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'मुझे दहेज चाहिए' (कहानी)

    



(1)


"सुनो जी, तुमने अच्छे से पता तो कर लिया है ना कि लड़का कैसा है। तुमने उन लोगों को यहाँ आने के लिए भी कह दिया है और मुझे उनके बारे में तनिक भी पता नहीं है।"

"अरे भागवान, हम घर के लिए कोई चीज़ खरीदते हैं, तो भी पूरी जांच-पड़ताल करते हैं के नाहीं, फिर यह तो रिश्ता करने की बात है। क्या यूँ ही आँख मूँद कर यह काम कर रहा हूँ? मेरे दोस्त घनश्याम ने ही तो बताया है यह रिश्ता। मैं वाके साथ बड़ी सादड़ी जा के लक्ष्मी लाल जी के परिवार से मिल भी तो आया हूँ।... और फिर हम कौन तुरंत ही रिश्ता पक्का किये दे रहे हैं।"

"फिर भी मुझे तो कुछ बताते। ऐसे मामलों में जल्दबाज़ी अच्छी नहीं होती जी! ये का बात हुई कि परसों ही उनके वां गये और अपने यां आने का  नौता भी दे आये।" -चंदा ने मुँह बिगाड़ते हुए कहा। 

"बावली, ऐसे रिश्ते किस्मत से मिलते हैं। नायब तहसीलदार है लड़का, कोई छोटी-मोटी बात है का? दो-तीन साल में तहसीलदार बन जावेगा। तनखा से ज़ियादा तो ऊपरी कमाई होत है इन लोगन की। लड़का शकल से तो अच्छा है ही, परिवार भी रसूखदार है।" -राज नाथ इस रिश्ते से बहुत प्रभावित थे। 

"लड़का कितना भी अच्छा हो, हमारी गुड्डी से तो उन्नीस ही होगा न! धरती का चाँद है हमारी बिटिया! लड़के की ऊपर की कमाई भले ई हो, ऐसी कमाई का के भरोसा? पकड़ा गया तो अंदर नहीं हो जावेगा?...और फिर ज़्यादाई चालाक हो, तो भी ये कोई अच्छी बात तो नईं है। नीति-अनीति भी तो कोई चीज़ हुआ करे। "

"अरे, इतना दूर का ना सोचो, अपनी बेटी के भविष्य का सोचो। राज करेगी उस परिवार में।" -राज नाथ ने भरोसा दिलाया। 

"अब आपसे बातों में तो ना जीत सकूं मैं।" -चंदा यह कह कर अपने काम में लग गईं। 

 

माधुरी उस समय अपने कमरे में थी।  माधुरी का छोटा भाई गुट्टन (प्रवीण का घर का नाम) सुबह से उसके कमरे में दो-तीन बार आ कर उससे  ठिठोली कर चुका था- 'अब तो गुड्डी जीजी चली जायँगी दूसरे घर। फिर तो आइसक्रीम मैं अकेला ही खाऊँगा।' आठवीं कक्षा में पढ़ रहे, आइसक्रीम के शौकीन गुट्टन को यही एक बात बहिन को चिढ़ाने को मिल रही थी, क्योंकि जब भी आइसक्रीम घर में आती, दोनों भाई-बहिन आइसक्रीम का अधिक हिस्सा लेने के लिए प्रायः एक-दूसरे से उलझते रहते थे। माता-पिता माधुरी को कभी समझाते, तो कभी मीठी झिड़की भी देते कि गुट्टन उससे बहुत छोटा है, उससे उसे बराबरी नहीं करनी चाहिए।...और फिर वह मान भी जाया करती थी। हमेशा के विपरीत आज माधुरी उससे उलझी नहीं, केवल मुस्करा दी और प्यार से उसे चूम लिया। 


माधुरी मन ही मन परेशान थी। उसने इसी साल बी.कॉम. किया था और आगे पढ़ना चाहती थी, किन्तु अचानक ही उसके रिश्ते की बात होने जा रही थी। यही बात उसकी परेशानी का सबब बनी हुई थी। आगे पढ़ने की इच्छा उसने पहले ही बता दी थी, किन्तु चंदा ने जब उसे बताया कि रिश्ता अच्छा होने से उसके पिता उसकी शादी जल्दी ही करना चाहते हैं, तो माता-पिता को हद दर्जे तक प्यार करने वाली माधुरी ने विरोध दर्ज नहीं कराया। 

प्रतीक्षित मेहमान आज आने वाले थे। चंदा ने पिछले दिन ही बता दिया था कि लड़के वाले आएँगे, सो वह अच्छे-से सज-धज कर तैयार हो जाए। अप्रतिम सौंदर्य की स्वामिनी माधुरी को सजने-संवरने की आवश्यकता ही नहीं थी। यौवन-भार से झुकी, अपनी मदमस्त चाल से जब वह सड़क पर चल रही होती थी, तो मनचले फब्तियाँ कसने से बाज नहीं आते थे और शालीन श्रेणी के युवक ही नहीं, स्वयं को सभ्य दिखलाने को विवश प्रौढ़वय पुरुषों के मुख से भी बरबस ही 'ओह-आह' निकल जाती थी। आज घर के काम में हाथ बँटाने से उसे चंदा ने मना कर दिया था अतः उनके निर्देशानुसार वह सामान्य रूप से तैयार हो कर अपने कमरे में बैठी एक मासिक पत्रिका पढ़ रही थी। 


ड्रॉइंग रूम माधुरी के कमरे के ठीक पास में था। सुबह के लगभग ग्यारह बज रहे थे। माधुरी को ड्रॉइंग रूम से कुछ आवाज़ें सुनाई दीं। समझ गई वह कि मेहमान आ गए हैं। कार्यक्रम यूँ तय हुआ था कि मेहमानों के आने पर औपचारिक वार्तालाप के बाद चंदा माधुरी को आवाज़ देकर परिचय के लिए बुलाएगी। वह बुलावे का इंतज़ार कर ही रही थी कि उसे ड्रॉइंग रूम में हो रही बातचीत में सामान्य से कुछ अधिक ऊँचे स्वर सुनाई दिए। वह दरवाज़े के नज़दीक पहुंच गई, ताकि उनकी बातें ठीक से सुन सके। 

उसने सुना, राज नाथ कह रहे थे- "नहीं लक्ष्मी लाल जी, इतना तो मेरे बूते के बाहर है। मैं बहुत जोर लगा कर भी पांच लाख से अधिक कैश नहीं दे पाऊँगा। हाँ, बारात के स्वागत में कोई कोर-कसर नहीं रखूँगा। आप बड़े लोग हैं। अगर थोड़ा नरमी बरतेंगे तो मैं समय-समय पर बाद में सेवा करता रहूँगा। कृपया..."

"राज नाथ जी, आप सब्ज़ी खरीद रहे हैं क्या, जो इस तरह से मोलभाव कर रहे हैं? मेरा बेटा तहसील दार है। यह तो आपके दोस्त जग मोहन जी मेरे रिश्तेदार हैं, सो उनके कहने से मैंने आपके यहाँ रिश्ता करने का सोचा, वर्ना मेरे यहाँ तो अच्छे-अच्छे घरों से रिश्ते आ रहे हैं। यह समझ लीजिये कि पंद्रह लाख कॅश और एक सिडॉन कार से कम में बात...।" -चाय का कप टेबल पर रख कर लक्ष्मी लाल ने नकारात्मक रूप में सिर हिलाया।  

"एक बार बच्ची को तो देख लीजिये आप! उसने बी.कॉम. (ऑनर्स) विद डिस्टिंक्शन किया है। विश्वास कीजिये, मेरी बेटी हीरा है।" -राज नाथ ने नम्रता से कहा और फिर पुकारा- "गुड्डी बिटियाआ..आ!"

"नहीं जी, उसको क्या देखना है? बी.कॉम. तो कोई भी कर लेता है। हमें कौन उससे नौकरी करवानी है!"- उन महाशय का जवाब था। 

माधुरी पूरा माज़रा समझ चुकी थी। उसके कान गरम हो उठे, बिफर कर भीतर ही से कठोर स्वर में बोली- "पप्पा, इनसे कह दीजिए, किसी और दरवाजे पर जाकर अपने बेटे को बेचें। यहाँ उसका कोई खरीदार नहीं है।"

ड्रॉइंग रूम में बैठे लक्ष्मी लाल ने यह सुना तो अपमान से उनका चेहरा लाल हो गया। गुस्से से उनको कांपते देखा तो बेटा क्रोध में आ कर बोला- "उठिये पापा, चलें यहाँ से। इनका हीरा तो नहीं देखा, पर उसकी ठनक ज़रूर सुन ली है। इनकी औकात नहीं कि यह हम लोगों से रिश्ता कर सकें।"

"हाँ, हाँ, जाइये महाशय! आपकी औकात भी हमने देख ली है।" -एक बार फिर तीखे स्वर में भीतर से ही माधुरी ने कहा।  

"अरे साहब, आजकल के बच्चे हैं, आप बुरा न मानें। कृपया बैठिये, मैं आपसे माफ़ी चाहता हूँ।"

"बहुत हो गया। और क्या बाकी रहा है? चल लल्लू !"

शिष्टाचारवश राज नाथ व चंदा उनके पीछे-पीछे दरवाज़े तक जा कर वापस लौटे, तब तक माधुरी ड्रॉइंग रूम में आ चुकी थी। उसने चंदा से कहा- "मम्मा, जब आप भी यहाँ थीं, तो बोली क्यों नहीं। आप भी तो कुछ सुनातीं उन जाहिलों को।" चंदा खामोश रहीं। 

"गुड्डी, मैं बात कर रहा था न! तुम्हें यह सब कहने की क्या ज़रुरत थी। घर आये मेहमानों से ऐसा सलूक करते हैं क्या?" -राज नाथ ने अप्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा। 

"मैं तो चुप ही रही गुड्डी! एक तो वह महाराज पत्नी की बीमारी का कारण बता कर अकेले बेटे को साथ ले कर आ गये और फिर दो-चार मिनट की बातचीत में सीधे ही पूछन लगे कि शादी में क्या-क्या देंगे। यह भी कोई तरीका होवे है बात करन का?" -इस बार माधुरी से चंदा ने कहा। 

"और पप्पा, आप मुझसे सलूक की बात कह रहे हैं, ऐसे जाहिलों के लिए? वह समझते क्या हैं अपने-आप को, जो भिखमंगों की तरह से मुँह उठाये अपने लल्लू को ले कर चले आये यहाँ? तहसीलदार ही तो है लड़का, कोई कलक्टर तो नहीं है। और कलक्टर भी ऐसे मिजाज का हो तो मेरे ठेंगे से।" -माधुरी ने राज नाथ को जवाब दिया और मंद स्वर में बड़बड़ाई- 'लल्लू कहीं का, औकात की बात करता है।' 

राज नाथ से कोई जवाब देते नहीं बना, चुप रह गए। 

"पापा, अब आप लोग किसी से मेरे रिश्ते की बात न करना प्लीज़! मैं फ़िलहाल आगे पढाई करूँगी।" -दृढ स्वर में वह बोली और अपने कमरे में चली आई।


(2)


 माधुरी का मन आक्रोश से भर उठा था। सब कुछ सह सकती थी वह, लेकिन अपने माता-पिता का अपमान सहना उसके बस में नहीं था। वह कुछ देर बिस्तर पर अनमनी सी पड़ी रही। राज नाथ व चंदा ने अभी उससे कुछ कहना उचित नहीं समझा। राजनाथ किसी काम से बाहर निकल गए और चंदा अपने काम में लग गई। कुछ देर बाद पड़ोस में बैडमिंटन खेल कर आया प्रवीण माधुरी के कमरे में आया। आते ही पूछ उसने- "क्या बात है जीजी, मम्मी ढंग से बोल नहीं रही हैं और आप भी खाये-पीये बिना बिस्तर पर लेटी हुई हो। लगता है, बात कुछ बनी नहीं।"

"बकवास बंद करेगा या पिटना है तुझे?" -झल्ला कर माधुरी ने फटकारा। सकते में आया प्रवीण कमरे से बाहर निकल गया। कुछ देर और माधुरी यूँ ही पड़ी रही, फिर बाहर लॉन में चली आई। धूप तीखी थी, सो दो-तीन मिनट वह छाया वाले भाग में टहलती रही। सोचते-विचारते कई भाव उसके चेहरे पर आ, जा रहे थे। उसने एक उचटती नज़र समीपस्थ पौधों पर डाली। उन पर खिले पुष्प हमेशा की तरह उसको लुभा नहीं सके। कोई अपना पूरा असर दिखा रहा था, उसकी बेचैनी को बढ़ा रहा था, तो वह था आसमान में धधकता हुआ आग का गोला। हाँ, इतनी देर के चिंतन ने उसे एक निश्चय पर अवश्य पहुंचाया। वह वापस भीतर चली आई और सीधी माँ के पास जा कर बोली- "मम्मा, मैं अब कॉलेज में आगे की पढाई नहीं करूँगी।"

"क्या कह रही है लाडो? तुझे तो इत्ती ललक थी पढ़ने की, अब अचानक का हो गया?"

"हाँ, मम्मी, मैं एम. कॉम. नहीं करूँगी। अब मैं आर.ए.एस. कम्पीटीशन के लिए की तैयारी करूंगी।" 

"मैं तो सिर्फ़ आठवीं तक पढ़ी हूँ बेटा, पर इतना ज़रूर सुना है कि ये परीक्षा बहुत कठिन होवे है।"

"अपनी बेटी पर भरोसा रखो माँ, वह कुछ भी कर सकती है।"

चंदा आश्वस्त हुईं बेटी की बात सुन कर। उन्हें पता था, वह उन्हें 'माँ' तभी कहती है, जब वह आत्मविश्वास से लबरेज़ होती है। 

"गुट्टन कहाँ है मम्मी?" -माधुरी को प्रवीण की याद हो आई। 

"तुझसे रूठ कर बैठा है अपने कमरे में। फिर कुछ लड़ाई हुई तुम दोनों में? ना तू समझे है ना वो, मैं तो थक गई दोनों से।"

"अरे अभी बात करती हूँ उस बुद्धू से।" -माधुरी प्रवीण के कमरे की तरफ लपक कर गई। उसने देखा, उसकी आँख लग गई है तो उलटे पैर वापस लौट आई। 


माधुरी जी-जान से आर.ए.एस. की तैयारी में लग गई। आर.ए.एस. (प्रीलिम) में जनरल नॉलेज व जनरल साइंस  के प्रश्न पूछे जाते हैं, सो इनसे सम्बन्धित कुछ किताबें वह बाज़ार से खरीद लाई थी व कुछ उसने अपनी सहेली सुनयना से ले ली थीं। उसने शहर का एक कोचिंग इंस्टिट्यूट भी जॉइन कर लिया। आर.ए.एस. की वेकन्सी निकलने पर उसने 16 जून, 18 को फॉर्म भर दिया। 5 अगस्त को आर.ए.एस. (प्रीलिम) की परीक्षा होनी थी। 31 जुलाई को उसका एडमिशन कार्ड आ गया। पूरे आत्मविश्वास के साथ उसने परीक्षा दी। पूछे गए 150 प्रश्नों में से 138 को उसने सही हल कर लिया था। 23 अक्टूबर को परिणाम आया। वह उत्तीर्ण घोषित की गई थी। अब उसे 'मेन्स' की तैयारी करनी थी। 

"बिटिया, प्रतियोगिता में यह तो तुम्हारा क्वालीफाइंग एक्ज़ाम था। तुम्हारी यह पहली सफलता है। तुम्हें अभी मेन्स क्लियर करना है और वह भी अच्छे अंकों से। तुम्हें पूरी ताकत से तैयारी में जुट जाना चाहिए।" -राज नाथ ने उसे उत्साह दिलाया। 

"हाँ पापा, पूरी कोशिश करूंगी मैं। अब तो मेरी ज़िन्दगी का मकसद ही यही है।" -माधुरी ने दृढ़तापूर्वक जवाब दिया। 

माधुरी के व्यव्हार में अब वह पहले वाली चंचलता नहीं रही थी। वह अब प्रवीण से आइसक्रीम को ले कर भी नहीं झगड़ती थी। राज नाथ व चंदा उसके व्यवहार में आये परिवर्तन को देख कर चकित थे। वह घर का काम भी यथासंभव उसे नहीं बताते थे। दैनिक कार्यों के अलावा माधुरी के पास दो कार्य ही रह गए थे, घर पर अपने कमरे में बैठ कर दिनभर अध्ययन करना व शाम को  कोचिंग क्लास में जाना। चंदा उसे समझातीं कि कुछ घंटों के लिए पढ़ाई को एक तरफ रख कर वह कुछ आराम करे, मन बहलाने की कुछ जुगत करे, क्योंकि लगातार पढ़ते रहने से स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ सकता है। माधुरी सुनती और हँस कर टाल देती- "मम्मा, एक बार इसमें सलेक्शन हो जाये, फिर आराम ही आराम है।" माधुरी को कहाँ पता था कि अब उसके आराम के दिन जा चुके हैं। 


आर.ए.एस. 'मेन्स' की परीक्षा के पहले के दो सप्ताहों में माधुरी ने पढ़ाई में दिन-रात एक कर दिये। दिन में भी पढ़ती और रात को भी। मात्र तीन-चार घंटे ही सोती थी वह। जून, 19 की 20 तारीख को आर.ए.एस. 'मेन्स' का एडमिशन कार्ड आ गया। एक सप्ताह बाद दि. 25 व 26 को 'मेन्स' की परीक्षा थी। 25, जून को उसके पेपर्स बहुत अच्छे हुए। इससे उत्साहित हो 25 तारीख की पूरी रात उसने काली कर दी। 26 को उसके दो पेपर होने थे। उसने दोनों पेपर्स का लगभग पूरा रिविज़न कर डाला। नींद व थकान के कारण आँखें बोझिल हो जाने से अलसवेरे अलार्म लगा कर आधे घंटे की नींद लेने का निश्चय किया। अलार्म बजा भी, लेकिन उसकी नींद नहीं खुली। नींद खुली एक घंटे बाद, जब चंदा ने उसको झकझोर कर उठाया- अरे गुड्डी, मैं तो समझ रही थी कि तू तैयार हो रही है और तू तो अभी तक सोई पड़ी है।"

हड़बड़ा कर उठी वह। झटपट तैयार हो, स्कूटी दौड़ा कर परीक्षा-केन्द्र पर पहुँची तो बीस मिनट की देरी हो गई थी। सुपरवाइज़र की चिरौरी कर के जैसे-तैसे वह परीक्षा-कक्ष में पहुँची। देर तो हो गई थी।, लेकिन उसका पेपर देखा तो उसका दिल बल्लियों उछल पड़ा। सभी प्रश्न उसके तैयार किये हुए थे। उसने उत्तर-पुस्तिका खोल कर पहले प्रश्न का हल लिखने के लिए पेन उठाया। लेकिन यह क्या...? उसे उत्तर मालूम था, किन्तु लिख नहीं पा रही थी। उसका दिमाग़ घूम रहा था। उसने अपना सिर मेज पर रख दिया। 

कुछ देर तक माधुरी को इसी अवस्था में देखा, तो अन्वीक्षक ने उसके पास आ कर पूछा- “बच्ची, क्या बात है? तुम ठीक तो हो?"

