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'एक पत्र दोस्तों के नाम'

     मेरे प्यारे दोस्तों, मैं अपने एक सहयोगी राजनैतिक मित्र के साथ मिल कर पिछले एक माह से एक नई राजनैतिक पार्टी बनाने की क़वायद कर रहा था। आपको जान कर खुशी होगी कि हम अपने इस अभियान में सफल हो गए हैं, खुशी होनी भी चाहिए😊। न केवल पार्टी की संरचना को मूर्त रूप दिया जा चुका है, अपितु इसका नामकरण भी किया जा चुका है।   मित्रों, हमारी इस नई राष्ट्रीय पार्टी का नाम है- 'अवापा'! कैसा लगा आपको हमारी पार्टी का नाम, बताइयेगा अवश्य। हमारी पार्टी का मुख्य उद्देश्य देशसेवा तो है ही, एक और महत्वपूर्ण उद्देश्य यह भी है कि जो राजनेता देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत हैं, जिन्हें अन्य पार्टियों द्वारा तिरस्कृत किया गया है, उचित अवसर नहीं दिया गया है, उन्हें हमारी इस पार्टी में सही स्थान दिया जाए। हाँ, सही समझा आपने! यदि आप में से किसी भी शख़्स को किसी पार्टी से निराशा हासिल हुई है तो आपका स्वागत करेगी हमारी यह नई पार्टी, आपके जीवन में नई आशा का संचार करेगी।     कल के अखबार में निम्नांकित समाचार जब मैंने देखा तो सिद्धू जी की राजनीतिगत पीड़ा देख मन विह्वल हो उठा।                 मैं सिद्धू जी को भी आमन

'अदावत' (कहानी)

     किसी खड़खड़ के चलते अहमद की नींद अचानक खुल गई। आँखें मलते हुए उसने उठ कर देखा, कमरे में बेभान सो रही उसकी बेगम रशीदा के अलावा और कोई नहीं था। घड़ी में देखा, रात के दो बज रहे थे। धीमे क़दमों से वह खिड़की की ओर बढ़ा और बाहर निगाह डाली तो चौंक पड़ा, पड़ोसी कासिम की खिड़की अधखुली थी। उसे ताज्जुब हुआ, 'कासिम का परिवार ईद मनाने के लिए दो दिन के लिए आज ही अपने गाँव गया है और वह लोग अपनी सभी खिड़कियाँ बंद कर के गये थे, फिर इनकी खिड़की खुली कैसे पड़ी है?' ध्यान से सुनने की कोशिश की तो आहिस्ता-आहिस्ता बोलने की आवाज़ भी उसे सुनाई दी। कुछ ही देर में कासिम के कमरे में दो पल के लिए एक रोशनी झपकी। 'शायद मोबाइल की टॉर्च की रोशनी थी',अहमद ने अंदाज़ लगाया। वह समझ गया, कासिम के घर में चोर घुस आये हैं। चाँदनी रात थी और कासिम के घर के पीछे से आ रही बादलों में छिपे चाँद की रोशनी दोनों मकानों के बीच के गलियारे को हल्का-सा रोशन कर रही थी, लेकिन कासिम के कमरे में रोशनी नहीं के बराबर थी।     वह यूँ ही खिड़की के पास खड़ा देख रहा था कि उसे एक इन्सानी साया कासिम की खिड़की के भीतर नज़र आया। अहमद को केवल उसकी आकृ

'डबल पेनल्टी' (लघुकथा)

