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'मैं तुलसी मेरे आँगन की' (कहानी)

 

(1)

आज रुद्र फिर खाना खाये  बिना ही ऑफिस चला गया था। कभी भी, कोई बात अच्छी नहीं लगती थी, तो वह अपना गुस्सा खाने पर उतार दिया करता था। आज भी ‘सब्जी अच्छी नहीं बनी है’, कहते हुए भोजन की थाली परे खिसका कर वह खड़ा हो गया था। अनामिका परेशान थी, 'दिन भर भूखे रहेंगे वह! यदि ऑफिस की कैन्टीन में कुछ नाश्ता कर भी लिया तो क्या? क्या घर के खाने की बराबरी हो सकती है? मैं अकेली कैसे खा लूँ, मैं भी नहीं खाऊँगी।'

अनामिका खाना बनाने में प्रयुक्त  छोटे बर्तन हाथों से ही मांज कर व अन्य काम निपटा कर बाहर आ गई। कल उसका व्रत था, सो वह कल शाम से ही भूखी थी, किन्तु अब तो उसकी भूख ही मर गई थी। मोबाइल में गाने लगा वह लिविंग रूम में आ कर खिड़की के पास बैठ गई और बाहर आसमान को निहारने लगी। अगस्त का महीना था। आसमान में छाये बादलों से छन-छन कर आती हल्की धूप धरती को प्रकाशमान किये हुए थी। मौसम बहुत लुभावना था, फिर भी अनामिका  का मन व्याकुल था। मोबाइल से आ रही लता जी की मधुर आवाज़ में गाये गाने की स्वर-लहरी वातावरण में रस घोल रही थी, किन्तु अनामिका के मन के उद्वेग को कम करने में सफल नहीं हो पा रही थी। कुछ ही देर में अनामिका  वहाँ से उठ कर बैडरूम में आ गई। मोबाइल को स्विच ऑफ कर वह पलंग पर लेट गई व आँखें बंद कर सोने की कोशिश करने लगी, किन्तु मस्तिष्क में उमड़-घुमड़ रहे विचारों ने उसे सोने नहीं दिया। 

वह अपने विवाह के तीन माह पहले के समय में चली गई। 

अनामिका के मम्मी-पापा उसके लिए रिश्ता देख रहे थे। उसने बी.ए. की पढाई पूरी कर ली थी और देखने में भी बहुत सुन्दर थी, सो रिश्तों की भी कोई कमी नहीं थी। उन्हीं दिनों की बात है। एक दिन उसके पापा के एक पुराने परिचित किसी व्यक्तिगत मसले में बात करने पहली बार इनके घर आये थे। उन्होंने अनामिका को देखा, तो देखते ही रह गये। बिना कोई भूमिका बनाए, वह बोले- "भई तेज प्रकाश जी, अनामिका बिटिया तो अब हमारी हुई। मैं आपसे इसे अपने बेटे रुद्र के लिए मांगता हूँ। आपको तो पता ही है, बहुत क़ाबिल और स्मार्ट है मेरा बेटा।"

उनका लड़का तेज प्रकाश जी का देखा-भाला था। उन्होंने मुस्कुरा कर जवाब दिया- "इससे ज़्यादा ख़ुशी की बात क्या हो सकती है दुष्यंत जी! लेकिन एक बार बच्चे आपस में एक-दूसरे को देख लें, बातचीत कर लें, तभी न, हम किसी निश्चय पर पहुँच सकते हैं।"

"सोलह आने ठीक है जी आपकी बात। हम बच्चे के साथ कल-परसों में ही आ जाते हैं। वैसे मुझे भरोसा है, हमारा बेटा हमारी बात टालेगा नहीं।"

"अरे साहब, अपने बच्चे संस्कारी हैं। अपनी बात भला कैसे नहीं मानेंगे?" -अनामिका के पापा ने भी अपनी तरफ से कह दिया। 

अपने कहे अनुसार दुष्यंत जी अपने शहर वीरमपुर से पत्नी व बेटे रुद्र के साथ तीसरे ही दिन तेज प्रकाश जी के घर आ गये। अनामिका ने रुद्र को देखा तो पहली ही नज़र में वह उसे भा गया। पौने छः फीट लम्बा सांवला-सजीला रुद्र हर तरह से उसे अपने योग्य लगा। उसने एक प्रतिष्ठित कॉलेज से एमबीए किया था। इस हिसाब से कॅरिअरवाइज़ भी वह पूरी तरह से अनुकूल था। चाय, वगैरह के बाद दोनों को एक पृथक कमरे में आपस में बातें करने का अवसर उपलब्ध कराया गया। बातचीत से अनामिका ने पाया कि रुद्र बहुत मितभाषी है। अनामिका ने उससे कुछ सवाल पूछे, जिनका उसने सधे शब्दों में जवाब दिया, किन्तु उसने अनामिका से उसकी शैक्षिक योग्यता व हॉबीज़ के अलावा विशेष कुछ नहीं पूछा। 

अनामिका ने थक-हार कर कहा- "रुद्र जी, क्या आप और कुछ नहीं जानना चाहेंगे मुझसे?"

"नहीं, जो कुछ आवश्यक था, जान ही लिया है।" -मंद मुस्कुराहट के साथ रुद्र ने जवाब दिया। ऐसा लग रहा था, जैसे मुस्कुराने के लिए उसे यत्न करना पड़ा है। 

एक संक्षिप्त वार्तालाप के बाद दोनों कमरे से बाहर आ गये। 

"तो रिश्ता पक्का समझें तेज प्रकाश जी?" -दुष्यंत जी ने दोनों का चेहरा देखने के बाद उत्साह के साथ कहा। 

तेज प्रकाश जी ने अनामिका की तरफ गहरी दृष्टि से देखा और उसके चेहरे पर स्वीकृति के भाव देख कर अपनी सहमति दे दी। 

दुष्यंत जी ने अपनी पत्नी से परामर्श किया और बोले- "यदि आपको कोई परशानी नहीं हो तो हम चाहते हैं कि अगले माह ही मुहूर्त दिखवा कर ब्याह करवा दें।"

"हम भी थोड़ा विचार-विमर्श कर लें भाई साहब! विवाह के लिए दो माह का समय तो हमें चाहिए ही। 'ये' आपको एक सप्ताह के भीतर बता देंगे।" -अनामिका की माँ पद्मा ने पति की तरफ देखते हुए दुष्यंत जी से कहा। 

मेहमानों के जाने के बाद पद्मा ने अनामिका से पूछा- "आगे बढ़ कर हाथ माँगा है लड़के वालों ने। लड़का भी बहुत अच्छा है। तू खुश है न इस रिश्ते से बिटिया?"

"जैसा आप लोग उचित समझें मम्मा।" -अनामिका ने लजाते हुए कहा। 

अनामिका बहुत खुश थी। होती भी क्यों न? पढ़ा-लिखा, सुदर्शन लड़का जो था रुद्र। उसे बस एक ही बात अखर रही थी कि रुद्र बोलता बहुत कम था, जबकि अनामिका हँसमुख व चंचल स्वभाव की थी। वह चाहती थी कि उसका जीवन-साथी पति होने से अधिक उसका दोस्त हो। उसने अपने मन को दिलासा दिया कि शादी के बाद वह रुद्र को अपने अनुसार ढ़ाल लेगी। 

अच्छा मुहूर्त निकलने पर ढ़ाई माह बाद तेज प्रकाश जी ने बड़ी धूमधाम के साथ अनामिका  की शादी रुद्र के साथ करवा दी। बारात के साथ अनामिका वीरमपुर में अपने नये घर आ गई। ससुराल में सब ने उसे हाथोंहाथ लिया। जो भी उसे देखता, उसकी बलाइयां ले रहा था। नई जगह, नये वातावरण में आ कर भी वह खुश थी।… लेकिन सब-कुछ इतना सहज नहीं था। रुद्र ने प्रथम रात्रि को ही उससे वह बात कही, जिसकी कल्पना वह स्वप्न में भी नहीं कर सकती थी। 

