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संदेश

कहाँ है राजनीति में शुचिता ?

  धर्म-निरपेक्षता को सभी राजनैतिक दल अपने-अपने ढंग से परिभाषित करते रहे हैं। आज कोई भी दल ऐसा नहीं है जो धर्म और जाति के उन्माद को अपनी सफलता की सीढ़ी बनाने से परहेज रखता हो, तिस पर दावा प्रत्येक के द्वारा यही किया जाता है कि एक मात्र वही दल धर्म-निरपेक्षता का हिमायती है। इनके स्वार्थ की वेदी पर धर्म, सत्य और विश्वास,यहाँ तक कि मानवता की भी  बलि चढ़ा दी गई है। कुछ जिम्मेदार किस्म का  मीडिया, देश-समाज के प्रबुद्ध-जन और सुलझे हुए चंद राजनीतिज्ञ कितना ही क्यों न धिक्कारें, वर्त्तमान निर्लज्ज राजनेताओं के कानों पर जूं नहीं रेंगती।  अभी हाल ही श्रीमती सोनिया गांधी ने मुस्लिम धार्मिक नेता बुखारी से संपर्क कर मुस्लिम समुदाय का समर्थन कॉन्ग्रेस के पक्ष में चाहा। क्या कॉन्ग्रेस का हिन्दू मतदाता इस कारण कॉन्ग्रेस से विमुख नहीं होगा ? इसी तरह जब बीजेपी हिंदुओं के ध्रुवीकरण की दिशा में काम करती है तो क्या मुस्लिम मतदाता उससे विमुख नहीं होगा ? यह कैसी राजनीति है जिसमे दोनों सम्प्रदायों के मध्य खाई खोदने का काम दोनों हो दलों के नेता निरंतर किये जा रहे हैं। इसका कैसा भयावह परिणाम होगा, इसका क्य

पथ-विचलन …

    भारतीय राजनीति के पुरोधा, पक्ष और विपक्ष में समान रूप से सम्माननीय युग-पुरुष, कवि-ह्रदय वयोवृद्ध अटल बिहारी बाजपेयी आज शरीर के साथ ही राजनैतिक रूप से भी शक्तिविहीन हो गये हैं और यह बात वह बीजेपी अच्छी तरह से जान रही है जिसके प्राण कभी बाजपेयी जी की सांसों में ही बसते थे। यही तो कारण है  कि अब केवल अडवाणी और खंडूरी जी ही उनकी सुध लेने के लिए जाते हैं, जबकि बाजपेयी जी की कदमबोसी कर अपना भविष्य सँवारने वाले नेता अब अपना भविष्य कहीं और तलाश रहे हैं। परिवर्तन तो समय के साथ युगों-युगों से होता आया है पर बाजपेयी जैसे व्यक्तित्व को हाशिये पर डाल कर विस्मृत कर दिया जाना अनैतिकता ही नहीं, अमानवीयता की श्रेणी में भी आता है। डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी और बाजपेयी के आदर्शों को भूली, पथ्य-अपथ्य के विवेक को खो चुके रोगी वाली मानसिक स्थिति पा चुकी, बीजेपी के इस प्रकार के नवीनीकरण की कल्पना तो किसी ने भी नहीं की होगी…… 

छोटी-सी गुज़ारिश !

    एक टोकरी में अंगूर, एक टोकरी में आम, एक टोकरी में ताज़ा संतरे और एक टोकरी में मिश्रित फल रखे हुए थे। अंगूरों वाली टोकरी में 40%, आम वाली टोकरी में 70%, संतरों वाली टोकरी में 1 से 2% तथा मिश्रित फलों वाली टोकरी में 95% फल सड़े हुए थे। मैंने अपने एक मित्र से जो काफी सुलझे व्यक्तित्व का मालिक था, पूछा- 'दोस्त, अपने लिए किस टोकरी के फल चुनोगे ?'    मित्र बोला- 'यह कैसा प्रश्न है ? निश्चित ही संतरों वाली टोकरी के।'    मैंने प्रश्न को संशोधित किया- 'लेकिन यदि संतरों वाली या किसी भी अन्य टोकरी के फल तुम्हारी ज़रुरत से कम हों तो क्या करोगे ?'   मित्र ने हँसते हुए जवाब दिया- 'भाई तुम भी यार कुछ बोर्नवीटा वाला दूध पीया करो। कैसा सवाल पूछते हो ? सीधी-सी बात है, 95% सड़े फलों वाली टोकरी को तो हाथ ही नहीं लगाऊंगा और शेष तीनों टोकरियों में से सड़े फलों के अलावा सभी फलों को अपने लिए छांट लूंगा, वेरायटी भी होगी और अलग-अलग स्वाद भी।'     मैं प्रशंसा-भाव से उसकी ओर देखता ही रह गया।    मेरे अच्छे दोस्तों, उपरोक्त वाकये ने मुझे कुछ सोचने को मजबूर कर दिया। आज के राजन

