सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

साध और साधना (कहानी)

                                        

(1)


“ऑफिस से आये हो तब से देख रही हूँ, यूँ ही गुमसुम बैठे हो। दो बार पूछ चुकी हूँ, बताते क्यों नहीं, आखिर बात क्या है?” -तोशल ने अपने पति शशांक से पूछा। 

“क्या होगा बता कर, जब मैं जानता हूँ कि तुम्हारे पास मेरी चिंता का कोई समाधान नहीं है।”

“मुझे नहीं बताने से तुम्हें तुम्हारा समाधान मिल जाता है तो ठीक है, मुझे क्या पड़ी है?” 

तोशल मुँह फुला कर जाने लगी तो शशांक ने उसका हाथ पकड़ कर चेहरे पर मुस्कराहट लाने की कोशिश करते हुए कहा- “यार नाराज़ क्यों होती हो? फिलहाल सोच रहा हूँ। अगर किसी नतीजे पर नहीं पहुँचा तो बता दूंगा। फ़िज़ूल तुम्हें परशान करने से क्या होगा?”

“अब बातें न बनाओ। तुम्हारी परेशानी क्या मेरी परेशानी नहीं है?”

“ठीक है बाबा, बताता हूँ। दरअसल अपनी कार की बकाया चार किश्तें इस सप्ताह बैंक में एक मुश्त जमा करानी हैं। अभी तक तो बैंक ने सब्र कर लिया है। अब अगर जमा नहीं हुईं तो बैंक कार जब्त कर नीलाम कर देगा।”

सुन कर तोशल के चेहरे पर चिंता की रेखाएं उभरीं। दो मिनट कुछ सोच कर बोली- “इसीलिए तो कहती हूँ, अपनी प्रॉब्लम शेयर किया करो। मैं भी सोचती हूँ कि क्या हो सकता है।” 

तोशल तो कह कर चली गई, लेकिन शशांक के माथे की सिलवटों में कोई कमी नहीं आई। ‘माँ के पास जो कुछ था, मेरी पढ़ाई-लिखाई में खप गया। मेरी आमदनी में से अधिक कुछ बचत होती नहीं। जो कुछ था वह कार के डाउन पेमेंट में दे चुका हूँ। तोशल भी सोच कर क्या करेगी, वह तो जो कुछ उसके पास था, पहले ही दे चुकी है। क्या होगा, कैसे होगा’, शशांक ऊपर देखता सीलिंग फैन को घूरे जा रहा था। अन्यमनस्क होने से आज वह ऑफिस से भी जल्दी आ गया था। 

घर आने के बाद सोचने पर भी जब कुछ भी नहीं सूझा तो उठ कर वह बाहर बरामदे में आया और निरर्थक टहलने लगा। थोड़ी देर बाद तोशल ने आवाज़ दे कर चाय के लिए भीतर बुलाया। शाम के साढ़े पाँच बज रहे थे। शशांक लिविंग रूम में आया तो देखा, माँ भी दोपहर के विश्राम के बाद चुस्त-दुरुस्त हो कर आ बैठी थीं और चाय का इंतज़ार कर रही थीं। वह कुर्सी खीच कर माँ के पास बैठ गया। 

“नींद अच्छे से आई माँ?”

“हाँ बेटा, आज तो देर तक सोती रही। देख न, साढ़े पाँच हो रहे हैं।” -माँ नर्मदा जी ने जवाब दिया। सुन कर शशांक बरबस ही मुस्कुरा दिया। कुछ आहट सी आई तो देखा, तोशल चाय की ट्रे ले कर आ रही थी। टेबल पर पड़े जग से एक गिलास पानी ले कर शशांक ने पीया। तब तक तोशल ने कपों में चाय भर दी थी। 

“बेटा, कुछ उदास दिख रहे हो। क्या बात है?” -नर्मदा जी ने गहरी नज़र से शशांक को देखा। 

“कुछ भी नहीं माँ, बस कुछ सिरदर्द सा हो रहा है।”

“सच कह रहा है न? मुझे नहीं बताना चाहता तो तोशल को ही बता दे।”

“कमाल करती हो माँ, मैं अब तक तुम्हारे साथ अधिक रहा हूँ या तोशल के साथ?”

“यह क्या बात हुई?”

“तोशल से पहले तो तुम्हारा अधिकार बनता है न माँ!” -शशांक ने स्निग्ध दृष्टि से माँ की ओर देखा। 

“अब तू आपस में लड़ा कर मानेगा क्या हमें?” -नर्मदा जी ने हँस कर कहा।  

“कितनी भी कोशिश कर लें यह, हम तो नहीं लड़ने वाले माँ जी!” -अब तक चुप रही तोशल बोली और तीनों हँस पड़े। इस तरह चुहलबाजी से बातचीत का मुद्दा बदल गया और सब चाय का मज़ा लेते हुए आपस में बतियाते रहे। 


शशांक के तीन और दिन इसी उलझन में निकले। बैंक में पैसा जमा कराने की मियाद का कल अंतिम दिन था। रात्रि-भोजन के बाद विचार-मग्न शशांक बैडरूम में बिस्तर पर अधलेटा-सा पड़ा हुआ था। किचन का काम निपटा कर तोशल कमरे में आई और अपनी अलमारी से नोटों की दो गड्डियाँ ला कर शशांक के हाथों में रख दीं। 

“अरे, यह क्या?” -शशांक लगभग उछल ही पड़ा था अपनी जगह से। 

“यह, इतने रुपये कहाँ से आए तोशल? -आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता से शशांक का चेहरा चमक उठा। 

“जनाब को आम खाने हैं या पेड़ गिनने हैं?” -मुस्कुराई तोशल।  

“बता भी दो यार, जाने बिना रुपया न लूँगा।”

“मैंने पापा को फोन किया था। भैया दोपहर में पैसा दे कर गये हैं।”

“लेकिन क्यों? तुमने उनसे क्यों माँगा पैसा?”

