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'वह यादगार सफ़र' (लघुकथा)

 प्रस्तावना :-

मैं तब स.वा.क. अधिकारी के पद पर कार्यरत था। एक बार मैं अपने वॉर्ड के एक विभागीय केस, जिसमें एक व्यापारी ने उस पर लगाई गई पेनल्टी के सम्बन्ध में रेवेन्यू बोर्ड में अपील की थी, के मामले में अपने विभाग का पक्ष प्रस्तुत करने हेतु अजमेर गया था। मैं अपने साथ एक ब्रीफ़केस ले गया था, जिसमें विभाग की केस-पत्रावली तथा मेरे दो जोड़ी कपड़े रखे थे। रेवेन्यू बोर्ड में काम हो जाने के बाद घर लौटने के लिए बस स्टैंड पर पहुँचा व एक खाली सीट पर ब्रीफ़केस रख कर पड़ोस में बैठे व्यक्ति को ब्रीफ़केस का ध्यान रखने को कह कर टिकिट लेने गया। कुछ पांच-सात मिनट में ही सीट पर पहुँचा तो देखा कि वह सज्जन (दुर्जन) मेरे ब्रीफ़केस सहित गायब थे। बस से बाहर निकल कर आसपास देखा, लेकिन वह अब कहाँ मिलने वाला था। यदि मैं उस समय सामान्य मनःस्थिति में होता तो स्वयं पर हँसता कि बस के आस-पास मुझे वह चोर क्या यह कहने के लिए मिल जायगा कि साहब मैं आपका ब्रीफ़केस आपको सम्हलाने के लिए ही यहाँ खड़ा हूँ। 

मैं बदहवास हो उठा था। मेरे दिमाग़ में विचार आया कि मामला सरकारी फाइल खो जाने का था और मुझ पर आरोप लग सकता था कि मैंने व्यापारी को मदद करने के लिए फाइल जानबूझ कर खो दी है। फिर मनन करने पर थोड़ा आश्वस्त भी हुआ कि ऐसा आरोप तो तब लगता, अगर फाइल रेवेन्यू बोर्ड में पेश करने से पहले खो जाती। अभी की स्थिति में मैं फाइल से आवश्यक कागज़ात निकाल कर वहाँ उच्चाधिकारी को सौंप चुका था, अतः मेरी नेकनीयती पर सन्देह का कोई कारण नहीं बनता था। फिर भी चूंकि चोरी का मामला तो था ही, सो सफर निरस्त कर के अपने तत्कालीन साथी अधिकारी (वर्तमान में सेवानिवृत आई.ए.एस. अधिकारी), जो उन दिनों अजमेर में ही थे, से मिल कर, उनसे परामर्श कर सम्बंधित पुलिस थाने में रिपोर्ट दर्ज कराने के बाद अपने शहर लौटा। तत्पश्चात कार्यालय में जाने पर सारी स्थिति बता कर आवश्यक कार्यवाही पूरी की। वह ब्रीफ़केस तो हमारी कार्यकुशल (?) पुलिस के कारण न तो मिलना था, न ही मिला।

पूर्व घटित इस घटना का स्मरण हो आने से इस उम्मीद के साथ कि शायद किसी गुमराह व्यक्ति का हृदय-परिवर्तन हो जाये, निम्नाङ्कित ताज़ातरीन लघुकथा प्रस्तुत कर रहा हूँ :- 

                                                      


   'वह यादगार सफ़र'


एक इंटरव्यू के बाद मैं अपने गाँव रामगढ़ लौट रहा था। बस में कुछ खास भीड़ तो नहीं थी, लेकिन सीटें सभी फुल थीं और पांच-सात मुसाफिर बीच में खड़े-खड़े सफ़र कर रहे थे। मेरी सीट खिड़की के पास थी। मेरे पास वाली दोनों सीट्स पर दो आदमी बैठे हुए थे। बातचीत के दौरान पता चला कि मेरे ठीक पास वाले यात्री का नाम राधे लाल था। उसे दो स्टॉप आगे उपलाकलां पर उतरना था और उसके पास वाले दूसरे आदमी का नाम मगन लाल था, जिसे पहले स्टॉप नवापुरा पर उतरना था। मेरा रामगढ़ जो अपेक्षाकृत बड़ा गाँव था या यूँ कहिए कि छोटा-मोटा कस्बा था, चार स्टॉप के बाद आता था। नवापुरा उपलाकलां से बड़ा गाँव था और वहाँ अधिक सवारियाँ चढ़ती-उतरती थीं, अतः वहाँ बस कुछ अधिक देर के लिए रुकती थी। लघुशंका करने की ज़रुरत महसूस होने से नवापुरा आने से कुछ पहले ही मैं पड़ोसी राधे लाल को सामान रखने की सामने वाली रैक पर रखे मेरे ब्रीफ़केस का ध्यान रखने को कह कर सीट से उठ कर गैलेरी में खड़े यात्रियों के बीच से जगह बनाता हुआ गेट पर आ खड़ा हुआ, ताकि समय से वापस बस में चढ़ सकूँ। नवापुरा आने पर बस रुकी और मैं सबसे पहले उतर गया। 