                                                        "बस दो सौ- तीन सौ रुपये का जुगाड़ और हो जाए तो हम लोग अपने गाँव के लिए निकल चलेंगे। पता नहीं, हालत कब तक सुधरेगी और कब काम-धंधे शुरू होंगे! कब तक लोगों से दान-दक्षिणा लेते रहेंगे! मेहनत से जो मिलता है, मुझे तो उसी में सुख मिलता है संतोषी!" -गणेश ने अपनी पत्नी से कहा।   "हाँ जी, सही बोला आपने। कारखाने में बित्ते भर पगार मिल रही थी तो भी मन राजी था कि मेहनत की खा रहे हैं। मेरा मन भी नहीं मानता जी कि कोई दया कर के कुछ हाथ में रख देवे और हम खुश हो लेवें। दसवीं के बाद आप थोड़ा और पढ़-लिख गए होते तो ये दिन नहीं देखने पड़ते। पर एक बात बताओ, अपने पास तीन सौ रुपये ही तो पड़े हैं। अगर दो-तीन सौ और मिल भी गये तो भी बस का किराया पूरा कैसे होगा। आधी टिकट तो अपनी बाँसुरी की भी लगे है अब।" -सातवीं पास संतोषी ने संदेह व्यक्त किया।  "अरे, तो थोड़ा बस में और थोड़ा पैदल भी चल लेंगे। घर तो पहुँचना ही है, यहाँ कब तक पड़े रहेंगे?"    माता-पिता की बातों से बेखबर आठ वर्षीया बाँसुरी वहाँ पड़ी किसी पुरानी मासिक पत्रिका

'नई चुनौती'

                                                                  अभी-अभी की ताज़ा खबर है कि लद्दाख में भारतीय व चीनी सैनिकों के पीछे हटने की प्रक्रिया के दौरान हुई एक झड़प में हमारी सेना का एक अफ़सर तथा दो सैनिक शहीद हो गये हैं। एक ओर दोनों देशों के फौजी उच्चाधिकारियों के मध्य स्थिति को सामान्य बनाने की प्रक्रिया के लिए बातचीत हो रही है वहीं दूसरी ओर लद्दाख में इस तरह की दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना होना चिंता का विषय है।    हमारा शान्तिप्रिय देश जहाँ एक ओर कोरोना के कारण उत्पन्न हुई विषम परिस्थितियों से जूझ रहा है तो दूसरी ओर सीमाओं पर विस्तारवादी चीन और आतंकपोषी पाकिस्तान जैसे कुटिल दुश्मनों के साथ एक नया नाम नेपाल का भी जुड़ गया है। वह नेपाल, जिसकी संस्कृति हमारे देश के अधिक निकट की रही है, गुमराह हो कर सम्भवतः चीन की शह पर ही हमें आँखें दिखाने लगा है।    स्थिति गम्भीर होती जा रही है। हमने देश के तीन सपूतों को खो दिया है। राजनैतिक स्तर पर हमारी सरकार व सीमा पर डटी हमारी बहादुर सेना, दोनों ही, स्थिति के समाधान के लिए मोर्चे पर डटी हुई हैं। अब हमें अपने स्तर पर यह सोचना चाहिए कि हम अपनी

'वह मानव तो नहीं था...'

        मेरे एक मित्र का अभी फोन आया, बोला- "भई, केरल में गर्भवती हथिनी के साथ इतनी भयङ्कर वारदात हो गई और आपने अभी तक इस विषय में कुछ भी नहीं लिखा? न ब्लॉग पर, न प्रतिलिपि पर और न ही फेसबुक पर! आप तो हर तरह के विषयों पर लिखा करते हो।   कैसे हो आजकल आप? आपका स्वास्थ्य तो ठीक है न?"   प्रिय मित्रों! आप ही बताएँ, क्या जवाब देता मैं उन्हें?   मेरे मित्र ने सही कहा है। मैंने मनुष्यों के विषय में लिखा है तो नरपिशाचों पर भी लिखा है, किन्तु उस लाचार और निरीह मूक प्राणी के विषय में लिखने में मेरी लेखन-क्षमता अपंग हो रही है। माँ सरस्वती मेरी लेखनी में आने को उद्यत नहीं हैं।... सृष्टिकर्ता ने स्वर्ग में देवता, पाताल में राक्षस और पृथ्वी पर मनुष्य व पशु-पक्षियों की रचना की है (यह बात पृथक है कि पृथ्वी पर यदा-कदा देवता तो कई बार राक्षस (नरपिशाच) भी दिखाई दे जाते हैं)। मैं समझ नहीं पा रहा कि विस्फोटक भरा अनानास खिला कर उस निरीह हथिनी के प्राण लेने वाले उस अधमतम अस्तित्व को ईश्वर ने किस लोक में रचा और इस पृथ्वी पर क्योंकर भेजा? ऐसे नारकीय जीवों की रचना करना ही क्या अब ईश्वर का काम