“तो क्या गाड़ी नीलाम होने देते? कितनी साध थी तुम्हारी कि अपने पास एक कार हो। वैसे भी यह अपना ही पैसा है।” -तोशल मुस्कुराई। 

“अपना? वो कैसे भला?”

“पापा कोई गैर तो हैं नहीं, और फिर हम धीरे-धीरे कर के उन्हें वापस लौटा देंगे।”

“ओह, थैंक यू डिअर! तुमने बहुत बड़ी टेंशन ख़त्म कर दी।” -शशांक ने तोशल का हाथ चूम लिया।  


अगले दिन शशांक ने बैंक जा कर बकाया किश्तें जमा करा दीं। अब उनके पास कुछ अतिरिक्त पैसा भी बचा हुआ था। शाम को जब वह घर आया तो उसके चेहरे पर ख़ुशी की मुस्कान थी और हाथ में मिठाई का पैकेट। नर्मदा जी ने बेटे का माथा चूम कर प्रसन्नता का सबब पूछा, तो शशांक ने सारी बात बता दी। 

“माँ, बैंक का कर्जा चुक जाने से लौटते समय पहली बार लगा कि आज सही मायने में अपनी गाड़ी में आया हूँ।”

नर्मदा जी की आँखों में भी संतोष और ख़ुशी की चमक उभर आई। 

नर्मदा के सुझाव पर तीनों ने आपस में सलाह-मशविरा कर तीन माह बाद अक्टूबर में अम्बा माता के दर्शन करने की योजना बनाई।    


आखिर वह दिन भी आया, जब अपनी योजना के अनुसार तीनों को माता के दर्शनों के लिए निकलना था। शशांक ने ऑफिस से तीन दिन की छुट्टी ले ली। तैयारी कर के एक सूटकेस और एक हैंडबैग में ज़रुरत का सामान और कुछ खाने-पीने की चीज़ें पैक कर वह लोग अपनी कार से सफ़र पर निकल गए। अम्बा जी का प्रसिद्ध शक्ति पीठ (मंदिर) आबू रोड़ से 20 कि.मी. की दूरी पर गुजरात राज्य की सीमा में स्थित है। शशांक ने सुना था कि आबू रोड़ से कुछ पहले का सड़क मार्ग का सफ़र रात के वक्त अराजक तत्वों के कारण खतरे वाला हुआ करता है, अतः बीच में कहीं रुके बिना उसने रात होने से पहले ही अपनी यात्रा पूरी कर ली। बीच में केवल पाँच मिनट के लिए वह लोग चाय के लिए रुके थे। 

मन्दिर के पास वाले क्षेत्र में शशांक ने एक होटल में तीन बैड वाला एक कमरा बुक कराया। लम्बे सफ़र से थक जाने के कारण वह लोग खाना खाने के कुछ देर बाद बिस्तर पर चले गये। 

सुबह उठने पर तीनों ने प्रातःकर्म से निवृत होने के बाद नाश्ता किया और मंदिर के लिए रवाना हो गए। शशांक ने माँ के निर्देशानुसार मंदिर मार्ग की एक दुकान से माता को चढ़ाने के लिए चुनरी व प्रसाद खरीदा। मंदिर मार्ग पर राहगीरों की तथा मंदिर में दर्शनार्थियों की बहुत भीड़ थी। भीड़भाड़ में मशक्कत करते-करते दर्शन करने में उन्हें लगभग एक से डेढ़ घंटा लग गया। परेशानी तो पड़ी, किन्तु माता के दर्शन हो जाने से अब वह अपनी सारी तकलीफ भूल कर, प्रसाद ले कर प्रसन्नतापूर्वक मंदिर के मुख्य कक्ष से लौट रहे थे। 

मंदिर की सीढ़ियों से उतरते वक्त पूरी सावधानी बरतने के बावज़ूद नर्मदा जी एक सीढ़ी चूक गईं और धड़ाधड़ दस-बारह सीढ़ियों तक लुढ़कती चली गईं। शशांक और तोशल, दोनों के मुख से चीख निकल पड़ी। 


दोनों फुर्ती से नीचे उतरे और फर्श पर पड़ी नर्मदा को उठाया। नर्मदा खड़ी नहीं हो पा रही थीं और भीषण दर्द से कराह रही थीं। शशांक ने तोशल और एक अन्य व्यक्ति की मदद से माँ को अपने हाथों में उठाया। उस व्यक्ति को धन्यवाद दे कर दोनों नर्मदा को ले कर कार तक पहुँचे। कार में पिछली सीट पर नर्मदा को लिटाया और आनन-फानन में निकटस्थ अस्पताल पहुँचे। राह भर नर्मदा कराहती रही थीं। स्ट्रैचर पर लिटा कर नर्मदा को इमरजेंसी तक ले जाया गया।

इमरजेंसी में तैनात डॉक्टर ने प्रारंभिक जाँच के बाद अपने सीनियर को बुलाया। सीनियर डॉक्टर ने पूरी जांच-परख के बाद एक दर्दनिवारक इंजेक्शन लगाया और कुछ दवाइयाँ लिख कर कहा- “एक सप्ताह तक इन्हें यह दवाइयाँ दें। लगता है, पसलियों में कम्पाउण्ड फ्रैक्चर है, अतः किसी बड़े अस्पताल में विशेषज्ञ डॉक्टर को दिखाना होगा। भर्ती करने के बाद सर्जरी भी करनी पड़ सकती है।” 

“डॉक्टर, हम लोग यहाँ माता के दर्शन के लिए आये थे। हम अभी घर जाना चाहते हैं। क्या तीन-चार दिन बाद इनकी सर्जरी नहीं करवा सकते?” -शशांक ने पूछा। 

“आप लोग कहाँ से हो?”