"यह शादी मेरी इच्छा के विपरीत हुई है। मेरे मना करने पर भी मम्मी-पापा ने यह शादी करवा दी है। मैं एक अन्य लड़की से प्यार करता हूँ और किसी और को उसकी जगह नहीं दे सकता।"

"लेकिन इसमें मेरा क्या दोष है रुद्र जी? मुझे किस बात की सज़ा दे रहे हो? आपको अपने ममी-पापा को यह बात शादी के पहले ही बता देनी चाहिए थी।"

"मैं उनकी बहुत इज़्ज़त करता हूँ, उनकी बात टाल नहीं सकता था।... और सुनो, मैं इस विषय में अधिक बहस नहीं करना चाहता। तुम सो जाओ। मैं उधर दीवान पर सो जाऊँगा।" -रुद्र ने कहा और जा कर दीवान पर सो गया। 

कोमलांगी अनामिका का अंग-अंग कम्पायमान हो उठा। रुद्र पांच-सात मिनट में ही सो गया, किन्तु वह सुहाग-शैया पर बैठी आँसू बहाती रही। कोमल शैया उसे शूल-सी चुभने लगी थी। अपनी खुशियों के संसार को यूँ ख़त्म होते देखना उसके लिए हृदय-विदारक था। कैसे-कैसे सपने संजोये थे उसने अपनी शादी को ले कर! क्या ऐसा था उसके ख़यालों का राजकुमार? रुद्र ने एक ही झटके से उसकी तमन्नाओं पर तुषारापात कर दिया था। रात गहरा रही थी। दिन भर की थकन से उसका शरीर पहले ही शिथिल हुआ पड़ा था, रुद्र ने जो वज्रपात किया था, उसने उसकी रही-सही शक्ति भी समाप्त कर दी थी। वह हौले से बिस्तर पर लुढ़क गई। नींद नहीं आ रही थी, फिर भी अनचाहे ही उसकी आँखें बोझिल होने लगीं। एक मिनट की ही झपकी आई थी कि एक डरावने सपने ने उसे आतंकित कर दिया। एक भयानक दैत्याकार व्याघ्र ने उसे अपने जबड़े में जकड़ लिया था। उसके मुख से एक दबी-दबी चीख निकली और वह काँप कर उठ बैठी। 

(2)

अनामिका की चीख से रुद्र की नींद उचट गई, कुछ तल्खी से बोला- “क्या हो गया? क्या कोई बुरा सपना देख लिया?”

अनामिका क्या कहती? उसने केवल इतना ही कहा- “हाँ, बस कुछ यूँ ही।”

यह तो वह ही जानती थी कि उसका सपने का दृश्य उतना भयावह तो कतई नहीं था, जितना रुद्र ने उसे जागते में दिखा दिया था? अनामिका को उसके बाद झपकी भी नहीं आई और पूरी रात उसने जागते-जागते ही बिता दी। 

अगले दिन कमरे से बाहर आई तो उसकी आँखें लाल-सुर्ख हो रही थीं। बाहर खड़ी ब्याहता ननद ने देखा तो हँसते हुए चुहल की- “क्या बात है भाभी, भैया ने रात भर सोने नहीं दिया क्या?”

ननद की बात ने आग में घी का काम किया, किन्तु चेहरे पर बरबस मुस्कान ला कर अनामिका ने नज़रें झुका लीं और वॉशरूम में घुस गई। देर तक वह ठन्डे पानी का शॉवर लेती रही थी, लेकिन उसके तन-मन की जलन शान्त नहीं हो सकी थी।

…और तब से एक साल हो गया, आज तक भी स्थितियाँ लगभग वैसी ही थीं। अनामिका की विचार-श्रृंखला वर्तमान में आ गई थी। अब भी उनका शयन-कक्ष तो एक हुआ करता था, लेकिन रुद्र अलग बिस्तर पर ही सोता था। 

ससुराल में उसका ठहराव मात्र नौ-दस दिन का रहा था। उसी दौरान उसे पगफेरे के लिए उसके पापा लेने आये थे। दो दिन वह मायके में रही थी और रुद्र उसको वापस वीरमपुर ले आये थे। फिर रुद्र का एक एमएनसी में जॉब लग जाने से यह लोग वीरमपुर से बहुत दूर इस शहर चमन गढ़ में आ गये थे। यहाँ किराये पर लिया हुआ अच्छा घर था। तेज प्रकाश जी ने दहेज़ में एक स्कूटी भेंट की थी, जो यह लोग यहाँ साथ ले आये थे। यहाँ आ कर रुद्र ने हुंडई कंपनी की एक अच्छी कार भी खरीद ली थी। रुद्र का व्यवहार भी कुछ समय से सामान्य रहने लगा था, किन्तु यदा-कदा किसी-किसी बात पर तुनकमिज़ाज़ी उसके स्वभाव का हिस्सा बन गई थी। 

एक दिन रात को सोते समय रुद्र का मूड कुछ ठीक देख कर अनामिका ने उससे कहा था- “रुद्र, आपने मुझे बताया था कि आपकी ज़िन्दगी में कोई और लड़की है। आप उससे भी ब्याह क्यों नहीं कर लेते? सच कहती हूँ, मुझे बहुत ख़ुशी होगी। मैं उसके साथ ख़ुशी से रह लूँगी। बस, थोड़ी सी जगह अपने दिल में मुझे भी दे देना।”

“मैं नहीं जानता कि वह कहाँ है। एक दिन अचानक ही कहीं गायब हो गई थी। कोई नहीं जानता कि उसके साथ क्या हुआ है। उसके जाने के साथ ही मेरा सब-कुछ ख़त्म हो गया है।”

“ओह, क्या पुलिस भी उसे तलाश नहीं सकी?”

“पुलिस ने बहुत कोशिश की, किन्तु कुछ हासिल नहीं हुआ। लेकिन मुझे भरोसा है कि मैं अपने प्यार को कभी न कभी पा ही लूँगा।’ -रुद्र ने कहा और अपनी आँखें मूँद लीं।   

रुद्र तो कुछ ही देर में सो गया था, किन्तु अनामिका की आँखों में नींद नहीं थी। ‘कैसी विडम्बना है, मेरा पति मेरे ही सामने अपनी खोई हुई प्रेमिका के प्यार का राग अलाप रहा है और मैं सुनने को विवश हूँ’, मन ही मन सुलग रही थी वह। बहुत देर बाद उसे नींद आ सकी थी। 

 उसकी निकटतम सहेली व अन्य सहेलियाँ ‘खुशखबरी’ पूछती थीं। वह उन्हें कैसे बताती कि खुशखबरी के क्षण पैदा करना उस अकेली के बस का नहीं था। वह उन साहसी युवतियों में से नहीं थी, जो बिना आगा-पीछा देखे अपने लिए नई राह तलाश लेती हैं। जिन संस्कारों में वह पली-बढ़ी थी, उनके तहत विवाह-विच्छेद का विचार भी उसकी कल्पना के परे था। यदि वह किसी को अपना दर्द बता पाती, तो शायद सुनने वाला यही कहता- ‘पगली, तू किस युग में जी रही है? सावित्री बनने के लिए सामने वाला सत्यवान भी तो होना चाहिए। क्यों अपनी खुशियों का गला घोंटे जा रही है?’, लेकिन वह तो अपनी खुशियों को अपने एकाकीपन में समेट कर कल की आशा में जी रही थी। फिल्म ‘फिर सुबह होगी’ का गाना ‘वो सुबह कभी तो आएगी…’ उसका पसंदीदा गीत था और उसकी उम्मीद की लौ को देदीप्यमान बनाये रखने में मददगार हुआ करता था। 

