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व्यामोह (कहानी)

                                         

(1)

पहाड़ियों से घिरे हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में एक छोटा सा, खूबसूरत और मशहूर गांव है 'मलाणा'कहा जाता है कि दुनिया को सबसे पहला लोकतंत्र वहीं से मिला था। उस गाँव में दो बहनें, माया और विभा रहती थीं। अपने पिता को अपने बचपन में ही खो चुकी दोनों बहनों को माँ सुनीता ने बहुत लाड़-प्यार से पाला था। आर्थिक रूप से सक्षम परिवार की सदस्य होने के कारण दोनों बहनों को अभी तक किसी भी प्रकार के अभाव से रूबरू नहीं होना पड़ा था। । गाँव में दोनों बहनें सबके आकर्षण का केंद्र थीं। शान्त स्वभाव की अठारह वर्षीया माया अपनी अद्भुत सुंदरता और दीप्तिमान मुस्कान के लिए जानी जाती थी, जबकि माया से दो वर्ष छोटी, किसी भी चुनौती से पीछे नहीं हटने वाली विभा चंचलता का पर्याय थी। रात और दिन की तरह दोनों भिन्न थीं, लेकिन उनका बंधन अटूट था। जीवन्तता से भरी-पूरी माया की हँसी गाँव वालों के कानों में संगीत की तरह गूंजती थी। गाँव में सबकी चहेती युवतियाँ थीं वह दोनों। उनकी सर्वप्रियता इसलिए भी थी कि पढ़ने-लिखने में भी वह अपने सहपाठियों से दो कदम आगे रहती थीं। 

इस छोटे से गाँव के पास एक और बड़ा गाँव है। उस गाँव में अर्जुन नाम का एक युवक अपने चाचा के साथ रहता था। उसके माता-पिता का देहान्त कई वर्ष पूर्व हो गया था और उस समय वह केवल सात वर्ष का था। विरासत में उसे दो कमरों का मकान और तीन बीघा जमीन मिली थी। उसके चाचा-चाची ने उसे पाल-पोस कर आठवीं तक पढ़ाया और बाद में खेतों में काम करना सिखाया। वह अब बीस वर्ष का एक खूबसूरत युवा था और अपने खेत स्वतन्त्र रूप से सम्हालने लायक हो गया था। अब उसके चाचा ने उसकी शादी के बारे में सोचा। अर्जुन की लम्बे समय से मलाणा गाँव की माया और विभा से मित्रता रही थी। तीनों अर्जुन के गाँव के उच्च प्राथमिक विद्यालय में आठवीं तक साथ-साथ पढ़े थे। पूछने पर अर्जुन ने अपने चाचा को बताया कि वह माया को पसंद करता है। चाचा ने इस आशय का सन्देश माया के परिवार के पास भिजवाया। माया की सहमति मिलते ही उसकी शादी अर्जुन से करवा दी गई। अर्जुन के चाचा ने अब उसे माया के साथ अपने तरीके से ज़िन्दगी जीने के लिए उसके अपने मकान में जाने के लिए कह दिया।

 समय गुज़र रहा था और दोनों प्यारभरा अल्हड़ जीवन जी रहे थे। उधर विभा भी इस गाँव के ही एक अन्य युवक ‘तनुष’ से प्यार करने लगी थी। दोनों कुछ ही दिनों में एक-दूसरे को बेहद चाहने लगे थे। उनका प्यार परवान चढ़ ही रहा था कि तनुष के माता-पिता ने तनुष का खेत पर जाना बंद करवा के उसे अगली पढ़ाई के लिए कुल्लू भेजने का निश्चय किया। इस तरह से बिछड़ जाना दोनों को अखर रहा था, किन्तु तनुष के अच्छे भविष्य के लिए दोनों ने इसे स्वीकार किया। विभा, जो कभी-कभार ही माया के घर जाया करती थी, तनुष के जाने के बाद प्रायः वहाँ आने लगी। 

एक दिन माया को, जब वह खेत में काम कर रही थी, अपने शरीर में एक बड़ा परिवर्तन महसूस हुआ। जैसे ही उसने अपना हाथ अपने पेट पर रखा, उसका हाथ कांपने लगा, उसके होठों पर मुस्कुराहट खेलने लगी। उसे पसीना आ रहा था, किन्तु यह गर्मी के कारण नहीं था, भले ही सूरज की किरणें दिन भर से लगातार उस पर पड़ रही थीं। माह भी अक्टूबर का था। वह समझ गई कि उसके भीतर एक नया जीवन पल रहा है।

माया का दिल खुशी से भर गया। सूरज क्षितिज के नीचे डूबने वाला था। आसमान नारंगी और गुलाबी रंग में रंगने लगा था और माया की आँखों में भी रंगीन रोशनी नाच रही थी। वह अर्जुन के साथ खबर साझा करने के लिए इन्तज़ार नहीं कर सकी और तत्क्षण ही अपने निवास की ओर बढ़ चली। चारपाई पर लेटा दो दिन से कुछ अस्वस्थ अर्जुन अभी-अभी उठ कर बैठा ही था कि दरवाज़ा खुला और माया भीतर आई। माया पास आकर उसके बगल में घुटनों के बल बैठ गई और धीरे से अपना हाथ उसके कंधे पर रखा।

