- 'अच्छा वही है जो इंसान अच्छा'     "यदि 2019 में भारत में केन्द्र में भाजपा जीती तो भारत 'हिन्दू-पाकिस्तान' बन जायगा।" - यह मैं नहीं कह रहा क्योंकि मेरा दिमाग खिसका हुआ नहीं है, यह शशि थरूर ने कहा है। वैसे देखा जाय तो उन्हें बहुत अधिक दोषी नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि वह उनकी पत्नी की मृत्यु के मामले में इन दिनों कोर्ट और जांच एजेंसियों की जांच-परिधि में हैं... तो...     अब प्रश्न यह उठता है कि थरूर को हिन्दुओं से इतनी नफरत क्यों है? यदि संयोग से वह स्वयं मुसलमान हैं तो इसका खुलासा कर दें। यदि वह हिन्दू हैं तो मुस्लिम-प्रेम के चलते मुस्लिम धर्म अपना लें। यह कोई बुरी बात भी नहीं होगी। ...फिर आराम से ओबेसी के साथ गलबहियां डाल कर घूमें, मर्जी आये सो बोलें। वह दुविधा में क्यों जी रहे हैं?     यहाँ यह कहना प्रासंगिक होगा कि न तो हर मुसलमान हिन्दू से नफरत करता है और न हर हिन्दू मुसलमान से। दोनों सम्प्रदायों के बीच जो खाई पैदा की जा रही है वह ऐ

कीड़ा ही तो था...

      इन कीड़ों का कोई ईमान-धर्म नहीं होता। अब कल का वाक़या बताऊं आपको। श्रीमती जी ने आदेश दिया कि करेले सब्जी बनाने के लिए काट लो। बैठ गया करेले ले कर काटने के लिए। एक काटा, दूसरा काटा और तीसरे की अधफाड़ करते ही देखा तो अन्दर एक कीड़ा बिराजमान था। सोचा, इतने कड़वे करेले में कीड़ा कैसे हो सकता है, लेकिन वह जो भी था, हिल रहा था तो कीड़ा ही होगा न!     करेले के डंठल से कीड़े को करेले में बने उसके बंगले से धीरे से, लेकिन जबरन निकाला। नामाकूल अपने बंगले से बड़ी मुश्किल से निकला। बाद में जब देखा तो पाया कि उसने अपने बंगले के आसपास की जगह को गन्दा और तहस-नहस कर डाला था।      कीड़ा ही तो था...और करता भी क्या वह!

किसको जगाना चाह रहे हो...

     किसको जगाना चाह रहे हो भाई सिकन्दर! क्या चलती फिरती लाशों को? नहीं सुनेगा कोई तुम्हारी आवाज़ को, क्योंकि खुदगर्जी ने सब की आंखों पर पर्दा डाल रखा है और उन्हें वही दिखाई देता है जो वह देखना चाहते हैं। बात-बहादुर यह लोग सोशल मीडिया पर मानवता की दुहाई देने और बड़ी-बड़ी डींगें हांकने तक सीमित हैं। अपने आसपास हो रहे अत्याचार, लूट या हत्या-बलात्कार से इनकी सम्वेदना जागृत नहीं होती, जागृत हो भी तो कैसे क्योंकि वह तो मर चुकी है। यह लोग हर दुर्घटना या अनहोनी होने पर पुलिस और सरकार का मुँह देखेंगे और उनकी ही जिम्मेदारी मान कर अपनी आंखें फेर लेंगे, जब कि जिनकी जिम्मेदारी वह मान रहे हैं वह भी हद दर्जे तक गैरजिम्मेदार हैं, कुछ अपवाद छोड़कर।      अंधेरा ही अंधेरा है मेरे दोस्त, दूर-दूर तक रौशनी की एक झलक भी दिखाई नहीं देती। बस हम भारत की प्राचीन गौरव-गाथा और हमारी संस्कृति का गुणगान कर कर के खुश होते रहें...