वीरमपुर से यहाँ आने के चार माह बाद दिवाली के अवसर पर दोनों वीरमपुर गये थे। तीन दिन वहाँ रहने के बाद रुद्र तो चमन गढ़ लौट गया था, किन्तु दो दिन और अपनी ससुराल में रहने के बाद अनामिका  अपने मायके आ गई थी। पूरे एक सप्ताह अपने मायके में रहने के दौरान उसने स्वयं को बहुत संतुलित बनाये रखा, ताकि उसके माता-पिता उसकी वास्तविक मनःस्थिति का अनुमान न लगा सकें।  

कहा जाता है कि औरत के पेट में कोई बात नहीं ठहरती, किन्तु जिस स्त्री में सहनशीलता बनाये रखने का का माद्दा होता है, अच्छा से अच्छा मनोवैज्ञानिक भी उसके मन को नहीं जान सकता। अनामिका  के स्वभाव में भी सांस्कारिक सौम्यता व सहनशीलता का अद्भुत मेल था। उसने अपनी पीड़ा को इस तरह आत्मसात कर लिया था कि न तो उसके ससुराल वाले और न ही उसके मायके वाले उसके दर्द का तिल- भर भी अनुमान लगा सके थे। और यह सब वह अपने से अधिक अपने परिवार की मर्यादा की रक्षा के लिए कर रही थी और उसके लिए भी कर रही थी, जो उसकी रत्तीभर चिंता नहीं कर रहा था। इन्तहां तो यह थी कि उसने अपनी निकटतम सहेली को भी अपने दर्द की भनक नहीं लगने दी थी, जिससे उसने अपनी कोई बात कभी नहीं छिपायी थी। 

महाकवि मैथिली शरण गुप्त ने अपने काव्य ‘यशोधरा’ में गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा का विरह-वर्णन करते हुए कहा है - ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी’। आज के प्रगतिशील युग में भी कई स्त्रियों के लिए यह पंक्तियाँ चरितार्थ होती हैं। कैसी विडम्बना है कि अनामिका अपने पति के निकट हो कर भी विरह-यातना सह रही है।  

रुद्र को ऑफिस गये दो घंटे हो गये थे। अनामिका की आँखें बोझिल हो रही थीं। बुझे-बुझे दिल ने थकी आँखों को विश्राम देने के लिए अनामिका को गहरी नींद के आगोश में धकेल दिया। लम्बे समय तक निद्रा-मग्न रही वह। 

शाम को रुद्र घर आया तो उसके कपड़े चेंज कर लेने के बाद अनामिका ने डरते-डरते पूछा- “कुछ खाया आपने? बना दूँ खाना?”

“हाँ“ -संक्षिप्त प्रत्युत्तर से काम चलाया रुद्र ने और ड्रॉइंग रूम में जा कर पत्रिका के पन्ने पलटने लगा। उसने खाना खाया था या नहीं, यह जानना भी उसने ज़रूरी नहीं समझा, यह सोच कर कुछ आहत हुई अनामिका , किन्तु जानती थी कि उसके व्यवहार में यह कोई नयापन नहीं था। 

खाना खा लेने के बाद वह रुद्र के निकट आ कर बैठी व पूछा- “ऑफ़िस में आपका दिन कैसा रहा?”

“यहाँ से तो अच्छा ही रहता है।” -शुष्क स्वर में जवाब मिला। 

(3)

अनामिका को बहुत बुरा लगा। ‘कभी भी सीधा जवाब नहीं दे सकते यह’, साहस कर प्रकट में बोली- “एक बात बताओ रुद्र! अगर मैं इतनी ही बुरी लगती हूँ तो आपने मुझे अपनी पहली ही मुलाकात के वक्त अपने मन की बात क्यों नहीं बताई? क्यों मुझे तिल-तिल कर जला रहे हो? क्या तुम्हें मुझ पर तनिक भी दया नहीं आती?”

“मुझे अपनी उस ग़लती के लिए अफ़सोस है अनामिका! तुम्हें दुखी देखना अच्छा नहीं लगता, लेकिन विवश हूँ।” -रुद्र इस बार थोड़ा नरमी से बोला। 

रुद्र की भावात्मक ऊष्णता ने अनामिका  के महीनों से ठन्डे पड़े जज़्बातों को पिघला दिया। वह स्वयं पर काबू न रख सकी और फ़फ़क कर रो पड़ी। अनामिका का यूँ रोना रुद्र को विचलित कर गया। करुण दृष्टि से उसे देखता हुआ वहाँ से उठ खड़ा हुआ और बाहर लॉन की तरफ चला आया। 

बड़ी देर बाद अनामिका सहज हो सकी। रुद्र के आज के व्यवहार ने उसके तपते दिल को शीतल फुहार का उपहार दिया था। वह इसी में स्वयं को कृतार्थ अनुभव कर रही थी। साँझ हो रही थी। उसने लाइट का स्विच ऑन किया, बरामदे में जा कर एक बार लॉन में टहल रहे रुद्र को देखा और भीतर चली आई। उसका मन अब बहुत-कुछ हल्का हो गया था। 

अनामिका ने महसूस किया कि इस घटना के बाद से रुद्र ने स्वयं को कुछ सहनशील तो बना लिया था, किन्तु इससे अधिक उसमें कोई बदलाव नहीं आया था। अनामिका इतने से ही खुश थी। वह अब अधिक उत्साह से अपने सब काम करने लगी थी। 

लगभग एक सप्ताह बाद-

आज रुद्र ऑफिस से आया तो बहुत खुश दिखाई दिया। अनामिका को अच्छा लगा यह, किन्तु रुद्र से कुछ पूछा नहीं। वह पिछले दिनों की ख़ुशी को गवांना नहीं चाहती थी। वह यथावत् अपने दैनिक कार्य करती रही। अगले आठ-दस दिनों तक उसने नोटिस किया कि खुश तो वह रहता है, किन्तु ऑफिस से कभी-कभी देर से आने लगा है। वह इस परिवर्तन को भाँप रही थी, किन्तु इसका कारण समझ पाना उसके लिए सम्भव नहीं हो रहा था। उसे इस बात की ही ख़ुशी थी कि घर का वातावरण अब अपेक्षाकृत अच्छा रहने लगा था। 

कुछ दिनों से रुद्र नित्य ही देर से आने लगा था। एक दिन हिम्मत कर के अनामिका ने पूछ ही लिया- “आजकल ऑफिस से देरी से आते हो। काम का बोझ कुछ ज़्यादा हो गया है क्या?”

“हाँ, बहुत काम करना पड़ रहा है आजकल।” -कुछ मुस्कुरा कर रुद्र ने जवाब दिया। 

कारण जो भी हो, रुद्र इन दिनों व्यवहार तो अच्छा रख रहे हैं, अनामिका सोचा करती। 

तीन-चार दिन बाद की बात है। रुद्र देर से आता ही था, तो वह मन बहलाने पड़ोसन निर्मला के यहाँ चली गई। घर की एक चाबी आदतन रुद्र अपने पास रखता था, सो चिंता की बात भी नहीं थी। कभी-कभार निर्मला उससे मिलने आ जाती थी, तो कभी वह उसके वहाँ चली जाती थी। निर्मला का दो वर्ष का नन्हा बेटा भी उसके साथ बहुत हिल-मिल गया था। आज शाम के वक्त अनामिका  को अपने यहाँ देख निर्मला चौंकी, लेकिन उसे अच्छा भी लगा, क्योंकि अभी वह एकदम फ्री बैठी थी। गप्पें लगाने का ऐसा अच्छा अवसर कभी-कभी ही तो मिलता था। बहुत देर हो गई थी अनामिका को उसके साथ बतियाते कि तभी उसे ख़याल आया, रुद्र आ गये होंगे। उसने तुरन्त निर्मला से रुखसत ली और घर चली आई। दरवाज़ा खुला था, यानी कि रुद्र आ गया था। बरामदे में पहुँच कर वह भीतर घुसने ही वाली थी कि उसने रुद्र को फोन पर किसी से बात करते सुना। बात करते रुद्र की हँसी की आवाज़ भी उसने सुनी। उत्सुकतावश वह दो मिनट के लिए वहीं रुक गई। 