“हम भीलवाड़ा में रहते हैं?”

“ओह, राजस्थान से हो। जाओ, लेकिन एक सप्ताह से ज़्यादा समय मत लगाना। माता जी ज़्यादा हिलें-डुलें नहीं, इसका भी ध्यान रखना। और हाँ, इंजेक्शन के असर से अभी पाँच-छः घंटे यह गहरी नींद में रहेंगी।”

“जी डॉक्टर! बहुत धन्यवाद आपका।”


अस्पताल का भुगतान कर तीनों होटल पहुँचे। दोनों ने खाना मंगवा कर खाया और माँ के लिए पैक करवा लिया। 

“तीन दिन का अवकाश ले कर आया था, लेकिन हालात ने हमें यहाँ से तुरंत निकलने को मजबूर कर दिया है। माता ने दर्शन के बाद अच्छा प्रसाद दे दिया।” -होटल से चैक आउट कर कार की ओर बढ़ते हुए शशांक बिफर पड़ा। 

“शशांक, यह माताजी की ही कृपा है कि हम सस्ते में छूट गए। शुक्र है कि माँ जी की जान बच गई है। अगर कुछ ऊँच-नीच हो जाती तो गज़ब न हो जाता?” -तोशल ने सान्त्वना देने की कोशिश की। 

“हम हिन्दुस्तानी इतने धर्म-भीरू हैं कि हर स्थिति को भगवान की ही कृपा मान लेते हैं, भले ही कितना भी नुकसान क्यों न हो जाए। अगर वॉलेट खो जाय तो हम यह कह कर खुद को तसल्ली दे लेते हैं कि भगवान की कृपा है कि हमने वॉलेट में ज़्यादा रुपये नहीं रखे थे।” -शशांक झुंझला कर बोला। 

“अपने-अपने विश्वास की बात है यह तो। धर्म और आस्था के मामले में हमें ज़्यादा बहस नहीं करनी चाहिए शशांक!

शशांक मौन रहा और सामान्य गति से ड्राइव करता रहा। कार गंतव्य की ओर बढ़ती जा रही थी। 

भीलवाड़ा पहुंचे, तब तक शाम के साढ़े छः बज चुके थे। जैसा कि डॉक्टर ने कहा था, नर्मदा जी पूरे सफर में गहरी नींद सोती रहीं। 

दवाइयों से तीन दिन तो कुछ आराम रहा, लेकिन चौथे दिन नर्मदा जी की तकलीफ बढ़ गई। 


(2)


“माँ के लिए अब जल्दी ही कुछ करना पड़ेगा तोशल ! इनका ऑपरेशन अहमदाबाद के किसी अच्छे अस्पताल में कराना होगा।” -शशांक ने तोशल को अपना विचार बताया। 

“लेकिन शशांक, अहमदाबाद में इलाज कराने में तो बहुत खर्च आएगा। कैसे हो पायेगा यह?”

“जो भी करना पड़े करूँगा, लेकिन माँ जल्दी स्वस्थ हो जानी चाहियें।” -शून्य में नज़रें जमाये शशांक बोला। 

अगले दिन ऑफिस जाने से पहले  शशांक कार की सर्विस के लिए कंपनी के सर्विस सेण्टर पर गया और कार छोड़ कर घर आया। आज उसे स्कूटर से ही ऑफिस जाना था। लम्बे समय से काम में नहीं लेने के कारण स्कूटर पर ढ़ेर सारी गर्द जमा हो गई थी, अतः उसे अच्छी तरह से झाड़ा और गीले कपड़े से साफ किया। खाना खा कर उसने स्कूटर उठाया और अपने ऑफिस को चल पड़ा। आज काम करने में उसका मन नहीं लगा। रह-रह कर उसे माँ का ख़याल आ रहा था। क्या करे वह, अगर बैंक से दुबारा लोन लेता है, तो चुकाएगा कैसे? तनख्वाह में से तो कुछ बचता ही नहीं। महीने का खर्च बड़ी मुश्किल से पूरा हो पाता है। कुछ भी हो, खर्च में कटौती ही क्यों न करनी पड़े, माँ का माकूल इलाज ज़रूरी है। कल ही वह बैंक में लोन के लिए प्रार्थना-पत्र पेश कर देगा। यही सोचते-विचारते ऑफिस का समय पूरा हो गया। वहाँ से सीधा वह घर आया। स्कूटर घर पर रख कर ऑटो कर के कार लेने सर्विस सेण्टर पहुँचा। 

इस बार कार की दूसरी फ्री सर्विस थी। उसे कार के सम्बन्ध में कुछ बात करनी थी, सो वह कम्पनी की मैनेजर के कक्ष में गया। मैनेजर उस समय चाय ले रही थी। कुर्सी ऑफर कर के शिष्टाचारवश उसने शशांक के लिए भी चाय मंगवाई। शशांक ने ऑफिस से आने के बाद चाय नहीं ली थी, अतः उसने चाय के लिए मना नहीं किया। 

“मैडम, मैं आपसे पूछना चाहता था कि….” -कहते-कहते वह चौंका। उसकी नज़र मैनेजर के हाथ के कंगनों पर पड़ गई थी। बहुत पुरानी डिज़ाइन के यह कंगन हूबहू उसकी माँ के कंगनों से जैसे थे। वह देखता ही रह गया। 

“क्या हुआ जनाब? कंगन अच्छे लगे आपको?”

