शाम का वक्त था। मनसुख बैसाखी एक तरफ रख कर सड़क के किनारे दूब पर बैठ गया। उसे यहाँ सुकून तो मिला ही, साथ ही उसे यह उम्मीद भी थी कि शाम को यहाँ आने वाले लोगों से कुछ न कुछ मिल भी जायगा। दिन भर वह समीपस्थ भीड़-भाड़ वाले बाज़ार में था, लेकिन उसे अब तक भीख में मात्र तीन-चार रुपये मिले थे। यहाँ दूसरी तरफ सड़क थी तो इस तरफ चार-पांच फीट मुलायम दूब वाले भाग के बाद चार फीट का फुटपाथ व उससे लगी हुई छोटी-बड़ी दुकानें थीं। इन दुकानों पर आने वाले ग्राहक सामान्यतया सम्पन्न वर्ग के लोग हुआ करते थे। यह छोटा-सा बाज़ार शहर के सबसे पॉश इलाके के पास स्थित था। नगरपालिका ने विशेष रूप से इस बाज़ार की रूपरेखा तैयार की थी।
यहाँ आने के बाद कुछ लोग उसके पास से गुज़रे भी और उसने मांगने के लिए उनके समक्ष हाथ भी फैलाया, किन्तु वह लोग उसके कोढ़-ग्रस्त बदन पर एक हिकारत भरी नज़र डाल कर दूर हटते हुए आगे बढ़ गये। वह पहले भी कई बार परमात्मा को कोस चुका था और आज फिर उसने शिकायत की कि लंगड़ा तो उसे बना ही दिया था, उसे कोढ़ देने के बजाय दूसरी टांग भी ले लेते, तो ही ठीक था। उससे नफ़रत न करके कुछ लोग तो उसे कुछ दे जाते। सुबह से उसने कुछ नहीं खाया था। आज अगर कुछ नहीं मिला तो कल सुबह तक उसे भूखा ही सोना पड़ेगा। ईश्वर की निष्ठुरता व अपनी विवशता पर वह खीझ उठा।
तभी उसने देखा, एक पुरुष स्ट्रॉलर में अपने सात-आठ माह के शिशु को लिटाये अपने पत्नी के साथ चला आ रहा है। दम्पति समृद्ध परिवार से था, यह उनकी वेश-भूषा देख कर ही लग रहा था। उन्हें देख उसे कुछ आशा बंधी। जैसे ही वह लोग कुछ करीब आये, उसने अपने चेहरे पर करुण भाव लाकर अपना हाथ फैला कर कहा- "मेहरबानी करके कुछ देकर जाइये। सुबह से भूखा हूँ मैं।”
पुरुष ने अपनी जेब में हाथ डाला तो उसकी पत्नी उसका हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींचते हुए बोली- "छिः, देख नहीं रहे हो? वह कोढ़ी है। जल्दी चलो आगे।”
पुरुष ने अपना हाथ जेब से बाहर निकाला और यंत्रवत पत्नी के साथ आगे बढ़ गया। लगभग बीस मीटर की दूरी पर वह लोग रुके। पुरुष ने स्ट्रॉलर एक तरफ खड़ा करके अपनी पत्नी को कुछ कहा और सामने वाली दुकान में चला गया। दो-एक मिनट ही हुए थे कि दूसरी तरफ से आ रही उस महिला की कोई मित्र आकर उसके पास रुकी। बच्चे की माँ उससे बतियाने में मग्न हो गई।
सांझ का धुंधलका गहराने लगा था। अब लोगों की आवक बहुत कम हो गई थी। अब तक उनकी तरफ देख रहा मनसुख निराश होकर अपनी जगह से उठा और विपरीत दिशा की ओर चलने लगा। कुछ ही दूर वह चला होगा कि पीछे से चिल्लाने की आवाज़ आई- "अरे मेरा बच्चा!... मेरा बच्चा वह चोर ले गये।"
चौंक कर मनसुख ने पीछे देखा, वही स्ट्रॉलर वाली औरत चिल्ला रही थी और उसका पति भी दुकान से बाहर आ गया था। वह लोग लगभग भागते हुए इधर आ रहे थे। मनसुख ने यह भी देखा कि एक स्कूटर भी इधर आ रहा था, जिसके चालक के पीछे बैठे व्यक्ति के हाथों में शिशु था। माज़रा समझ कर, उसने कुछ इंतज़ार किया और जैसे ही वह स्कूटर नज़दीक आया, उसने अपनी बैसाखी उठा कर स्कूटर चालक पर फेंक मारी। निशाना सटीक बैठा। स्कूटर डगमगाया और बच्चा पीछे बैठे व्यक्ति के हाथ से छिटक कर दूब पर आ गिरा। जैसे-तैसे स्कूटर को साध कर बदमाश वहां से भाग छूटे। बच्चा बिलख-बिलख कर रो रहा था। कुछ ही क्षणों में बच्चे के माता-पिता वहाँ पहुंच गये और बच्चे को माँ ने गोद में उठा लिया।
मनसुख भी बैसाखी फेंकने के बाद असंतुलित हो नीचे गिर गया था। उसने धीरे से उठने की कोशिश की, लेकिन फिर गिर गया। बच्चे के पिता ने मनसुख को हाथ पकड़ कर ऊपर उठाया। मनसुख ने अचकचा कर उसकी पत्नी की तरफ देखा। उसकी आँखों से अश्रुधार बह रही थी। यह आँसू बच्चे को सुरक्षित पाने की ख़ुशी के कारण थे या मनसुख के प्रति उपजे कृतज्ञता-भाव से, यह केवल वही जानती थी। हाँ, मनसुख इस बार उसकी नज़रों में नफरत के बजाय अपने प्रति सम्मान का भाव अवश्य देख पा रहा था। पास वाली दुकान का मालिक भी बाहर निकल आया था। उसने सड़क पर पड़ी मनसुख की बैसाखी लाकर उसे दी। मनसुख ने दोनों को धन्यवाद कहा और चलने लगा।
चार-पांच कदम ही चला था वह कि पीछे से आवाज़ आई- "सुनो भाई!"