वह केवल रुद्र की ही आवाज़ सुन पा रही थी, लेकिन बातों से उसने जान लिया कि किसी स्त्री से उसकी बात हो रही है। यह भी अंदाज़ लग रहा था कि बातें सामान्य से कुछ हट कर हैं। 

‘कौन हो सकती है यह औरत? क्या इसके कारण ही देरी से घर आते हैं रुद्र?’, शंका व ईर्ष्या से जल उठी अनामिका। भले ही रुद्र उसे पति का सुख नहीं दे रहा था, किन्तु पति को किसी और से बंटते देखना उसे गवारा नहीं हुआ। लेकिन वह करे भी तो क्या? इस विषय में कोई पूछताछ भी तो नहीं कर सकती थी। सधे क़दमों से चलती हुई वह भीतर चली आई। रुद्र ने उसे देख कर भी बात करना दो मिनट तक जारी रख कर स्थिति को सामान्य जताने की कोशिश की, किन्तु उसके चेहरे के भावों व बात के लहज़े में बदलाव अनामिका ने महसूस कर लिया। रात को वह देर तक सो नहीं सकी। वह परेशान अवश्य थी, लेकिन आज उसने स्वयं में एक नई ऊर्जा अनुभव की। उसने निश्चय कर लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए, वह सच्चाई जान कर रहेगी। इस निश्चय ने उसे आश्वस्त कर गहरी नींद सुला दिया। 

अगले दिन काम करते-करते अनामिका का दिमाग़ चल रहा था कि इस महिला का पता लगाने के लिए वह क्या करे कि रुद्र को भनक न लग सके। सहसा उसके मन में एक आइडिया कौंधा। वह रुद्र को सुझाएगी कि उसे ऑफिस से आने में इन दिनों देर हो जाती है, तो सब्ज़ी वह ले आया करेगी। क्या सॉलिड आइडिया है, उसे स्वयं पर गर्व हो आया। कल ही उसने रुद्र को फोन पर बात करते सुना है और आज ही यह प्रस्ताव रखेगी तो उसे शक हो जायेगा। सोच कर उसने निश्चय किया कि वह दो-तीन दिन बाद इस पर अमल करेगी। 

सब्ज़ी अनामिका ले आएगी, इस बात में रुद्र को कुछ भी अनुचित नहीं लगा और उसने अनामिका  के कहते ही हामी भर दी। अनामिका  की योजना सफल हो गई थी। उसने अगले ही दिन से अपनी योजना पर काम शुरू कर दिया। शाम चार बजे अपनी स्कूटी उठा कर वह बाज़ार पहुँची और सब्ज़ी खरीद कर रुद्र के ऑफिस के मुख्य द्वार के पास एक जगह छिप कर इन्तज़ार करने लगी। ऑफिस का समय पूरा हुआ। एक-एक कर स्कूटी, बाइक और कारें निकलनी शुरू हुईं और स्थिति यह आ गई कि अब कोई भी भीतर से नहीं निकल रहा था। ‘रुद्र अभी तक निकला नहीं है या बहुत पहले निकल चुका है? क्या सच में ही वह ऑफिस में है, काम में बिज़ी है?’ -वह असमञ्जस में थी। कार-पार्किंग तक जाना जोखिम भरा था, अतः वह आधा घंटा और इन्तज़ार करती रही और फिर घर लौट आई। रुद्र अनामिका के घर पहुँचने के पंद्रह-बीस मिनट बाद घर पहुँचा। 

अनामिका ने हार नहीं मानी। उसने लगातार तीन दिन तक उसी प्रकार से रुद्र के ऑफिस जाना जारी रखा। कभी घंटा, कभी आधा घंटा वह वहाँ इन्तज़ार भी करती, लेकिन नतीजा वही ‘ढाक के पात’ वाला रहा। ‘कहीं ऐसा तो नहीं कि रुद्र ऑफिस आ ही नहीं रहे हों?’, तीसरे दिन उसके मन में यह विचार भी आया। आज उसने अभी तक सब्ज़ी नहीं खरीदी थी। उसे ऑफिस के पास वाली सड़क पर कुछ दूरी पर दो-तीन सब्ज़ी के ठेले खड़े दिखाई दिए। सब्ज़ी लेने के लिए उसने स्कूटी उधर मोड़ी। सड़क के बाजू चलते हुए उसने देखा, ऑफिस का एक गेट इधर भी था। ‘ओह, इस पर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया कि दूसरा गेट भी हो सकता है। ज़रूर रुद्र इधर से निकलते हैं।’ -उसे भरोसा हो गया। वह गेट के पास से हो कर एक बंद पड़े पान के केबिन के पास खड़े ठेले वाले की तरफ बढ़ी। कुछ आलू, गोभी, टमाटर और धनिया खरीद कर वह घर पहुँची। आज उसे आशा की नई किरण दिखाई दे गई थी। घर पर सब-कुछ सामान्य था। रुद्र भी बहुत सामान्य लग रहा था। लेकिन अनामिका  का मन व्याकुल था। ‘यदि अपने प्यार को न पा सकने के कारण ही रुद्र उसकी अवहेलना कर रहा था, तो घर के बाहर के उसके भटकाव के लिए उत्तरदायी यह तीसरी औरत कौन है?’ सोचसोच कर वह पागल हुए जा रही थी। 

(4)

आज फिर वह रुद्र के ऑफिस के लिए साढ़े चार बजे रवाना हो गई। वह सीधे ही ऑफिस के बाजू वाले गेट के पास गई और पान के केबिन की आड़ में स्कूटी के साथ खड़ी हो गई। एक घंटे बाद ऑफिस से लोगों का निकलना शुरू हो गया। बाहर निकलने वाली हर कार को वह ध्यान से देखने लगी। तभी उसने देखा, रुद्र की क्रेटा गेट से बाहर निकल रही थी। कार बाईं ओर मुड़ी और अनामिका के पास से निकल कर आगे बढ़ गई। अनामिका  ने फुर्ती से अपनी स्कूटी स्टार्ट की और दूरी बनाये रखते हुए सावधानी से कार का पीछा करने लगी। बचपन में पढ़ी जासूसी कहानियों का ज्ञान आज उसके काम आ रहा था। पांच मिनट बाद क्रेटा एक रेस्तरां के पास रुक गई। कार सड़क के किनारे पार्क कर रुद्र ने रेस्तरां में प्रवेश किया। अनामिका रेस्तरां से बीस कदम दूर एक थड़ी की ओट ले कर रुद्र की प्रतीक्षा करने लगी। उसने रेस्तरां के नाम-पट्ट की ओर देखा। यह ‘संगम रेस्तरां’ था। उसे देर तक वहाँ यूँ ही खड़े रहना पड़ा। आध-पौन घंटे बाद रुद्र बाहर निकला तो उसके साथ एक युवती भी थी। दोनों कार में बैठ कर रवाना हो गये। अनामिका ने दाँतों तले उंगली दबा ली- ‘तो मामला इतना आगे बढ़ चुका है! ऑफिस की ड्यूटी के बाद रुद्र यह ड्यूटी करते हैं। 

अनामिका को पता लग गया था कि रुद्र घर देरी से क्यों आते हैं। रुद्र की महिला-मित्र को उसने देख ही लिया था और अधिक समय तक पीछा करने पर रुद्र द्वारा देख लिये जाने का भय भी था, अतः वह वहीं से सीधी घर चली आई। हाँ, इस विषय में आगे क्या किया जा सकता है, यह प्रश्न उसके दिमाग़ में बरकरार ज़रूर था। 