बस में लौटने पर अपनी सीट पर गया तो देखा मगन की सीट पर कोई और यात्री बैठा था और राधे सीट पर मौज़ूद नहीं था। मगन को तो नवापुरा में उतरना ही था, लेकिन राधे का सीट पर नहीं होना आश्चर्य की बात थी। पहले तो सोचा कि राधे भी बाहर निकला होगा, लेकिन अब तो ड्राइवर ने चलने के लिए हॉर्न भी बजा दिया था। मैंने घबरा कर रैक की ओर देखा, जहाँ मैंने ब्रीफ़केस रखा था। ब्रीफ़केस वहाँ मौज़ूद नहीं था। ब्रीफ़केस नहीं था और राधे भी नहीं था, तो मेरा माथा ठनका। बेतहाशा मुँह से निकल पड़ा- "चोर साला!"

बस चल पड़ी थी। मैंने गेट पर जा कर कण्डक्टर को सारी बात बताई व गाड़ी रोकने को कहा। 

कण्डक्टर ने बताया- "गाड़ी यहाँ लगभग पाँच मिनट ठहरी थी और अब तक में वह आदमी बहुत दूर जा चुका होगा। इस गाँव में करीब दो सौ घर हैं। आप कहाँ ढूंढ पाओगे उसे? गाँव में पुलिस-चौकी ज़रूर है, लेकिन केवल एक सिपाही की ड्यूटी रहती है और वह भी अक्सर नदारद रहता है। इस रूट पर रामगढ़ जाने वाली यह आखिरी बस है। आप गाँव में कहाँ ठहरोगे?"  

मेरी समझ में आ गया कि कण्डक्टर की बात में दम है। मैं वापस अपनी सीट पर लौट आया, क्योंकि ब्रीफ़केस में मेरे दो जोड़ी कपड़े और कुछ कागज़ात मात्र थे जो ख़ास महत्त्व के नहीं थे। नुकसान तो हुआ था, किन्तु भूल जाने के सिवा कोई चारा ही नहीं था। बस यथावत् चल रही थी और मेरा मन भी चोरों की मानसिकता पर विचार-मंथन करता चलायमान था। पुरानी, इस खटारा बस के चलने के शोर के साथ कुछ यात्रियों की बातचीत का शोर कदमताल कर रहा था। यह शोर पहले भी था, लेकिन अब यह मेरे लिए पीड़ादायक बन गया था। राधे लाल वाली सीट पर एक नया आदमी आ कर बैठ गया। मैंने उससे कोई बात नहीं की। मुझे बस में बैठा हर व्यक्ति अब राधे की श्रेणी का ही लगने लगा था। अपनी जेब में रखे पर्स को मैंने खिड़की की तरफ वाली दायीं जेब में शिफ्ट कर लिया और फिर निश्चिन्त हो कर अपनी आँखें मूँद लीं, क्योंकि अब और चोरी की कोई सम्भावना नहीं थी।

अगला स्टॉप उपलाकलां आया और दो-तीन यात्री बस से उतर गये। मैंने आंशिक आशा के साथ खिड़की के बाहर झाँका, लेकिन राधे अब कहाँ मिलने वाला था। बस फिर आगे बढ़ी। एक और स्टॉप निकलने के बाद टीकमपुर आया। यहाँ गाड़ी तीन-चार मिनट के लिए ठहरती थी। यात्री चढ़ने-उतरने शुरू हुए। अगला स्टॉप रामगढ़ था, जहाँ मुझे उतरना था। मैंने अपनी आँखें फिर से मूँद लीं। तभी कोई व्यक्ति खिड़की के पास आकर बोला- "बाबूजी!"