"अर्जुन!” उसने धीरे से कहा- "मुझे तुम्हें कुछ बताना है।"

अर्जुन उसकी ओर मुड़ा, उसकी आँखों में प्यार और जिज्ञासा थी। 

"तुम पिता बनने वाले हो अर्जुन!" -माया की आवाज़ उत्तेजना से कांप रही थी, लेकिन उसके चेहरे पर मीठी मुस्कान थी।   

अर्जुन की आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े। अगले ही क्षण वे एक-दूसरे को थामे हुए अपनी दुनिया में खो गये और उस उज्ज्वल भविष्य की कल्पना करने लगे, जो उनके बढ़ते परिवार का संकेत दे रहा था।

समय बीतने के साथ माया के चेहरे की चमक भी बढ़ती गई। कल्पनाओं में डूबते-उतराते, भविष्य के सुनहरे ख़्वाब बुनते, उसके नौ माह बीतने को आये। एक रात, जब बाहर बारिश के साथ भयंकर तूफ़ान चल रहा था, भीतर माया प्रसव पीड़ा से तड़प रही थी। घबराए अर्जुन ने माया को सांत्वना दी और अपने बच्चे के आगमन की तैयारी करने के लिए गांव की अनुभवी प्रसाविका (दाई) सुगनी को मदद के लिए बुलवा लिया। अपनी बहन के सुख-दुःख में सदा सहभागिनी रहने वाली विभा भी समाचार पाते ही माया के यहाँ आ गई।  

जैसे-जैसे तूफ़ान बढ़ता गया, माया की चीखें उस छोटे से घर में गूँजने लगीं।  वातावरण  तनाव और भय से भर गया। सुगनी ने हर संभव कोशिश की, लेकिन जटिलताएँ पैदा हो गईं और यह स्पष्ट हो गया कि उसकी मदद काम नहीं कर सकेगी। सुगनी को उसका पारिश्रमिक दे कर भेज दिया गया। 

"हमें अस्पताल जाना होगा" -अर्जुन ने कांपती आवाज़ में कहा।

माया ने कमजोर ढंग से सिर हिलाया। जब वे कार की ओर बढ़े तो विभा ने उसे सहारा दिया। मौसम ख़राब था और गाँव का अस्पताल भी कुछ दूर था। ऊबड़-खाबड़ रास्ते की यात्रा तीनों को अनंत काल की तरह महसूस हुई। आख़िरकार जैसे-तैसे वह अस्पताल पहुँचे। जाँच के बाद जब डॉक्टर उनके पास आया, तो उसकी गंभीर मुख-मुद्रा बहुत कुछ कह रही थी। 

डॉक्टर ने उन्हें सूचित किया- "मुझे खेद है, लेकिन हमें आपातकालीन सी-सेक्शन करने की आवश्यकता है। बच्चे का जीवन खतरे में है।" कमरे का माहौल भय और अनिश्चितता से भारी हो गया।

ऑपरेशान रूम के बाहर इन्तज़ार करते हुए अर्जुन और विभा के लिए यह कुछ घंटे, युग बन रहे थे। अन्ततः ऑपरेशन के बाद डॉक्टर बाहर आया। उसका चेहरा भीतर लड़ी गई एक कठिन लड़ाई की कहानी बयां कर रहा था।

 "नवागत बच्ची स्वस्थ है, लेकिन माया... उसे सर्जरी के दौरान गंभीर जटिलताओं का सामना करना पड़ा। हमने वह सब कुछ किया जो हम कर सकते थे, लेकिन उसे बचा नहीं सके।" -डॉक्टर ने दुःख भरी आवाज़ में बताया। 

“नहीं….इईं !” -अर्जुन चीख उठा। इस आकस्मिक आघात ने उसकी आत्मा को दहला दिया था। विभा भी बिलख-बिलख कर रो रही थी। वह नहीं समझ पा रही थी कि अर्जुन को सम्हाले या स्वयं को। जैसे-तैसे वह अर्जुन के नज़दीक गई और उसके कंधे पर हाथ रख कर दिलासा देने की कोशिश करने लगी। सुबकते हुए उसने अर्जुन के गालों पर बह रहे आँसुओं को पोंछने का प्रयास किया। फिलहाल वह यही कर सकती थी। 

माया की मौत की खबर गाँव में जंगल की आग की तरह फैल गई। गांव में शोक छा गया। विभा ने इस हादसे की खबर अपनी माँ को फोन पर बताई। सुनीता भागी-भागी चली आईं। स्वयं के दुःख को भुला कर, उन्होंने अर्जुन और विभा को सम्हाला। अर्जुन के चाचा का परिवार तथा सांत्वना देने आ रहे अन्य लोगों के कारण कुछ दिनों तक चहल-पहल अवश्य रही, अन्यथा तो वह छोटा सा घर, जो कभी हँसी-मजाक से भरा रहता था, वीरान बन चुका था। तीन-चार दिन बाद सुनीता विभा को माया की बच्ची का ठीक से ध्यान रखने की हिदायत कर अपने घर जाने को उद्यत हुईं। विभा ने माँ को कुछ दिन और रुकने को कहा, किन्तु अपने खेत सम्हालने की विवशता के चलते उसे ऊँच-नीच की बातें समझा कर वह लौट गईं। लोगों की आवाजाही ख़त्म होने के बाद बच्ची के रोने की आवाज़ ही घर की ख़ामोशी को भंग कर पाती थी। सप्ताह महीनों में बदल गए और विभा ने अर्जुन और नवजात शिशु की देखभाल करना जारी रखा। वह हमेशा से ही मजबूत रही थी और अब, यह उसकी जिम्मेदारी थी कि वह अपनी बहन द्वारा छोड़े गये दायित्व को पूरा करे। विभा का दिल हर बार मुँह को आ जाता था, जब वह बच्ची को देखती थी, जो उसे लगातार माया की याद दिलाती थी।