अभी तक अनामिका जिस तरह रुद्र के साथ रहती चली आई थी, रुद्र सोच ही नहीं सकता था कि वह इस प्रकार का कोई स्मार्ट कदम उठा कर उसकी हकीकत जान सकती है। वैसे भी अनामिका  क्या सोचती है, इस बात की ज़्यादा परवाह उसे थी ही नहीं। ‘रुद्र अपने पहले प्यार को भुला नहीं पाया है, इसलिए वह शादी करने के बाद भी व्यवहारिकता में उसे पत्नी का दर्जा नहीं दे सका है’, अनामिका ने रुद्र की इस मनःस्थिति से तो समझौता कर लिया था, लेकिन एक तीसरी औरत के साथ उसके सम्बन्ध की स्वीकार्यता उसके लिए सहज नहीं थी। अब इस नई स्थिति में वह स्वयं को सहज नहीं रख पा रही थी। परिणामतः उसने अब स्वयं को रिज़र्व कर लिया। अब वह आवश्यक होने पर ही रुद्र से बात करने लगी। रुद्र के खाना नहीं खाने पर पहले वह भूखी रह जाती थी, किन्तु अब उसने ऐसा करना छोड़ दिया। अकेले में कभी-कभी आँसू बहाने की मनःस्थिति से भी उसने स्वयं को उबार लिया था। उसका और रुद्र का साथ अब पूरी तरह से एक समझौते वाली ज़िन्दगी बन कर रह गया था। रुद्र ने अनामिका  में आये इस परिवर्तन को भाँप लिया था, किन्तु इसे विशेष महत्त्व नहीं दिया। 

अनामिका के लिए यह एकाकी किस्म की ज़िन्दगी असह्य होती जा रही थी। एक दिन अनामिका  ने रुद्र के समक्ष अपने मन की बात कही- “रुद्र, मैं दिन भर घर में अकेली बोर होती हूँ। मैं कोई जॉब करना चाहती हूँ।”

भले ही रुद्र अनामिका को पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं कर पाया था, किन्तु वह तानाशाही प्रवृत्ति का नहीं था। कुछ सोच-विचार के बाद न केवल उसने उसे नौकरी की स्वीकृति दी, अपितु जॉब तलाशने में भी पूरी मदद की। परिणामतः अनामिका को एक स्थानीय संस्थान में रिसेप्शनिस्ट का अंशकालिक जॉब मिल गया। ऑफर मिलते ही उसने काम शुरू कर दिया। उसे सुबह नौ बजे ड्यूटी पर जाना होता था और दोपहर डेढ़ बजे छुट्टी मिल जाती थी। 

एक माह में ही उसने अपने काम और मधुर व्यवहार से संस्थान के संचालक व ग्राहकों का मन मोह लिया। उसे दो गुना वेतन का प्रस्ताव दे कर संचालक ने शाम पाँच से सात बजे तक की ड्यूटी भी करने का ऑफर दिया, किन्तु उसने नम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया। वह नहीं चाहती थी कि अपना शाम का समय जॉब के लिए नष्ट करे। भले ही रुद्र ऑफिस से देरी से आता था, किन्तु सायंकालीन भोजन उसे समय पर उपलब्ध कराना, वह अब भी अपना दायित्व मानती थी। उसे इस बात की तसल्ली थी कि रुद्र इन दिनों उसके साथ अच्छी तरह से पेश आ रहा था।

अनामिका ने अपने घर, जॉब व रुद्र के साथ अपने व्यक्तिगत जीवन के बीच सामंजस्य स्थापित कर लिया था, लेकिन इस बात की टीस उसके दिल को कचोटती रहती थी कि एक ऐसी लड़की रुद्र की ज़िन्दगी में क्यों है, जो उसकी पूर्व प्रेयसी से पृथक है। रुद्र के पहले प्यार का औचित्य तो उसकी समझ में आता था, किन्तु अभी वाली स्थिति उसकी समझ से परे थी। वह चाहती थी कि एक बार उस लड़की से मिले और जानने की कोशिश करे कि उसमें ऐसा क्या है जिसके कारण रुद्र अपनी ब्याहता की उपेक्षा कर रहा है। 

अनामिका अपने पहले अभियान में रुद्र का यह भेद जान चुकी थी कि वह किस लड़की से मिलता है। अब उसे उस लड़की को जानने के अभियान में जुटना था। उसने पुनः उसी रेस्तरां पर जा कर रुद्र की टोह लेने का निश्चय किया। वह चार दिन तक लगातार वहाँ गई, इन्तज़ार भी किया, लेकिन न तो रुद्र ही दिखाई दिया और न ही वह लड़की। थक-हार कर उसने स्वयं के साथ अपने अभियान को भी भाग्य के भरोसे छोड़ दिया। 

अनामिका को अपना जॉब करते दो माह होने को आये थे। आज का दिन उसके लिए अपेक्षाकृत अच्छा रहा। उसे अपने एक सहकर्मी से जानकारी मिली कि आज संस्थान के एक विशिष्ट ग्राहक ने संचालक के समक्ष उसके तत्परतापूर्ण कार्य की बहुत प्रशंसा की थी। छुट्टी के ठीक पहले संचालक ने उसे अपने कक्ष में बुला कर उसकी सराहना की। वह उन्हें धन्यवाद दे कर अपनी सीट पर आई ही थी कि एक सुन्दर युवती रिसेप्शन पर आई व उसने संचालक से मिलने की इच्छा व्यक्त की। अनामिका ने संचालक से बात कर उस युवती को उनके कक्ष में जाने की इज़ाज़त दे दी। वह जैसे ही काउण्टर छोड़ कर गई, अनामिका  को लगा, उसने इस युवती को कहीं देखा है। अगले ही क्षण उसके दिमाग में कौंधा, ‘अरे, यह तो वही रुद्र वाली लड़की है’ और बेसब्री से उसके लौटने का इन्तज़ार करने लगी। उसने नोटिस किया, आज यह लड़की साड़ी पहन कर आई है। 

अनामिका ने निश्चय किया कि आज वह इस लड़की से बात कर के उसका भेद जानने की कोशिश करेगी। लगभग दस मिनट में वह  संचालक से मिल कर लौटी और संस्थान से बाहर निकल गई। अनामिका भी फुर्ती से उसके पीछे-पीछे बाहर आई और उसके निकट पहुँच कर बोली- “हेलो, मुझे आपसे कुछ बात करनी है।”

“जी, बोलिये।” -चौंक कर वह उसकी तरफ मुड़ी। 

“मैं रुद्र जी की पत्नी अनामिका हूँ।” -बिना भूमिका बनाए अनामिका ने कहा। 

“ओह, ओके!... आप एक तकलीफ़ करेंगी? कल आप ‘नवजीवन क्लिनिक’ आ जाइये। वहीं बात करते हैं।” उसने बेझिझक कहा।  

अनामिका को उसकी बेबाकी देख कर आश्चर्य हुआ। उसे इस बात का भी अहसास हो गया कि रुद्र अवश्य ही उसके विषय में कुछ न कुछ इसे बता चुका है। 

“मुझे कितने बजे आना चाहिए? आपका यह क्लिनिक कहाँ है और आपका शुभनाम क्या है?” -एक साथ सभी प्रश्न उसने दाग दिए। 

“मैं मोहिनी! नवजीवन क्लिनिक यहाँ से सामने की ओर अगले चौराहे पर ही है। आप शाम छः बजे तक कभी भी आ सकती हैं।” -वह मुस्कुराई और ‘बाय’ कह कर अपनी स्कूटी स्टार्ट कर रवाना हो गई।  