“जी, बहुत सुन्दर हैं। कहाँ से ख़रीदे आपने?” -शशांक ने पूछा। 

“करीब दो-ढ़ाई माह पहले नगीने वाली एक अंगूठी बनवाने मैं एक सुनार के पास गई थी। उसके शो केस में यह कंगन देखे, तो मन को भा गए। सस्ते भी थे, क्योंकि उसके यहाँ कोई औरत ज़रुरत के कारण सस्ते में ही बेच गई थी। ज़्यादा मोल-भाव किये बिना इन्हें मैंने तुरन्त खरीद लिए।” -मुस्कुराते हुए मैनेजर बोली। 

“अच्छा? इतनी सुन्दर चीज़ें आती हैं उसके पास? आप मुझे उसका पता देंगी?”

“हाँ- हाँ, क्यों नहीं।” -मैनेजर ने कहा और सुनार का पता बता दिया। 

“क्या मैं इस कंगन का फोटो ले सकता हूँ? -शशांक ने नम्रता से पूछा। 

“ओह, श्योर।” -मैनेजर ने अपना हाथ आगे कर दिया।  

मोबाइल से कंगन का फोटो ले कर वह तुरंत उठ खड़ा हुआ। 

“आप कुछ पूछना चाह रहे थे।” -मैनेजर ने शशांक को प्प्रश्नसूचक दृष्टि से देखा। 

“जी, मुझे कुछ काम याद आ गया है, मैं फिर कभी आ जाऊँगा।”

मैनेजर देखती रही और शशांक वहाँ से निकल गया। उसके दिमाग में उथल-पुथल चल रही थी। वह सीधा उस सुनार की दूकान पर पहुँचा। सुनार अपनी इधर-उधर बिखरी चीज़ें समेट रहा था। शायद उसका दूकान बढ़ाने का समय हो रहा था। 

“माफ़ करना भाई! मुझे कुछ जानकारी चाहिए थी।“ -शशांक ने पास पड़ी कुर्सी पर बैठते हुए कहा। 

सुनार ने अपना हाथ रोक कर उत्सुक नज़रों से उसकी ओर देखा। 

“यह कंगन आपको किसने बेचे थे?”

“क्या हो गया सा’ब? एक औरत मुझे यह बेच कर गई थी। क्या कुछ गड़बड़ हुई है? पहले तो मैंने उसे मना ही कर दिया था, लेकिन उसने आजिज़ी की तो खरीद लिए। मैं कभी ग़लत काम नहीं करता सा’ब।” -सुनार घबरा गया था।

“अरे नहीं भाई, मुझे यह बहुत पसंद आये हैं। मुझे  खरीदने हैं। क्या एक जोड़ी कंगन और भी हैं?”

“नहीं सा’ब, एक जोड़ी ही थे और वही बेच दिये थे। वैसे मैंने उस औरत के दस्तख़त लिए है, उसका पता भी ले लिया है और उसे रसीद भी दी है। उसके पास और हों तो पता नहीं।”

“ठीक है, मुझे उसका पता बता दो, उसी से पूछ लूँगा।” -शशांक का शक गहरा रहा था, निश्चित ही यह उसकी माँ के ही कंगन हैं। 

सुनार ने आलमारी से एक पर्चा निकाल कर दिखाया। शशांक का शक सही निकला, पर्चे पर तोशल के हस्ताक्षर थे। वह सुनार को धन्यवाद दे कर बाहर आ गया। उसका दिमाग झनझना रहा था- इसका मतलब तोशल ने यह कंगन बेचे हैं। तो क्या वह माँ के कंगन चोरी कर के लाई थी ? नहीं, तोशल चोरी तो नहीं कर सकती और फिर चोरी की होती तो माँ को पता चल ही जाता। हो सकता है, माँ ने ही उसे यह कंगन बेचने के लिए दिये हों। 

शशांक का दिमाग तेजी से चल रहा था। अवश्य ही कार की बकाया किश्तें चुकाने के लिए यह कंगन माँ ने तोशल की मार्फ़त बिकवाये हैं। लेकिन यदि ऐसा हुआ है, तो तोशल ने झूठ क्यों बोला कि पैसे उसने अपने पापा से मंगवाए थे? शशांक की आँखें नम हो आईं। एक तरफ उसे माँ की ममता ने द्रवित किया था तो दूसरी तरफ से तोशल के छल ने उसे आहत किया था। 


शशांक ने घर पहुँच कर किसी से कुछ नहीं कहा। उसकी मनःस्थिति देख नर्मदा जी और तोशल दोनों परेशान थीं, लेकिन उनके द्वारा पूछे जाने पर भी शशांक ने बात बड़ी सफाई से टाल दी। तीन दिन की ऊहापोह के बाद शशांक ऑफिस से घर आया तो उसके चेहरे पर चमक थी।  

“सुनो, जल्दी से चाय बना लाओ। कुछ ज़रूरी बात करनी है। और हाँ, माँ की तबियत कैसी है?” -घर में प्रवेश के साथ ही शशांक ने तोशल से पूछा। 

“वैसी ही है, अभी वह सो रही हैं।” -तोशल  जवाब दे कर किचन में चली गई। शशांक ने माँ के कमरे में जा कर देखा, वह गहरी नींद सो रही थीं। 

कुछ ही देर में तोशल चाय ले कर आई और कप टेबल पर रख कर शशांक के पास बैठ गई। 

“क्या बात है, आज कुछ खुश लग रहे हो?” -तोशल ने चाय का घूँट ले कर पूछा।

“तोशल, कल सुबह हम अहमदाबाद जा रहे हैं। मैंने एम्बुलेंस बुक कर ली है। अपोलो हॉस्पिटल के डॉक्टर यशोवर्धन पटेल का अपॉइंटमेंट भी ले लिया है।” -तोशल की बात का सीधा जवाब न दे कर शशांक गंभीर स्वर में बोला। 

“अरे, सरप्राइज़ दे रहे हो। मुझे तो कुछ बताया नहीं।”