जैसे-जैसे बच्ची बड़ी हो रही थी और विभा का जुड़ाव इस घर से गहराने लगा था, वैसे-वैसे गाँव के लोगों में उसके प्रति गलतफहमियाँ पैदा होती जा रही थीं। गाँव वालों के उपालंभों से निपटने की अर्जुन की असफलता के कारण घर में झगड़े भी बढ़ने लगे। दुःख से घिरे और एकल माता-पिता बनने की माँग से आबद्ध अर्जुन ने इससे निपटने के लिए संघर्ष किया। वह अपनी दिवंगत पत्नी की याद की जकड़न से मुक्त नहीं हो पा रहा था, शायद होना भी नहीं चाहता था। इधर, मौसी और माँ, दोनों बनने की कोशिश कर रही विभा को दो भूमिकाएँ निभाने के साथ बाहरी तनाव का सामना भी करना पड़ रहा था। जो घर कभी अभयारण्य जैसी चहचहाहट से युक्त था, अब भावनाओं का युद्धक्षेत्र बन गया था।

एक तूफ़ानी शाम, जब विभा और अर्जुन दोनों आग के पास बैठे थे, उनके बीच की तनावपूर्ण चुप्पी बाहर की तेज़ हवाओं की सरसराहट के साथ टूट गई। अर्जुन ने कांपती आवाज में कहा, "विभा, मुझे पता है कि तुम हमें हर तरह से मदद करने की कोशिश कर रही हो, लेकिन जब मैं तुम्हें हर दिन देखता हूँ तो मुझे लगता है, जैसे मैं अपनी माया को भूल रहा हूँ। मैं उसे भूलना नहीं चाहता विभा! यह दोहरी ज़िन्दगी जीना मेरे लिए बहुत मुश्किल हो रहा है।”

(2)

विभा की आंखों में आंसू आ गए। उसे एहसास हो गया कि अर्जुन किस दर्द से गुज़र रहा है।

"मैं समझ सकती हूँ अर्जुन! मैं आप पर बोझ बनना नहीं चाहती। शायद अब समय आ गया है कि मैं चली जाऊं और आपको संभलने का मौका दूं।" -विभा ने कहा। माया, विभा और अर्जुन, तीनों आपस में मित्र रह चुके थे, सो विभा ने माया की शादी के बाद भी अर्जुन के प्रति अपना सम्बोधन बदला नहीं था।

भारी मन से अर्जुन ने निर्णय लिया कि विभा को अपने माता-पिता के घर वापस चले जाना चाहिए। अलगाव आंसुओं और दिल के दर्द से रहित नहीं था, लेकिन यह अर्जुन के लिए उपचार का अपना रास्ता खोजने का एकमात्र तरीका था। विभा ने बच्ची को खूब प्यार किया और भारी मन से दोनों से विदा ली। 

पांच-छः महीने बीत गये। इस दौरान विभा ने अपनी बहन के ग़म से उबरने की बहुत कोशिश की, लेकिन उसकी याद उससे भुलाये न भूलती थी। उसे रह-रह कर माया की नन्ही बच्ची की याद भी सताती थी। उधर गाँव वाले भी उस कल्पित प्रेम-कहानी के बारे में बातें करते रहते थे, जिसको उन्होंने गढ़ा था और जिसे वह पचा नहीं पा रहे थे। हाँ, कुछ लोग ऐसे भी थे, जो अर्जुन के प्रति सहानुभूति रखते थे और यह मानते थे कि अर्जुन और विभा के बीच रिश्ता कैसा भी रहा हो, बच्ची की सम्भाल के लिए विभा का उसके पास होना आवश्यक था। वह लोग अब यह भी कहने लगे थे कि विभा अपनी बहन के बच्चे से दूर कैसे रह पा रही है।

एक दिन, तपती दुपहरी में बारिश की फुहार बन कर विभा के पास अर्जुन का फोन आया। "विभा, मुझे तुम्हारी ज़रूरत है। मैं अपने चीकू को अकेले नहीं सम्हाल सकता। कृपया चली आओ।"

विभा के दिल को राहत ज़रूर मिली, किन्तु साथ ही चिंता का अहसास भी उसे जकड़ रहा था। वह जानती थी कि वह अपनी बहन की बच्ची से मुँह नहीं मोड़ सकती, लेकिन वह यह भी जानती थी कि आगे का रास्ता चुनौतियों से भरा होगा। उसे बच्ची को अर्जुन द्वारा दिया नाम ‘चीकू’ बहुत अच्छा लगा। विभा ने अपनी मम्मी से परामर्श किया और उनकी सहमति से चीकू के पास लौट आई। अर्जुन और विभा ने एक-दूसरे की आँखों में देखा और उस यात्रा की गहनता को समझने की कोशिश की, जिस पर वह चलने वाले थे।