अनामिका कुछ क्षणों तक अपलक उसे जाते देखती रही। मोहिनी का मित्रवत् अंदाज़ देख कर वह सोचने लगी, ‘या तो यह लड़की बहुत ही सरल स्वभाव की है या फिर बहुत ही घाघ। घाघ ही होगी, तभी न शादीशुदा आदमी पर डोरे डाले बैठी है।’… और फिर उसका मन उसके प्रति कड़वाहट से भर गया। 

(5)

घर पहुँच कर भी अनामिका मोहिनी के बारे में ही सोचे जा रही थी। कपड़े बदल कर वह बैडरूम में जा कर लेट गई और एक पत्रिका के पन्ने पलटने लगी। एक आर्टिकल पर उसकी नज़रें ठहरीं। मोहिनी से ध्यान हटा कर वह उसे पढ़ने लगी। पढ़ते-पढ़ते ही कुछ देर में उसे नींद आ गई। सपने में वह मोहिनी से बात करते-करते किसी बात पर उससे झगड़ पड़ी और उसकी नींद उचट गई। ‘उफ्फ़, सपने में भी मोहिनी’, उसके मुख पर एक फीकी-सी मुस्कान उभरी। उसने घड़ी देखी, छः बज रहे थे। ‘ओह, बहुत देर सोई रही आज तो। रुद्र आने ही वाले होंगे’, फुसफुसाई वह और उठ खड़ी हुई। किचन में जा कर एक गिलास पानी पीया और लीविंग रूम की तरफ आई। उसने देखा, रुद्र ऑफिस से आ चुका था और सोफ़े पर बैठा लैपटॉप पर कुछ काम कर रहा था। 

“अरे, कब आये आप?” -उसके मुँह से निकला। 

“आधा घंटा होने आया। बहुत गहरी नींद सो रही थी तुम। क्या आज वर्क लोड ज़्यादा था?”

“मैं कम्पनी की मैनेजर थोड़े ना हूँ। रिसेप्शन टेबल पर क्या वर्क लोड होगा?” -बात तो हँस कर कहने वाली थी, लेकिन सामान्य आवाज़ में ही कह गई वह। 

“मैं खाना बनाये देती हूँ।” -कह कर वह किचन में लौट आई। 

आवश्यक बातों के अलावा रुद्र और अनामिका के मध्य संवादहीनता यथावत बनी हुई थी, सो आज की रात भी वैसी ही गुज़री, जैसी रोज़ गुज़रा करती थी, लेकिन आज अनामिका  का साथ देने को मोहिनी से बात करने की योजना से जुड़े विचार उसके पास थे। जब तक वह जागती रही, सोचती रही कि क्या और कैसे अपनी बात उससे कहनी है। 

अगले दिन वह ड्यूटी के बाद समय साध कर नवजीवन क्लिनिक के लिए चल पड़ी। क्लिनिक ढूँढ़ने में उसे कोई परेशानी पेश नहीं आई। मोहिनी उस समय किसी जाँच-कार्य में व्यस्त थी, अतः उसे कुछ देर प्रतीक्षा करनी पड़ी। दस मिनट में मोहिनी अपनी सीट पर आ गई। आज भी वह साड़ी में ही थी। अनामिका को देख कर ‘हाय’ कह कर वह मुस्कुराई व मेज पर पड़ी एक रिपोर्ट को लिफाफे में बंद कर ड्रॉवर में रख कर अनामिका की ओर मुख़ातिब हुई। 

“सॉरी अनामिका जी, आपको इन्तज़ार करना पड़ गया।… क्या लेंगी आप, चाय या कॉफी?”

“मैं समझती हूँ, हम औपचारिका में ना ही पड़ें तो बेहतर है।”

“ऐसे नहीं हो सकता। मुझे कुछ तो शिष्टता बरतने दीजिए।”

‘ज़माने भर की अशिष्ट लड़की शिष्टता की बात कर रही है’, मन ही मन बड़बड़ाई अनामिका, पर प्रकट में बोली- “तो ठीक है, मैं चाय ले लूँगी।”

चाय के लिए चपरासी को बोल कर मोहिनी ने पूछा- “हाँ तो अनामिका जी, बताइये, क्या सेवा कर सकती हूँ आपकी?”

“मैं सीधे ही मुद्दे की बात पर आती हूँ मोहिनी जी! आप मेरे पति रुद्र को कैसे जानती हैं?”

“वह हमारे क्लिनिक-मालिक मि. गुप्ता के मित्र हैं। वह यहाँ आते रहते थे, तो एक दिन…। लेकिन आप को कैसे पता चला कि हम दोनों आपस में परिचित हैं?”

“ऑफिस टाइम के बाद क्या वह अक्सर आपके साथ नहीं होते? मैंने एक दिन आप दोनों को संगम रेस्तरां में जाते देखा था।”

“ओह, तो आपको सब पता है।… अनामिका जी, यहाँ बात करना ठीक नहीं होगा।  चलिए, हम लोग उसी रेस्तरां में चल कर बात करते हैं।” 

यहाँ दिया गया चाय का ऑर्डर मोहिनी ने कैंसल कर दिया व दोनों संगम रेस्तरां पहुँचीं। भीतर कोने वाली टेबल पर जा कर दोनों बैठ गईं। चाय और कुछ स्नैक्स का ऑर्डर दे कर मोहिनी ने बात शुरू की- “देखिये, मैं आपसे कुछ छिपाऊँगी नहीं। दरअसल हम दोनों एक-दूसरे से प्यार करते हैं।”

“आपको यह कहते तनिक भी लज्जा नहीं आई, जबकि आप जानती हो, मैं उनकी ब्याहता हूँ। क्लिनिक में परिचय हुआ और प्यार करने लग गईं? कैसी औरत हो आप? क्या यहाँ आने वाले हर मर्द से प्यार करती हो?” -अनामिका एकाएक भड़क उठी। 

मोहिनी का चेहरा लाल हो आया, कुछ शर्म से तो कुछ क्रोध से। कुछ तेज़ आवाज़ में वह बोली- “देखिए अनामिका जी, मैं बहुत शिष्टता से बात कर रही हूँ और आप हैं कि सारी मर्यादा तोड़ रही हैं। अगर यूँ ही बात करेंगी, तो हमारे बीच और बात नहीं हो सकेगी।”

“मोहिनी जी, आप मेरी जगह खड़ी हो कर देखिये। क्या आप बर्दाश्त कर सकेंगी कि आपका पति किसी दूसरी औरत के साथ सम्बन्ध रखे?”

“मेरा रुद्र के साथ कोई अनुचित सम्बन्ध नहीं है अनामिका  जी! हम एक-दूसरे को बहुत पहले से प्यार करते हैं। मैं मानती हूँ कि अब, जब रुद्र की शादी हो गई है, हमें प्यार करने का कोई नैतिक हक़ नहीं है। मैं इसे समझ रही हूँ, लेकिन…।” -मोहिनी अपेक्षाकृत कुछ नर्म हुई। 

“एक मिनट! क्या कहा आपने? आप दोनों बहुत पहले से एक-दूसरे को प्यार करते हैं। लेकिन अभी आपने कहा था कि रुद्र के यहाँ आते रहने से एक दिन उनसे आपका परिचय हुआ था।”

“नहीं, आपके समझने में भूल हुई है। मैं कह रही थी कि रुद्र यहाँ आते रहते थे, तो एक दिन अचानक हमारी मुलाकात हो गई। उसके बाद हमारा मिलने का सिलसिला शुरू हो गया। हम बचपन से ही एक-दूसरे को अटूट प्यार करते रहे हैं। बस, अचानक एक हादसे ने हमें जुदा कर दिया था।”

अनामिका का सिर चकरा गया, ‘ओह, तो यह वही लड़की है, जिसे रुद्र प्यार करते हैं।’ अपने स्वर में नरमी ला कर उसने कहा- “मोहिनी जी, मैं अनजाने में किये अपने अनुचित व्यवहार के लिए आपसे क्षमा चाहती हूँ। मुझे नहीं पता था कि आप ही रुद्र का पहला प्यार हैं। वैसे बताएँगी, किस तरह का हादसा आपके साथ हुआ था?”