माधुरी ने सिर उठाया, बोली- "सर, मेरा सिर घूम रहा है। मुझे प्रश्न-पत्र के लगभग सभी प्रश्नों का हल पता है, लेकिन कलम नहीं चल रही। समझ में नहीं आ रहा, क्या करूँ?"

"क्या तुम रात को ठीक से सोई नहीं थीं?" -अन्वीक्षक ने पूछा।

"जी सर, मैं रात भर पढ़ती रही हूँ।"

"ओह!" -अन्वीक्षक ने धीमे स्वर में कहा और चपरासी को आवाज़ लगा कर पानी मंगवाया। माधुरी ने दो घूँट पानी पीया और वापस अपना सिर मेज पर टिका दिया। अन्वीक्षक दस-पंद्रह सेकण्ड उसके पास रुका, पर कक्ष में अन्य परीक्षार्थियों की कानाफूसी की आवाज़ सुन कर राउण्ड लगाने लगा। लगभग दस मिनट तक माधुरी उसी अवस्था में सिर झुकाये बैठी रही तो अन्वीक्षक ने पुनः उसके पास जा कर पूछा- "अगर तुम अपनी तबियत ठीक महसूस नहीं कर रही हो तो डॉक्टर को बुलवा लें?" अपनी जगह खड़ी हो कर उसने कहा- "नहीं सर, मैं ठीक हो जाउंगी। मुझे दस मिनट के लिए बाहर जाने की अनुमति दें।"

अन्वीक्षक ने एक महिला चपरासी को बुलवा कर माधुरी को उसके साथ बाहर जाने की अनुमति दे दी।

चपरासी के साथ बाहर लॉन में जा कर माधुरी पन्द्रह-बीस मिनट बैंच पर बैठी रही और कुछ बेहतर महसूस होने पर कक्ष में लौट आई।

जैसे-तैसे समय पूरा होने तक माधुरी प्रश्न-पत्र हल करने में जुटी रही, लेकिन मस्तिष्क और हाथ उसका साथ नहीं दे पा रहे थे। फलतः बमुश्किल वह आधा प्रश्न-पत्र ही हल कर सकी। समय पूरा होते ही उसकी टेबल से कॉपी ले ली गई। हॉल से बाहर निकली तो वह बहुत नर्वस थी। उसने एक बार फिर अपना चेहरा अच्छी तरह से धोया और सेंटर की कैन्टीन में जा कर चाय पी। अब वह पहले से काफी बेहतर महसूस कर रही थी। 

आज का  यह पेपर अधूरा छूट जाने का उसे बेहद अफ़सोस था, लेकिन उसके बाद उसे विश्राम मिल गया था और अब 'करो या मरो' वाला मामला था। अब आज का अगला और आखिरी पेपर उसके सबसे अधिक फेवरेट विषय सामान्य हिन्दी व सामान्य अंग्रेजी का था। अतः अपनी समस्त शक्ति व आत्मविश्वास को मन में केन्द्रित कर उसने परीक्षा कक्ष में प्रवेश किया। पेपर सामने आने पर उसने एक नज़र उस पर डाली और बिना समय नष्ट किये पेपर हल करने में जुट गई। पेपर पूरा हल करने के बाद इस बार उसे कुछ तसल्ली हुई, लेकिन हॉल से बाहर निकलते ही पिछले पेपर का स्मरण कर वह पुनः निराशा में डूब गई। विकल मन लिए बोझिल क़दमों से वह घर पहुँची व सीधी अपने कमरे में चली गई। कुछ देर तक तो चंदा यह समझ कर कि कपड़े बदल कर वह बाहर आएगी, उसका इंतज़ार करती रहीं। करीब दस-बारह मिनट बाद उसने भीतर जा कर देखा, माधुरी पलंग पर औंधे मुँह लेटी  हुई थी। उसने प्यार से उसके बदन पर हाथ फिराते हुए कहा- "गुड्डी, आते ही सो कैसे गई तू?"

माधुरी पलटी, तो चंदा ने देखा, वह जाग रही थी, लेकिन उसकी आँखें आंसुओं से भरी  हुई थीं और तकिया भी आंसुओं से भीगा हुआ था।

"अरे मेरी लाडो, क्या हुआ तुझे? रो क्यों रही है?"- चिन्तित स्वर में चंदा ने उसका सिर सहला कर पास बैठते हुए  कहा।

चंदा धीरे से उठ कर बैठी व मां के कन्धों पर सिर रख कर सिसक पड़ी- "आपने सही कहा था मम्मी, मुझे रात को जागना नहीं चाहिए था।"

"का हुआ, पेपर अच्छा नहीं हुआ का?"

"मुझे सब-कुछ आता था, लेकिन आज का पहले वाला पेपर आधा ही हल कर सकी। दिमाग़ ही काम नहीं कर रहा था।... आर.ए.एस. का मेरा सपना बिखर गया माँ!"

"ऐसा ना कह गुड्डी! तू ज़रूर पास होएगी बेटा!"

"मम्मा, आर.ए.एस. परीक्षा में पास होना काफ़ी नहीं होता, बहुत अच्छे नम्बर लाने होते हैं। मेरे और सभी पेपर्स अच्छे हुए हैं, वह एक पेपर नहीं बिगड़ता तो कितना अच्छा होता!" -अपना सिर चंदा के कंधे से हटाते हुए माधुरी ने कहा।

"अरे, तो इतना परेशान क्यूँ हो रही है? नतीजा थोड़े ना आ गया है अभी। अच्छे नम्बर आवेंगे तेरे।"

"मम्मी, मेरी कॉपी आपके पास जांचने के लिए आए, तो ही मुमकिन है यह।" -माधुरी के चेहरे पर निराशा भरी मुस्कराहट थी।

"ठीक है, मंगवा लेती हूँ तेरी कॉपी अपने पास।" -चंदा उसके परिहास में योग देते हुए हँसीं और "अब कपड़े बदल कर बाहर आ जा और नहा ले, खाना तैयार होने को है।", कहते हुए कमरे से बाहर निकल गई।


(3)


9 जुलाई को आर.ए.एस. (लिखित परीक्षा) का परिणाम आया। तीसरे पेपर ने माधुरी के विश्वास को डगमगा दिया था, इसलिए परिणाम के प्रति मन को पूरी तरह आश्वस्त नहीं कर पा रही थी वह। धड़कते दिल से उसने अखबार देखा। अख़बार में अपना रोल नम्बर देख कर उसके मुख पर प्रसन्नता की रेखाएँ उभर आईं। राज नाथ व चंदा को भी बहुत ख़ुशी हुई। कई दिनों बाद उन्होंने अपनी लाड़ली का चेहरा खिला हुआ देखा था।

पता लगते ही प्रवीण ने चहकते हुए कहा- "जिज्जी, अब तो मिठाई खिला दो। इतने दिनों से मुँह लटकाये बैठी थीं। अब तो अफसर बन ही जाओगी।"

"अरे नटखट, मिठाई से मुँह भर दूँगी तेरा, बस इंटरव्यू  में मेरा सलेक्शन हो जाए।" -प्रवीण की दोनों बाँहों को अपने हाथों में थाम कर माधुरी चहकी।

'बस, कुछ दिन और जम कर तैयारी कर लूँ।... इंटरव्यू में भगवान निकलवा दे, फिर तो बेड़ा पार है।' -माधुरी ने मन में सोचा। 

दो दिन माधुरी अपनी सहेलियों के साथ खूब घूमी-फिरी और अपने घर वालों के साथ भी दिल खोल कर बतियाती रही।

"सामान्य ज्ञान व अपने विषयों से सम्बंधित मुख्य टॉपिक्स के अलावा क्षेत्रीय जानकारी देने वाली सभी अवेलेबल हेल्प बुक्स को चाट डालना यार माधुरी तू।" -दो बार आर.ए.एस. की परीक्षा में बैठ चुकी उसकी पक्की दोस्त सुनयना ने उसे ज्ञान दिया। यह अलग बात है कि वह एक बार ''प्रीलिम'' में ही और दूसरी बार लिखित परीक्षा में असफल हुई थी और हताश हो कर अब शहर के एक प्राइवेट स्कूल में अस्थायी रूप से अध्यापकी कर रही थी।

"हाँ यार, थैंक यू सो मच।" -माधुरी ने अपने हाथ से सुनयना की बांह दबा कर अपना आभार व्यक्त किया।


पसंदीदा सेवा का ऑप्शन देने की अंतिम तिथि 21 मार्च घोषित की गई थी।

'यह क्या बात हुई कि रिज़ल्ट तो जुलाई में निकल गया और सेवा-चयन का ऑप्शन अब आठ महीने बाद माँगा जा रहा है', साक्षात्कार के लिए बुलावे का बेसब्री से इन्तज़ार रही माधवी सरकारी सुस्ती को मन ही मन कोस रही थी। औपचारिकता पूरी करने के लिए उसने 20 मार्च को प्रथम चार सेवाओं के नामों को वरीयता क्रम से बता दिया, यद्यपि प्रशासनिक सेवा में जाना ही उसका लक्ष्य था।

माधुरी की प्रतीक्षा का अंत हुआ। सरकार द्वारा दी गई सूचना के अनुसार साक्षात्कार के लिए 21 जून से तीन सप्ताह तक की अवधि निर्धारित की गई थी और माधुरी को दि. 2 जुलाई को साक्षात्कार के लिए जाना था। 

साक्षात्कार के लिए वह एक दिन पहले ही अजमेर पहुँच गई। उसके मामा अजमेर में रहते थे। उसका ममेरा भाई उसे लेने स्टेशन पर आ गया। माधुरी ने दिन में अपनी तैयारी को फिनिशिंग टच दिया और रात को भरपूर सोई। अपने पिछले कटु अनुभव के कारण वह कोई रिस्क लेना नहीं चाहती थी।

इंटरव्यू में पूछे गए अधिकांश सवालों का उसने सही उत्तर दे दिया और दो-तीन ऐसे सवाल, जिनका उत्तर उसे पता नहीं था, उनके लिए उसने स्पष्ट रूप से अपनी अनिभिज्ञता व्यक्त कर दी। साक्षात्कार के अंत में दो एक्सपर्ट्स ने उसे शुभकामना भी दी।

मामा के परिवार को धन्यवाद देकर माधुरी ने उनसे विदा ली। भीलवाड़ा लौटी, तो स्टेशन पर उसके पापा  प्रतीक्षा में खड़े मिले। माधुरी ने मुस्कराते हुए उनके पाँव छूए, तभी राज नाथ समझ गये कि बेटी इंटरव्यू अच्छा कर के आई है। उन्होंने उसे गले लगा कर बधाई दी- "बस इसी तरह तू हमेशा खुश रहे, सफल होती रहे, ईश्वर से यही प्रार्थना है।"

घर आ कर उसने दोनों को बताया कि इंटरव्यू उम्मीद के मुताबिक अच्छा हो गया है।

अपनी तरफ से माधुरी ने अच्छी मेहनत कर ली थी। हाँ, तीसरा पेपर वह ठीक नहीं कर पाई थी, किन्तु उसका अब कुछ नहीं हो सकता था, सो अपने स्वभाव के अनुसार परिणाम के विषय में अब वह अधिक चिंतित नहीं थी।

 

परीक्षा की तैयारी के कारण माधुरी ने एम.कॉम में प्रवेश के लिए फॉर्म नहीं भरा था। ऐसी स्थिति में लगभग तीन वर्षों की मेहनत के बाद अब उसके पास मौज-मस्ती के लिए यथेष्ट समय था। प्रवीण भी आठवीं कक्षा में उत्तीर्ण हो कर आज़ाद पंछी बना हुआ था। दोनों भाई-बहिन अब पुनः अपने पहले वाले रंग में रम गये। मौसम में ठंडक आ गई थी, फिर भी हर दूसरे-तीसरे दिन आइसक्रीम घर में आने लगी और अधिक हिस्सा लेने के लिए दोनों के बीच फिर तू-तू, मैं-मैं होने लगी थी। लड़ते-झगड़ते रहने के बावज़ूद दोनों भाई-बहिन के बीच बेशुमार प्यार था, यह बात उनका नज़दीकी हर व्यक्ति जानता था।  

रविवार का दिन था। लंच के बाद माधुरी अपने कमरे में सुस्ता रही थी। दोपहर करीब दो बजे घंटी बजने पर उसने बाहर जा कर देखा, सुनयना आई थी। कमरे में आते ही उसने मैटिनी शो में मूवी देखने का प्रस्ताव रख कर पूछा- "यार, तू फ्री तो है ना?"

 माधुरी तो हथेली पर सरसों लिए बैठी थी, तुरंत रजामंदी देते हुए बोली- "फ्री एज़ एयर! ... यार, मेरा भी कहीं बाहर निकलने का मन था। चल, तेरी इच्छा के अनुसार मूवी ही देख लेते हैं। एक कप चाय पी लें, फिर चल पड़ते हैं।"

कुछ देर गपशप लगाने के बाद माधुरी ने घर के और लोगों से भी चाय के लिए पूछा। सब के हामी भरने पर उसने चाय बनाई। 

सब ने ड्रॉइंग रूम में बैठ कर चाय ली। उनके प्रोग्राम का पता लगने पर प्रवीण ने आजिजी के स्वर में माधुरी से पूछा- "जीजी, मुझे भी ले चलोगी सिनेमा देखने?"

"पागल है क्या गुट्टन! तू क्यों जायेगा उनके साथ? दाल-भात में मूसल चंद!" -चंदा ने मीठी झिड़की दी। 

"आने दो न मम्मी, वह भी देख लेगा मूवी।" -माधुरी ने कहा। 

"नहीं गुड्डी, अभी तुम लोग जा आओ। अगले सप्ताह हम सब लोग साथ चलेंगे।" -इस बार राज नाथ ने कहा। 

प्रवीण ने भी कोई हठ नहीं किया। दोनों सहेलियां जसवंत टॉकीज़ में मूवी देखने चली गईं। मूवी देख कर करीब आधा घंटा पास वाले पार्क में गपशप की और फिर सुनयना से विदा ले कर माधुरी घर आ गई। 

इसी तरह माधुरी का अधिकांश समय मनोरंजन में गुज़रता रहा। 


समय निकलते देर नहीं लगती। 24 जुलाई, 2021 का दिन भी आ ही गया, जब आर.ए.एस. परीक्षा का अंतिम परिणाम आना था। अगले दिन अख़बार आते ही घर के सभी सदस्यों ने उस पर आँखें गड़ा दीं। वरीयता क्रम से सर्वप्रथम राजस्थान प्रशासनिक सेवा में चयनित अभ्यर्थियों के रोल नंबर अंकित थे और उसके बाद क्रमशः राज. पुलिस सेवा, राज. लेखा सेवा,  राज. बीमा सेवा, आदि अन्य सेवाओं के लिए चयनित अभ्यर्थियों के रोल नंबर थे। माधुरी ने बहुत ध्यान से सूची देखी। राजस्थान प्रशासनिक सेवा में उसका रोल नंबर मौज़ूद था, लेकिन रैंक अड़तालीसवां था। उसे अपने चयन की ख़ुशी तो हुई, किन्तु अधिक उल्लसित नहीं थी वह। उसे अच्छी रैंक नहीं आने का अनुताप था। 

उसे हताशा में मुंह लटकाये देख कर राज नाथ ने समझाया- "बिटिया, हज़ारों प्रत्याशियों में से केवल हज़ार-ग्यारह सौ का चयन हुआ है। तू तो लकी है कि आर.ए.एस. प्रॉपर में तेरा नंबर तो आया है कम से कम।"

"नहीं पापा, मुझे तो ऊपर का रैंक चाहिए था। मैं जॉइन नहीं करूंगी।"

"फिर क्या करेगी गुड्डी?" -चंदा ने पूछा।

"मैं रिपीट करूँगी, एक बार और प्रयास करूँगी माँ।"

माधुरी की दृढ़ता देख चंदा ने कोई प्रतिवाद नहीं किया, किन्तु राजनाथ ने वाणी में स्निग्धता ला कर कहा- "बिटिया, अगर तूने यह सोच ही लिया है तो और बात है, पर सोच, अगर दूसरी बार में भी अच्छे नम्बर नहीं आये तो क्या होगा? ऐसी हालत में तू एक बैच से पिछड़ न जाएगी। अच्छी तरह सोच ले गुड्डी, फिर फ़ैसला लेना।"

"हाँ, पापा!" -माधुरी ने कहा। चंदा माधुरी के चेहरे पर आ रहे हाव-भाव के बदलावों को ध्यान से देख रही थीं । उन्हें लग रहा था कि माधुरी अपने पिता की बातों पर मनन अवश्य करेगी।


(4)


अगले दिन माधुरी सुनयना के घर उसकी किताबें लौटने गई। सुनयना ने माधुरी की कशमकश के बारे में जाना तो उसकी आँखों में आँखें डाल कर कहा- "माधुरी, यार तू खुशनसीब है कि पहली बार में ही तेरा सलेक्शन हो गया है। मुझे देख, दो बार कोशिश की, लेकिन टाँय-टाँय फिस्स! यह सही है कि तू मेरे मुकाबले बहुत इंटेलीजेंट है, लेकिन फिर भी हाथ आये अवसर को अनिश्चित के भरोसे क्यों खो देना चाहती है? बादल की आस में भरी गगरी नहीं फोड़ते मेरी जान!"