जैसे-जैसे दिन हफ्तों में बदलते गए, अर्जुन और विभा ने अपने रिश्ते की जटिलताओं से निपटना सीख लिया। वे दोनों बच्ची से बहुत प्यार करते थे और वह उनके लिए ऐसा स्रोत बन गई, जिसने उनके दिलों को मज़बूती दी। बच्ची, माया के प्यार की एक जीवित विरासत, विभा को उस खूबसूरत बंधन की याद दिलाती थी, जिससे वह कभी माया के साथ जुड़ी हुई थी। विभा और बच्ची, दोनों आपस में इतना घुल-मिल गये कि लम्बे समय तक एक-दूसरे से दूर रह पाना उनके लिए मुश्किल हो गया था। बच्ची अब तुतला कर कुछ शब्द बोलने भी लगी थी और विभा को ‘माँ’ कह कर सम्बोधित करने लगी थी। विभा उसकी आवाज़ के माधुर्य पर मर-मिटती थी। स्वयं को ‘माँ’ कहलवाना विभा ने ही उसे सिखाया था। वह नहीं चाहती थी कि कुछ बड़ी और समझदार हो जाने पर उसे माँ के नहीं होने का दुःख हो। जब कभी विभा अपने घर या तनुष के मम्मी-पापा से मिलने जाती थी, तो चीकू उदास हो जाती थी और कभी-कभी तो रो भी पड़ती थी। ऐसी स्थिति में अर्जुन विभा को फोन करता और विभा तुरंत लौट आती थी। यह सब तो था, लेकिन अर्जुन और विभा को अब भी यदा-कदा गाँव वालों के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तानों से रूबरू होना पड़ता था। 

एक शाम, बरामदे में बैठा अर्जुन, अपने पास ही बैठी, क्षितिज के छोर पर विलोपित हो रहे रक्ताभ सूर्यदेव को निहार रही विभा की ओर मुड़ा और बोला- "विभा, हम दोनों बहुत दर्द से गुज़र चुके हैं। मैं चाहता हूँ कि हम आगे बढ़ें, न कि जीजा-साली बनकर, बल्कि एक विधिसम्मत युगल बन कर। लोगों की तोखी नज़रें सहना अब मेरे बस में नहीं रहा।"

विभा ने अर्जुन की ओर देख कर अपनी नज़रें झुका लीं। उसकी आँखों में आँसू भर आए। 

 "विभा, तुम्हें दूर भेजा था, उसके लिए मुझे खेद है। मुझे एहसास हो गया है कि माया के जाने के बाद से तुम मेरी ताकत का स्तम्भ रही हो। मैं अब अतीत में नहीं जीना चाहता। आओ, सिर्फ अपने लिए नहीं, बल्कि अपनी बच्ची के लिए हम एक नया भविष्य बनायें।" -अर्जुन ने पुनः कहा। 

“मैं ऐसा नहीं कर सकती। यह मुमकिन नहीं है अर्जुन!” -विभा ने गम्भीरता से जवाब दिया और भीतर कमरे में चली आई। अर्जुन अवाक् रह गया। उसे विभा से इस प्रतिक्रिया की आशा नहीं थी। वह उससे ‘हाँ’ की उम्मीद कर रहा था। 

विभा कमरे में आई, तो उसके दिमाग़ में उथल-पुथल मची हुई थी- ‘अर्जुन बुरा आदमी नहीं है, लेकिन मैं तनुष को कैसे भुला सकती हूँ? वह कितना चाहता है मुझे? एक दिन वह कह रहा था कि मेरे लिए आसमान के तारे तोड़ कर ला सकता है। भले ही वह फ़िल्मी टाइप का डायलॉग मार रहा था, लेकिन मैंने देखा था, उसकी आँखों में कितना प्यार था, कितना समर्पण था। मैं उसके बिना नहीं रह सकती।’ 

रात को जब वह सोने के लिए बिस्तर पर गई, उसे देर तक नींद नहीं आई। सुबह जागी, तो बहुत बेचैन थी। सपने में माया उससे कह रही थी, ‘विभा, मेरी बच्ची तेरे भरोसे है। उसे अकेला मत छोड़ देना, उसका खूब ख्याल रखना। मुझे भरोसा है, अर्जुन दूसरी शादी नहीं करेगा। लेकिन अगर कर ही ले, तो ध्यान रखना उसकी दूसरी पत्नी मेरी बच्ची के साथ बुरा सलूक न करे।’

“हे भगवान, यह कैसी परीक्षा ले रहा है तू? मैं अपनी प्यारी बहन की इस निशानी को छोड़ कर दूर कैसे जा सकती हूँ और हमेशा यहाँ भी कैसे रह सकती हूँ? मैंने तनुष से कुछ वादे किये हैं। अगर मैं यहाँ बंधी रही, तो हमारे सपनों का क्या होगा? मेरी अपनी ज़िन्दगी का क्या होगा?’ -विभा उलझन के धागों में बुरी तरह जकड़ी हुई थी। 