“मैंने बहुत बड़ा नर्क भुगता है अनामिका जी! जब उस पीड़ा को जी ही चुकी हूँ, तो आपसे छिपाने से क्या लाभ होगा? लम्बी कहानी है वह। क्या अभी सुनना चाहेंगी?”

“ज़रूर सुनूँगी बहन!”

“तुमने मुझे बहन कहा, बहुत अच्छा लगा मुझे। मैं अपनी कहानी रुद्र को भी बता चुकी हूँ। बात तब की है, जब मैं और रुद्र अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद कॉलेज में पढ़ने लगे थे। मुझे गर्ल्स कॉलेज में दाखिला मिला था अतः दोनों को अलग कॉलेज में पढ़ना पड़ रहा था। स्कूल में पढाई के दौरान उपजा हमारा प्यार, आगे की पढ़ाई अलग-अलग कॉलेज में होने के बावज़ूद कम नहीं हुआ, बल्कि बढ़ता चला गया। हम लगातार मिलते-जुलते रहे। कई बार समय निकाल कर हम साथ में मूवी देखने भी चले जाते थे। परिवार परिचित थे, सो हमें दोस्ती बनाये रखने में कोई अड़चन नहीं आई। 

…और एक दिन वह हादसा हुआ, जिसने मेरी ज़िन्दगी तबाह कर दी।” कुछ क्षणों के लिए रुकी मोहिनी। अनामिका  टकटकी लगाए ध्यान से उसकी बात सुन रही थी। वेटर चाय व पोटेटो चिप्स ला कर टेबल पर रख कर चला गया। 

(6)

मोहिनी ने कहना जारी रखा- “मैं कॉलेज से घर आ रही थी। उस दिन मैं अकेली थी। एक सुनसान मोड़ पर दो लड़कों ने मुझे एक कार में खींच लिया। एक लड़के ने मेरा मुँह अपने हाथ से दबा रखा था। फिर कोई नशीला पदार्थ उन लोगों ने मुझे सुंघा दिया। मुझे पीछे की सीट पर डाल कर वह लोग किसी अनजान जगह एक मकान में ले आये। वह मकान बस्ती से दूर किसी जगह पर था। होश आने पर मैंने चिल्लाना शुरू किया। उनमें से एक ने डपट कर मुझसे कहा कि चिल्लाने से कोई फायदा नहीं है क्योंकि वहाँ कोई मेरी आवाज़ नहीं सुन सकेगा। मेरे लिए वह खाने-पीने की चीज़ें ले कर आये, लेकिन मैंने उन्हें हाथ तक नहीं लगाया। कब तक भूखी रह सकती थी, दो दिन बाद मुझे कुछ खाना ही पड़ा। उन्होंने मुझसे मेरा फोन भी ले लिया था। 

वहाँ ले जाने के बाद उन्होंने मेरा रेप किया और फिर मेरे हाथ-पैर बाँध दिए। वह लोग एक-दूसरे को नाम ले कर भी नहीं पुकारते थे। इसलिए मुझे उनका नाम तक नहीं पता। दिन के वक्त वह कहीं चले जाते थे। रात को वह मेरे लिए खाना ले कर आते थे। मेरे नहाने-धोने के लिए एक टॉवल उन्होंने मुहैया करा दिया था। चेंज करने के लिए जेंट्स कपडे ही मुझे देते थे। जब तक वह घर में होते थे, मुझ पर पूरी निगाह रखते थे। उस सुनसान इलाके में उन्होंने कई बार मेरा रेप किया। मैं कई दिनों तक यह जुल्म सहती रही। मुझे सही से यह भी ध्यान नहीं हे कि कितने दिन मुझे वहाँ रहते हो गये थे। मुझसे वह ज़्यादा बात भी नहीं करते थे। उनके मन में क्या चल रहा था, मुझे नहीं पता। मैं नहीं जान सकी कि वह लोग हवस की खातिर मुझे यह नर्क भुगतने को मजबूर कर रहे थे या कोई और कारण था। 

एक दिन मैंने महसूस किया कि मेरे हाथ वाला बंधन कुछ ढीला है। अथक प्रयास के बाद मैंने अपने हाथ स्वतंत्र कर लिये। यह मेरे लिए मुक्ति का एक मौका था। मैंने बिना समय गवांये अपने पाँवों से रस्सी खोली और उठ खड़ी हुई। मैंने कमरे में सभी तरफ देखा, मेरा फोन तो नहीं मिला, किन्तु एक जगह एक किताब के नीचे रखे कुछ रुपये मुझे मिल गए। गिन कर देखा, तो कुल सात सौ दस रुपये थे। वह मेरे लिए उस समय बहुत काम के थे। कमरा बाहर से बंद था, अतः खिड़की के रास्ते बाहर निकली। बाहर आ कर देखा, वह एक छोटा, काफ़ी पुराना मकान था। उसमें एक और कमरे के अलावा एक बरामदा था। परकोटे में एक जंग खाया लोहे का सरिये-पत्ती वाला गेट था। मैंने बाहर निकल कर इधर-उधर देखा, आस-पास और कोई दूसरा मकान नहीं था। सड़क पक्की थी, जो दोनों ओर जा रही थी। मुझे दिशा का कोई भान नहीं था, यूँ ही भगवान के भरोसे मैं एक तरफ बढ़ती चली गई। कुछ ही देर में इक्के-दुक्के कच्चे-पक्के मकान नज़र आने लगे थे। तभी भाग्य ने मेरा साथ दिया और पीछे से एक बस आती दिखाई दी। मैंने हाथ हिला कर उसे रुकने को कहा। बस की बाहरी दीवार पर जो स्टेशन लिखे थे, उनमें अंतिम नाम ‘चमन गढ़’ था। मैं बस में चढ़ गई और चमन गढ़ का टिकट ले लिया। चमन गढ़ मेरा जाना हुआ शहर है। बचपन में एक बार अपने पापा के साथ यहाँ आ चुकी हूँ। यहाँ आ कर मैं एक सराय में ठहरी। मैंने अपने…”

“आपके साथ जो गुज़रा, बहुत दिल दहलाने वाला वाक़या है।… लेकिन मोहिनी जी, आप यहाँ चमन गढ़ में क्यों रुक गईं, अपने घर वीरम पुर क्यों नहीं चली गईं?” -मोहिनी की कहानी सुनते-सुनते अनामिका  का मन बेचैन हो उठा था। मोहिनी के प्रति उसके मन में सहानुभूति हो आई थी। 

“मैं किस मुँह से वहाँ जाती? मेरे और रुद्र के परिवार वालों ने और मिलने-जुलने वालों ने दो ही बातें मेरे बारे में सोची होंगी कि या तो मैं किसी के साथ भाग गई हूँ या कोई मुझे उठा ले गया है। दोनों ही स्थितियाँ मेरे और मेरे घर वालों के लिए मुँह दिखाने लायक नहीं थीं। वीरम पुर जाने से तो अच्छा यही होता कि मैं किसी नदी-नाले में डूब कर मर जाती। घर वालों ने तो मुझे मरा हुआ या मरे के समान मान ही लिया होगा।… बदनामी बहुत बुरी चीज़ होती है अनामिका जी! अभी भी मैं मन ही मन तो मर ही चुकी हूँ। जी इसलिए रही हूँ कि मरने की न तो मुझ में हिम्मत है और न ही कभी आत्महत्या करना चाहूँगी।”

“आप उन लड़कों का नाम नहीं जानतीं, लेकिन उस मकान का पता बता कर पुलिस को शिकायत तो कर ही सकती थीं न? क्यों नहीं किया आपने ऐसा?”