आखिर कब तक ? (कहानी)

   "पापा मैं दो घंटे में ज़रूर लौट आऊँगी। मेरी कुछ फ्रेंड्स मुझे अलग से बर्थडे ट्रीट दे रही हैं। वहाँ से लौट कर मैं अपने घर के फंक्शन में शामिल हो जाऊँगी।… प्लीज़ पापा!... मम्मी, पापा को बोलो न, मुझे परमिशन दे दें।" -धर्मिष्ठा ने आजिज़ी करते हुए कहा।   "अरे बेटा, नहीं मानती तो जा आ। लेकिन देख, अपने रिश्तेदारों और तेरी फ्रैंड्स के अलावा मेरे स्कूल-स्टाफ से एक मित्र भी सपरिवार आ रहे हैं। अभी चार बज रहे हैं, छः बजे तक हर हालत में आ जाना। तब तक तेरी मम्मी और मैं पार्टी की व्यवस्था देखते हैं।" -धर्मिष्ठा के अध्यापक पिता प्रथमेश जी ने उसका कन्धा थपथपाते हुए प्यार से कहा।   धर्मिष्ठा कुलांचे भरती हुई अर्चना के घर पहुँची। अर्चना उसकी घनिष्ठ सहेली थी तथा कॉलेज में उसके साथ ही फर्स्ट ईयर में पढ़ती थी। उसके पापा बैंक में क्लर्क थे। अर्चना ने सजी-धजी धर्मिष्ठा को देखा तो देखती ही रह गई, बोली- "क़यामत ढा रही हो जान! आज तो यह बिजली कहीं न कहीं गिर कर ही रहेगी।” 'धत्त' कहते हुए धर्मिष्ठा ने उसके गाल पर हलकी-सी चपत लगाई। “अंकल-आंटी कहाँ हैं? उनसे भी मिल

'सुलगती चिन्गारी' (कहानी)

                                                मनोहर कान्त बहुत दुविधा में थे। पत्नी की मृत्यु हुए तीन वर्ष हो चुके थे, किन्तु उसकी याद अभी तक दिल से भुला नहीं सके थे। नज़दीकी रिश्तेदार लम्बे समय से उनसे दूरी बनाये हुए थे, क्योंकि उनकी उन्नति और समृद्धि से सबको कुढ़न थी। उनकी पत्नी के परिवार के लोगों ने भी अब इस परिवार में रुचि लेना बंद कर दिया था, लेकिन कुछ मित्र थे जो अपने-अपने तर्क दे रहे थे - 'एक कुँआरी बेटी है घर में, उसका अकेले मन कैसे लगेगा, फिर उसकी शादी भी तो करनी है। कहते हैं कि साठा उतना पाठा। अभी मात्र 53 वर्ष की उम्र ही तो है आपकी और फिर घर का चिराग भी तो आना चाहिए', कह कर फिर से शादी करने के लिए दबाव बना रहे थे। यही नहीं, उनकी स्वयं की बेटी रवीना भी इसके लिए ज़ोर दे रही थी।  अंततः सब लोगों के निरन्तर आग्रह से विवश हो कर मनोहर कांत ने विवाह के लिए हामी भर दी। आर्थिक रूप से वह समृद्ध थे सो कई विवाह-प्रस्ताव उनके पास आये। कुछ प्रस्तावों पर मनन करने के उपरांत अपने ही कायस्थ सम