अगले ही दिन तनुष का फोन आया कि वह आठ-दस दिन में अपनी पढाई पूरी कर के गाँव आने वाला है। विभा बेसब्री से उसका इंतज़ार करने लगी। आखिर वह दिन भी आ गया, जब तनुष को आना था। तनुष सुबह दस बजे जैसे ही बस से उतरा, उसके मम्मी-पापा के साथ विभा भी उसके स्वागत में खड़ी थी। आगे बढ़ कर उसने मम्मी-पापा के पाँव छूए और फिर तिरछी नज़रों से विभा की ओर देखा। 

“देख न बेटा, तुझे याद कर-कर के विभा कितनी दुबली हो गई है?” -तनुष की माँ ने मुस्कुराते हुए कहा। 

“मुझे तो लग रहा है, यह मोटी हो गई है।” -तनुष ने ठिठोली की। विभा ने कहा कुछ भी नहीं, मुस्कुरा दी। वह तनुष को निहारे जा रही थी, ‘कितना मैच्योर लग रहा है तनुष! चेहरे पर और भी रंगत आ गई है। शरारती भी तो हो गया है।’

“अब देखती ही रहेगी क्या तनुष को? घर नहीं जाने देगी क्या उसे?” -तनुष की माँ ने एक और तीर चलाया। विभा ने शर्मा कर नज़रें झुका लीं। 

सब लोग बस स्टैंड से साथ ही वापस लौटे। विभा अर्जुन के घर की तरफ मुड़ने लगी तो तनुष के पापा ने कहा- “बिटिया, थोड़ी देर हमारे यहाँ आओ, फिर घर चली जाना।”

विभा के मन की बात हो रही थी, लेकिन मन में संकोच था- “नहीं काका, उधर चीकू परेशान हो रही होगी। मैं फिर कभी आ जाऊँगी।”

“जैसी तेरी इच्छा।” -इस बार तनुष की माँ बोली और तीनों आगे बढ़ गये। इधर विभा भी चल पड़ी। संयोग ऐसा रहा कि विभा और तनुष, दोनों ने पीछे मुड़ कर देखा। विभा ने तनुष को चार उंगलियाँ दिखा कर इशारे से एक संकेत दिया। तनुष समझ गया कि विभा चार बजे नहर के पास मिलने के लिए कह रही है। उसने अपना सिर हिला कर स्वीकृति दी।  

विभा घर ( फ़िलहाल तो अर्जुन का घर ही उसका घर था ) पहुँची, तो आहट सुन कर बरामदे में आई चीकू ‘माँ’ कहती हुई पास आकर उससे लिपट गई। उसने देखा, चीकू के कपोलों पर आँसुओं के सूखे निशान थे, शायद वह अभी-अभी रोई थी। चीकू को उठा कर उसने अपने सीने से लगा लिया। 

“क्यों मुझे अपने मोह-पाश में बाँधे जा रही है बिटिया?” -फुसफुसाई विभा। चीकू को गोद में लिए हुए ही वह भीतर कमरे में गई, तो अर्जुन को चारपाई पर उदास बैठे पाया। 

“चीकू रोई थी क्या? क्या हो गया था?” -उसने अर्जुन से पूछा। 

“तुम बेहतर समझती हो विभा, मैं क्या बताऊँ?” -अर्जुन के चेहरे पर फीकी मुस्कान थी। 

कोई दोष नहीं होते हुए भी स्वयं को अपराध-बोध से ग्रस्त महसूस कर रही विभा सिर झुकाये कमरे से बाहर चली आई। उसने चीकू को पानी पिलाया और अपने पास बिठा कर खाना बनाने लगी। 

चीकू खाना खाने के बाद थोड़ी देर खेलती रही और फिर अपने पापा के पास जा कर सो गई। चार बजे विभा तनुष से मिलने नहर पर गई।

(3)

 तनुष नहर की मुंडेर पर बैठा उसका इन्तज़ार कर रहा था। दोनों ने इधर-उधर देखा और फिर एक दूसरे के आगोश में आ गये।  

“तुम नहीं जानते तनुष, मैंने तुम्हारी गैरमौज़ूदगी में इतना समय कैसे गुज़ारा है। सच मानो, एक-एक लम्हा पहाड़-सा लग रहा था।”

“मेरा भी यही हाल था विभा! पढ़ाई में मन लगाना बहुत मुश्किल हो रहा था। कब इम्तहान ख़त्म हों और कब यहाँ आकर तुमसे मिलूँ , बस यही सोचता रहता था।”

“झूठ बोलते हो। तुम तो वहाँ की लड़कियों के साथ दोस्ती कर के ऐश कर रहे होगे। मैं थोड़े ना याद आती हूँगी।”

“तुम्हारी कसम विभा, मैं किसी और लड़की की ओर आँख उठा कर देखता भी नहीं था। और देखता भी तो कैसे? तुम्हारे जैसी कोई थी ही नहीं वहाँ।”

“अगर होती कोई मेरे जैसी, तब तो मुझे भुला ही देते न। जाओ, मैं नहीं बोलती तुमसे।”

“नहीं रे, चाहे कोई कितनी ही सुन्दर होती, वह विभा तो नहीं ही होती न? तुम्हारे सिवा मुझे कोई भी अच्छी नहीं लगती विभा!”