युवा पीढ़ी को पेरेंट्स के मुकाबले अपने दोस्तों की बात ज़्यादा प्रभावित करती है। पिता से प्राप्त परामर्श पर सुनयना की बात से संवर्धन पा कर माधुरी तनिक आश्वस्त हुई। उसने सुनयना को संक्षित-सा प्रत्युत्तर दिया- "थैंक्स सुनयना, शायद तू सही कह रही है।"


पिता व सुनयना की बातें माधुरी के दिमाग़ को आन्दोलित कर रही थीं। दो दिन तक निश्चय-अनिश्चय के घेरे में रही माधुरी ने अन्ततः इस चयन को अपना प्रारब्ध मान लिया। कहीं न नहीं यह विचार भी उसे सम्बल दे रहा था कि उसे दिये गये उत्तरदायित्व को वह निष्ठापूर्वक निभायेगी तो रैंक की निचली वरीयता की क्षतिपूर्ति कर सकेगी।

 

 बेटी के असमञ्जस से खिन्न चंदा व राज नाथ को माधुरी ने जब अपना निश्चय बताया तो दोनों के चेहरे खिल गये। नज़दीक ही बैठा प्रवीण भी चहका- "वाओ जिज्जी! अब तो मैं आपसे पेट भर कर आइसक्रीम लूँगा।" बहिन की ख़ुशी देख कर वह उत्साहित था। 

"अरे आइसक्रीम से तुझे नहला दूँगी गुट्टन! आज ही ढेर सारी वैरायटी की आइसक्रीम लाती हूँ तेरे लिए।" -आगे बढ़ कर माधुरी ने प्रवीण का माथा चूम लिया। गुट्टन कृतकृत्य हो उठा। बहुत दिनों बाद जीजी का इतना प्यार जो मिला था उसे। लिपट गया वह माधुरी से। 


निर्धारित दिनांक, 27, दिसम्बर को प्रातः साढ़े नौ बजे माधुरी ने आर.ए.एस. की ट्रेनिंग हेतु जयपुर के ओ.टी.एस. (एच.सी.एम. इंस्टिट्यूट) में अपनी उपस्थिति दी। प्राप्त जानकारी के अनुसार यहाँ दो माह की ट्रेनिंग होनी थी और उसके बाद सभी प्रशिक्षुओं को सम्बधित विभागों में प्रैक्टिकल ट्रेनिंग करनी थी। ओ.टी.एस. का केम्पस एक नज़र में माधुरी को बहुत भाया। उसे  कमरा नं. 12 अलॉट हुआ था। बहुत बड़ा तो नहीं, लेकिन सभी सुविधाओं से युक्त यह एक अच्छा कमरा था। उसने अपने साथ लाया सामान करीने से जमा दिया। फ्रेश होने के बाद वह आराम करने पलंग पर लेटी ही थी कि हॉस्टल की मैस से नाश्ता तैयार होने की सूचना मिलने पर वह मैस में नाश्ते के लिए पहुँची। पहला दिन फैकल्टी  व अन्य ट्रेनीज़ के साथ आपसी परिचय में ही बीत गया। ट्रेनीज़ को कुछ मटेरियल तो ओ.टी.एस. से दे दिया गया था और ट्रेनिंग के लिए नियुक्त अधिकारियों ने भी अगले ही दिन से पढ़ाना शुरू कर दिया था। अतः पहले सप्ताह में ही पढाई ने रफ़्तार पकड़ना शुरू कर दिया। ट्रेनिंग के मुख्य पाठ्य-बिन्दुओं का एक निश्चित क्रम था। विभिन्न विभागों में काम कैसे होता है? प्रशासनिक अधिकारियों के जिम्मे क्या काम होता है, कर्मचारियों व अपने से वरिष्ठ अधिकारियों के साथ किस तरह का व्यवहार किया जाना वांछनीय है, जटिल परिस्थितियों में हालात को कैसे हैंडल किया जाना चाहिए, अब तक की गई पढ़ाई व ट्रेनिंग में बताई गई बातों के अलावा अधिकारी को स्वविवेक का इस्तेमाल कैसे करना चाहिए, आदि-आदि।

ओ.टी.एस. में दिन की शुरुआत योग व पी.टी. आदि से होती थी। उसके बाद क्लासेज़ लगती थीं। योग, आदि के बाद वह एकदम तरोताज़ा महसूस करती थी और एक अच्छे दिन के लिए स्वयं को तैयार पाती थी। 

ओ.टी.एस. में आये दस दिन हो गए थे माधुरी को। पढाई से सम्बन्धित उसकी बातचीत इक्का-दुक्का साथियों से हो जाती थी, किन्तु उसका अभी तक किसी से नज़दीकी संपर्क नहीं हुआ था। उसने स्वयं ने भी अभी तक मित्र बनाने में कोई रुचि नहीं ली थी। आज रविवार था। माधुरी को घर की बहुत याद आ रही थी, किन्तु सोमवार को एक नया टॉपिक पढ़ाया जाने वाला था, सो वह घर के लिए नहीं निकल सकती थी। कमरे में बैठना उसे अच्छा नहीं लग रहा था, अतः पहले तो उसने अपनी मम्मी को कॉल लगाया और उनसे बात कर लेने के बाद समय गुज़ारने के लिए वह कैम्पस के लॉन में आ कर एक बैंच पर बैठ गई व साथ में लाई एक मैगज़ीन देखने में व्यस्त हो गई। 

"हेलो माधुरी, क्या हो रहा है?" -किसी लड़की की आवाज़ सुन कर वह चौंकी। नज़र उठा कर देखा तो एक सुदर्शन युगल पास में खड़ा था। उनके चेहरे देख कर उसे आभास हो गया कि दोनों उसके बैचमेट थे।

"बस यूँ ही बैठी टाइम किल कर रही हूँ। रूम में मन नहीं लगा, तो यहाँ चली आई।... लेकिन आप मेरा नाम कैसे जानती हैं?" -माधुरी ने उसके प्रश्न का जवाब प्रश्न से ही दिया और फिर शिष्टाचारवश पुनः बोली- "आइये बैठिये।"

"अरे मैडम, आप का नाम ले कर तो दत्ता सर क्लास में दो तीन बार आप से बात कर चुके हैं। आप तो लेक्चर में पूरी तरह से इन्वॉल्व रहती हैं। हम तो भई, शुरू से ही बैकबेंचर रहे हैं, सो कभी कोई प्रश्न ही नहीं पूछा। बाई द वे, आ'एम चारु एण्ड ही इज़ उमेश, माय बॉय फ्रेंड। हम दोनों एकाउंट्स सर्विसेज़ में आये हैं।" -बैंच पर निकट ही बैठते हुए चारु ने प्रत्युत्तर में कहा।

"ओह, नाइस! फ्रैंड्स, क्यों न हम 'आप' के सम्बोधन की फ़ॉर्मेलिटी से बाहर निकलें?"

"हाँ माधुरी, सही कहा आपने।" -उमेश बोला।

"सही भी बता रहे हो और 'आप' कह के बात कर रहे हो उमेश!"

"क्षमा करना माधुरी, आदत में जो है यह। चलो, अब से ध्यान रखूँगा।" -उमेश को माधुरी की स्पष्टवादिता अच्छी लगी।

"कैसा लग रहा है यहाँ रहना और यहाँ की पढाई? -चारु ने माधुरी से पूछा।

"घर से पहली बार बाहर निकली हूँ तो ऑब्वियस्ली थोड़ा अखर तो रहा है, लेकिन यहाँ का कैम्पस अच्छा लगा और हाँ, पढ़ाई भी इम्प्रेसिव है। हॉस्टल में रहने का यह मेरा पहला अनुभव है। वैसे तुम लोगों में रिलेशनशिप क्या अभी-अभी हुई है?"

"नहीं! हम दोनों ने एक ही कॉलेज से बी.कॉम किया हथा। छः साल पहले हमारी दोस्ती थर्ड ईयर, बी.कॉम  में हुई थी, लेकिन घनिष्ठता आर.ए.एस. की कोचिंग लेने के दिनों में हुई थी।" -चारु ने बताया।

"वाह भई, पढ़ाई साथ में, कोचिंग एक साथ, फिर एक ही सर्विस में सलेक्शन भी। क्या खूब साथ निभाया है तुम दोनों ने!"

"हाँ, लेकिन पैदा अलग-अलग घरोंमें हुए हैं।" -चारु ने जवाब दिया और अपने ही कथन पर हँस पड़ी, जैसे कोई बड़ा जोक मार दिया हो। माधुरी को भी हँसना पड़ा। उमेश हल्के से मुस्करा दिया।

कुछ देर उनमें वार्तालाप होता रहा। उमेश वार्तालाप में बहुत सक्रिय था।

"अच्छा यार, अब हम चलते हैं। तुम भी चल रही हो या अभी यहीं रहोगी? -चारु ने पूछा।

कुछ दूर निकलने के बाद चारु ने उमेश से पूछा- "क्या बात है जनाब, चुप-चुप चल रहे हो? वहां तो बहुत चहक रहे थे। माधुरी के माधुर्य में रम गए हो क्या?"

"तुम भी ना चारु! कुछ भी बोल देती हो। मुझे क्या लेना-देना है माधुरी से?"

"जब लेना-देना नहीं है, तो खामोश क्यों हो इतना?"

"अरे, कुछ सोच रहा था यार!"

"यही न कि उनसे फिर कब मुलाकात होगी, बात होगी? गुदगुदी हो रही है न मन में?" -चारु ने फिर से उसे छेड़ा।

"तुम्हारे होते हुए उसके बारे में क्यों सोचूँगा भला? बावली हो गई हो?"

"भई, बला की सुन्दर जो है वह! वह कहाँ और मैं कहाँ?"

उमेश ने चारु की तरफ घूर कर देखा- "बंद भी करोगी तुम्हारा यह माधुरी पुराण?"

वह अनुभव कर रहा था कि चारु मजाक से कुछ आगे ही सोच रही है। उसने देखा, अब वह चुप हो गई थी, किन्तु  उसका चेहरा विवर्ण हो चला था। 'क्या चारु ने भाँप लिया है कि मैं माधुरी के प्रति आसक्त हो रहा हूँ? नहीं, ऐसा कोई संदेह उसके मन में नहीं आना चाहिए।', उमेश का दिमाग़ त्वरित गति से चल रहा था। प्रकट में बोला- "व्यर्थ के विचार हटा दो अपने मन से चारु। तुम्हारा स्थान कोई भी नहीं ले सकता।"

चारु ने तिरछी नज़र से उसकी ओर देखा- "देखो, मुझे धोखा मत देना उमेश। तुम्हारी चाहत में मैंने एक लम्बा समय गुज़ार दिया है। अपनी चाहत के बारे में तुम्हें तो मैंने कोचिंग के दौरान बताया था, जब कि इसकी चिन्गारी कॉलेज के दिनों में ही लग चुकी थी।"

"तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं है चारु?"

"ऐसा नहीं है यार, पर डर लगता है। मेरी एक सहेली कहती थी, मर्द लोग विश्वास के काबिल नहीं होते।"

"तुम लड़कियाँ भी न, एकदम पागल होती हो।" -उमेश ने एक लंबा ठहाका लगाया और भरोसा दिलाने के उद्देश्य से चारु का हाथ अपने हाथ में ले कर दबाया।


(5)


उमेश के मन में माधुरी के प्रति आसक्ति ने घर कर लिया था। वह प्रायः उसके बारे में सोचता रहता था। उसका  प्रयास रहता था कि किसी न किसी बहाने वह माधुरी से बात कर सके। उसे इसके लिए शीघ्र ही अवसर भी मिल गया। माधुरी के साथ लॉन में हुई मुलाकात के पांच दिन बाद ही चारु को एक निकट सम्बन्धी के देहान्त के कारण अपने घर जाना पड़ा। उसकी अनुपस्थिति के तीन दिनों में ही उमेश दो-तीन बार माधुरी से अलग से मिल चुका था। चारु के लौटने पर वह उससे न केवल दूर-दूर रहने लगा, माधुरी से हुई मुलाकातों के बारे में भी उसे नहीं बताया। चारु ने उमेश से उसकी बेरुखी का सबब पूछा तो उसने चतुराई से बहला दिया- 'अब हमें  पढाई में अधिक ध्यान देना चाहिए चारु, मैं ऐसा ही कर रहा हूँ। हम यहाँ पढ़ने आये हैं यार, और सब-कुछ तो बाद में होता रहेगा'। वह नहीं चाहता था कि माधुरी से स्पष्ट संकेत मिलने के पहले ही चारु हकीकत से रूबरू हो जाए।

उधर उमेश माधुरी से अलग से मिलने का कोई अवसर नहीं छोड़ता था।

चारु अनजान ही रहती, यदि उसे माधुरी ने उमेश से हुई मुलाकातों के बारे में नहीं बताया होता। चारु को उमेश के माधुरी से मिलने-जुलने का उतना शिकवा नहीं था, जितना इस बात का कि माधुरी से मिलने की बात उसने छिपाई थी। वह बहुत देर तक अपने कमरे में पड़ी रोती रही। उमेश उसकी मनःस्थति से भिज्ञ होते हुए भी अनजान बना रहा व माधुरी के साथ संपर्क बढ़ाता रहा, साथ ही लगातार चारु की उपेक्षा भी करने लगा। उमेश माधुरी की चाहत में डूबा तो जा रहा था, किन्तु आर.ए.एस. प्रॉपर में नहीं आ पाने की हीन भावना से ग्रस्त भी रहता था। वह एक बार कह भी चुका था- "माधुरी, तुम तो एक दिन आई.ए.एस भी बन जाओगी। मैं अनलकी रहा, कुछ ही नम्बरों से आर.ए.एस. में आने से रह गया।"

"यह क्या बात हुई यार? तुम भी ना, क्या-क्या सोचते रहते हो?" -माधुरी मुस्करा दी थी।

माधुरी की मनःस्थति भी कुछ-कुछ ऐसी ही थी। वह उमेश के वाग्जाल-पाश में धीरे-धरि बंधती चली जा रही थी, किन्तु दोनों की सेवाओं का अन्तर उसे बार-बार चेतावनी देता था। 'क्या इस रिलेशनशिप को सही अन्जाम तक ले जाना सम्भव हो सकेगा?' -माधुरी का मस्तिष्क उमेश के साथ बढ़ रहे सम्बन्धों की गहराई को वास्तविकता की कसौटी पर प्रायः परखता रहता था। इस सब के बावज़ूद उनके सम्बन्धों में घनिष्ठता बढ़ती जा रही थी।

उमेश जिस चारु से प्यार करता था, माधुरी के आकर्षण में इतना विस्मृत हो चला था कि अब उसके साथ रूखेपन से पेश आने लगा था। वह चाहता था कि चारु को अपनी ज़िन्दगी से पूर्णतः निकाल दे, ताकि माधुरी के अधिक नज़दीक आ सके। हालात यह हो गये थे कि अब वह दोनों चारु के सामने मिलने में भी संकोच नहीं करते थे। हाँ, घनिष्ठता के बावज़ूद माधुरी ने रमेश को अधिक आज़ादी नहीं दी थी। वह जानती थी कि जब तक सम्बन्धों में स्थायित्व न आ जाए, एक रेस्पेक्टेबल डिस्टेन्स बनाये रखना निहायत ज़रूरी है।

उमेश की बेवफाई ने चारु का दिल तोड़ दिया था। उसके मन ने इस सच्चाई को स्वीकार कर लिया था कि उमेश अब उसका नहीं रहा। क्लास के आलावा अब कभी उसे कहीं देख भी लेती तो दूसरी तरफ देखते हुए निकल जाती थी। स्त्री प्यार के मामले में पुरुष के ही नहीं, अन्य स्त्री के मनोभावों को पढ़ लेने की भी अद्भुत क्षमता रखती है। चारु ने भी माधुरी के हाव-भाव में आ रहे परिवर्तन को भाँप लिया था, अतः उसने उससे भी दूरी बना ली।

माधुरी, वैसे तो एक-दो दिन में अपने परिवार के सदस्यों से बात कर लिया करती थी, किन्तु आज उसने बहुत देर तक बात की। वह खुश थी कि अब उसने अच्छा कॅरिअर ही नहीं, एक अच्छा साथी भी पा लिया है। वह उमेश की खूबसूरती ही नहीं, उसके वाक-चातुर्य से भी बहुत प्रभावित हुई थी। 'उमेश के साथ बिताये हुए पल कितने खूबसूरत होते हैं! कल रविवार है। कितना अच्छा हो, कल उसके साथ आउटिंग का कोई प्रोग्राम बन जाए!' -उसके चेहरे पर एक मधुर मुस्कान तैर आई। वह इन स्वप्निल विचारों में खोई थी कि उसका फोन घनघना उठा। 'उफ्फ़, क्यों फिज़ूल चिल्ला रहा है', मोबाइल पर झल्लाते हुए उसने कॉल रिसीव की। 'हेलो' कहने पर उधर से आये 'हाय' के प्रत्युत्तर ने उसके मन को आल्हादित कर दिया- "हाय उमेश, आज तो यार, मैं जो भी मांगती, मिल जाता।"

"ऐसी क्या जादूगरी हासिल कर ली आपने, हम भी तो सुनें।"

"मैं तुम्हारे बारे में ही सोच रही थी और तुम्हारा फोन आ गया।"  

"वाओ, नसीब खुल गये हमारे तो! तो चलें फिर कल मूवी देखने?

"ज़्यादा ख्वाब मत देखो जनाब! हम लड़कों के साथ मूवी-शूवी नहीं जाते।"

"अरे, किसी और लड़के के साथ नहीं, उमेश के साथ जाओगी तुम!" -उधर से खिलखिलाने की आवाज़ आई।

"अच्छा बाबा, कौन सी मूवी में ले जा रहे हो?"

"पीवीआर में नून शो में 'हसीना मान जाएगी' लगी है। पुरानी मूवी है, पर मस्त है।"        

माधुरी ने यह मूवी देखी नहीं थी, सो हामी भर दी।      

अगले दिन उमेश ने टैक्सी मंगवा ली और दोनों समय पर पीवीआर पहुँच गये। टिकिट उमेश ने ऑनलाइन ही खरीद लिये थे। 

हॉल की बॉक्स क्लास में उनके सीट पर बैठने के पांच मिनट में ही मूवी स्टार्ट हो गई। । नायिका बबीता थी एवं नायक शशि कपूर डबल रोल में था। माधुरी एकचित्त मूवी का मज़ा ले रही थी। एक रोमान्टिक दृश्य पर्दे पर चल रहा था कि तभी उसने एक हाथ को अपने कन्धे से नीचे सरकता मससूस किया। चौंक कर उसने देखा, यह और किसी का नहीं, उमेश का हाथ था। उसने आहिस्ता से उसके हाथ को हटा दिया। उसे बहुत छिछली लगी उसकी यह हरकत, लेकिन कहा कुछ नहीं और फिर से फिल्म देखने लगी। इंटरवल में हॉकर के आने पर उमेश ने कोल्ड ड्रिंक्स का ऑर्डर दिया, किन्तु माधुरी ने स्पष्ट रूप से मना कर दिया। उमेश आग्रह करने का साहस न कर सका और ऑर्डर कैंसिल कर दिया।  

मूवी ख़त्म होने पर दोनों बाहर निकले, तो माधुरी खामोश थी, उसका चेहरा भावहीन था। उमेश ने दबे स्वर में बात करने की कोशिश की, लेकिन माधुरी ने कोई जवाब नहीं दिया। उमेश ने टैक्सी के लिए फोन किया, तो  माधुरी ने कहा- "उमेश, मुझे शहर में कुछ काम है। तुम जाओ, मैं एक घंटे बाद आऊँगी।"

उमेश के जवाब का इन्तज़ार किये बिना ही माधुरी ने सड़क क्रॉस करने के लिए कदम बढ़ा दिये। ठगा सा खड़ा उमेश टैक्सी का इन्तज़ार करने लगा। 

 माधुरी को कुछ काम तो था नहीं। उसे यूँ ही कुछ समय गुज़ारना था, सो कुछ दूर तक चलने बाद नज़र आई एक कॉस्मेटिक्स की दुकान में घुस गई। दो-तीन आइटम्स की वैरायटीज़ देखने के बाद उसने अपने लिए एक माउथवॉश और एक नीविया नरीशिंग बॉडी लोशन खरीद लिया। 

उमेश से विदा लेने के बाद से एक ही विचार उसके मन को कुरेदता रहा, 'उमेश किस तरह का व्यक्ति है? वह इतनी घटिया सोच वाला इन्सान कैसे हो सकता है? वह और मैं जिन सरकारी पदों पर सेवा के लिए तैयार हो रहे हैं, क्या इस तरह की छिछोरी हरकत शोभा देती है?... उसने शायद मुझे बहुत हल्के में ले लिया है।'