“हाँ, आज ऑफिस में बैठे-बैठे ही निश्चय किया और अपॉइंटमेंट ले लिया। हम अधिक देर नहीं कर सकते।”

“लेकिन इलाज कैसे होगा? पैसे का इन्तज़ाम?” -तोशल ने अविश्वसनीय निगाहों से शशांक की आँखों में देखा। 

“वह सब हो गया है। अब ज़्यादा सवाल मत करो और तैयारी करो।” -शशांक अभी भी गम्भीर था। तोशल वहाँ से उठी और खाना बनाने चली गई। उसने सफर के लिए कुछ नाश्ता भी तैयार कर लिया। भोजन से निपटने के बाद दोनों ने सफर के लिए आवश्यक तैयारी कर ली। 


अहमदाबाद पहुँचते शाम के साढ़े सात बज गये। शशांक ने एम्बुलेंस का बिल चुका कर उसे रवाना किया। उसने एक हॉटेल में कमरा ऑनलाइन बुक कर लिया था, अतः यहाँ कोई विशेष परेशानी नहीं हुई। डॉक्टर को अगले दिन सुबह ग्यारह बजे दिखाना था। तीनों ने अपने  साथ ली भोजन-सामग्री का उपयोग किया और खा-पी कर कुछ देर टीवी देखते रहे। आठ-दस मिनट नर्मदा जी भी टीवी देखती रहीं और फिर उनकी इच्छानुसार तोशल ने उन्हें सुला दिया। कुछ देर बाद वह लोग भी सो गए। 

सुबह हुई और तीनों दैनिक कार्यों से निवृत हो कर अस्पताल पहुँचे। नर्मदा जी का नम्बर आने पर डॉक्टर पटेल ने उनकी प्रारंभिक जांच की और उन्हें भर्ती करने के निर्देश दिये। 

संयोग से उसी दिन यानि गुरुवार को डॉक्टर का ऑपरेशन डे था, अतः उन्हें अधिक इन्तज़ार नहीं करना पड़ा और एक से डेढ़ घंटे के ऑपरेशन के बाद नर्मदा जी को सकुशल ओ.टी. से बाहर भेज दिया गया। 

हॉस्पिटल में नर्मदा जी की देखभाल व सेवा-शुश्रूषा परिचारिका ही किया करती थी, अतः शशांक और तोशल को कोई विशेष परेशानी नहीं हुई। 

शशांक अपने कार्यालय से एक सप्ताह का अवकाश ले कर आया था, लेकिन उन्हें यहाँ बारह दिन ठहरना पड़ा। तेरहवें दिन सुबह नर्मदा जी को काफी आराम महसूस हो रहा था। डॉक्टर के परीक्षण के बाद उन्हें अस्पताल से रिलीव कर दिया गया। उनके लिए दिये गये पर्चे में पोस्ट ऑपरेटिव सावधानियाँ और नित्य दी जाने वाली दवाइयों का विवरण था। होटल का कमरा सुबह ही छोड़ दिया था, अतः अस्पताल का बिल चुकता करने के बाद अहमदाबाद से वापसी के लिए डॉक्टर की हिदायत के अनुसार शशांक ने पुनः एम्बुलेन्स का इंतज़ाम किया और सब लोग उसी दिन रात आठ बजे भीलवाड़ा पहुँच गए।  

घर पहुँच कर नर्मदा जी को बिस्तर पर सुलाने के बाद दोनों ने कुछ देर आराम किया। सभी थके हुए थे, सो शशांक ने तोशल को खाना नहीं बनाने दिया और बाज़ार जा कर दूध और ब्रैड ले आया। दोनों ने दूध-ब्रैड से काम चलाया, माँ को भी उसी का नाश्ता कराया और कुछ देर बाद सो गए।  

अगले दिन सुबह भोजन कर के शशांक जब ऑफिस जा रहा था, तोशल उसे हमेशा की तरह ‘बाय’ कहने नहीं आ सकी, क्योंकि वह नर्मदा जी को स्पंज-बाथ कराने में व्यस्त थी। नर्मदा जी के कपड़े बदलवा कर तोशल ने उन्हें लिटा दिया और उनको भोजन कराने के लिए एक प्लेट में खाना ले कर आई। 

तोशल उन्हें अपने हाथ से खिलने को उद्यत हुई तो नर्मदा जी ने स्नेहिल उलाहना देते हुए कहा- “बेटा, कब तक मुझे पराश्रित बनाये रखेगी। पीछे दो तकिये लगा कर मुझे अधलेटा बैठा दे। मैं खुद अपने हाथ से खाऊँगी।”

तोशल ने नर्मदा जी का हाथ अपने हाथों में ले कर चूमा और स्निग्ध दृष्टि से उनकी तरफ देखते हुए बोली- “माँ, हमारी मदद के कारण आप पराश्रित नहीं हो जाएँगी और वैसे भी आपका आत्मबल आपको सदैव स्वस्थ एवं स्वावलम्बी बनाये रखेगा।”

नर्मदा जी ने तोशल के सिर पर हाथ रखा। उनकी आँखों से दो बूँदें लुढ़क पड़ीं। तोशल ने अनुभव किया कि यह कोटिशः आशीषों से परिपूर्ण स्पर्श था। वह गद्गद हो गई। दो मोटे, किन्तु मुलायम तकिये ला कर हौले से माँ को ऊँचा उठा कर पीछे की तरफ लगाये और उनके सहारे उन्हें बैठा दिया। नर्मदा जी के भोजन करने तक वह पास में कुर्सी पर बैठी रही। 