प्रत्युत्तर

  मुझसे मेरे मित्रों ने पूछा कि भाई आप तो राजनैतिक स्वच्छता की बहुत बातें करते हो फिर मोदी जी के लिए जहरीली और हिंसक भाषा का प्रयोग कर साम्प्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने  का प्रयास करने वाले कॉन्ग्रेसी उम्मीदवार (सहारनपुर से) इमरान मसूद के बारे में कुछ क्यों नहीं लिखा। मैंने उन्हें बताया कि मैं केवल इन्सानों के बारे में लिखना पसंद करता हूँ। 

जिस पर नाज़ है हिन्द को वह यहाँ है…

   देश के लिए  अपने उच्च-प्रतिष्ठित सरकारी पद का त्याग कर  कुछ कर  गुजरने के लिए जन-आंदोलन में कूद  पड़ने वाला, अन्ना जी जैसे  भ्रमित व्यक्ति ( ममता बेनर्जी के साथ भी जिस शख्स ने विश्वासघात  किया)  का साथ छोड़कर प्रगति की राह पर चल पड़ने वाला, अपने  आदर्शों के लिए मुख्यमंत्री जैसे पद (जिस पद के लिए सपने में भी कई  नेताओं की  लार टपकती है) को ठोकर मार देने वाले व्यक्ति को कुछ तत्व  भगोड़ा कहते हैं। आश्चर्य है, उनकी जिव्हा लड़खड़ाती नहीं, लेखनी कांपती नहीं। कैसे अपनी आत्मा को मारकर कोई ऐसा सोच सकता है, कह सकता है ? अरविन्द केजरीवाल को कुछ लोग पाकिस्तानी एजेंट कह रहे हैं।  कैसा पाकिस्तानी एजेंट है यह जो देश में महंगाई कम करने, गैस के दाम  कम करने और भ्रष्टाचार रोकने के लिए लड़ रहा है, जो हिंसा का जवाब अहिंसा से देता है।   . अगर अरविन्द केजरीवाल यह सब करने के बाद भी पाकिस्तानी एजेंट है  तो मेरे इस भारत देश में देशभक्त कौन है ? देशहित के लिए जीने वाला  यह हिंदुस्तानी क्या सत्तालोलुप तथाकथित राष्ट्रवादियों से कई गुना अधिक राष्ट्रवादी नहीं है ?     मन से अज्ञान की प

???

    देश के शीर्षस्थ नेता स्वस्थ राजनैतिक परम्परा का निर्वाह न कर एक दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे हैं, शब्दों के प्रयोग में अभद्रता की पराकाष्ठा को छू रहे हैं..... प्रत्येक बुद्धिजीवी के लिए विचारणीय बिन्दु है यह। लेकिन अफ़सोस ! हमारे देश के ऐसे नेताओं की जीत का कारण अन्य लोगों के अलावा बुद्धिजीवी भी होते हैं। 

विभीषणों को पहचानो…

   जहाज डूबने की सम्भावना देखकर सबसे पहले चूहे जहाज छोड़ कर भागने लगते हैं, उसी जहाज को जहाँ से अभी तक उन्हें दाना-पानी मिल रहा था।.…धिक्कार है ऐसे अवसरवादियों को !    प्रीत परायों से जो करके अपनों को देता है छोड़,   अवसर पाकर पूत पराये, उसको देते तोड़-मरोड़।