फिर वह सोचने लगी, 'नहीं, शायद मैंने ही बात को अधिक तूल दे दिया। यह भी तो हो सकता है कि उसने पीछे सीट पर हाथ टिकाया हो और संयोग से हाथ नीचे खिसक आया हो।... लेकिन, यदि ऐसा होता तो वह अपनी सफाई में कुछ तो कहता! उसने तो कुछ भी नहीं कहा।... शायद वह हड़बड़ा गया हो और इसीलिए कुछ नहीं कह पाया हो... और मैंने भी उसे अवसर ही कहाँ दिया कुछ भी कहने का? शायद ऐसा ही हुआ होगा, क्योंकि उसने अब तक तो कभी मेरा हाथ छूने तक का प्रयास नहीं किया था।... लेकिन, मैं क्यों वकालत कर रही हूँ उसकी? उसने इरादतन वह नापाक कोशिश नहीं की थी, यह उसे ही प्रूव करना होगा।... यदि वह इसमें सफल नहीं हुआ, तो उसका और मेरा रास्ता अब से जुदा हो जायगा।"

अच्छे संस्कारों में पली-बढ़ी माधुरी, एक सच्चरित्र लड़की थी। उमेश ने उसकी चाहत में चारु से अलगाव की जो राह अपनाई थी, यह भी उसे कुछ कम ही रुचा था, किन्तु कॉम्पेटिबिलिटी की समस्या पेश आने पर कई बार ऐसा हो जाया करता है, यह उसने देखा-सुना था। यही कारण था कि इस बात को उसने अपने सम्बन्धों में बाधक नहीं बनने दिया। हाँ, आज की घटना के बाद अब उसने निश्चय कर लिया कि उमेश के साथ अपनी घनिष्ठता को वह नये सिरे से परखेगी। 

पूछताछ करने पर माधुरी को पता चला कि ओ.टी.एस. की तरफ जाने वाली बस का स्टॉप पचास-साठ मीटर की दूरी पर ही है, सो वह उस बस-स्टॉप पर पहुँच गई। बस में बहुत भीड़ थी। बड़ी मुश्किल से वह अपने लिए खड़े होने की जगह बना पाई। बस के चलने के बाद से उसके ठीक पीछे खड़ा शख्स बस के हर ब्रेक पर उससे टकरा रहा था। पहले तो उसने इसे यह मान कर नज़रअंदाज़ किया कि भीड़ में ऐसा होना स्वाभाविक ही है, किन्तु उसे शीघ्र ही अहसास हो गया कि वह बन्दा जान-बूझ कर ऐसा कर रहा है। स्पर्श से उसे अनुमान हो गया था कि वह कोई लड़की नहीं हो कर लड़का ही है। उसने ज़ोर से पीछे की ओर अपनी कोहनी मारी। अब उसने चेहरा घुमा कर देखा, थोड़ा पीछे हट कर वह लड़का अपनी पसली सहला रहा था। 'तो अब उसको पीछे खिसकने की जगह मिल गई' -माधुरी के चेहरे पर एक व्यंग्यात्मक मुस्कान दौड़ गई। 

"मैडम, आप यहाँ बैठ जाइये।" -पास वाली सीट पर बैठा एक व्यक्ति, जिसने सम्भवतः उपरोक्त वाक़या देख लिया था, अपनी सीट से उठता हुआ बोला। 

'धन्यवाद' कह कर माधुरी ने अपना आभार व्यक्त किया और सीट पर बैठ गई। 

'उफ्फ़, जहाँ भी कोई लड़की दिखाई दे जाती है, लफंगों की लार टपकने लगती है। कोई अच्छी पोस्ट मिलते ही सबसे पहले मुझे इन मजनूँओं की तबियत ठीक करनी है।' -माधुरी मन ही मन आक्रोशित हो उठी थी।  


(6)


माधुरी ने रिलैक्स होने के लिए अपनी आँखें मूँद लीं। बस एक स्टॉप तक आगे गई ही थी कि खिड़की के पास वाली सीट पर बैठे अधेड़ वय को छू रहे आदमी की बाँह उसकी बाँह पर टिकने लगी। माधुरी ने अपनी बाँह को धीरे से अलग किया, लेकिन कुछ ही क्षणों में उस आदमी ने अपनी बाँह को उसकी बाँह के आधे से अधिक भाग पर टिका दिया। 'उफ्फ़, क्या सभी को एक-सी बीमारी है', उसने मन ही मन कहा और सीट पर कुछ और सिमट कर उस आदमी से बोली- "भाई साहब, आपकी शादीशुदा हैं क्या?"

"जी मैडम, लेकिन जयपुर में अकेला ही रहता हूँ, पत्नी मेरे पेरेंट्स के साथ गाँव में रहती है।" -उत्साहित हो कर मुस्कुराते हुए उसने जवाब दिया।

"तो उसे अपने साथ रखा कीजिये और बस में सलीके के साथ बैठना सीखिए।" -माधुरी ने शुष्क लहजे में कठोरता से कहा। उन महाशय को ऐसी प्रतिक्रिया की कतई उम्मीद नहीं थी। सहमते हुए सीधे बैठ कर उन्होंने अपनी बाँह समेट ली।

'घामड़ साला!" -माधुरी बुदबुदाई और आराम से बैठ गई। माधुरी अब स्कूल और कॉलेज के दिनों की छुई-मुई नहीं थी, जब लड़कों की छेड़छाड़ से घबरा कर यथासम्भव खुद को बचा कर निकल जाती थी। ओटीएस की ट्रेनिंग ने उसे आत्मविश्वास से लबरेज़ कर दिया था। इसके बाद उसे रास्ते में और कोई कठिनाई पेश नहीं आई।

सोमवार को प्रशासनिक सेवा व लेखा सेवा की केवल एक क्लास कॉमन थी। उमेश क्लास में माधुरी से नज़रें चुराता रहा। मंगलवार को क्लास में तो दोनों का आमना-सामना नहीं हुआ, किन्तु शाम को संयोग से दोनों चाय के लिए मेस में आये तो नहीं चाहते हुए भी दोनों की नज़रें आपस में टकरा गईं। उमेश ने ही पहल की- "हेलो माधुरी!" 

माधुरी ने प्रश्नसूचक  निगाहों से उसकी तरफ देखा। 

"मुझे माफ़ कर दो माधुरी, मुझसे ग़लती हो गई थी। दरअसल में... " -उमेश कहता-कहता रुक गया। 

"दरअसल में... क्या उमेश?" -माधुरी ने उसे तीखी नज़रों से देखा।


उमेश कुछ कह नहीं पाया, बस आँखें झुका ली। एक मिनट मौन रहने के बाद करुण स्वर में बोला- "माधुरी, क्या मुझे कभी माफ़ नहीं करोगी?"

माधुरी को उमेश की यह बात अच्छी लगी कि उसने अपने बचाव में झूठ नहीं बोला था, किन्तु उसका अपराध इतना हल्का भी नहीं था कि सहज ही में भूला जा सके। उमेश का प्रश्न भी ऐसा नहीं था, जिसका जवाब दिया जा सके, फिर भी उसने कहा- "तुमने जो हरकत करने की कोशिश की थी, हो सकता है, तुमने उसे सहजता से लिया हो, किन्तु मैं तो अपनी ही नज़रों में गिर गई हूँ। मुझे लगता है, मेरा व्यक्तित्व ही इतना कमज़ोर है कि और कोई नहीं, मेरा ही एक दोस्त, जिस पर मैं पूरा ट्रस्ट करती थी, मेरे साथ ऐसा व्यवहार कर सकता है।"

"नहीं, यह मेरी कमज़ोरी थी। सच बताऊँ तो चारु से ब्रेक अप के बाद से मैं तुम्हारी तरफ इन्क्लाइन्ड हो रहा था... और इस सच्चाई को मैं स्वीकार करना चाहता हूँ। इसी के चलते मूवी में वह रोमान्टिक दृश्य देख कर मैं बहक गया था। मुझे ऐसी भूल नहीं करनी चाहिए थी। पर माधुरी, भावावेश में की गई एक तात्कालिक भूल के लिए मुझसे कब तक उखड़ी रहोगी?

"तुम इन्क्लाइन्ड हो रहे थे, किन्तु तुम्हें तो ऐसा कोई संकेत मुझसे नहीं मिला था न! फिर..."

 "मैं वादा करता हूँ कि भविष्य में इस तरह की कोई भूल मुझसे नहीं होगी। मेरी तरफ से अपना मन साफ़ कर लो प्लीज़। " -माधुरी की बात पूरी होने के पहले ही उमेश ने याचक मुद्रा में कहा। 

"चाय पीओगे न?" -विषय-परिवर्तन करते हुए माधुरी ने पूछा और बिना जवाब का इन्तज़ार किये ऑर्डर प्लेस कर दिया। 

चाय ख़त्म होने तक दोनों लगभग मौन ही रहे। 

"मुझे कुछ ज़रूरी काम है, मैं चलती हूँ।" -चाय की अन्तिम सिप लेते हुए माधुरी संयत मुद्रा में बोली और मेस से बाहर निकल गई। उमेश भी बाहर निकल आया। 

माधुरी की समझ में यह बात आ रही थी कि कोई व्यक्ति कितना भी पढ़ा-लिखा हो, कितने भी बड़े पद पर काबिज क्यों न हो, मानवीय दुर्बलताएँ उससे अछूती नहीं रहतीं। उसे अख़बार में पढ़ी दो-एक घटनाएँ अभी तक स्मरण थीं, जिनमें एक बहुत ही सीनियर आई.पी.एस. अधिकारी ने एक आई.ए.एस. अधिकारी के साथ व एक अन्य मामले में एक सीनियर जज ने अपनी जूनियर जज के साथ अभद्र छेड़छाड़ की थी। कोई व्यक्ति अपनी विकृत  भावनाओं का शमन कर सकता है अथवा नहीं, यही बात उसके व्यक्तित्व को परिभाषित करती है, समाज में उसकी स्वीकृति का निर्धारण करती है। इसी परिप्रेक्ष्य में वह सोच रही थी कि यदि उमेश अब उसके साथ मर्यादित व्यवहार करता  है, तो उसे क्षमा किया जा सकता है। 

दो-तीन दिन तक दोनों के मध्य एक अघोषित मौन पसरा रहा और फिर स्थितियाँ सामान्य हो गईं। शनैः शनैः वह फिर से मिलने-जुलने लगे। उमेश भी अब माधुरी के साथ सतर्कता से पेश आ रहा था। 

क्लासेज ओवर होने पर अपने-अपने कमरों में रिलैक्स करने के बाद दोनों तब तक साथ होते थे, जब तक पढ़ने के लिए वापस कमरों में नहीं चले जाते थे।

 उस दिन उमेश किसी दोस्त के साथ शहर गया हुआ था। माधुरी अकेली थी, अतः समय गुज़ारने के लिए गेम्स रूम में चली आई। पास वाले भीतरी भाग में तीन लड़के व एक लड़की कैरम खेल रहे थे। उनके अलावा बाहरी भाग में टेबल टेनिस की टेबल के पास प्रशासनिक सेवा का ही प्रशिक्षु, उसका बैचमेट, राजीव भी एक तरफ बैठा था। कुछ दिन पहले उमेश के साथ होने के कारण ही राजीव से पहली बार उसकी बात हुई थी। उसके बाद से  माधुरी की कभी-कभार उससे बात हो जाती थी। 

 'उसकी निगाहों से लग रहा है, वह किसी का इन्तज़ार कर रहा है, हो सकता है चारु का ही कर रहा हो', उसे देखते ही माधुरी के मन में विचार आया। वह दो-तीन बार उसे चारु के साथ देख चुकी थी। दोनों की निगाहें मिलीं तो राजीव ने उससे पूछा- "हाय माधुरी, तुमने चारु को कहीं देखा?"

"नहीं, आज तो सुबह से नहीं देखा उसे।" -माधुरी ने जवाब दिया। 

"कमाल है,घंटे भर पहले उसने मुझे टेबल टेनिस खेलने के लिए यहाँ मिलने के लिए कहा था और अभी तक उसका पता ही नहीं है। दस मिनट से इन्तज़ार कर रहा हूँ उसका।"

"ओह, सॉरी फॉर दैट!"

"नो प्रॉब्लम! बाय द वे, इफ यू डॉन्ट माइंड, तुम खेलना पसंद करोगी?"

"व्हाई नॉट, खेल लेते हैं एकाध गेम! मैं भी बोर ही हो रही थी अभी।"

"उमेश कहाँ है?"

"वह किसी दोस्त के साथ शहर गया है।" -माधुरी को राजीव का प्रश्न अटपटा नहीं लगा। वह जानती थी कि    उमेश प्रायः उसके साथ रहता है, यह सब की जानकारी में था। 

खेल शुरू हुआ। पहले चार मिनट के गेम में राजीव सिक्स टू से आगे था। कुछ देर बाद माधुरी नाइन सेवन से आगे हो गई। फिर ड्यूज़ हुआ और अंततः राजीव मैच जीत गया। राजीव ने माधुरी के गेम की प्रशंसा करते हुए कहा- "बहुत अच्छा खेलती हो तुम तो। एक गेम और खेल लें?"

"हाँ, श्योर, लेकिन इसके बाद नहीं खेल पाऊँगी। मुझे घर पर फोन करना है और फिर कल के लेसन के लिए तैयारी भी करनी है।"

"ऑफ़ कोर्स, तैयारी तो मुझे भी करनी है। चलो, आ जाओ सामने।" 

दोनों ने अपनी साइड्स बदलीं और गेम शुरू हुआ। इस बार मामूली पिछड़न के बाद माधुरी ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और गेम इलेवन सेवन से जीत लिया। 

"अरे माधुरी, तुम तो चैम्पियन की तरह खेली हो भई! बहुत बधाई!"

"माधुरी तो हर फील्ड में चैम्पियन है राजीव!" -तभी हॉल में प्रवेश कर रही चारु ने व्यंग्य किया, फिर माधुरी की तरफ देखे बिना ही पुनः बोली- "सॉरी राजीव, मुझे देरी हो गई। मेरा तो खेलने का मूड नहीं है, और खेल लो माधुरी के साथ, चाहो तो!"

"नहीं चारु, मैं तो वैसे भी जा ही रही थी।" -माधुरी ने बिना कोई प्रतिक्रिया दिये कहा और राजीव को 'बाय' कह कर हॉल से बाहर निकल गई। राजीव चारु के कथन में छिपे व्यंग्य को भाँप गया था। उसे अच्छा नहीं लगा चारु का इस तरह से पेश आना, प्रकट में बोला- "तुम्हारा इन्तज़ार कर रहा था। तुम नहीं आई तो मैंने माधुरी से खेलने के लिए रिक्वेस्ट की थी।... चारु, प्लीज़ अदरवाइज़ मत लेना, मैं भी अभी रूम में जाना चाहूँगा, कल के लेसन की तैयारी करनी है।" 

"नो प्रॉब्लम राजीव!" -माधुरी ने अनमने ढंग से जवाब दिया और वह भी राजीव के साथ ही बाहर निकल आई। 

अपने कमरे की ओर जा रही माधुरी को चारु द्वारा किया गया व्यंग्य अरुचिकर तो लगना ही था। वह सोच रही थी, 'चारु के उमेश से ब्रेकअप के लिए मैं तो जिम्मेदार नहीं हूँ, मुझसे वह क्यों उखड़ी-उखड़ी रहती है?... और आज का उसका बिहेवियर?... सोचती रहे कुछ भी, मेरी बला से!'


                                                                        (7)


अगला दिन प्रशिक्षु अधिकारियों के लिए अत्यधिक व्यस्तता और तनाव वाला रहा। आज का विषय तो कुछ पेचीदा किस्म का था ही, प्रशिक्षण अधिकारी भी कुछ सख्त मिज़ाजी था। पाँच मिनट के अन्तराल के साथ दो लगातार पीरियड काफी उबाऊ थे। क्लास ख़त्म होने पर सभी बाहर निकले तो सभी का मूड ऑफ था। अगला पीरियड खाली था, सो माधुरी क्लास के बाद अपने कमरे के लिए रवाना हुई। पास से गुज़रते राजीव ने उसके समीप होते हुए कहा- "माधुरी, कल के चारु के अप्रत्याशित व्यवहार के लिए मुझे दुःख है। पता नहीं, क्यों उसने इस तरह रिएक्ट किया? आई फील, शी इज़न्ट  मैच्योर एनफ़।"

"हो..ता है राजीव, शायद उस वक्त उसका मूड सही नहीं था।"

"मूड सही नहीं होने का मतलब यह तो नहीं होता कि इन्सान एब्नॉर्मली बिहेव करे। हमारा भी आज मूड ऑफ है, तो क्या हम किसी के साथ बेहूदा बर्ताव करेंगे?... एनी वे, यह तुम्हारा बड़प्पन है कि तुमने माइंड नहीं किया।"

तब तक ऊपर जाने वाली सीढ़ियाँ आ गई थीं। "थैंक्स राजीव" -कहते हुए माधुरी सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। सीढ़ियों के मोड़ पर मुड़ते हुए उसने देखा, राजीव से दो कदम पीछे चारु गेलरी से गुज़र रही थी। उसने अनुमान लगाया, शायद आज भी चारु ने राजीव को मुझसे बात करते देख लिया है। कमरे में जाने के बाद मूड ठीक करने के लिए उसने पहले अपने घर पर बात की व बाद में सुनयना को कॉल किया। बड़ी देर तक उससे बात करती रही और बातचीत पूरी होने के बाद फोन रखा तो उसका मन शांत था। 

 शाम को माधुरी उमेश के साथ शहर जाने के लिए कमरे से निकली। उमेश गेम्स रूम के बाहर खड़ा था। दोनों जाने को तत्पर हुए ही थे कि पीछे से आ रही चारु ने आवाज़ लगाई। दोनों ने पीछे मुड़ कर देखा, तब तक चारु नज़दीक आ गई थी। आते ही वह बिफर पड़ी- "माधुरी, बहुत शौक है न तुम्हें दूसरों के बॉय फ्रेंड को हथियाने का? अगर बॉय फ्रेंड के बिना नहीं रहा जाता, तो दूसरों पर डाका क्यों डालती हो, खुद एफर्ट क्यों नहीं मारतीं?"

अब माधुरी संयम नहीं रख सकी- "माइंड यौर लैंग्वेज चारु! क्या बकवास कर रही हो तुम? न तो तुम्हें अपने-आप पर भरोसा है, न ही अपने दोस्तों पर। पता है? तुम्हारी प्रॉब्लम तुम खुद हो।... और ख़बरदार, आइन्दा से कुछ भी अंट-शंट बोला तो!"