स्वयं भी खाना खाने के बाद वह वापस नर्मदा जी के पास आई। इस समय साढ़े बारह बज रहे थे। उसने देखा, नर्मदा जी की आँख लग गई थी। तकियों के बीच उनका सिर इस तरह से व्यवस्थित था कि उनके लुढ़कने का अंदेशा कतई नहीं था। फिर भी वह उनके पास कुर्सी पर ही बैठ गई। 


(3)


नर्मदा जी द्वारा पुकारे जाने पर उसने हड़बड़ा कर आँखें खोलीं। नर्मदा जी जाग गई थीं। ‘ओह, मुझे भी नींद आ गई थी’, तोशल ने मन ही मन कहा। उसकी नज़र सामने दीवारघड़ी पर पड़ी, ‘अरे डेढ़ बज रहा है। इसका मतलब मैं एक घंटे तक सोई रही।’ कुर्सी से उठ कर बोली- “ सॉरी माँ, मुझे भी नींद आ गई थी। आपको प्यास लगी होगी, मैं पानी लाती हूँ।”

“हाँ बेटा, पानी पीयूँगी। और सॉरी की क्या बात है? नींद तो आएगी ही। मेरी सेवा में तुम लोगों ने कितनी रातें काली कर दी हैं।”

तोशल पानी लेने चली गई थी, लेकिन लौटते-लौटते नर्मदा जी की बात उसके कानों में पड़ गई। पानी का गिलास नर्मदा जी के हाथ में देते हुए बोली- “ऐसा कुछ भी नहीं है माँ! सोने के लिए हम समय निकाल ही लेते थे। वैसे भी सारा काम तो बेचारी वह नर्स कर रही थी।”

“तुम लोग थोड़े ही कहोगे कि तुम्हें कोई तकलीफ़ भी पड़ी है।“

“यह क्या लगा रखा है माँ आपने? आपके लिए कुछ करेंगे, तो क्या उसे तकलीफ़ मानेंगे? आप हमारी माँ नहीं हैं क्या?” -भावुकतावश तोशल की आवाज़ कुछ अक्रोशित हो गई थी।  

“अरे नहीं तोशल बेटी, नाराज़ मत हो। मैं भाग्यशाली हूँ, जो तुम जैसी बहू मुझे मिली है, बेटी से भी बढ़ कर।”

“अच्छा-अच्छा रहने दीजिए अब। मैं फूल कर कुप्पा हो जाऊँगी।” -तोशल अपनी ही बात पर हँस दी। नर्मदा जी भी खिल उठीं। 

शाम को शशांक का इन्तज़ार करती बरामदे में खड़ी तोशल सुमन कल्याणपुर का गया एक युगल गीत ‘मेरा प्यार भी तू है, ये बहार भी तू है’ गुनगुना रही थी। तभी उसने देखा, ऑफिस से अभी-अभी आया शशांक अपनी स्कूटी पार्क कर बरामदे की तरफ आ रहा है। ‘ओह, शशांक आज स्कूटी ले कर गये थे’, बुदबुदाते हुए प्रकट में बोली- “क्या हुआ, आज स्कूटी से ऑफिस गये थे?”

“हाँ, गैराज का मैकेनिक कार सर्विस के लिए ले गया है। मैंने उसे सुबह फोन कर दिया था, सो मेरे निकलने से पहले ही वह कार ले गया था।”

“अरे, इतनी जल्दी? पंद्रह दिन पहले ही तो सर्विस कराई थी, इतने में फिर सर्विस?”

“दो सप्ताह से यूज़ नहीं की थी, सो सुबह चाय के बाद पोर्च में जा कर कार को चैक करने के लिए स्टार्ट कर के देखा, तो घर्र-घर्र कर रही थी। कोई रिस्क नहीं लेना चाहता था, तो गैराज मैनेजर को फोन कर दिया था। अब चाय भी पिलाओगी या यूँ ही इन्क्वायरी करती रहोगी?” -शशांक के स्वर में हल्की-सी झुंझलाहट थी। 

“पर हद है यह तो, नई गाड़ी है और पंद्रह दिन नहीं चलने से ही टें बोल गई।” -भुनभुनाती हुई तोशल चाय बनाने किचन की ओर चल दी। 

शशांक चेंज करने से पहले सीधा माँ के कमरे में गया। नर्मदा जी को फिर से नींद आ गई थी। शशांक उन्हें सोते देख बाहर आ गया व कपड़े बदलने के लिए बैडरूम में आ गया। चेंज करने के बाद वह वॉशरूम से लौटा ही था कि तोशल की आवाज़ आई- “चाय बैडरूम में ले आऊँ या आप बाहर आ रहे हो?”

शशांक लिविंग रूम में आ कर टी-टेबल के पास कुर्सी पर बैठ गया, जहाँ तोशल चाय के साथ उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। 

चाय पीते-पीते अनायास ही शशांक बोल पड़ा- “तोशल, तुमने मेरे प्यार और विश्वास को बहुत आघात पहुँचाया है। मैं कभी माफ़ नहीं कर सकूँगा तुम्हें।”

तोशल ने चौंक कर शशांक की तरफ देखा। जो कुछ सुना था उसने, उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। वह मूक दृष्टि से उसकी ओर देखती रह गई। 

कुछ क्षणों तक दोनों के बीच ख़ामोशी पसरी रही। शशांक को और कुछ न बोलते देख, तोशल ने ही मौन तोड़ा- “कुछ बताओगे भी कि मैंने ऐसा क्या अपराध कर दिया है?”

“मुझसे पूछ रही हो तुम? क्या कुछ दिन पहले तुमने कोई अपराध, बल्कि मैं कहूँगा कोई पाप तुमने नहीं किया? क्या मुझे ही बताना होगा यह?”

“क्या कहे जा रहे हो शशांक? कैसा अपराध, कौन-सा पाप? क्यों इतना कठोर मज़ाक किये जा रहे हो?”

