सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

प्यार लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

राधे-राधे (लघुकथा)

  वृद्ध दामोदर जी पिछले कई दिनों से एक जटिल रोग से ग्रस्त थे। लम्बी चिकित्सा के बाद थक-हार कर डॉक्टर्स ने एक दिन कह दिया कि अब उनका अधिक समय नहीं बचा है, तो घर वाले उन्हें घर ले आये थे। बड़ा बेटा भी नौकरी से छुट्टी ले कर कल घर आ गया था। वह पूरी तरह से होश में तो थे, किन्तु हालत कुछ ज़्यादा ख़राब हो रही थी। बेटे भगवती लाल ने आज सुबह फोन कर के निकट के कुछ सम्बन्धियों को बुला लिया था। जानकारी मिलने पर पड़ोस से भी तीन-चार लोग आ गए थे।  आगन्तुक मेहमानों में से कुछ तो दामोदर जी के कमरे में रखी एक अन्य चारपाई पर और कुछ कुर्सियों पर बैठे थे।  मोहल्ले में कई लोग ऐसे भी थे, जो सूचना मिलने के बावज़ूद नहीं आये थे। सूचना देने वाले सज्जन को एक महाशय ने तो खुल कर कह भी दिया- “भाई साहब, भगवान उनको जल्दी ठीक करें, पर हम तो उनके वहाँ नहीं जाने वाले।”  “अरे भैया जी, आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? सुना है, वह बेचारे एक-दो दिन के ही मेहमान हैं।” “आप को तो जुम्मे-जुम्मे चार दिन हुए है इस बस्ती में आये। यह दामोदर जी बच्चों-बूढ़ों सभी से चिड़चिड़ाते रहते थे। अब किसका मन करेगा ऐसे आदमी से मिलने जाने का?” “आखिर वज़ह क्या थी उ

अनमोल उपहार

आज तक समझ नहीं सका हूँ कि मात्र एक साल पहले जो प्राणी इस दुनिया में आया है, कभी रो कर, कभी चिल्ला कर, कभी हाथ-पैर पटक कर कैसे अपनी बात वह हम सब से मनवा लेता है? कैसे मान लेता है कि जिस घर में वह अवतरित हुआ है, उस पर उसका असीमित अधिकार है? अभी हाल ही उसका प्रथम जन्म-दिवस हम सब ने मनाया, तो यही प्रश्न मेरे मस्तिष्क में उभरे हैं। मैं बात कर रहा हूँ अपने एक वर्षीय दौहित्र (नाती) चि. अथर्व की। जब उसकी इच्छा होती है, मेरी बाँहों में आने को लपक पड़ता है और जब निकलने की इच्छा होती है तो लाख थामो उसे, दोनों हाथ ऊँचे कर इस तरह लटक जाता है कि सम्हालना मुश्किल पड़ जाता है। जब भी उसका मूड होता है, अपनी मम्मी या पापा, जिस किसी के भी पास वह हो, हाथ आगे बढ़ा कर मेरे पास आ जाता है और जब उसकी इच्छा नहीं होती, तो कितनी भी चिरौरी करूँ उसकी, चेहरा और हाथ दूसरी तरफ घुमा देता है... और मैं हूँ कि उसके द्वारा इस तरह बारम्बार की गई इंसल्ट को हर बार भूल जाता हूँ और उसे अपने सीने से लगाने को आतुर हो उठता हूँ।  जो भी शब्द वह बोलता है, मैंने विभिन्न शब्दकोशों में ढूंढने की कोशिश की, मगर निदान नहीं पा सका हूँ। बस, समझ

अधिक प्यारा कौन?

मेरे एक मित्र ने मुझसे एक नितान्त व्यक्तिगत प्रश्न पूछ लिया- "तुम लोग अपने बेटे से अधिक प्यार करते हो या बिटिया से?" "यह कैसा प्रश्न है यार? हम तो दोनों से बराबर प्यार करते हैं।" -मैंने बेबाकी से जवाब दिया।  "फिर भी कुछ तो फर्क होगा, सही-सही बताओ न दोस्त!" "सही जानना चाहते हो तो सुनो! हम अपनी बिटिया को बेटे से अधिक प्यार करते हैं और..." "और...और क्या?" -मित्र के चेहरे पर संतोष की मुस्कान थी। उन्हें शायद अपना प्रश्न पूछना सार्थक लगा था। "और अपने बेटे को बिटिया से अधिक प्यार करते हैं।" -मैंने अपना वाक्य पूरा किया।  सुन कर मित्रवर असहज हो उठे और अनायास ही वार्तालाप का रुख राजनीति की तरफ कर लिया।  *****

'मुझे दहेज चाहिए' (कहानी)

     (1) "सुनो जी, तुमने अच्छे से पता तो कर लिया है ना कि लड़का कैसा है। तुमने उन लोगों को यहाँ आने के लिए भी कह दिया है और मुझे उनके बारे में तनिक भी पता नहीं है।" "अरे भागवान, हम घर के लिए कोई चीज़ खरीदते हैं, तो भी पूरी जांच-पड़ताल करते हैं के नाहीं, फिर यह तो रिश्ता करने की बात है। क्या यूँ ही आँख मूँद कर यह काम कर रहा हूँ? मेरे दोस्त घनश्याम ने ही तो बताया है यह रिश्ता। मैं वाके साथ बड़ी सादड़ी जा के लक्ष्मी लाल जी के परिवार से मिल भी तो आया हूँ।... और फिर हम कौन तुरंत ही रिश्ता पक्का किये दे रहे हैं।" "फिर भी मुझे तो कुछ बताते। ऐसे मामलों में जल्दबाज़ी अच्छी नहीं होती जी! ये का बात हुई कि परसों ही उनके वां गये और अपने यां आने का  नौता भी दे आये।" -चंदा ने मुँह बिगाड़ते हुए कहा।  "बावली, ऐसे रिश्ते किस्मत से मिलते हैं। नायब तहसीलदार है लड़का, कोई छोटी-मोटी बात है का? दो-तीन साल में तहसीलदार बन जावेगा। तनखा से ज़ियादा तो ऊपरी कमाई होत है इन लोगन की। लड़का शकल से तो अच्छा है ही, परिवार भी रसूखदार है।" -राज नाथ इस रिश्ते से बहुत प्रभावित थे।  "लड़का