"ओह, लगता है तुम तो अभी से एस.डी.एम. बन गई हो! तोबा-तोबा, इतना रुआब!... डर गई मैं तो!" -कन्धे उचका कर चारु बोली।

"उफ्फ़! क्यों मुँह लगाती हो इसे। चलो, चलते हैं।" -उमेश ने कहा और माधुरी का हाथ पकड़ कर लगभग उसे खींचते हुए आगे बढ़ा।

"तो तुम्हारे मुँह में भी मेरी खिलाफ़त की आवाज़ भर दी है इस लड़की ने! ... लेकिन उमेश, देख लेना, एक दिन यह माधुरी तुम्हें धत्ता बता के राजीव को अपने जाल में फँसा लेगी।" -बिलबिला उठी चारु।

इस बार दोनों में से कोई नहीं बोला। तिलमिला कर पाँव पटकती हुई चारु अपने कमरे में चली गई। 

उमेश और माधुरी सड़क पर पहुँच कर शहर की ओर जाने वाली बस में चढ़ गये। थोड़ा घूमने-फिरने व कुछ खरीदारी करने के बाद वापस लौटने के लिए दोनों नेहरू बाज़ार से अजमेरी गेट की तरफ जा रहे थे। उन्हें अजमेरी गेट के बाहर सिटी बस स्टेण्ड से बस में बैठना था। तभी सामने से आ रहे दो लड़कों में से एक ने माधुरी पर कुछ भद्दा कमेण्ट पास किया। माधुरी ने देखा, कमेण्ट करने वाला लड़का सामान्य कद-काठी का इक्कीस-बाईस की उम्र का युवक था। उसका साथी भी लगभग उसी की उम्र का था, किन्तु वह अपेक्षाकृत मज़बूत शरीर का प्रतीत हो रहा था। उमेश क्रोधित हो कर कमेण्ट करने वाले लड़के की तरफ बढ़ा, लेकिन माधुरी ने उसे रोक कर कमेण्ट करने वाले लड़के को फटकारा- " पढ़े-लिखे लगते हो भाई, थोड़ी तो तमीज़ रखो।"

वहाँ से गुज़र रहे एक आदमी ने उस लड़के को समझाने की कोशिश की, तो वह उसके साथ भी बदतमीजी पर उतर आया, बोला- "अपने काम से काम रख भइये, खाली-पीली में टांग कायको अड़ा रिया ए।" और फिर उमेश की तरफ इशारा कर के गवाँरू अंदाज़ में माधुरी से बोला-  "ओए शियानी (चतुर), इस चिकने के बल पे फ़ैल रई ए क्या?" 

इस दौरान यह तमाशा देखने के लिए दो औरतों सहित चार-पाँच अन्य लोग रुक कर फुटपाथ पर आ खड़े हुए।

उमेश पहले से ही गुस्से में था, लड़के की बदतमीजी उसकी बर्दाश्त के बाहर हो गई थी। वह समझ गया कि यह लोग कुछ लोफ़र किस्म के हैं। उसने आगे बढ़ कर उस लड़के के गाल पर थप्पड़ रसीद कर दिया। थप्पड़ ने उस लड़के को उत्तेजित कर दिया, वह उमेश पर लपका। दोनों गुत्थम-गुत्था हो गये। अन्ततः उमेश ने उसे नीचे गिरा दिया और उस पर थप्पड़-घूंसों की बौछार कर दी। उसे पिटता देख उसके साथी ने नीचे झुक कर एक ज़ोरदार घूँसा उमेश के मुँह पर जड़ दिया। माधुरी को वह बन्दा दूसरे के मुकाबले सही लग रहा था। उसकी सोच शायद सही भी रही होगी। हो सकता है उसने दोस्ती का फ़र्ज़ निभाने के लिए उमेश पर प्रहार किया हो। 

उमेश कराह कर अपना  चेहरा थामते हुए उठ खड़ा हुआ। सड़क के दूसरी तरफ से दो सिपाही, जो शायद गश्त पर थे, सड़क पार कर के इस तरफ आये। उनको आते देख कर तमाशबीन व कुछ और राहगीर इन चारों के इर्द-गिर्द जमा हो गये। फौराफेरी पूछताछ में लड़कों ने सिपाहियों को बताया कि वह विद्यार्थी हैं व सेकण्ड ईयर में पढ़ते हैं। दोनों खुराफाती लड़कों के हाथ मज़बूती से पकड़ कर एक ने पुलिसिया अंदाज़ में माधुरी से पूछा-  "मैडम जी, आप लोग कहाँ से आये हो? क्या लफड़ा कर लिया?"

"जमादार जी, हम दोनों ओटीएस में आर.ए.एस की ट्रेनिंग ले रहे हैं। ओटीएस जाने के लिए अजमेरी गेट की तरफ जा रहे थे। सामने से आ रहे इन लड़कों ने हमारे साथ बदसलूकी की। उसके बाद झगड़ा हुआ, यह तो आपको पता लग ही गया है।" -माधुरी ने शालीनता से जवाब दिया। उमेश अभी तक अपनी दायीं आँख को दोनों हथेलियों से दबाये खड़ा था। सिपाही के कहने पर उसने अपनी आँख से हाथ हटाये। माधुरी ने देखा, उसकी आँख सूजन आने से बहुत छोटी दिख रही थी।

इनकी पोजीशन जान लेने से कमेण्ट करने वाले लड़के ने भागने के लिए हाथ छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन उसका हाथ पकड़ने वाले सिपाही ने गुस्से में आ कर उसका हाथ मरोड़ दिया व बोला- "ज़्यादा श्याणपद की तो थाने पर ले जाने के बाद ज़्यादा डंडे लगाऊँगा।" दूसरे सिपाही ने उमेश से दोनों का नाम पूछ कर अदब से कहा- "आप दोनों को हमारे साथ अजमेरी गेट थाने पर इन लफंगों के खिलाफ रिपोर्ट लिखवाने के लिए आना होगा।"

उमेश ने टालने की कोशिश की, लेकिन माधुरी ने सख्ती से कहा- "नहीं उमेश, इन्हें यूँ ही छोड़ देना हमारी दया नहीं, गैरज़िम्मेदारी होगी। तुम शीशे में देखोगे, तब जान पाओगे कि तुम्हें कितनी गहरी चोट लगी है। शुक्र मनाओ कि आँख बच गई तुम्हारी।"

अजमेरी गेट पुलिस स्टेशन पहुँचने के बाद दोनों लड़कों के नाम पूछ कर थानेदार के आदेश से कमरे में बंद कर दिया गया। ए.एस.आई. ने दोनों के परिचय पत्र देखे व रिपोर्ट लिखवाने के लिए माधुरी को अपने सामने बैठने को कहा। तभी कमरे के भीतर से दोनों लड़कों के चीखने-गिड़गिड़ाने की आवाज़ आई। 


(8)


माधुरी समझ गई कि भीतर उन लड़कों की अच्छी खातिर हो रही है। उसके मन में कुछ दया उपजी। उसने थानेदार से प्रार्थना की- “उन लड़कों के लिए इतना सबक काफ़ी है, प्लीज़ उन्हें छोड़ दें।“

“अरे मैडम, कल को आप एस.डी.एम. बनेंगी। ऐसे दया करेंगी, तो कैसे काम कर सकेंगी? ऐसे शोहदों को कुछ तो सबक सिखाना पड़ेगा न!”

“थानेदार साहब, शायद यह लड़के विद्यार्थी हैं। इनके खिलाफ़ केस दर्ज हो जायगा, तो इनके करियर पर बात आ जाएगी। इसीलिए रिक्वेस्ट कर रही हूँ।”

माधुरी के समयानुकूल निर्णय ने उमेश को बहुत प्रभावित किया। उसके मन में माधुरी के प्रति सम्मान का भाव उपजा। थानेदार ने लड़कों को बाहर बुलवाया। लड़के कराहते हुए थानेदार के सामने आ खड़े हुए। 

“मैडम की सिफारिश पर तुम्हें छोड़ रहा हूँ। आइन्दा से ऐसी कोई ग़लती की तो याद रखना, मेरा नाम जोरावर सिंह है। चलो, माफ़ी मांगों दोनों से।”

“दोनों लड़कों ने अपने कान पकड़े व माधुरी और उमेश से माफ़ी मांग कर दोनों के पाँव छूए। तत्पश्चात थानेदार के भी पाँव छू कर थाने से बाहर निकल गये। माधुरी व उमेश ने थानेदार और मददगार दोनों सिपाहियों को धन्यवाद कहा और थाने से बाहर आ कर बस स्टैण्ड की तरफ निकल चले। 

बस में बैठने के बाद निकट बैठे उमेश से माधुरी ने कहा- “आज का दिन तो बहुत मनहूस रहा, पूरे दिन परेशानी झेलनी पड़ी। और उमेश, तुम्हें यूँ अमिताभ बच्चन बनाने की क्या ज़रुरत थी. ख़्वामख़्वाह ही नाक सुजवा बैठे।”

“तुम्हारे साथ कोई बदतमीजी करे और मैं देखता रहूँ माधुरी?”- उमेश ने प्रश्न किया। उसके स्वर में अभी भी उत्तेजना थी। माधुरी ने उसकी आँखों में झाँकते हुए उसके हाथ पर हाथ रख कर अपना स्नेहिल स्पर्श दिया। 

ओटीएस के पास वाले स्टैण्ड पर उतर कर माधुरी ने उमेश को पास वाले क्लिनिक पर चलने की सलाह दी। क्लिनिक पर आँख की चोट का उपचार करवाने के बाद डॉक्टर द्वारा बताई गई दवा की गोलियाँ खरीद कर दोनों ओटीएस में पहुँचे। साथियों ने उमेश की आँख पर आई चोट के बारे में पूछा तो दोनों ने किसी चीज़ से टकराने का बहाना बना कर बात को टाल दिया। 

चारु के साथ हुई झड़प की घटना के बाद से माधुरी व चारु की बोलचाल बिल्कुल बंद हो गई। उमेश ने तो चारु के साथ बात करना पहले ही बंद कर दिया था, उसके असंयत आचरण के कारण राजीव ने भी उससे दूरी बना ली थी। अब वह उससे बहुत काम मिलता-जुलता था। वह एक मितभाषी व शालीन व्यक्तित्व का स्वामी था। देखने में भले ही वह सामान्य रंग-रूप का युवक था, किन्तु जिससे भी एक बार मिल लेता था, अपने व्यक्तित्व की छाप उस पर छोड़ देता था। माधुरी के व्यक्तित्व से प्रभावित होने से वह अब उमेश और माधुरी के साथ रहना पसन्द करता था। इसके बावजूद वह इस बात का ध्यान रखता था कि उसकी उपस्थिति उन दोनों की नज़दीकियों में बाधा नहीं बने। 

यद्यपि राजीव का रैंक आर.ए.एस में चौपनवां था, तथापि क्लास में उसकी तन्मयता एवं त्वरित क्रियाशीलता दर्शनीय हुआ करती थी। अतः अन्य लोगों की तरह माधुरी भी राजीव से बहुत प्रभावित थी। उसे अपने एक मित्र के रूप में पा कर वह प्रसन्न थी।

सामान्यतः तो उमेश व माधुरी ही साथ रहा करते थे, किन्तु शाम को कैम्पस में भ्रमण के वक्त कई बार वह लोग राजीव को भी साथ चलने को साग्रह आमन्त्रित करते थे। राजीव का सामीप्य उनके लिए गुणात्मक रूप से उपयोगी होता था। गम्भीर विषयों के अलावा 'हास्य' पर भी राजीव का अच्छा दखल था। अन्य किसी व्यक्ति द्वारा हास्य प्रस्तुत करने पर अच्छा हास्य होने की स्थिति में वह खिलखिलाकर हँसता था, किन्तु जब वह स्वयं हास्य से सम्बंधित कोई प्रस्तुति देता था तो सुनने वाले तो हँस-हँस कर लोट-पोट हो जाते थे, लेकिन उसके चेहरे पर हँसी का कोई चिह्न दिखाई नहीं पड़ता था। ऐसा लगता था, जैसे उस समय उसके भीतर प्रख्यात हास्य कवि सुरेन्द्र नाथ की आत्मा ने प्रवेश कर लिया हो।

पिछले एक महीने से अब तक में उमेश और माधुरी के सम्बन्ध बहुत घनिष्ठ हो गये थे।

आज शुक्रवार था। उमेश ने माधुरी को शाम को कुछ खरीदारी के लिए शहर साथ चलने के लिए कहा था। उसने शाम पांच बजे उसे कॉल लगाया। फोन स्विच ऑफ मिलने से वह उसके कमरे पर गया। कमरे पर ताला देख कर वह तलाशते हुए गेम्स रूम की तरफ आया। उसने देखा, राजेश और माधुरी टेबल टेनिस की मेज पर हाथ आजमा रहे थे। उमेश को टेबल टेनिस में रुचि नहीं थी और वह यह खेल खेलना जानता भी नहीं था। अतः यदा-कदा माधुरी राजेश के साथ खेला करती थी। वैसे तो उमेश को बुरा नहीं लगता, लेकिन आज उसे कुछ अखर गया। 'माधुरी ने जब मेरे साथ चलने की स्वीकृति दी थी तो उसे यहाँ खेलने नहीं आना चाहिए था।' -उसने मन ही मन कहा। उसे हॉल में आया देख दोनों ने गेम कुछ समय के लिए रोक दिया।

"मैंने तुम्हें कॉल किया था माधुरी!"

"ओह,मेरे पास तो कोई रिंग नहीं आई।" -माधुरी ने अफ़सोस दिखाते हुए जेब से मोबाइल निकाल कर देखा और पुनः बोली- "उफ्फ़, मोबाइल डिस्चार्ज हो गया है, सॉरी उमेश! बस यह गेम पूरा करके चलती हूँ।"

उमेश के पास प्रतीक्षा करने के सिवा कोई चारा नहीं था। वह नहीं चाहता था कि शहर अकेला चला जाए और माधुरी यहाँ खेलती रहे। एक तरफ बैठा प्रकटतः वह उनका खेल देख रहा था, किन्त्तु टेबल पर टकराती पिंगपोंग बॉल उसके दिमाग़ में हथौड़े बरसा रही थी। कोई भी मनुष्य जब अपनी इच्छा के विपरीत कुछ भी होता देखता है. पूर्व में हुई कोई अवांछित घटना या किसी के द्वारा उगली  गई कोई कड़वी बात उसे उसी दिशा में सोचने को मजबूर कर देती है। उमेश को चारु के द्वारा कही गई बात 'उमेश, देख लेना, एक दिन यह माधुरी तुम्हें धत्ता बता के राजीव को अपने जाल में फंसा लेगी', स्मरण हो आई। उसके मन में संदेह का कीड़ा बुलबुलाने लगा, 'कहीं सच में तो ऐसा नहीं होने जा रहा है?' उसकी इच्छा हुई कि अभी ही वहाँ से उठ कर चला जाए, लेकिन ऐसा कर नहीं सका।

गेम कब ख़त्म हुआ? कौन जीता या कौन हारा, यह उमेश ने नहीं देखा। वह तो केवल स्वयं को हारा महसूस कर रहा था। उसकी तन्द्रा तब भंग हुई, जब राजीव के शब्द उसके कानों में पड़े- "उमेश, आज तो मैं माधुरी से जीत गया। मुझे बधाई नहीं दोगे? भई, माधुरी से जीतना तो बहुत कठिन है।"

"ओह, हाँ, बधाई! राजीव, मुझे भी सिखा दो न यह गेम। खेल देखते रहना मुझे अच्छा नहीं लगता।" -फीकी, लेकिन व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट के साथ उमेश ने कहा।  

"हाँ-हाँ, क्यों नहीं। पर फ़िलहाल तो तुम लोग अपने प्लान के मुताबिक शहर जा आओ।"

"थैंक्स।" -उमेश ने कहा और तीनों बाहर निकल आये।

"तुम भी चलो राजीव।" -माधुरी ने शिष्टाचारवश राजीव से कहा।

"नहीं, तुम लोग जा आओ। मुझे कुछ काम है।" -राजीव बोला।

उमेश को राजीव का साथ कभी अखरता नहीं था, किन्तु अभी राजीव का इन्कार उसके सन्तोष का कारण बना। माधुरी ने राजीव को साथ चलने को कहा, यह बात भी उमेश को अच्छी नहीं लगी थी।

देर हो गई थी, फिर भी दोनों शहर गये। उमेश को अपने लिए कुछ खरीदारी करनी थी। आवश्यक नहीं होते हुए भी माधुरी ने भी दो-एक चीज़ें अपने लिए खरीद लीं। उमेश का मन उखड़ा हुआ है, यह माधुरी ने स्पष्ट अनुभव किया, किंतु उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। शहर से लौटे, तब भी दोनों करीब-करीब खामोश ही रहे।

अगले दिन क्लासेज़ ख़त्म हो जाने के बाद दोनों मिले, तो माधुरी ने उमेश से पूछा- "कल किस चूहे ने जनाब के दिमाग़ को कुतर लिया था, जो ऐसा सड़ा-सड़ा बिहेव कर रहे थे?"


(9)


"माधुरी, तुम राजीव के साथ टेबल टेनिस खेलो, मुझे कोई परेशानी नहीं, लेकिन मुझे टाइम दे कर उसके साथ खेलने लग गईं, यह बात मुझे पसन्द नहीं आई थी।" -उमेश ने अपने मन की बात कह दी।

"उमेश, तुम्हें अपने स्वभाव में संजीदगी लानी होगी। कल को हम जॉब कर रहे होंगे। वहाँ कई बार कुछ विकट परिस्थितियाँ सामने आ सकती हैं। तुम्हारी सोच इस तरह की रहेगी, तो कैसे गुज़र होगी?" -माधुरी ने गम्भीरता से कहा।

"सॉरी मधु, मुझे माफ़ कर दो। सचमुच मैं तुम्हारे जितना संजीदा नहीं हूँ, किन्तु अब मैं तुम्हें शिकायत का कोई मौका नहीं दूँगा।"

"यह ठीक है न उमेश, बार-बार गलतियाँ किये जाओ और सॉरी कहते जाओ। अच्छी पॉलिसी है। मैं तो फिर भी तुम्हें माफ़ कर दूँगी, लेकिन एकाउंट्स में तुम्हें कोई माफ़ नहीं करेगा।" -माधुरी मुस्कुराई।

  

रात को सोने से पहले बिस्तर पर लेटे हुए माधुरी विचारों में खो गई। उसे उमेश का कल का व्यवहार समझ में नहीं आया था। वह जानती थी कि उमेश उसे बेइन्तहा प्यार करता है और वह भी उसे चाहने लगी थी। दोनों की सेवाओं के फर्क को भी उसने रूल आउट कर दिया था, किन्तु एक उलझन से वह परेशान रहा करती थी कि उमेश ऐसा क्यों है, उसमें भारीपन क्यों नहीं है। चारु और उमेश में बस एक फर्क उसे नज़र आता था कि चारु बोलने में हल्की थी, जबकि उमेश अपेक्षाकृत संयम से पेश आता था। फिर सोचती कि धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा, हर इन्सान में त्रुटियाँ तो होती ही हैं।

'ओटीएस में ट्रेनिंग की अवधि समाप्त होने में कुछ दिन रह गये हैं। इसके बाद प्रैक्टिकल ट्रेनिंग के लिए किसी विभाग में हमें पदस्थापित किया जायगा। बीच में कुछ दिनों के लिए घर जाने को मिलेगा और घर जाते ही मम्मी-पापा उसके ब्याह की बात करेंगे, आग्रह करेंगे। अभी भी ले-दे कर जब भी बात करो, यही बात बार-बार करते रहते हैं।... और मुझे भी तो इस सम्बन्ध में कोई निर्णय तो लेना ही पड़ेगा। अपने-आप से कब तक भागूँगी? जब शादी करनी ही है, तो निर्णय भी लेना ही पड़ेगा।’, माधुरी के दिमाग़ में यह उथल-पुथल भी चल रही थी। 

माधुरी ने टेबल पर रखी घड़ी की ओर देखा। पौने दस बज रहे थे। 'अभी तो घर पर सभी जाग रहे होंगे, बात करती हूँ', सोच कर उसने फोन लगाया।

"जय श्री कृष्ण गुड्डी!" -उधर से चंदा की आवाज़ आई।

"जय श्री कृष्ण प्यारी मम्मा, कैसे हो आप लोग? मैं जल्दी ही आ रही हूँ घर।"

"अरे वाह, कब आ रही है?"