स्वच्छता अभियान (लघुकथा)

        मेरा शहर स्मार्ट सिटी बनने जा रहा था और इस कड़ी में अभियान को चलते एक वर्ष से कहीं अधिक समय निकल चुका था।        शहर के एक प्रतिष्ठित दैनिक समाचार पत्र की टीम ने स्वच्छता अभियान के तहत नए वित्त वर्ष में सर्वप्रथम स्थानीय कलक्टर कार्यालय के सम्पूर्ण परिसर की जाँच-पड़ताल की तो समस्त परिसर में गन्दगी का वह आलम देखा कि टीम के सदस्य भौंचक्के रह गये। कहीं सीढियों के नीचे कबाड़ का कचरा पड़ा था, तो कहीं कमरों के बाहर गलियारों की छतें-दीवारें मकड़ियों के जालों से अटी पड़ी थीं। एक तरफ एक कोने में खुले में टूटे-फूटे फर्नीचर का लम्बे समय से पड़े कबाड़ का डेरा था तो सीढियों से लगती दीवारों पर जगह-जगह गुटखे-पान की पीक की चित्रकारी थी। साफ़ लग रहा था कि महीनों से कहीं कोई साफ-सफाई नहीं की गई है।      समाचार पत्र ने अगले ही दिन अपने मुखपृष्ठ पर बड़े-बड़े अक्षरों में उपरोक्त हालात उजागर कर शहर की समस्त व्यवस्थाओं को सुचारू रखने के लिए ज़िम्मेदार महकमे की प्रतिष्ठा की धज्जियाँ उड़ा दी।      कहने की आवश्यकता नहीं कि मुखपृष्ठ पर नज़र पड़ते ही कलक्टर साहब की आज सुबह की चाय का जायका ही बिगड़ गया। अनमने ढंग

एक आम आदमी

     पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव अब एक आम आदमी हैं फिर भी उन्होंने अपना पूर्व में आवंटित बंगला बदस्तूर अपने पास कायम रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दी है। आम आदमियों में से कई ऐसे विपन्न भी हैं जिनके सिर पर छत नहीं है और वह अपनी रातें

मैंने उसके बदन पर हाथ रखा! (प्रहसन)

    रास्ता कुछ ज्यादा ही तंग था। मैं अपना दृष्टि सुधारक यंत्र (चश्मा) घर पर भूल गया था और ऊपर से रात का अँधेरा गहरा आया था। स्कूटर की हैडलाइट ने भी अभी पांच मिनट पहले ही नमस्ते कर दी थी। नगर निगम इस इलाके में ब्लेक-आउट जैसी स्थिति रखता है सो बिजली की भी कोई व्यवस्था नहीं थी। ऐसे में राह में आगे क्या-कुछ है, जानना बहुत सहज नहीं था....सो मंथर गति से चल रहा मेरा स्कूटर संभवतः किसी के शरीर से हलके से छू गया। घबराहट के मारे मेरे कान सतर्क हो गये कि अब कुछ न कुछ मेरे पुरखों का गुणगान होगा। लेकिन ऐसा कुछ न हुआ, शायद स्कूटर उसे न ही छुआ हो, मैंने सोचा।      अब भी स्कूटर को मैं धीरे-धीरे ही आगे बढ़ा रहा था क्योंकि वह बंदा, जो कोई भी था, जगह देने का नाम ही नहीं ले रहा था। अब मैं थोड़ा और सतर्क हो गया। अवश्य ही यह सिरफिरा, मगरूर शख्स, सत्ता-पक्ष या विपक्ष के किसी दबंग नेता का मुँहलगा प्यादा होगा और इसीलिए 'हम चौड़े, सड़क पतली' वाले अहसास के चलते इस अंदाज़ में बेफिक्र चल रहा था। गुस्सा तो ऐसा आ रहा था कि चढ़ा दूँ स्कूटर उसके ऊपर, किन्तु ऐसा करने का कलेजा कहाँ से लाता!       'साहब मेहरबान तो

यह तो जनता की विवशता है!

    कर्नाटक की चुनावी बढ़त न तो BJP की जीत है और न ही मोदी जी का जादू! यह तो जनता की वह विवशता है जिसने