शशांक फिर मौन हो गया। 

“उफ्फ़ शशांक, तुम्हारी यह चुप्पी मार डालेगी मुझे। प्लीज़, कुछ तो बोलो। क्या किया है मैंने?”

“मेरे मुँह से सुंनना चाहती हो, तो सुनो। तुमने मुझसे झूठ बोला था कि कार की किश्तें चुकाने के लिए पैसा तुमने अपने पिताजी से मंगवाया था।”

“तुम कैसे कह सकते हो शशांक कि मैंने झूठ बोला था? और इतने दिन बाद अचानक तुम्हें यह क्या सूझा है?”

“क्या तुमने माँ के सोने के कंगन नहीं चुराए? क्या कंगन बेच कर तुमने पैसे नहीं जुटाये थे? मेरे लिए कार इतनी महत्व नहीं रखती थी कि उसके लिए तुम इतना नीचे गिर गईं।” -आक्रोशित शशांक तेज स्वर में बोला। 

“ओह, तो यह बात है। शशांक, उस दिन जब मैंने तुम्हें बकाया किश्तों के लिए पैसा देते समय झूठ बोला था, तब तो नीचे नहीं गिरी थी, लेकिन आज मैं अपनी ही निगाहों में गिर गई हूँ कि मैं अब तक अपने लिए तुम्हारे दिल में विश्वास नहीं बना पाई हूँ, जगह नहीं बना पाई हूँ।” -आँखों में भर आये अश्रुओं को छिपाने के लिए तोशल वहाँ से उठ कर जाने को हुई, लेकिन तभी नर्मदा जी वहाँ आ गईं।  

“क्यों चिल्ला रहा है बेटा? क्या हुआ है?” -नर्मदा जी ने शशांक की आँखों में आँखें डाल कर पूछा। 

“यह तो तोशल से ही पूछो माँ, मैं नहीं बता पाऊँगा।”

नर्मदा जी ने तोशल की तरफ मुँह फेर कर पूछा- “क्या हुआ बिटिया, तू ही बता। क्यों यह इतना गुस्सा कर रहा था?”

तोशल अब सब्र नहीं रख पाई और फूट-फूट कर रो पड़ी। नर्मदा जी ने उसके पास जा कर उसे अपने गले लगा कर प्यार से सहलाया। तोशल की रोते-रोते हिचकी बंध आई थी। शशांक उसे रोते देख कर हकबका गया था। 

कुछ प्रकृतिस्थ होने के बाद तोशल ने सारा वाक़या बताया। पूरी बात सुन कर  नर्मदा बोली- “अरे पागल, मैंने ही अपने कंगन तोशल को बेचने के लिए दिये थे और मेरे ही कहने से उसने तुझसे यह बात छिपा कर झूठ बोला था। इसमें इसका कोई दोष नहीं है।” 

“लेकिन क्यों माँ? तुमने यह बात मुझे क्यों नहीं बताई?”

“तुझे बताती तो क्या तू  ऐसा होने देता। तू कितना उदास था उन दिनों? तेरी कार नीलाम होते कैसे देखती मैं?” 

शशांक इस बार फिर मौन था। 

“अब यूँ ही हाथ पर हाथ धरे बैठा रहेगा क्या? चल उठ, तोशल से माफ़ी मांग। उस बेचारी पर कितना बड़ा इल्ज़ाम लगाया है तूने!”

शशांक उठ कर तोशल के पास पहुँचा और हाथ जोड़ कर बोला- “तोशल, मुझे माफ़ कर दो। मैं तुम्हारा अपराधी हूँ।”

“नहीं शशांक, प्लीज़ माफ़ी मत मांगो। कोई और होता तो ऐसा ज़रूर सोचता, लेकिन, इतने समय से एक-दूसरे के प्रति गहरी समझ होते हुए भी तुमने मुझे चोर समझ लिया, मुझे दुःख इस बात का है शशांक।” -शशांक के हाथ पकड़ते हुए तोशल भावुक हो उठी। 

“सच कहूँ तो बच्चों, सारा दोष मेरा है। मैंने ही झूठ बोलने का कह कर ग़लती की थी कि बात इतनी बढ़ गई। तुम दोनों मुझे माफ़ कर दो।” -नर्मदा जी ने कहा। उनकी आवाज़ भर आई थी। 

“अरे नहीं माँ, ऐसा न कहो। आपने तो नेकनीयती से ऐसा करने को कहा था।” -तोशल ने नर्मदा जी का हाथ पकड़ कर कहा। 

“तुम बहुत अच्छी हो माँ, मुझे क्षमा कर दो। अब से तुम्हारी बहू को कभी कुछ नहीं कहूँगा।” -शशांक माँ के पाँवों में झुक गया।

“कभी कुछ क्यों नहीं कहेगा? कभी ज़रुरत हुई तो कहना भी पड़ेगा। कल को तोशल मुझसे झगड़ा करेगी, तो भी क्या तू कुछ नहीं कहेगा?” -मुस्कुराई नर्मदा जी। शशांक और तोशल भी हँस पड़े। इसके बाद तीनों सामान्य स्थिति में आ गए। 


दो  दिन भी बाद भी जब शशांक स्कूटी से ही ऑफिस जा कर घर आया तो ऑफिस से सीधे आ कर अपने हाथ में एक लिफाफा लिये माँ के पास बैठे शशांक से तोशल ने पूछा- “कार को ठीक होने में कितने दिन लगेंगे?”

“कुछ ज़्यादा ही प्रॉब्लम है, शायद दो-तीन दिन और लगेंगे।” -शशांक ने जवाब दिया। 

“क्यों झूठ बोल रहे हो शशांक? कार तो गैराज में गई ही नहीं है।”

“अरे भई, गैराज में ही पड़ी है। तुमसे किसने कहा कि वहाँ नहीं गई है?”