"बस कुछ ही दिन बचे हैं ट्रेनिंग के,... और फिर मैं उड़ के आप के पास?"

"अरे, तू हवाई जहाज से आवेगी, का बात है बेटा!"

"ना मम्मा, बस या ट्रेन से आऊँगी। 'उड़ के आऊंगी' तो मुहावरे के रूप में बोल रही हूँ मेरी भोली माँ!"

"हाँ-हाँ, समझ गई बेटा! और सुना, कोई नई -पुरानी।"

"माँ, आपकी बेटी जल्दी ही शादी करेगी।"

"अरे, क्या वहीं से शादी करके आएगी?"

"आप ऐसा सोच सकती हैं माँ कि आपकी बेटी ऐसा कर सकती है?"

"ना, बेटा, ऐसा तो ना हो सके है? तो का कोई लड़का पसन्द आ गया है तुझे?

"हाँ मम्मी, बस ऐसा ही समझ लो। पर होगा तभी जब आप लोग 'हाँ' कर दोगे।"

"अच्छा है बेटा, तुझसे या ही उम्मीद है।... ले बात कर अपने पप्पा से, कब से फोन के लिए हाथ बढ़ा रहे हैं।"

"हैलो बिटिया, कैसी है तू? मम्मी ने स्पीकर लगा रखा था। आवाज़ धीमी आ रही थी , पर लगभग सारी बात सुन ली है मैंने।" -राज नाथ बोले।

"ओह पापा, मम्मी बहुत ख़राब हैं। उन्हें स्पीकर पर बात करने की क्या ज़रुरत थी।… और आपने सुन लिया तो क्या? मैं कौन आपसे कोई बात छिपाती हूँ।"

"हाँ बेटा, एक बात सुन ले ध्यान से, मैं फिर भूल जाऊँगा कहना। मेरा ट्रान्सफर चित्तौड़ हो गया है। तू आये, तब मुझे फोन कर देना, मैं लेने आ जाऊँगा। चल सो जा अब, रात जा रही है, फिर बात करेंगे।"

"ओके पापा।" -माधुरी ने कहा और फोन काट दिया। पिता के चित्तौड़ ट्रांसफर की बात से उसे आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि इसका अन्देशा सभी को पहले से था।  

राजीव तीक्ष्णबुद्धि युवक था। उसे यह समझते देर नहीं लगी कि उमेश को उस दिन माधुरी का उसके साथ खेलना अच्छा नहीं लगा था। उसके बाद से उसने इन दोनों के साथ मेलजोल कम कर दिया। उमेश इस बात से मन ही मन प्रसन्न था। माधुरी राजीव को पसंद करती थी और उसके मन में उसके प्रति अत्यधिक सम्मान भी था, तथापि उसने भी राजीव से कुछ दूरी बना ली। वह जानती थी कि यदि उमेश के साथ सम्बन्ध सही रखने हैं तो उसे राजीव से दूर रहना चाहिए।

प्रशिक्षण समाप्त होने में दो दिन बचे थे। आज फेयरवेल का कार्यक्रम था, जो सभी प्रतिभागियों के लिए मिश्रित आयोजन था। कुछ प्रशिक्षुओं ने इसमें सक्रिय भाग ले कर एक से बढ़ कर एक मनभावन प्रस्तुतियाँ दीं। सब ने एक-दूसरे के गिले-शिकवे दूर किये व शीघ्र ही पुनः मिलने की कामना के साथ कर्यक्रम का समापन हुआ। माधुरी ने भी शिष्टता दिखाते हुए चारु से उसका दिल दुखाने के लिए क्षमा मांगी, जिसका प्रत्युत्तर उसे फीकी मुस्कान से मिला। माधुरी को चारु के लिए मन में  दुःख था, किन्तु इसके लिए वह स्वयं को दोषी ठहराती भी तो कैसे?

अगला दिन ओटीएस की तरफ से सभी प्रशिक्षुओं को रिलीविंग आर्डर देने में तथा विभिन्न व्यावहारिक प्रशिक्षण संस्थानों के आवंटन-पत्रों की सुपुर्दगी में बीत गया।  आज ओटीएस का आखिरी दिन था। सभी लोग अगले प्रशिक्षण की तारीख आने से पहले अपने-अपने घर जाने की तैयारी कर रहे थे। विदाई के लम्हों में कुछ संवेदनशील प्रशिक्षुओं के मन साथियों के बिछड़ने के अहसास से बोझिल थे, कुछ की आँखें नम हो आई थीं, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जो इन तीन महीनों की गहमागहमी को एक मेला मान कर निर्विकार भाव से यहाँ से प्रस्थान की तैयारी कर रहे थे।

आज ओटीएस का आखिरी दिन था। सभी लोग अगले प्रशिक्षण में जाने से पहले अपने-अपने घर जाने की तैयारी कर रहे थे। 

विदाई के लम्हों में कुछ संवेदनशील प्रशिक्षुओं के मन साथियों से बिछड़ने के अहसास से बोझिल थे, कुछ की आँखें नम हो आई थीं, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जो इन तीन महीनों की गहमागहमी को एक मेला मान कर निर्लिप्त भाव से यहाँ से प्रस्थान की तैयारी कर रहे थे।

राजीव को अपनी बस पकड़ने के लिए कुछ जल्दी निकलना था, सो वह जाने से पहले माधुरी व उमेश से विदा लेने आया। 

(10)


विनीत स्वर में राजीव ने कहा- "मैं अपनी उन सभी बातों के लिए तुम दोनों से क्षमा चाहता हूँ दोस्तों, जिनसे तुम्हें कभी कष्ट पहुँचा हो।... और उमेश, तुम और मैं तो एक ही शहर में होने से मिलते रहेंगे।"

"यह तो बहुत ही अच्छी बात है कि फ़िलहाल हम दोनों एक ही शहर में होंगे !... और राजीव, तुम इतने अच्छे इन्सान हो कि किसी का दिल दुखाने जैसी बात तो कर ही नहीं सकते।" -उमेश का मन भी राजीव की तरफ से साफ़ हो चुका था। उसे अफ़सोस था कि नाहक ही वह उससे कुछ समय से खिंचा-खिंचा रह रहा था।

"मैंने तुम दोनों को अपना अच्छा मित्र समझा है, कभी भुला नहीं पाऊँगा तुम्हें।" -आखिरी शब्द कहते समय राजीव की निगाहें माधुरी की तरफ थीं। 

“तुम भी हमें बहुत याद आओगे राजीव!” -माधुरी के मुख से केवल  इतने शब्द निकले। 

राजीव ने अपना सूटकेस और हैंडबैग उठाया और 'बाय' कह कर बाहर निकल गया। उसकी आँखों में आई नमी को माधुरी और उमेश नहीं देख सके।

राजीव को परिवीक्षा-काल में उदयपुर में सहायक कलेक्टर के रूप में तथा उमेश को सहायक लेखाधिकारी  के रूप में खनिज विभाग, उदयपुर में काम करना था, जबकि माधुरी को चितौड़ में सहायक कलेक्टर के रूप में परिवीक्षाधीन कार्य करना था।

  इतने दिनों का साथ और निकट का सम्पर्क रहा था, तो राजीव से बिछड़ने का दुःख माधुरी व उमेश को भी था।

माधुरी को चित्तौड़गढ़ और उमेश को बड़ी सादड़ी जाना था, सो दोनों एक ही बस में बैठ गये। रास्ते में दोनों अपने ओटीएस के अनुभव से सम्बन्धित चर्चा कर रहे थे। बीच-बीच में माधुरी को राजीव और उसके साथ टेबल टेनिस खेल के दौरान गुज़रे लम्हे भी याद आते रहे। उमेश को चित्तौड़ से बड़ी सादड़ी के लिए अलग बस पकड़नी थी। कुछ ही देर में चित्तौड़ आने वाला था।

"माधुरी, इतने घंटों से गपशप ही करते रहे। अपने अगले प्लान के बारे में बात नहीं करेंगे?" -उमेश ने जानना चाहा।

"कौन-सा प्लान?"- माधुरी मुस्कुराई।

"मेरे पेरेंट्स तीन-चार साल से पीछे पड़े हुए हैं, कहते हैं अब मेरे हाथ पीले कर के मानेंगे।"- उमेश ने मजाकिया लहजे में कहा।

"ओह, तो लड़का देख लिया है उन्होंने तुम्हारे लिए?" -माधुरी ने भी परिहास किया।

उमेश मुस्कुरा कर मुख्य बात पर आया- "मैंने तुम्हारे बारे में उन्हें बता दिया है। पूछ रहे थे कि लड़की का परिवार कैसा है, कहाँ रहते हैं। मैंने तो साफ़ बता दिया कि हमने अभी तक एक-दूसरे से इस सम्बन्ध में कुछ नहीं पूछा है। मुझे माधुरी पसंद है और उसे मैं, बस हम यही जानते हैं।... हाँ, अब तुम यह बताओ कि औपचारिकता के लिए तुम अपने परिवार के साथ हमारे यहाँ आओगी या हम तुम्हारे यहाँ आएँ?"

"मैंने इतना तो नहीं सोचा, पर हाँ, शादी के इरादे का संकेत ज़रूर दे दिया है मम्मी-पापा को।… लेकिन उमेश मेरी सोच इस मामले में तुमसे अलग है। मैं अपनी रिलेशनशिप को तभी रिश्ते का नाम दूँगी, जब मेरी पसन्द पर मम्मी-पापा की मुहर लग जाएगी।"

“ओह, इस ज़माने में भी तुम लोग इतने ऑर्थोडॉक्स (रूढ़िवादी) हो?” -उमेश मुस्कुराया। उसकी मुस्कुराहट में छिपे व्यंग्य को माध्रुरी ने महसूस किया, लेकिन वह अपने इरादे के प्रति स्पष्ट व दृढ़ थी। 

"ठीक है फिर। परम्परा के अनुसार लड़के वाले ही आया करते हैं, तो हम ही आएँगे तुम्हारे यहाँ ...।"

"लड़की देखने... यही न? ठीक है भई, आ जाओ तुम लोग मुझे देखने।" -माधुरी हँसी। हँसने की आवाज़ थोड़ी तेज हो गई थी, सो पड़ोस की सीटों पर बैठे अन्य लोग इनकी तरफ देखने लगे। माधुरी झेंप कर बस की खिड़की के बाहर देखने लगी।

चित्तौड़ आया, बस रुकी और दोनों अपना सामान ले कर बस से उतर गए।

"तो अगले रविवार को हम आते हैं तुम्हारे वहाँ? तुम अपना पता मैसेज कर देना।" -उमेश ने कहा। माधुरी ने स्वीकृति में अपना सिर हिलाया और 'बाय' कह कर दोनों ने एक-दूसरे से विदा ली। उमेश बड़ी सादड़ी की बुकिंग खिड़की की ओर चला गया। माधुरी एक तरफ खड़ी हो कर अपने पापा का इंतज़ार करने लगी। दो मिनट भी नहीं हुए होंगे कि राज नाथ बस स्टैण्ड पर पहुँच गये। जयपुर से आई बस अभी भी खड़ी थी। वह सीधे बस की तरफ जा रहे थे। माधुरी ने उन्हें देख लिया और आवाज़ लगाई।

"सॉरी बिटिया, कार में पंक्चर हो गया था, सो देरी हो गई। सेकण्ड हैण्ड गाड़ी लेते हैं तो यह सब भुगतना ही पड़ता है।" -राज नाथ ने अफ़सोस के साथ कहा।

"ऐसी भी कोई देरी नहीं हुई है पापा, बस दो-तीन मिनट पहले ही उतरी हूँ बस से।" -राज नाथ के पाँव छूते हुए माधुरी ने कहा।

कार में बैठी माधुरी बाहर का नज़ारा ले रही थी। घूमने की दृष्टि से वह पहले भी चितौड़ आई थी, किन्तु अब वह यहीं रहेगी, यह सोच कर उसे अजीब-सा लग रहा था। यहाँ के रास्ते, बाज़ार, सब अनजाने लग रहे थे। 'पहले भी पापा का तबादला दो-एक जगह हुआ था, लेकिन मेरी पढाई के कारण पापा अकेले ही बाहर गए थे। हमें भीलवाड़ा कभी छोड़ना नहीं पड़ा था। जयपुर में भी इंटरव्यू के दिन और अब ट्रेनिंग के लिए रहना पड़ा था। राजस्थान की राजधानी और बहुत बड़ा शहर होने से वहाँ घूमने के लिए भले ही जाया जाय, लेकिन भीलवाड़ा वाली बात वहाँ नहीं है।', वह सोच रही थी। लेकिन फिर उसके विचारों ने करवट ली। 

उसे ओटीएस में बताया गया था कि सेवा काल में पूरे प्रदेश में उन लोगों को कहीं भी भेजा जा सकता है। उसे लगा कि किसी भी एक स्थान से मोह रखना उसके लिए तकलीफ़दायक सिद्ध होगा। उसकी विचार-श्रंखला टूटी, जब उसने अपने पापा की आवाज़ सुनी। वह कह रहे थे- "बस अगली ही गली में अपना मकान है।"

"ओके पापा।" -यंत्रवत माधुरी ने कहा और सोचने लगी, 'अपना मकान? अपना मकान तो वह था, जहाँ मैं बचपन में गुड्डा-गुड्डी खेलती थी, पड़ोस के बच्चों के साथ खेलती-झगड़ती थी, जहाँ से स्कूल में जा कर इंटरवल में हिरणी की तरह उछलती-कूदती थी, सहेलियों के साथ अल्हड़ मस्तियाँ करती थी और फिर झूमते हुए घर लौटती थी। यहाँ वह अपना मकान कहाँ से होगा?'


(11)


घर आ गया था। पापा के साथ सामान ले कर वह कार से बाहर निकली। चन्दा बेसब्री से उसका इन्तज़ार कर रही थी। माधुरी आते ही मम्मी से ऐसे लिपटी, मानो बरसों बाद मिल रही हो। चन्दा की दशा भी ऐसी ही थी, जैसे गाय को उसकी खोई  बछड़ी मिल गयी हो। उसकी आँखों से निकल रही जलधार माधुरी की पीठ को भिगो रही थी। बड़ी मुश्किल से उसके मुँह से निकला- "कैसी है मेरी लाडो?"

"अच्छी हूँ मां! तुम लोगों के बिना मन बिल्कुल नहीं लगता था।" -भरी आवाज़ में माधुरी ने जवाब दिया। चंदा ने उसे अपने सीने से और कस लिया। 

"अरे, इतनी भावुक बनोगी, तो बेटी को शादी पर विदा कैसे कर सकोगी? -राजनाथ भीगे स्वर में बोले। माँ-बेटी का मिलन देख वह भी भावुक हो गये थे। इधर प्रवीण भी अपनी दीदी से लिपटने को आतुर हो रहा था। जैसे ही माधुरी माँ के आलिंगन से पृथक हुई, प्रवीण उसकी तरफ लपकने के अंदाज़ में दौड़ा। माधुरी ने उसे गले लगा कर प्यार से उसका सिर चूम कर कहा- "क्यों रे शैतान, कैसा है तू?"

"अच्छा हूँ जीजी! बस, आपकी आइसक्रीम का इन्तज़ार कर रहा हूँ।" -शरारती अंदाज़ में प्रवीण ने जवाब दिया।

"अरे बुद्धू , आइसक्रीम के अलावा कुछ और भी सूझता है तुझे?"

"गुड्डी, इका बस चले तो ये रोटी भी आइसक्रीम के साथ ई खाय।" -हँसते हुए चन्दा बोली। माधुरी और राज नाथ भी हंस पड़े।

"जीजी, आपके ट्रेनिंग में जाने के बाद से केवल चार बार आइसक्रीम आई है घर में।" -प्रवीण ने शिकायत की।

"अरे, मैं आ गई हूँ न अब! जितनी आइसक्रीम कहेगा, खिलाऊँगी।" -माधुरी ने कहा।

"चल गुड्डी, थोड़ा नहा ले गरम पानी से। सफ़र की थकान निकल जावेगी।" -चंदा ने माधुरी का हाथ पकड़ कर  कहा। माधुरी के स्नान कर लेने के बाद सब ने साथ में खाना खाया व माधुरी के द्वारा लाई गई मिठाई भी खाई। तीन महीने बाद माधुरी आई थी, सो देर रात तक उसकी ट्रेनिंग के बारे में बातें होती रहीं। प्रवीण भी जागते रह कर बातचीत का हमसफ़र बना रहा। संदर्भ आने पर माधुरी ने यह भी बताया कि उसका खास मित्र उमेश अपने परिवार के साथ रविवार को आने वाला है। उसने अपने दूसरे दोस्त राजीव के बारे में भी विस्तार से बताया। 

परिवार में सभी बहुत खुश और गौरवान्वित थे कि माधुरी को यहाँ की सहायक जिलाधीश बन कर ट्रेनिंग करनी है। प्रवीण तो फूला नहीं समा रहा था, बोला- "कल मैं मेरे दोस्तों को बताऊँगा कि मेरी जीजी कलेक्टर बन गई है।"

"कलेक्टर नहीं लड्डूगोपाल, असिस्टेंट कलेक्टर।" -माधुरी ने संशोधन किया।

"अरे हाँ, वही।" -प्रवीण के लिए उसकी खुशी के चलते यह बात अधिक मायने नहीं रखती थी।

दो दिन हो गये थे माधुरी को यहाँ आये। सुबह की चाय लेते वक्त उसे अपनी सहेली सुनयना की याद हो आई। ‘सुनयना से मिलूँ कैसे, वह तो भीलवाड़ा में है।’, उसने सोचा। फिर कुछ सोच कर उसने अपने मम्मी-पापा से कहा- “मैं कल सुबह सुनयना से मिलने भीलवाड़ा जाना चाहती हूँ।”

“अरे तू कहाँ जायगी वहाँ, उसे ही बुला ले न यहाँ। हमारा भी मिलना हो जावेगा उससे।” -चंदा ने सुझाया। 

“नहीं मम्मा! दोस्ती कितनी भी गहरी क्यों न हो, यदि उसे ग़लतफ़हमी का ग्रहण लग जाए तो उसे बिखर जाने में देर नहीं लगती।”

“क्यों, किस बात की ग़लतफ़हमी?”