“सच कह रहे हो?”

“सच, तुम्हारी कसम!”

“अच्छा सुनो! तुमसे एक ज़रूरी बात कहनी है।” -विभा का चेहरा अचानक गम्भीर हो गया। 

“बोलो विभा! पर तुम अचानक इतनी सीरियस क्यों हो गई?” 

“बात ही कुछ ऐसी है तनुष! मैं बहुत परेशान हूँ।” -विभा ने जवाब दिया और फिर अर्जुन ने जो प्रस्ताव दिया था, उसके बारे में अपनी सारी उलझन बताई। 

“यह तो ज़्यादती है अर्जुन की। तुम इसलिए थोड़े ना उसकी बच्ची की देखभाल कर रही हो कि वह कोई भी बेहूदा प्रपोजल रख दे। तुम तुरंत छोड़ दो उसका घर।”

“नहीं तनुष! चीकू अभी छोटी है। वह मेरी ज़िम्मेदारी है।”

“बात को समझो विभा! अभी तो उसने प्रपोजल रखा है, कल को कोई बेहूदा हरकत कर बैठा तो?”

“वह ऐसा नहीं करेंगे। अर्जुन छिछले इन्सान नहीं हैं। मुझे भरोसा है उन पर। इतने लम्बे समय तक उनके साथ रही हूँ, कभी ग़लत निगाह से नहीं देखा उन्होंने।”

“तो क्या ज़िन्दगी गुज़ार दोगी उसके यहाँ? क्या चीकू की परवरिश ही तुम्हारी ज़िन्दगी का मकसद है? तुम्हारे मम्मी-पापा भी कुछ नहीं कहते?”

“दीदी की निशानी है चीकू। दीदी को हम सब बहुत प्यार करते थे। उसके जाने के बाद चीकू को नहीं देखूँगी, तो खुद को कैसे माफ़ कर सकूँगी तनुष?”

“ठीक है विभा! तुम अपनी ज़िम्मेदारी निभाती रहो और हम ऐसे ही इस नहर के किनारे ताज़िन्दगी मिलते रहेंगे। जाओ विभा, चीकू और अर्जुन तुम्हारा इन्तज़ार कर रहे होंगे।” -तनुष ने कहा और तेज़ क़दमों से रवाना हो गया। 

“सुनो तो… रुको तनुष, मेरी पूरी बात तो सुनो।” -विभा रुआँसी आवाज़ में कहती रही और तरुण उससे दूर होता चला गया। विभा फूट-फूट कर रो पड़ी। देर तक वह नहर की मुंडेर पर बैठी रही और भविष्य के ताने-बाने बुनने का प्रयास करती रही। सांझ होती देख, वह उठी और बोझिल क़दमों से घर की ओर चल दी। घर पहुँची, तो वही दृश्य सामने था। चीकू बरामदे में बैठी रो रही थी और अर्जुन उसे बहलाने का प्रयास कर रहा था। पहली बार विभा झुंझलाई और सीधी भीतर चली गई। 

‘यह भी कोई बात हुई, चौबीसों घण्टे मैं घर के खूंटे से बंधी कैसे रह सकती हूँ? रोती है चीकू तो रोती रहे।’ -मन ही मन कहा उसने और चारपाई पर लुढ़क गई। चारपाई पर पड़े-पड़े अपनी मनःस्थिति से जूझते हुए विभा को आधा घंटा हो गया था। सहसा उसे लगा कि वह ज़रुरत से ज़्यादा संवेदनशील ही नहीं हो रही, चीकू के प्रति नाइन्साफ़ी भी कर रही है। वह उठी और दौड़ कर बरामदे में गई। चीकू को वहां न देख, वह अर्जुन के कमरे में आई। उसने देखा, चीकू सो गई है और उसके बदन पर हाथ रखे अर्जुन को भी शायद झपकी आ गई है। दुखी मन से दबे पाँव वह वापस लौटी और खाना बनाने किचन में चली गई। खाना तैयार होने पर उसने दोनों को खाना खाने के लिए जगाया। चीकू के जागते ही विभा ने उसे गोद में उठाया और उसके मुख पर चुम्बनों की झड़ी लगा दी। अर्जुन ने यह दृश्य देखा, तो उसके चेहरे पर स्मित की एक रेखा उभर आई। विभा ने अर्जुन की तरफ देखा और बोली- “चीकू रो रही थी और उसे नज़रअंदाज़ कर मैं कमरे में चली गई। मुझे माफ़ कर दो अर्जुन!”