चौंक कर मैंने बाहर देखा तो विस्मय से देखता ही रह गया। यह राधे लाल था जो अपने हाथ में मेरा ब्रीफ़केस लिये हुए था।

"तुम?" -मेरे मुँह से निकला।

मैंने देखा, उसके पास ही दो और आदमी एक बाइक के साथ खड़े थे। उनमें से एक मगन लाल था, जो अपने कान पकड़े खड़ा था। उसकी एक आँख पर कुछ सूजन थी।

"जी बाबूजी! पता नहीं, आपने मेरे बारे में क्या-क्या सोच लिया होगा! हुआ यूँ कि कुछ ही क्षण के लिए मेरी नज़र चूकी थी और यह मगन लाल आपका ब्रीफ़केस ले कर निकल गया। उसके जाने के बाद मैंने ब्रीफ़केस के लिए देखा और उसे गायब देख कर मैं भी बस से उतर गया। आपको कुछ बताने का समय नहीं था, क्योंकि मुझे इसे पकड़ना था। गाँव में जाने के दो रास्ते थे। सोच रहा था कि मगन किधर से गया होगा। तभी मुझे मेरे इस दोस्त महिपाल सिंह का ध्यान आया।" -राधे ने कहते-कहते पास खड़े अपने साथी को इंगित किया और ब्रीफ़केस खिड़की से ही मेरे हाथ में दे कर अपनी बात जारी रखी- "इनका मकान बस स्टॉप से करीब सौ गज की दूरी पर ही है। मैंने इनको सारी बात बताई और इनकी बाइक से गाँव में घूम कर पूछताछ की। मगन का घर जल्दी ही मिल गया। हम दोनों ने इसकी थोड़ी पूजा की तो इसने ब्रीफ़केस ला कर दे दिया। गाँव का एक और आदमी भी हमारे साथ था। दो थप्पड़ उसने भी लगा कर अपने हाथ सेंके व हमें बताया कि इस तरह की हरकत वह पहले भी कर चुका है। इसने माफ़ी मांगी और इसी शर्त पर हमारे साथ आया है कि इसकी पुलिस में शिकायत नहीं करेंगे। हमें भरोसा था कि रामगढ़ आने के पहले ही हम आपकी अमानत आपको दे सकेंगे। बाबूजी, आपकी चीज़ आपको मिल गई है। इसे खोला भी नहीं गया है। मेहरबानी कर के इसे माफ़ कर दीजिएगा।"

"इसे तो माफ़ कर दूंगा, लेकिन आपने इतनी ज़हमत क्यों उठाई भाई राधे जी?" -मैं राधे लाल के प्रति पूर्व में पैदा हुए अपने मनोभावों के लिए शार्मिन्दगी महसूस कर रहा था। मैंने इतना कह कर दो सौ रुपये निकाल कर उसकी तरफ बढ़ाये।

"बाबूजी, आपने मुझे जिम्मेदारी दी थी और मैंने इसमें गफ़लत करने का गुनाह किया था। आपकी अमानत आप तक पहुँचाने की कोशिश करना तो मेरा फ़र्ज था ही। इस काम का कोई पुरस्कार हमें नहीं चाहिए।" -मेरे हाथ को मेरी तरफ खिसकाते हुए राधे ने नम्रता से कहा। 

"लेकिन बाइक के पेट्रोल का खर्च तो हुआ ही है न आप लोगों का। आप लोग इतनी दूर आये हो और वापस अपने गाँव लौटोगे। इसका भुगतान ही समझ लो भाई।"

"पैट्रॉल का इतना खर्च तो हमारा रोज़ का हो जाता है साहब! इतनी गणित हम नहीं करते। आपकी चीज़ आपको मिल गई, हम इससे ही खुश हैं।" -इस बार उसके साथी महिपाल सिंह ने कहा।   

उसकी बात सुन कर मैंने स्वयं को अपनी ही नज़रों में गिरा महसूस किया।

वह तीनों नमस्कार कर के लौट गये। राधे लाल व महिपाल सिंह के प्रति कृतज्ञता व उनकी उच्च मानवीय भावनाओं के प्रति मन में सम्मान का भाव लिये मैं उन्हें जाते देखता रहा। बस अपने गंतव्य के लिए आगे बढ़ चली थी।

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टिप्पणियाँ

  1. ईमानदारी की बेशकीमती मिसाल । अच्छी कथा ।

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  2. ऐसे लोग भी हैं अभी दुनिया में..तभी कायम है ये सृष्टि ।
    बहुत सुन्दर...
    लाजवाब लघुकथा।

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    उत्तर
    1. आभार महोदया! काश, ऐसा ही सचमुच में होता, जब मेरा ब्रीफ़केस वास्तव में खोया था।

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  3. ऐसी ही मिसालें सम्बल देती हैं कि कहीं अप्रत्यक्ष रूप से इंसानियत जिन्दा है...

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  4. आज भी दुनिया मे अच्छे लोग है। सुंदर लघुकथा।

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  5. वाह वाह! सुंदर अभिव्यक्ति।

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  6. प्रेरक प्रसंग।
    हम क उबार कितने गलत साबित होते हैं।
    राधे लाल जैसे इंसान ही मानवता की रक्षा किया करते हैं।

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