“यही कि वह कहीं यह न सोच ले कि आर.ए.एस. बनने के बाद मुझमें घमण्ड आ गया है और इसलिए मैं उसे यहाँ बुला रही हूँ।”

“दोस्ती कमज़ोर होय तो ही ऐसो ख़याल आवे है बिटिया! फिर भी अगर तू ऐसा सोचे है, तो कार ले कर चली जा। तेरे पापा को कौन रोज़ ज़रुरत पड़ती है।” -चंदा बोली। 

“हाँ गुड्डी, बस से काहे को जायगी, कार ही ले जा ना!” -राज नाथ ने अख़बार से नज़र हटा कर कहा। 

“ठीक है, मैं उसे फोन से बता देती हूँ कि कल आ रही हूँ।” 

माधुरी ने शाम को सुनयना को फोन लगाया। उसने उसे ट्रेनिंग के बाद दो दिन पहले अपने घर लौटने की सूचना देते हुए यह भी बताया कि उसके पापा का ट्रांसफर चित्तौड़ हो गया है इसलिए सब यहीं हैं। सुनयना ने जाना कि वह ट्रेनिंग से आ गई है, तो उछल पड़ी, बोली- “अरे ओ महारानी पद्मिनी, अपनी नगरी में पधारे आपको दो दिन हो गये और हमें सूचना अब मिल रही है। मैं आती हूँ कल ही तुझसे मिलने, मुझे बस स्टैण्ड पर लेने आ जाना।” 

“अरे, तू नहीं आएगी, मैं ही पहुँच रही हूँ दोपहर तक तेरे पास। भीलवाड़ा की सड़कों पर तफ़री करने का मौका भी तो मिल जाएगा मुझे।”

“क्या तफ़री करेंगे यार, सूरज तो अभी से आग उगलने लगा है। चल आ जा तू ही मेरे लिए ठण्डी बयार बन के।” -सुनयना खिल कर बोली। 

अगले दिन सुबह नाश्ता करने के बाद माधुरी ने चंदा से भीलवाड़ा जाने की अनुमति ली। बाहर आकर वह कार में बैठी।  प्रवीण स्कूल गया हुआ था और राज नाथ उनके ऑफिस। माधुरी ने कहा- "मम्मी, पापा को कह देना, मैं शाम सात बजे तक आ जाऊँगी। आप लोग मेरी चिन्ता बिल्कुल ना करें।"

“हाँ गुड्डी, बोल दूँगी। लेकिन ज़्यादा देर मत करना, रात होने से पहले आ जाना।”

“हाँ-हाँ मम्मा, आ जाऊँगी।” -कार स्टार्ट करते हुए उसने कहा और भीलवाड़ा के लिए रवाना हो गई। 

रास्ता ख़राब था, अतः माधुरी  गाड़ी ज़्यादा तेज नहीं चला रही थी। गर्मी बहुत तेज थी और कार में ए.सी. नहीं था, अतः उसने कार की खिड़कियाँ आधी खुली रखीं। एक बार तो उसे इतनी गर्मी में भीलवाड़ा जाने के अपने निश्चय पर पछतावा हुआ, किन्तु फिर उसे विचार आया कि बेचारी सुनयना तो इतनी गर्मी में बस में आने को भी तैयार थी।

लगभग दो बजे वह भीलवाड़ा पहुँच गई। यहाँ आते ही उसने अपनी चिर-परिचित सड़कें, गलियाँ व 

बाज़ार देखे, तो उसकी सारी बोरियत और थकन मिट गई। इस समय कड़ी धूप भी उसे परेशान नहीं कर रही थी। वह सोच रही थी, क्यों इन्सान को अपनी जगह से इतनी आसक्ति हो जाया करती है?

माधुरी सीधी माणिक्य नगर में सुनयना के मकान पर गई। सुनयना बेसब्री से इन्तज़ार कर रही थी। माधुरी के आते ही उससे इस तरह लिपटी, जैसे उसी में समा जायगी। उसका इतना प्यार देख माधुरी को अपना भीलवाड़ा आना सार्थक लगा। ट्रेनिंग में रहते वह केवल दो बार बात कर पाई थी सुनयना से। सुनयना ने जैसा कि उसे बताया था, वह खुद इसलिए फोन नहीं करती थी कि कहीं उसकी पढ़ाई में बाधा नहीं आए।

ड्रॉइंग रूम में आने के बाद सुनयना पानी और चाय के ले कर आई। चाय पीते-पीते सुनयना के आग्रह पर माधुरी ने अपने ट्रेनिंग पीरियड के कुछ अनुभव सुनाये। सुनयना ने कहा- “यह सब तो ठीक है यार, अपनी पर्सनल बातें भी तो बता। किस-किस को घायल किया तूने और तुझे किसने…?”

“अरे हाँ, यह बताना तो भूल ही गई। चोट मैंने तो नहीं पहुँचाई। पर हाँ,हमारे एक साथी का वहाँ के एक बाज़ार में झगड़ा हो गया था, जिससे उसकी आँख के पास चोट आई थी। मैं उस वक्त उसके साथ ज़रूर थी।”

“बहुत स्मार्ट हो गई है माधुरी तू तो! शरीर की चोट की बात नहीं कर रही मैं, दिल की चोट के बारे में पूछ रही हूँ।” -मुस्कुराते हुए सुनयना ने अपनी एक आँख दबा कर कहा। 

“शुक्र है कि उसके दिल पर कोई चोट नहीं आई थी। एक क्लिनिक पर डॉक्टर को दिखाया था, उसने ऐसी कोई बात नहीं बताई।”

“अरी ओ घनचक्कर, बात टाले जा रही है, इसका मतलब ज़रूर कोई चक्कर है। सीधे से सही बात बताएगी या अपना फॉर्मूला लगाऊँ?” -सुनयना ने अपने दोनों हाथ उसकी तरफ बढ़ाये। 


(12)


माधुरी जानती थी कि अब क्या होने वाला है। सुनयना उसकी कमर में अपनी उँगलियाँ चला कर गुदगुदी करेगी और वह इस आक्रमण से बहुत घबराती है। उसने फ़ौरन कहा- “बताती हूँ बाबा, बताती हूँ।”… और फिर उसने उमेश के साथ अपनी रिलेशनशिप के बारे में संक्षेप में बता दिया। 

“वो मारा पापड़ वाले को! तो यह सब करने गई थी ट्रेनिंग में? बताती हूँ अंकल-आंटी को तेरे कारनामे।”

“बता देना। वैसे बाय द वे, मैं उन्हें पहले ही बता चुकी हूँ।” -हँसते हुए माधुरी बोली। 

“ओह, तो मामला पहले ही पक्का कर लिया है तूने! फिर तो अब  दो-दो बातों की मिठाई खाने को मिलेगी हमें, इसकी और आर.ए.एस. की।” -सुनयना चहकी। 

“हाँ-हाँ, ज़रूर। बस माँ-पापा भी अपनी स्वीकृति दे दें।”

“क्यों नहीं देंगे? हमारी सहेली ने हीरा ही तो चुना होगा न!” -सुनयना मुस्कुराई। 

“मैं नहीं जानती कि वह हीरा है या नहीं। बस इतना जानती हूँ कि वह मुझे प्यार करता है। हीरा नहीं हो, एक इन्सान सही मायनों में इन्सान हो, इतना ही बहुत है।” -माधुरी ने सहजता से जवाब दिया। 

दोनों की गपशप को विराम लगा, क्योंकि सुनयना की माँ खाना ले कर आ गई थीं। माधुरी ने झुक कर उनके पाँव छूए। “जुग-जुग जीओ बिटिया!” -आशीर्वाद दे कर और शिष्टाचार की दो-तीन बातों के बाद ‘अच्छा, अब तुम लोग खाना खा लो’ कह कर वह वापस चली गईं। दोनों सहेलियों ने प्लेट्स में खाना लगाया और अपनी पेट-पूजा में लग गईं। 

“अंकल तो शॉप पर होंगे अभी।“ -खाना खाते-खाते माधुरी ने पूछा। 

“हाँ, रात साढ़े-आठ, नौ बजे आते हैं घर।”- सुनयना ने जवाब दिया। 

लगभग चार बजे, जब सूरज का प्रकोप कुछ कम हुआ, दोनों आधा-पौन घंटे के लिए बाहर निकलीं। माधुरी की इच्छा अपने घर को देखने की थी, सो ‘भोपाल गंज’ में अपने घर की तरफ का चक्कर भी लगाया। घर की चाबी लाना वह भूल गई थी अतः केवल बाहर से ही उसे देखा जा सका। माधुरी ने देखा, घर की दीवारों और दरवाजे पर मकड़ियों के जाले लगे हुए थे।

 “मेरे परिवार को चित्तौड़ गये कुछ ही दिन हुए हैं सुनयना! लेकिन देख ना,  इन्सान घर में नहीं होता, तो कैसी वीरानी छा जाती है।” -माधुरी घर की हालत देख कर दुखी थी। सुनयना ने मुँह सिकोड़ कर सहमति जताई। “चलें यार।” -माधुरी ने कहा। तभी उमेश का फोन आया। माधुरी फोन पर बात करने लगी तो सुनयना उससे थोड़ी दूर खड़ी हो गई। यह देख कर बात करते-करते भी माधुरी के चेहरे पर मुस्कान आ गई। बात ख़त्म होने पर दोनों ने कार की तरफ कदम बढ़ाये। 

“पिछले तीन महीनों में ही शहर में कुछ बदलाव लग रहा है मुझे!” -माधुरी ने ड्राइव करते हुए कहा। 

“ऐसा कुछ खास तो नहीं। मुझे लगता है माधुरी, तू बहुत मिस कर रही है इस शहर को।”

“सो तो है ही। बचपन से कभी सोचा ही नहीं था कि कभी भीलवाड़ा छोड़ना पड़ जायगा।”

“अरे यार, फ़िलहाल मैं तो यहीं हूँ। आ जाना जब भी मन करे।”

“फ़िलहाल से क्या मतलब? क्या तेरी कुड़माई हो गई है?”

“कुड़माई? यह क्या बला है मैडम?”

“अरे घामड़, कोर्स की किताबों को पढ़ने-पढ़ाने के अलावा कुछ और साहित्य भी पढ़ती है या नहीं?” -माधुरी हँसी। 

सुनयना ने प्रश्नवाचक निगाहों से उसे देखा। 

“चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की मशहूर कहानी ‘उसने कहा था’ में नायक नायिका से यह प्रश्न पूछता है और तब नायिका शरमा कर भाग जाती है।”

“ओह समझी। तेरा मतलब ‘शादी’ से है। कुड़माई मतलब शादी।”

“लगता है, तेरा तो आई. क्यू. टेस्ट कराना पड़ेगा मुझे।” दायें हाथ से स्टीयरिंग थामे, बाँये हाथ से सुनयना के सिर पर हल्की-सी चपत मार कर माधुरी ने कहा और फिर सामने देखते हुए से बोली- “मेरी गैरमौज़ूदगी में तू शादी कर सकती है क्या? कुड़माई का मतलब होता है सगाई।” 

“ओह, समझी।… सगाई भी तुझे बताये बिना कैसे हो जायगी यार?

“लड़के तो कई दीवाने होंगे तेरे। क्यों देर कर रही है फिर?”

“तुझे कहती थी न मैं कि लव मैरिज करूंगी, पर ज़्यादातर लड़के  फ़्लर्ट करने वाले ही मिलते हैं, शादी के लिए संजीदगी दिखाने वाला कोई नहीं मिला। अब मम्मी-पापा पर ही छोड़ दिया है मैंने यह मामला।” -सुनयना ने गम्भीर हो कर कहा। 

“ठीक भी है यह, माता-पिता से ज़्यादा हमारा अच्छा-बुरा कौन समझ सकता है।” -माधुरी ने कहा। 

कार सुनयना के घर तक पहुँच गई थी। 

“अच्छा डिअर, अब आंटी से मिल कर चलूँगी मैं।” -सुनयना के साथ घर के भीतर प्रवेश करते हुए माधुरी बोली। 

“रुक जा न एक दिन के लिए मेरे पास, अच्छा लगेगा मुझे।”

“नहीं सुनयना, मम्मी को आज ही लौटने का प्रॉमिस कर के आई हूँ। फिर कभी आ जाऊँगी न!... चल आंटी से मिलवा दे मुझे।”

“ठीक है यार, जैसी तेरी इच्छा!” -सुनयना ने कहा और अपनी मम्मी को आवाज़ दी। 

भीतर से उसकी मम्मी आई, तो माधुरी ने चरण स्पर्श कर के कहा- “चलती हूँ आंटी, शाम हो गई है।”

“रुक जाती न बेटा, एक रात तो रुकती हमारे यहाँ।”

“थैंक यू आंटी, लेकिन मुझे जाना होगा, मम्मी इन्तज़ार कर रही होंगी।”

इन लोगों से विदा लेकर माधुरी चित्तौड़ लौटी तो रात के नौ बज गये थे। 

“बहुत देर कर दी गुड्डी! तुझे कहा था न कि रात होने के पहले आ जाना। हमें बहुत चिंता हो रही थी, समय ख़राब है बिटिया!” -माधुरी के घर पहुँचते ही चन्दा ने कहा।

“सॉरी मम्मा, देर हो गई। रास्ता ख़राब था, सो मैं वहाँ पहुँची ही दो बजे और इतने दिनों बाद मिली थी सुनयना से, तो कुछ समय तो साथ रहना ही था। कुल तीन घंटे ही तो रह सकी उसके साथ। दिन की तपन कम होते ही मैं निकल गई थी वहाँ से।”

“हाँ गुड्डी, समय तो कम ई मिला होगा तुझे। चल, हाथ-मुँह धो कर आ जा। भोजन के लिए सब तेरा इन्तज़ार कर रहे हैं। तेरे पापा की तबियत भी कुछ ख़राब हो रही है। ऑफिस से भी जल्दी ही घर आ गए थे।” 

“अरे, क्या हो गया पापा को?"

"ज़्यादा तो कुछ नहीं, बस थोड़ा बुखार हो आया है। दवा की गोली ले ली है उन्होंने।"

"ओह, मैं दो मिनट में आई।” -कह कर माधुरी वॉशरूम की तरफ चली गई। 

वॉशरुम से निकलते ही माधुरी अपने पापा से मिली और उनका बुखार नापा। थर्मामीटर में रीडिंग 99.5 देख कर उसकी चिन्ता कुछ कम हुई। उसने पापा के सिर पर हाथ फेरा। राज नाथ ने मुस्करा कर कहा- "कोई खास बात नहीं है बिटिया, तेरी मम्मी जबरन ही परेशान हो जाती है।”

 राजनाथ के लिए खिचड़ी बनी थी। वह थोड़ा-बहुत खा कर जल्दी सो गये। थकान के कारण डिनर के दस-पंद्रह मिनट बाद ही माधुरी को नींद आने लगी। वह भी गुड नाईट कह कर अपने कमरे में चली गई।

राज नाथ ने ऑफिस से शनिवार तक की छुट्टी ले ली थी। शनिवार की दोपहर उमेश का फोन आया। माधुरी ने फोन उठाया तो उमेश ने संक्षेप में अपने कार्यक्रम की सूचना दी- "हम लोग सुबह नौ बजे चित्तौड़ के लिए रवाना हो रहे हैं। साढ़े दस बजे के करीब चित्तौड़ पहुँच जायँगे। आप लोगों को कोई दिक्कत तो नहीं?”

“वैलकम उमेश! मैं यहाँ सब को बता दूँगी। मैंने तुम्हें हमारा एड्रेस और लोकेशन तो भेज ही दी थी। उम्मीद है आप लोग आराम से यहाँ पहुँच जाओगे।... ”

उमेश शायद इस समय जल्दी में था। उसने ‘हाँ माधुरी, थैंक्स’ कह कर फोन काट दिया। माधुरी ने मम्मी-पापा को बता दिया कि उमेश अपने परिवार के साथ अगले दिन सुबह साढ़े दस बजे तक आ जायगा।

आज रविवार था। राज नाथ का बुखार कल शाम को ही उतर गया था और आज खुद को कुछ बेहतर महसूस कर रहे थे। सब लोग सुबह की चाय लेने के बाद मेहमानों की प्रतीक्षा कर रहे थे। नाश्ता मेहमानों के साथ ही लेंगे, यह भी निश्चित किया गया था। माधुरी सामान्य, किन्तु शालीन लिबास में अपनी माँ के साथ कमरे में बैठी थी। प्रवीण दूसरे कमरे में बैठा अपना होम वर्क कर रहा था। 


(13)


डोरबैल बजी। प्रतीक्षित मेहमान थे, सो चंदा किचन में चाय का बनाने के लिए गई और राज नाथ उठ कर दरवाज़े पर पहुँचे। दरवाज़ा खोला, तो एकबारगी वह चौंक पड़े, ‘यह तो लक्ष्मी लाल, उनकी पत्नी और उनका बेटा लल्लू है। तो क्या लल्लू ही उमेश है?’ 

राज नाथ व लक्ष्मी लाल, दोनों के मुख से लगभग एक साथ निकला- "आप?" 

तुरंत ही राज नाथ ने सम्हल कर कहा- “आइये, पधारिये।” 

लक्ष्मी लाल कुछ ठिठके, किन्तु उमेश ने उनकी तरफ देख कर भीतर चलने का संकेत किया और दोनों को ले कर भीतर आया। तीनों को ड्रॉइंग रूम में बैठा कर राज नाथ ने कहा- “हम प्रतीक्षा ही कर रहे थे। आप बैठें, मैं दो मिनट में आता हूँ।”

अब तक चंदा वापस माधुरी के पास आ गई थी। राज नाथ बैडरूम में आये और माधुरी से बोले- “गुड्डी, यह क्या है? यह लड़का तो वही है जो तीन साल पहले अपने पिताजी के साथ आया था। क्या यही उमेश है? मैंने तो उस समय तनाव का माहौल हो जाने से लड़के का नाम तक नहीं पूछा था। आज वह माँ को भी साथ लाया है।”

“ क्या कह रहे हो पापा? उमेश वही लड़का है? वह तो तहसीलदार था और उमेश तो मेरा ट्रेनिंग का साथी है। यह कैसे संभव है?”

“मैंने तीनों को पहचान लिया है बिटिया। यह वही लोग हैं।”

“ओह, तो इसका मतलब यह है कि उमेश ने शायद अपनी नौकरी छोड़ कर आर.ए.एस की परीक्षा दी थी।” कुछ क्षण रुक कर उसने फिर कहा- ”आप मम्मी को ले कर चलिए। मैं दो मिनट में आती हूँ।”

“मैंने चाय का पानी गैस पर चढ़ा दिया है। चाय-नाश्ता ले कर माधुरी के साथ आती हूँ। तब तक आप उनके साथ बैठें।” -दोनों की बातें सुन कर आश्चर्य में पड़ी चंदा ने कहा।  

‘ठीक है’ कह कर राज नाथ वापस ड्रॉइंग में चले आये व कुर्सी पर बैठते हुए लक्ष्मी लाल से बोले- “माधुरी और उसकी मम्मी चाय ले कर आते हैं। आपको मकान ढूँढ़ने में परेशानी तो नहीं हुई?”

