शाम का वक्त था। मनसुख बैसाखी एक तरफ रख कर सड़क के किनारे दूब पर बैठ गया। उसे यहाँ सुकून तो मिला ही, साथ ही उसे यह उम्मीद भी थी कि शाम को यहाँ आने वाले लोगों से कुछ न कुछ मिल भी जायगा। दिन भर वह समीपस्थ भीड़-भाड़ वाले बाज़ार में था, लेकिन उसे अब तक भीख में मात्र तीन-चार रुपये मिले थे। यहाँ दूसरी तरफ सड़क थी तो इस तरफ चार-पांच फीट मुलायम दूब वाले भाग के बाद चार फीट का फुटपाथ व उससे लगी हुई छोटी-बड़ी दुकानें थीं। इन दुकानों पर आने वाले ग्राहक सामान्यतया सम्पन्न वर्ग के लोग हुआ करते थे। यह छोटा-सा बाज़ार शहर के सबसे पॉश इलाके के पास स्थित था। नगरपालिका ने विशेष रूप से इस बाज़ार की रूपरेखा तैयार की थी। यहाँ आने के बाद कुछ लोग उसके पास से गुज़रे भी और उसने मांगने के लिए उनके समक्ष हाथ भी फैलाया, किन्तु वह लोग उसके कोढ़-ग्रस्त बदन पर एक हिकारत भरी नज़र डाल कर दूर हटते हुए आगे बढ़ गये। वह पहले भी कई बार परमात्मा को कोस चुका था और आज फिर उसने शिकायत की कि लंगड़ा तो उसे बना ही दिया था, उसे कोढ़ देने के बजाय दूसरी टांग भी ले लेते, तो ही ठीक था। उससे नफ़रत न करके कुछ लोग तो उसे कुछ दे जाते। सुबह से