“कोई बात नहीं विभा। तुम परेशान मत होओ। बच्ची है, रोते-रोते सो भी गई।”

विभा समझ नहीं सकी कि क्या प्रतिक्रिया दे। उसकी आँखें नम हो आईं। तीनों खाना खाने बैठे। विभा ने चीकू को एक निवाला अपने हाथ से खिला कर खाने की शुरुआत की। चीकू की आँखों में उभरी  संतुष्टि ने विभा को बहुत सुकून दिया। 

दो-तीन दिन और निकले, लेकिन विभा तनुष से मिलने का कोई उपक्रम नहीं कर सकी। आज सुबह से उसका मन बहुत अनमना हो रहा था। उसने निश्चय किया कि दोपहर के भोजन के बाद वह एक दिन के लिए अपनी माँ के पास चली जाएगी। अपना इरादा उसने अर्जुन से साझा किया और दोपहर में चीकू के सो जाने के बाद अपने घर की ओर पैदल ही चल पड़ी। उसका गाँव अधिक दूर नहीं था और प्रायः लोग बस की प्रतीक्षा करने के बजाय पैदल ही चले जाया करते थे। 

यह संयोग ही था कि बीच राह उसे सामने से आता तनुष मिल गया। तनुष ने उसे अनदेखा कर के निकल जाना चाहा, किन्तु विभा उसके ठीक सामने आ गई।

“यूँ जा रहे हैं, जैसे पहचानते नहीं।” -विभा ने फ़िल्मी गाने का मुखड़ा गुनगुनाते हुए उलाहना दिया- “इतनी बेरुखी भी ठीक नहीं  तनुष?”

“यह मुझसे कह रही हो? एक-दूसरे के लिए अजनबी बन जाना ही हमारे हक़ में ठीक होगा न विभा! एक अनाम रिश्ते को हम अपने ऊपर लादे क्यों रहें?”

“यह सब मैं नहीं जानती। तुम्हारी तरह पहेलियाँ बुझाना मुझे नहीं आता। कल मैं लगभग इसी समय घर से लौटूँगी और फिर हम तीन बजे नहर पर मिलेंगे। बोलो, आओगे न?”

“ठीक है, जैसा तुम चाहो।“ -तनुष ने उखड़े स्वर में जवाब दिया और आगे बढ़ गया। तनुष के रुख से आहत विभा भी चुपचाप अपने घर की तरफ चल दी। 

विभा को आया देख उसकी माँ सुनीता खिल गईं- “कितने दिन बाद आई है बेटी! तुझे तो घर की याद ही नहीं आई रे!”

“नहीं मेरी प्यारी माँ, ऐसा नहीं है। जिस जिम्मेदारी को निभाने के लिए गई हूँ,, उससे इस तरह बंध गई हूँ कि पलक झपकाने का समय भी नहीं मिलता।” -माँ से लिपट कर विभा बोली। 

“मुझे मालूम है बिटिया कि तू माया से कितना प्यार करती थी, लेकिन तुझे अपनी ज़िन्दगी के बारे में भी तो कुछ सोचना पड़ेगा। लोग पता नहीं कैसी-कैसी बातें करते हैं।”

“माया दीदी से प्यार करती थी नहीं, अब भी करती हूँ। उसकी यादें मेरी साँसों में घुली हुई हैं। रही बात लोगों की बातों की, तो लोगों की बातों से अधिक मुझे चीकू का ख़याल परेशां करता है। वह एक पल के लिए भी मुझसे जुदा नहीं रह पाती है। उसको रोता-बिलखता छोड़ कर कैसे चली आऊँ माँ? मैं क्या करूँ, बताओ।” -विभा की आँखें भर आई थीं। 

“चल भीतर चल। यहाँ खड़े-खड़े कब तक बातें करते रहेंगे?” -भावनाओं के उबाल से विभा को उबारने के लिए सुनीता ने कहा और उसका हाथ पकड़ कर भीतर ले गईं।  

(4)

विभा केवल एक दिन के लिए यहाँ आई थी और अगले दिन दोपहर उसे वापस लौट जाना था, अतः देर रात तक माँ-बेटी दोनों बातें करती रहीं। कहते हैं न कि ‘बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी’, तो तनुष और अर्जुन के बारे में भी बात हुई। सुनीता को विभा की चाहत के बारे में पहले से ही पता था। अर्जुन के प्रस्ताव के बारे में जानने पर उन्होंने विभा से कहा- “बिटिया, भावनाएँ अपनी जगह पर हैं और वास्तविकता अपनी जगह पर। तू अपना घर-संसार बनाने की सोच। चीकू के बारे में मुझे कम चिंता नहीं है, पर समाधान के रूप में अर्जुन किसी और से भी तो कर सकता है शादी। मेरे हिसाब से तो अर्जुन को साफ बता दे कि तू तनुष को चाहती है।”

माँ की बात ने विभा को अपनी ऊहापोह से निकलने में मदद की। उसने निश्चय किया कि वह ऐसा ही करेगी और अर्जुन को अपनी स्थिति स्पष्ट कर देगी तथा अपने निश्चय के बारे में तनुष को भी आज ही बता देगी। वह माँ से विदा ले कर ऐसे समय निकली कि अर्जुन के वहाँ जाने से पहले तनुष से तीन बजे नहर पर मिल सके।  

 विभा तीन बजे नहर पर पहुँची, तो तनुष को अपना इन्तज़ार करते पाया। कुछ देर की औपचारिक बातचीत के बाद विभा ने अपना निश्चय तनुष को बताया- “तनुष, मैंने निर्णय कर लिया है। मैं आज अर्जुन से मिलते ही कह दूँगी कि जो वह चाहता है, वह सम्भव नहीं है और यह भी कि मैं तनुष से प्यार करती हूँ।”