“”नहीं अंकल, बहुत ही ईज़ी एप्रोच थी, आराम से आ गये।” -मुस्कुराते हुए उमेश ने जवाब दिया। लक्ष्मी लाल अभी भी असमंजस में थे कि इस परिस्थिति में कैसे सहज हों। 

“तुम्हारा नाम उमेश है?” -राज नाथ ने उमेश से पूछा। 

“जी हाँ।”

“तुम तो नायब तहसीलदार थे न! आर.ए.एस के लिए क्या नौकरी छोड़ कर गये थे।”

“नहीं, जब फाइनल सेलेक्शन हो गया तब मैंने नौकरी छोड़ी थी।”

इनकी बातें चल ही रही थीं कि चन्दा और माधुरी अलग-अलग ट्रे में पानी के गिलास और चाय-नाश्ता ले कर आ गये। साथ में प्रवीण भी था। तीनों ने आगंतुकों को नमस्कार किया और पानी के गिलास पेश कर के कुर्सियों पर बैठ गये। 

“हम लोगों ने भी नाश्ता अभी तक नहीं किया है। पहले चाय-नाश्ता कर लें, फिर बात करते हैं।” -राज नाथ ने चाय का कप लक्ष्मी लाल की तरफ बढ़ाते हुए उनकी पत्नी व उमेश से भी अनुरोध किया। 

चाय के बाद लक्ष्मी लाल बोले- “राज नाथ जी, आप तो भीलवाड़ा रहते थे न! यहाँ चित्तौड़ में कैसे?”

“ मेरा ट्रांसफर यहाँ हो गया है। अब सरकारी नौकरी है तो यहाँ आना ही था।” -राज नाथ ने जवाब दिया। 

“जी! हमें नहीं पता था कि माधुरी आपकी बच्ची है।" -लक्ष्मी लाल ने कहा। दो पल रुक कर वह पुनः बोले- "हमने पहले जो कुछ कहा था, उसके लिए हम शर्मिंदा हैं। हमें रिश्ता मंजूर है। दोनों बच्चे एक दूसरे को चाहते हैं। आप लोग भी अपनी सहमति दे देंगे, तो सब अच्छे से हो जायगा।”

“बच्चे चाहते हैं तो हमें भला क्या ऐतराज होगा?” -राज नाथ माधुरी की तरफ देख कर बोले। 

“लेकिन भाई साहब, आपकी जितनी मांग थी, उतना हम नहीं दे सकेंगे।” -चंदा ने कहा और समर्थन के लिए अपने पति की ओर देखा।  

“कैसी बात कर रही हैं भाभी जी आप? जब बच्चे एक-दूसरे को पसंद  करते हैं, तो लेन-देन की बात ही कहाँ रही अब?””

“अंकल, दहेज़ की बात तो अभी तय हो ही जानी चाहिए।” -अब माधुरी ने कहा। 

“हमें कोई दहेज-वहेज नहीं चाहिए बिटिया!” -अपनी वाणी को मधुरता का पुट देते हुए लक्ष्मी लाल ने कहा और उमेश की तरफ नज़र घुमाई। 

 “माधुरी, पापा कह रहे हैं न कि हमें दहेज नहीं चाहिए।” - इस बार उमेश बोला। 

“लेकिन मुझे दहेज चाहिए।” -माधुरी ने गम्भीर स्वर में कहा। 

स्तब्ध लक्ष्मी लाल ने माधुरी की तरफ देखा और फिर चेहरा ऊपर उठा कर छत की ओर देखने लगे। लक्ष्मी लाल की पत्नी विस्फारित नेत्रों से माधुरी की ओर देख रही थीं। चंदा और राज नाथ भी स्तंभित थे। माधुरी के इस अप्रत्याशित व्यवहार को देख वह समझ नहीं पा रहे थे कि क्या बोलें। 

“क्या कह रही हो माधुरी, क्या हो गया है तुम्हें?” -उमेश भी विस्मित था। 

“सही सुना तुमने उमेश! मुझे दहेज में चाहिए पचास लाख रुपया। हाँ, कार की मांग मैं नहीं करूँगी।”

चंदा ने देखा, बात बिगड़ने जा रही है, माधुरी को समझाने की कोशिश करते हुए बोलीं- “गुड्डी, यह क्या उल्टी गंगा बहा रही है? ऐसा कहीं होता है बिटिया?”

“क्यों नहीं हो सकता मम्मा? अगर कानून की किताबों और धर्म-शास्त्रों में लड़कों के लिए दहेज लेना सही माना गया है तो लड़की दहेज ले सकती है, यह भी उनमें कहीं न कहीं लिखा मिल जायगा। आप लोग उन किताबों को पढ़िए।

“माधुरी, मैं तुमसे प्यार करता हूँ और तुम भी तो मुझसे प्यार करती हो। क्या उस समय की बात का बदला ले रही हो, जब हम-तुम एक-दूसरे को जानते तक नहीं थे।”

“बदले की बात कहाँ से आई उमेश? उस समय वह तुम्हारी मांग थी, अब मेरी है।”

“माधुरी, मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ। प्लीज़ ऐसा मत करो मेरे साथ। क्या तुम मुझसे प्यार नहीं करतीं?” -दयनीय स्वर में उमेश बोला।  

“मैं तुम्हें पसंद करती थी और पसंद करना प्यार होता है तो हाँ, प्यार करती थी। कहते हैं कि प्यार अन्धा होता है।... होता होगा प्यार अन्धा, लेकिन न तो मेरा प्यार अन्धा है और न ही मैं अन्धी हूँ कि कुंए में कूद जाऊँ। मुझे पता होता कि लल्लू ही उमेश है तो बात इतनी बढ़ती ही नहीं।” -माधुरी के चेहरे पर एक अबूझ मुस्कान आ गई। 

“तुमने कहा था माधुरी, कि पेरेंट्स की स्वीकृति मिलने पर ही तुम मुझसे शादी करोगी। अब, जब वह राजी हैं, तो तुम क्यों ऐसा कर रही हो?”

“मैं अपने पेरेंट्स के सम्मान को महत्त्व देती हूँ, तो क्या वह मेरे सम्मान को चोटिल होने देंगे?” -कहते हुए माधुरी ने अपने 

मम्मी-पापा की तरफ देखा। राज नाथ और चंदा, दोनों खामोश रहे। 

“देखा उमेश, इनकी खामोशी मेरी बात का समर्थन करती है न!… और हाँ, लंच का समय होने को है, आप लोग भोजन कर के ही यहाँ से जाएँ।”

“और कितनी बेइज्ज़ती करवाएगा रे लल्ला, चलेगा अब भी या नहीं?” -अब तक खामोश रही उमेश की माँ बिफ़र पड़ीं और तीनों उठ खड़े हुए। 

माता-पिता के साथ बाहरी दरवाज़े से कार की तरफ बढ़ रहे उमेश ने एक बार पीछे की तरफ देखा, पिछली बार की तरह ही इस बार भी राज नाथ दरवाज़े तक आने की शिष्टता निभाने आये थे, लेकिन वह नहीं हुआ जो उमेश चाहता था। 


(14)


एक माह बाद-

सम्भागीय आयुक्त द्वारा परिवीक्षाधीन आर.ए. एस. अधिकारियों के लिए आहूत एक तीन-दिवसीय मीटिंग में माधुरी भी उदयपुर आई थी। पहले दिन की मीटिंग के चायकालीन अवकाश तक का समय परिचय की औपचारिकता में ही बीत गया। अवकाश में चाय के बाद बाहर पोर्च में निकली माधुरी को पीछे से किसी ने नाम ले कर पुकारा। आवाज़ जानी-पहचानी थी, उसने घूम कर पीछे देखा, राजीव था। 

“मुझे उम्मीद थी, तुम ज़रूर आओगी।” -राजीव उल्लसित स्वर में बोला। 

“डिवीज़नल कमिश्नर ने बुलाया हो और कोई न आए, ऐसा भला सम्भव है राजीव?”

“कल्पना भी नहीं की थी कि तुमसे इतना जल्दी मिलना हो जाएगा।” -राजीव ने कहा।

“हाँ राजीव, संयोग या देवयोग इसे ही कहते हैं।” -राजीव को प्रफुल्लित देख मुस्कुराई माधुरी। 

टी-ब्रेक खत्म होने को था। हॉल की तरफ जाते समय राजीव ने कहा- “लंच में मिलते हैं।”

“श्योर।” -माधुरी बोली और दोनों अपनी-अपनी सीट पर चले गये। 

मीटिंग के इस सत्र में कुछ लोगों से उनके एक माह के अनुभव पूछे गये तथा अधिकारियों को पेश आ रही परेशानियों के समाधान हेतु भी चर्चा की गई।

मध्यकालीन अवकाश में सभी अधिकारी भोजन के लिए निर्धारित हॉल में पहुँचे। राजीव और माधुरी एक मेज पर आ गये थे। नई-पुरानी बातें चलीं। इसी दौरान राजीव ने डिनर बाहर कहीं साथ लेने का प्रस्ताव रखा, जिसे माधुरी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। लंच के बाद राजीव ने माधुरी से कहा- “क्या मैं तुम्हारे व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्धित कोई बात कर सकता हूँ?”

“हाँ, राजीव, तुम मेरे मित्र हो यार!”

“थैंक्स माधुरी! वस्तुतः तुम्हारे व उमेश के मध्य चित्तौड़ में जो कुछ बात हुई, उसके सम्बन्ध में बात करना चाह रहा था। दरअसल उमेश ने मुझे कुछ बताया था, लेकिन मैं तुमसे जानना चाहता हूँ, अगर तुम्हें ऐतराज़ न हो।”

“श्योर राजीव!” -कह कर माधुरी ने तीन साल पहले वाली घटना का विवरण बताते हुए अभी जो कुछ हुआ वह भी संक्षेप में बता दिया। 

“ओह, माधुरी, उमेश ने अभी की बात तो लगभग ऐसी ही बताई थी, लेकिन तीन साल के पहले वाली घटना में उसने अपने पक्ष को उजला बताने की कोशिश की थी। वैसे मैंने पहले ही सच्चाई का कुछ अनुमान लगा लिया था।”

“छोड़ो राजीव, एक ग़लत इन्सान को चुनने के लिए मुझे हमेशा अफ़सोस रहेगा।”

“हम किसी के दिल-दिमाग में तो नहीं झाँक सकते न! संयोग ही होता है यह भी। तो माधुरी, हम डिनर साथ में ले रहे हैं न?

“हाँ राजीव, मिलते हैं शाम को।”

डिनर वाली शाम-

“डिनर मेरी तरफ से होगा राजीव!” -माधुरी ने चयनित रेस्तरां की तरफ जाते समय राजीव से कहा। 

“प्रपोज़ल किसका था? ...और फिर तुम तो उदयपुर में मेहमान हो।” -मुस्कुराया राजीव। माधुरी निरुत्तर थी। 

सांझ ढ़लने की ओर थी। दिन की उमस छँट गई थी व रात्रिकालीन शीतलता वातावरण में घुल रही थी। रेस्तरां एयर कण्डीशंड था, लेकिन प्रकृति का आनन्द लेने के लिए  दोनों ने रेस्तरां हॉल के बाहर वाले लॉन में रखी डिनर टेबल चुनी। लॉन में उनके अलावा उस समय और कोई नहीं था। 

लॉन के किनारे-किनारे एक तरफ रात रानी व रजनीगंधा  के पौधे थे और दूसरी तरफ पारिजात और मोगरा के पौधे थे। चारों ओर से आ रही मदमाती खुशबू माहौल को खुशनुमा बना रही थी। इस खूबसूरत परिवेश में दोनों के मन झूम उठे थे। 

“राजीव, इस रेस्तरां का तुम्हारा चयन बहुत अच्छा रहा। मनमोहक खुशबू ने मन मोह लिया है।” -माधुरी ने चहकते हुए कहा। 

“हाँ माधुरी, सच में। मेरे दोस्तों ने बहुत तारीफ़ की थी इस रेस्तरां की।”

खाना आ गया था। वेटर खाना प्लेट्स में सर्व कर के चला गया और दोनों खाने का लुत्फ लेने लगे। 

“खाना कैसा है माधुरी?”

“बहुत स्वादिष्ट! यह रेस्तरां तो वास्तव में बहुत अच्छा है। दिन सुधार दिया इसने।” -माधुरी को यहाँ बैठना व भोजन करना बहुत लुभा रहा था। ‘काश, मुझे उदयपुर मिला होता तो हर वीकेंड की शाम इसी रेस्तरां में गुज़ारती।’, वह सोच रही थी। 

“क्या सोच रही हो माधुरी?”

“आँ, कुछ खास नहीं।” -माधुरी ने जवाब दिया। 

खाना खाने के बाद कुछ देर दोनों वहीं टहलने लगे। 

“यहाँ से जाने का मन ही नहीं कर रहा राजीव!”

“तुमने मेरे होठों से बात छीन ली। मेरे मन में भी कुछ ऐसा ही चल रहा था।”

“एक बात कहूँ माधुरी, बुरा तो नहीं मानोगी?” -राजीव ने पुनः कहा। 

“दोस्तों में किस बात का बुरा मानना। कहो ना!”

“छोड़ो, फिर कभी।”

“यह क्या बात हुई राजीव? अब तो सुने बिना नहीं मानूँगी।”

“डरता हूँ, कहीं बुरा न मान जाओ। मैं तुम्हारी दोस्ती खोना नहीं चाहता।”

“अभयदान देती हूँ। चलो अब कहो।” -माधुरी ने मुस्कुरा कर कहा। 

“क्या ऐसा सम्भव नहीं कि हम दोनों रोज शाम को साथ में टेबल टेनिस खेला करें?”

“सम्भव क्यों नहीं? हमारी पोस्टिंग एक ही शहर में भी हो ही सकती है। लेकिन इसमें दोस्ती खोने वाली बात कहाँ है?” -माधुरी खिलखिला कर हँसी। 

“माधुरी, मुझमें तुम जैसा वाक-चातुर्य नहीं है। स्पष्ट ही कहूँगा। जब तक तुम उमेश के साथ रिलेशनशिप में थी, तुम तक अपनी बात पहुँचाना मेरे लिए नैतिक रूप से सही नहीं था, किन्तु अब तो कह ही सकता हूँ। मैं तुम से प्यार करता हूँ माधुरी, तुम्हारे साथ जीवन बिताना चाहता हूँ।” -एक साँस में राजीव कह गया।  

“हा हा हा हा! कितनी मुश्किल से यह बात कह सके हो तुम! राजीव, कोई भी लड़की तुम्हें अपने जीवन-साथी के रूप में पा कर प्रसन्न होगी।” -अंतिम वाक्य कहते माधुरी कुछ गम्भीर हो गई। 

“क्या तुम भी?”

“जवाब के लिए क्या डिक्शनरी से कोई और शब्द ढूंढने होंगे मुझे? -मुस्कुराई माधुरी। 

“ओह माधुरी! आज तो मुझे खुशियों का आसमान मिल गया है।” -हर्षातिरेक में राजीव ने माधुरी के दोनों हाथ थाम लिए। दोनों एक-दूसरे का स्पर्श पा कर रोमांचित हो उठे। माधुरी की आँखें मुंद गई थीं। वह मन ही मन राजीव की प्रशंसक तो थी ही, लेकिन प्यार का यह प्रथम स्पर्श आज उसके तन-मन को भिगो गया। राजीव के खामोश प्यार ने उसे जीत लिया था। 

“लेकिन माधुरी, तुम लड़कों से दहेज मांगती हो। मैं तुम्हें दहेज नहीं दे सकूँगा।” -राजीव ने उसे बाँहों में ले चुहल किया। 

"दहेज में मैंने तुम्हारा प्यार पा लिया है न राजीव! मुझे इससे अधिक दहेज नहीं चाहिए।" -लजाते हुए माधुरी ने राजीव के कंधे पर सिर झुका दिया।


-:समाप्त:-                                                                                                                                  


टिप्पणियाँ

  1. मैं प्रतीक्षारत थी आदरणीय , कि कब आपकी यह रचना ब्लाग पर प्रकाशित होगी जिससे की एक ही बार में पूरी कहानी का आनंद ले सकूँ।आज यह सुअवसर मिल गया। सादर आभार।

    अब कहानी की बात, मधुरी का निर्णय आत्मविश्वास और आत्मसम्मान को दर्शाता है जो हर किसी में होना आवश्यक है खासकर लड़कियों में। प्रेरणादायक वैचारिक संदेशपरक कहानी👏🏼👏🏼👏🏼👏🏼
    माधुरी का लल्लू के परिवार से दहेज माँगना ,नहले पर दहला रहा।
    बेहतरीन कथानक के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय💐

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    उत्तर
    1. मेरी कहानी पढ़ने एवं विस्तृत टिप्पणी देने के लिए आभारी हूँ स्नेहमयी पूजा जी! एक लम्बी कहानी को पढ़ना साहस व धैर्य का काम होता है और यह धैर्य आपने जुटाया, तदर्थ मेरा साधुवाद आपको! मात्र एक सोच को दिखलाने के लिए इतनी लम्बी कहानी का ताना-बाना बुनना पड़ा मुझे। वस्तुतः एक लघुकथा लिखने के लिए मैंने लगभग एक वर्ष से कुछ बिन्दु तीन-चार पंक्तियों में लिख छोड़े थे, लेकिन उन्हें विस्तार नहीं दे पाया था और अब जब उन्होंने विस्तार पाया तो लघुकथा की रूपरेखा ने एक लम्बी कहानी की आकृति पा ली। मैं सामान्यतया लम्बी कहानी लिखना भी पसंद नहीं करता और पढ़ना भी, किन्तु दो-तीन कहानियाँ लिखने में यह भूल कर बैठा हूँ।
      आज मनुष्य के पास समय कम है। लम्बी कहानियाँ और उपन्यास पढ़ना एक भागीरथ प्रयास होता है। मैं धन्य मानता हूँ उनको जिनकी ऐसी लम्बी रचनाएँ पढ़ी जाती हैं और उनको भी जो उन्हें पढ़ते हैं। किशोरावस्था में प्रेमचंद, शरत चंद्र, बंकिम चंद्र, टैगोर, आदि (तथा गोर्की, टॉलस्टॉय, जैसे विदेशी लेखक भी) साहित्य-मनीषियों के दीर्घकाय रचना-संसार में खूब गोते लगा लेता था। देवकीनंदन खत्री की 'चन्द्रकान्ता संतति' व अन्य कई जासूसी उपन्यास भी चाट डालता था, लेकिन अब इतना पढ़ा नहीं जाता।
      आपकी इस सुन्दर समीक्षा के लिए हार्दिक धन्यवाद!

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    2. आपकी कहानियाँ मुदे कभी लंबी नहीं लगतीं पर किश्तों में पढना नहीं भाता इसलिए प्रतीक्षा करती हूँ पूरी होने की।और यहाँ उस प्रतीक्षा पर विराम लग गया, 🙏🙏सादर अभिवादन आदरणीय

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  2. चर्चा-मंच का हिस्सा बनाने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद आ. मयङ्क जी! मंच के पटल पर आपका आभार प्रकट करने के बाद आज यहाँ आ पाया हूँ। स्वास्थ्य अनुकूल नहीं होने के कारण समय पर अपनी प्रतिक्रिया यहाँ नहीं दे सका था, तदर्थ खेद है।

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  3. सही कहा लम्बी कहानी पढना साहस और धैर्य का काम है पर कहानीकार जब आप जैसे हो और कहानी के हर मोड़ पर ऐसे कोतुहल हों शैली रोचक हो और अंत इतना प्रभावी तो पाठक बँध के रह जाता है।
    बहुत सुन्दर एवं सार्थक कहानी।

    जवाब देंहटाएं
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    1. मेरी कहानी को इतना सम्मान देने के लिए अंतस्तल से आभारी हूँ आ. सुधा जी! आपकी सराहना ने मेरे लेखन को सार्थकता प्रदान की है... आभार महोदया!

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