Skip to main content

मुक्तक

                                                                           






             मुक्तक


          प्रभु से मेरी आरज़ू-

                                               रोटी मिले, कपड़ा मिले, छत मिले हर एक सिर को,

                                               माथे  पर  हर  इंसान  के,  सुकून  बेशुमार  चाहिए।

                                               प्यार हो  हर एक दिल में,  नफरत कहीं उपजे नहीं,

                                              रब, यही  मेरी  ख्वाहिश, बस  यही उपहार  चाहिए।

                                                                                         *****


Comments

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में रविवार 25 मई 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत दिनों से ब्लॉग पर नहीं आ पाया था। आज आपका यह निमंत्रण देखा। विलम्ब के लिए खेद है

      Delete

Post a Comment

Popular posts from this blog

बेटी (कहानी)

  “अरे राधिका, तुम अभी तक अपने घर नहीं गईं?” घर की बुज़ुर्ग महिला ने बरामदे में आ कर राधिका से पूछा। राधिका इस घर में झाड़ू-पौंछा व बर्तन मांजने का काम करती थी।  “जी माँजी, बस निकल ही रही हूँ। आज बर्तन कुछ ज़्यादा थे और सिर में दर्द भी हो रहा था, सो थोड़ी देर लग गई।” -राधिका ने अपने हाथ के आखिरी बर्तन को धो कर टोकरी में रखते हुए जवाब दिया।  “अरे, तो पहले क्यों नहीं बताया। मैं तुमसे कुछ ज़रूरी बर्तन ही मंजवा लेती। बाकी के बर्तन कल मंज जाते।” “कोई बात नहीं, अब तो काम हो ही गया है। जाती हूँ अब।”- राधिका खड़े हो कर अपने कपडे ठीक करते हुए बोली। अपने काम से राधिका ने इस परिवार के लोगों में अपनी अच्छी साख बना ली थी और बदले में उसे उनसे अच्छा बर्ताव मिल रहा था। इस घर में काम करने के अलावा वह प्राइमरी के कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। ट्यूशन पढ़ने बच्चे उसके घर आते थे और उनके आने का समय हो रहा था, अतः राधिका तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दी। चार माह की गर्भवती राधिका असीमपुर की घनी बस्ती के एक मकान में छोटे-छोटे दो कमरों में किराये पर रहती थी। मकान-मालकिन श्यामा देवी एक धर्मप्राण, नेक महिल...

तन्हाई (ग़ज़ल)

मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- तन्हाई मौसम बेरहम देखे, दरख़्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है।   बहार आएगी कभी,  ये  भरोसा  नहीं  रहा, पतझड़ का आलम  बहुत लम्बा हो गया है।   रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र  का  सिलसिला  बेइन्तहां  हो  गया  है।    या तो मैं हूँ, या फिर मेरी  ख़ामोशी  है यहाँ, सूना - सूना  सा   मेरा   जहां  हो  गया  है।  यूँ  तो उनकी  महफ़िल में  रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन  फिर भी तन्हा  हो गया है।                          *****  

दलित वर्ग - सामाजिक सोच व चेतना

     'दलित वर्ग एवं सामाजिक सोच'- संवेदनशील यह मुद्दा मेरे आज के आलेख का विषय है।  मेरा मानना है कि दलित वर्ग स्वयं अपनी ही मानसिकता से पीड़ित है। आरक्षण तथा अन्य सभी साधन- सुविधाओं का अपेक्षाकृत अधिक उपभोग कर रहा दलित वर्ग अब वंचित कहाँ रह गया है? हाँ, कतिपय राजनेता अवश्य उन्हें स्वार्थवश भ्रमित करते रहते हैं। जहाँ तक आरक्षण का प्रश्न है, कुछ बुद्धिजीवी दलित भी अब तो आरक्षण जैसी व्यवस्थाओं को अनुचित मानने लगे हैं। आरक्षण के विषय में कहा जा सकता है कि यह एक विवादग्रस्त बिन्दु है। लेकिन इस सम्बन्ध में दलित व सवर्ण समाज तथा राजनीतिज्ञ, यदि मिल-बैठ कर, निजी स्वार्थ से ऊपर उठ कर कुछ विवेकपूर्ण दृष्टि अपनाएँ तो सम्भवतः विकास में समानता की स्थिति आने तक चरणबद्ध तरीके से आरक्षण में कमी की जा कर अंततः उसे समाप्त किया जा सकता है।  दलित वर्ग एवं सवर्ण समाज, दोनों को ही अभी तक की अपनी संकीर्ण सोच के दायरे से बाहर निकलना होगा। सवर्णों में कोई अपराधी मनोवृत्ति का अथवा विक्षिप्त व्यक्ति ही दलितों के प्रति किसी तरह का भेद-भाव करता है। भेदभाव करने वाला व्यक्ति निश्चित रूप स...