“क्या…आआ? क्या सचमुच तुम ऐसा कहने वाली हो? विभा, नहीं बता सकता कि तुमने मुझे आज कितनी ख़ुशी दी है। ओह विभा, मैं पागल हो जाऊँगा।… मेरी विभा!” -तनुष ने भावातिरेक में विभा को अपने आगोश में ले लिया। 

“अरे, छोड़ो भी। मैं क्या भागी जा रही हूँ तनुष!” -विभा स्वयं को उसकी गिरफ्त से मुक्त करते हुए मुस्कुराई। 

“चलो विभा, मैं भी तुम्हारे साथ ही चलता हूँ। आज मेरे सामने ही फैसला हो जाय।” -तनुष ने बेसब्री से कहा।

“तुम्हारा मेरे साथ होना ठीक रहेगा क्या?” -विभा अचकचाई। 

“हर्ज ही क्या है, जब तुम निश्चय कर ही चुकी हो।”

“ठीक है चलो।”

तेज़ क़दमों से दोनों अर्जुन के घर की और चल दिये। 

दरवाज़े पर खट-खट की आवाज़ सुन कर अर्जुन ने दरवाज़ा खोल कर देखा, सामने विभा थी और उसके पीछे तनुष खड़ा था। 

“आ गई विभा? मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था। सुबह से रो-रो कर चीकू ने परेशान कर रखा है। घंटा-भर पहले ही सोई थी, अब उठने को होगी।” -अर्जुन ने तनुष की मौज़ूदगी को नज़रअंदाज़ करते हुए विभा से कहा। 

“मैं आपसे यह कहने आई हूँ अर्जुन कि मैं… ।”

विभा की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि भीतर से भागती आई चीकू विभा को देखते ही बिलखते-बिलखते उसके पाँवों से लिपट गई- “मुझे छोल के कां गई ती माँ?”

“अरे-अरे, रो मत चीकू! मैं आ गई हूँ न बेटा!” -विभा चीकू को रोते न देख सकी और खुद भी रो पड़ी। 

विभा का पिछले कुछ घंटों का संकल्प चीकू के करुण क्रंदन में बह गया। उसकी आँखों के आगे अपने बचपन के दृश्य तैर गये कि किस तरह माया उसकी आँखों में आँसू देख कर बेचैन हो जाती थी, अपने आगोश में भर लेती थी और किस तरह वह उसके ख़ातिर ज़माने भर से लड़ लेती थी। आज उसके अंश को यूँ बिलखता छोड़ कर वह यहाँ से कैसे जा सकती है? नहीं, उसे रुकना होगा… माया के लिए, इस नन्ही मासूम के लिए। 

विभा ने अपने आँसू पोंछे और अपनी आवाज़ में दृढ़ता ला कर तनुष से बोली- “तुम्हारे साथ नहीं आ सकूँगी तरुण, मुझे माफ़ कर दो। मैं अपनी चीकू से जुदा नहीं हो सकती।”

आश्चर्यचकित तनुष ने व्यथित दृष्टि से विभा की तरफ देखा। विभा ने अपनी नज़रें फेर लीं। वह खुद को कमज़ोर नहीं होने देना चाहती थी। पलकें झुका कर वह घर के भीतर चली गई। मायूस कदम लिये तनुष वहाँ से लौट गया। 

भीतर जा कर विभा एक बार फिर सुबक पड़ी। इस बार वह अपनी विवशता पर रो रही थी, तनुष से हमेशा के लिए जुदा होने का दर्द उसे रुला रहा था। कर्तव्यबोध ने उसके प्यार को, उसके सपनों को रौंद दिया था। 

अपनी मनःस्थिति को अनुकूल बनाने में आठ-दस दिन लग गए विभा को। अतीत और वर्तमान के बीच झूल रही विभा के करीब आ कर, उसकी आँखों में आँखें डाल कर अर्जुन ने आखिर एक दिन कहा- “मुझे स्वीकारने में और कितना समय लोगी विभा? मैं तुमसे प्यार करने लगा हूँ।” 

समय हर घाव भर देता है। विभा ने अर्जुन की आँखों में उमड़ रहे प्यार की गहराई को महसूस किया। वह मन्त्र-मुग्ध सी अर्जुन के निकट चली आई। अर्जुन ने विभा को अपने आग़ोश में लिया। एक नये अहसास, एक नयी स्फूर्ति ने उन दोनों के मन-मस्तिष्क में जन्म लिया। वे अब अतीत की छाया से बंधे नहीं थे, बल्कि आशा और प्रेम से भरे भविष्य के निर्माण की राह पर बढ़ने वाले थे। और फिर… शीघ्र ही दोनों ने अग्नि की साक्षी में एक-दूसरे का साथ निभाने का विधिवत रूप से व्रत ले लिया।

समय बीतता गया और गाँव वालों ने भी अंततः विभा और अर्जुन के बीच कर्तव्य और त्याग के साये में पनपे प्यार को स्वीकार कर लिया। 

माया, विभा और अर्जुन की कहानी मानव-हृदय की कोमलता, मृदुता एवं त्याग का एक अनूठा दृष्टान्त बन गई। माया की स्मृति उस बच्ची की हँसी में जीवित थी जिसे वह अपने पीछे छोड़ गई थी और वह परिस्थिति भी दे गई थी, जो उसकी बहन और पति, दोनों के मध्य प्यार का कारण बनी थी। 

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