उसने पीछे मुड़ कर देखा, बच्चे का पिता उसके पास आ खड़ा हुआ था। उसकी तरफ सौ रुपये का नोट बढ़ाते हुए उसने कहा- "लो भाई, यह तुम्हारा इनाम!"
"बच्चे की कीमत सिर्फ सौ रुपये बाबू साहब?" -मनसुख ने उपहास के लहजे में कहा।
"ओह!", उच्चारण के साथ उस व्यक्ति ने जेब से पांच सौ रुपये के दो नोट निकाल कर उसकी तरफ बढ़ाये। अपने हिसाब से शायद इस बार वह उसे कुछ ज़्यादा ही दे रहा था।
"मैं जो मांगूँगा दे सकोगे साहब?" -नोटों की तरफ उपेक्षा से देखते हुए मनसुख ने पूछा।
"हाँ, हाँ, तुम बोलो तो सही।"
"मैं इतना बेगैरत नहीं कि इंसानियत की कीमत लूँ। दे सकते हो तो एक वचन दो बाबूजी, कि मुझ जैसे गरीब लाचार को भले ही कभी कुछ ना दो, मगर नफरत की नज़र से नहीं देखोगे।”, मनसुख इतना कह कर आगे बढ़ गया।
आत्म-ग्लानि से भर उठा वह धनाढ्य पुरुष! उसने कातर दृष्टि से अपनी पत्नी की तरफ देखा। दोनों को अहसास हुआ कि उस भिखारी के मुकाबले वह बहुत बौने हैं। भिखारी के प्रति कृतज्ञ भाव मन में था, बच्चे को वापस पाने से वह खुश भी थे, किन्तु फिर भी स्ट्रॉलर लेकर लौटते समय उनके पाँव बोझिल थे।
मनसुख लगभग दस मीटर की दूरी तक ही पहुँचा था कि उसके कंधे पर पीछे से किसी ने हाथ रखा। उसने पलट कर देखा, सड़क से उसकी बैसाखी लाकर देने वाला वही दुकान-मालिक था।
"भैया, मैं तुम्हारी खुद्दारी का कायल हूँ। तुम्हारे बीच पहले क्या बात हुई थी, मुझे नहीं मालूम, पर यह देख सका हूँ कि तुमने अपनी ग़रीबी के बावज़ूद उसके रुपयों को ठुकरा दिया। उम्मीद है, मुझे तुम मना नहीं करोगे। मेरी तरफ से यह छोटा-सा तोहफा कबूल कर लो।" -यह कह कर मनसुख के हाथ में पचास रुपये का एक नोट थमा कर वह दुकान मालिक बिना उसकी प्रतिक्रिया जाने फुर्ती से लौट गया।
मनसुख ने अपने हाथ में रखे नोट को देखा, फिर नज़र उठा कर ऊपर आसमान की तरफ देखा व धीरे-धीरे अपने गंतव्य की ओर कदम बढ़ा दिये।
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जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१४-०५-२०२२ ) को
'रिश्ते कपड़े नहीं '(चर्चा अंक-४४३०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया अनीता जी!
हटाएंइंसानियत की कोई कीमत नहीं होती। सुंदर लघुकथा, गजेंद्र भाई।
जवाब देंहटाएंजी, हार्दिक आभार
हटाएंसोचने पर मजबूर करती कहानी ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद महोदया!
हटाएंबहुत ही हृदयस्पर्शी कहानी
जवाब देंहटाएंसचमुच दिल को छू गयी
सौ पाँच सौ का ईनाम बच्चे के जीवन का..
मनसुख की खुद्दारी बहुत ही लाजवाब।
सुंदर सीख देती कहानी।
आपकी सुन्दर, सराहनात्म्क टिप्पणी ने मेरा उत्साहवर्धन किया है महोदया! बहुत धन्यवाद आपका!
हटाएंनमस्कार आदरणीय सर।
जवाब देंहटाएंइंसानियत से ओत प्रोत सृजन।
सच कहा अपने ही बच्चे की क़ीमत सिर्फ़ और सिर्फ़ सौ रूपये।
गहन विचार लिए सोचने को मजबूर करता सृजन।
सादर
सुन्दर सराहनात्मक टिप्पणी के लिए अंतस्तल से आभार महोदया अनीता जी। नोटिफिकेशन नहीं मिलने से प्रतिटिप्पणी में विलम्ब हुआ, तदर्थ क्षमा चाहता हूँ।
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