“शशांक, मैंने आज गैराज में फोन किया था, पता करने के लिए कि कितने दिन लग जाएँगे। मैंने डायरेक्टरी से नम्बर लिया था।” -तोशल ने कहते हुए नर्मदा जी की तरफ देखा। 

“क्या बात है बेटा, कार कहाँ है?”

“कार मैंने बेच दी है माँ।” -नज़र झुका कर शशांक ने जवाब दिया। 

“क्या?” -एक साथ तोशल और नर्मदा जी दोनों के मुँह से निकला। नर्मदा जी विस्फारित नेत्रों से बेटे की तरफ देख रही थीं। 

“हाँ माँ, अहमदाबाद जाने से ठीक पहले मैंने कार बेच दी थी। तुम्हारा इलाज मेरी पहली प्राथमिकता थी।”

“तुमने मुझसे बात तो की होती शशांक! जो बात मैंने झूठ बोल कर कही थी, सच में कह कर पापा से पैसा मंगवा लेती मैं। क्या माँ की ज़िम्मेदारी तुम्हारी अकेले की है? क्या वह मेरी माँ नहीं हैं?”

“बेटा, यह तूने क्या किया? मेरा इलाज क्या इतना ज़रूरी था? कितनी साध थी तेरी कि अपने घर में कार हो।” -रो पड़ीं नर्मदा जी। 

“माँ, कार बिक गई है, तो फिर आ जायगी। तुम्हें कुछ हो जाता, तो, हमारा क्या होता? तुमने मेरी कार के लिए खानदानी कंगन बिकवा दिये, तो क्या मैं अपनी प्यारी माँ के लिए एक अदनी-सी कार भी नहीं बेच सकता। कार मेरी साध थी तो तुम हमारी साधना हो माँ!”  

“हाँ माँ, शशांक सही कह रहे हैं। आप इस घर की आत्मा हैं। आपके बिना इस घर की कल्पना भी नहीं कर सकते हम।” -भरी आँखों से तोशल ने कहा। 

“माँ, कार भी फिर से जल्दी ही आ जाएगी।” -शशांक ने कहा और अपने हाथ में थामा लिफ़ाफ़ा तोशल की ओर बढ़ा कर बोला- “तुम्हारे लिए एक तोहफा है तोशल!”

 तोशल ने लिफ़ाफ़ा खोल कर उसमें से कागज़ निकाल कर पढ़ा। यह LIC से आया उसका नियुक्ति-पत्र था। 

“ओह, मेरी नौकरी लग गई। माँ, मैं कितने दिनों से इन्तज़ार कर रही थी इसका!” -तोशल की ख़ुशी का परिवार नहीं था। 

नर्मदा जी ने प्रसन्नता से अपनी बाँहें फैलाई और दोनों माँ की ममताभरी बाँहों में समा गए। 


*********

 





































 




टिप्पणियाँ

  1. आदरणीय सर,बहुत सुंदर कहानी,रिश्तों को समझना और उनका मान सम्मान करना यही ज़िंदगी है ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सराहना के लिए भावभीना धन्यवाद आ. मधुलिका जी!

      हटाएं
  2. रिश्तों के सुन्दर एहसासों से सजी बहुत सुन्दर कहानी ।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

"ऐसा क्यों" (लघुकथा)

                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********

तन्हाई (ग़ज़ल)

मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- मौसम बेरहम देखे, दरख्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है।   बहार  आएगी  कभी,  ये  भरोसा  नहीं  रहा, पतझड़ का आलम  बहुत लम्बा हो गया है।   रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र  का  सिलसिला  बेइन्तहां  हो  गया  है।    या तो मैं हूँ, या फिर मेरी  ख़ामोशी  है यहाँ, सूना - सूना  सा  मेरा  जहां  हो  गया  है।  यूँ  तो उनकी  महफ़िल में  रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन फिर भी तन्हा  हो गया है।                          *****  

दलित वर्ग - सामाजिक सोच व चेतना

     'दलित वर्ग एवं सामाजिक सोच'- संवेदनशील यह मुद्दा मेरे आज के आलेख का विषय है।  मेरा मानना है कि दलित वर्ग स्वयं अपनी ही मानसिकता से पीड़ित है। आरक्षण तथा अन्य सभी साधन- सुविधाओं का अपेक्षाकृत अधिक उपभोग कर रहा दलित वर्ग अब वंचित कहाँ रह गया है? हाँ, कतिपय राजनेता अवश्य उन्हें स्वार्थवश भ्रमित करते रहते हैं। जहाँ तक आरक्षण का प्रश्न है, कुछ बुद्धिजीवी दलित भी अब तो आरक्षण जैसी व्यवस्थाओं को अनुचित मानने लगे हैं। आरक्षण के विषय में कहा जा सकता है कि यह एक विवादग्रस्त बिन्दु है। लेकिन इस सम्बन्ध में दलित व सवर्ण समाज तथा राजनीतिज्ञ, यदि मिल-बैठ कर, निजी स्वार्थ से ऊपर उठ कर कुछ विवेकपूर्ण दृष्टि अपनाएँ तो सम्भवतः विकास में समानता की स्थिति आने तक चरणबद्ध तरीके से आरक्षण में कमी की जा कर अंततः उसे समाप्त किया जा सकता है।  दलित वर्ग एवं सवर्ण समाज, दोनों को ही अभी तक की अपनी संकीर्ण सोच के दायरे से बाहर निकलना होगा। सवर्णों में कोई अपराधी मनोवृत्ति का अथवा विक्षिप्त व्यक्ति ही दलितों के प्रति किसी तरह का भेद-भाव करता है। भेदभाव करने वाला व्यक्ति निश्चित रूप से धिक्कारा जाने व कठो