“मकान का पता भी तो मुझे नहीं मालूम। वहाँ कहीं भी उस गाँव का नाम नहीं लिखा था। मैं उस समय इतनी बदहवास और डरी हुई थी कि बस किस रास्ते से यहाँ तक आई थी, मुझे यह भी ध्यान नहीं। वैसे भी बस कई घुमावों और चौराहों से होकर आई थी। यहाँ तक सकुशल आ गई, वही बहुत है। हाँ, ज़िन्दगी में कभी भी, कहीं भी, वह लोग मिल गए तो मेरी बर्बादी का उनसे बदला ज़रूर लूँगी।”

“उफ्फ़ मोहिनी जी, मैं आपका दर्द समझ सकती हूँ। भीषण दर्दनाक समय गुज़ारा है आपने!… यहाँ आने के बाद आपको यह नौकरी कैसे मिली?”

“सराय में एक परिवार दो दिन के लिए आ कर ठहरा था। बहुत भले थे वह पति-पत्नी। इस क्लिनिक के मालिक से उनका अच्छा परिचय था, सो उन्होंने मेरी सिफारिश कर दी। यहाँ रहते हुए मुझे काम करने की ट्रेनिंग भी मिली। शुरू में मुझे गुज़ारे लायक पैसा मिलता था। अब लोगों का ब्लड-सैंपल लेना और मशीनों से जांचें करना सीख गई हूँ। वेतन भी अच्छा मिलने लगा है।”

“आपने रुद्र को यह सब बताया, तो उन्होंने क्या कहा?”

“रुद्र मेरी कहानी सुन कर आग-बबूला हो उठा था और ज़िद पर था कि पुलिस में रिपोर्ट दर्ज़ करवाई जाए, लेकिन मैंने उसे अपनी सौगंध दे कर रोक दिया, क्योंकि उन जानवरों का कोई सुराग तो मिलता नहीं और मुफ़्त में ही मेरी बदनामी और होती। मैंने उसे स्पष्ट कह दिया कि मैं अपनी पीड़ा के साथ तो जी सकती हूँ, लेकिन बदनामी के साथ जी नहीं सकूँगी।”

कुछ क्षण रुक कर मोहिनी ने फिर कहा- “वह तो मुझे अब भी अपनाने को तैयार है, किन्तु अब के हालात अलग हैं, अब वह शादीशुदा है। मुझे उसका प्यार और सम्बल तो चाहिए, किन्तु…।”

“किन्तु क्या?… आप मना मत करिये। मैं आपके साथ रह लूँगी। अगर आप मना करेंगी तो मेरी ज़िन्दगी यूँ ही तबाह होती रहेगी। वह तो मुझे पत्नी के रूप में स्वीकार ही नहीं कर रहे हैं।” -अनामिका का स्वर काँप रहा था। 

अवाक मोहिनी अनामिका की ओर देखने लगी। ‘तो क्या रुद्र ने अनामिका  को पति के सुख से वंचित कर रखा है? लेकिन मैं इसमें उसकी क्या मदद कर सकती हूँ?’, मोहिनी कुछ समझ नहीं पा रही थी, प्रकट में बोली- “कुछ तुम्हारी बेचारगी है, कुछ मेरी उलझन है। हमें कुछ बातें अपने प्रारब्ध पर छोड़ देनी चाहिएँ।… तुम अब घर जाओ अनामिका ! मुझे भी अपना शेष काम निपटाने क्लिनिक जाना होगा।” -मोहिनी अपनी जगह से उठ खड़ी हुई। 

चाय व चिप्स टेबल पर यथावत् पड़ी थीं। बातों की गम्भीरता के चलते किसी का भी मन कुछ लेने का नहीं हुआ था। 

“हम्म!” -अनामिका  के मुख से निकला। मोहिनी ने बिल चुकता किया और दोनों रेस्तरां से बाहर आ गईं।  

(7)

घर लौटते समय अनामिका का मन बहुत उद्विग्न था, ‘कैसी लड़की है यह? इतनी बड़ी त्रासदी भुगत चुकी है और औरत हो कर भी उसे मुझसे कोई हमदर्दी नहीं है। लेकिन स्वार्थ में इन्सान, इन्सान कहाँ रह जाता है! अब मैं इससे कभी नहीं मिलूँगी।’

शाम छः बजे रुद्र घर आया। रुद्र ने रात तक ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि मोहिनी ने आज की उसकी मुलाकात का जिक्र उससे किया हो, जबकि अनामिका इसकी उम्मीद कर रही थी। उसे आश्चर्य था। वह मोहिनी के व्यक्तित्व की जटिलता को समझ नहीं पा रही थी। वह यह भी निश्चय नहीं कर पा रही थी कि मोहिनी से हुई मुलाकात के बारे में रुद्र को बताए या नहीं। ‘अगर मोहिनी कभी रुद्र को मेरी आज की मुलाकात के बारे में बता ही देती है और अगर रुद्र मुझसे कुछ पूछेंगे, तो मैं उसी समय कोई जवाब सोच लूँगी। अभी से पंगा क्यों लूँ?’, आखिर में उसने निर्णय ले ही लिया। 

अनामिका ने मोहिनी को अपने विषय में बताया था, तब एक आशा की किरण उसके दिमाग़ में कौंधी थी कि शायद मोहिनी के मन में उसके प्रति कुछ सहानुभूति की भावना जागृत हो जाए, लेकिन उसने तो उसे निराश ही किया था। अब उसने समझ लिया था कि उसे यूँ ही अपनी ज़िन्दगी गुज़ारनी है। अपने परिवार की प्रतिष्ठा उसके लिए अहम् थी और इसी कारण वह रुद्र से सम्बन्ध-विच्छेद के विचार को मन में नहीं आने देती थी। अभी भी उसे लगता था कि शायद कभी न कभी उसके दिन बदलेंगे और नहीं भी बदले तो अब तक का समय जैसे गुज़रा है, आगे भी गुज़र जायगा। 

अनामिका और मोहिनी की मुलाकात के बाद लगभग तीन सप्ताह हो गए थे। तीन-चार दिन से रुद्र बहुत उदास दिखाई दे रहा था और आज देर रात जब वह घर आया तो उसके मुँह से शराब की गंध भभक रही थी, आँखें लाल हो रही थीं और पाँव लड़खड़ा रहे थे। ‘रुद्र तो कभी शराब नहीं पीते। आज इन्होंने पी ली है और वह भी इतनी कि बैलेंस नहीं कर पा रहे। हे भगवान, ऐसा क्या हो गया है?’, उसने रुद्र का हाथ थामा। 

“म…मुझे किसी के स…हा..रे की… ज़रुरत न..ईं है।” -रुद्र ने अनामिका से अपना हाथ झटके से छुड़ा लिया।

“आप गिर जाओगे रुद्र!”, कह कर अनामिका ने मज़बूती से फिर उसका हाथ थामा और बैडरूम में ले जा कर उसके बिस्तर पर बैठा दिया। रुद्र के जूते उतार कर उसने उसे आहिस्ता से सुला दिया। लाइट बंद कर कुछ देर वह पास में ही बैठी रही। नाइट लाइट की डिम रौशनी में उसने देखा, रुद्र को गहरी नींद आ गई थी।  

अनामिका की भूख मर गई थी, किन्तु फिर भी उसने किचन में जा कर थोड़ा-बहुत खाया। खा लेने के बाद वह वापस बैडरूम में लौटी व बड़ी देर तक रुद्र के सिरहाने बैठी रही और फिर वह भी उसके पास ही सो गई। यह पहला मौका था, जब वह रुद्र के साथ एक ही बिस्तर पर सोई थी। रुद्र अस्पष्ट-सा कुछ बड़बड़ा रहा था और नींद में भी उसकी आँखों से कुछ आँसू बह आये थे। रुद्र के साथ क्या हुआ है, सोचते-सोचते उसकी पलकें भारी होने लगीं और अन्ततः वह भी नींद के आगोश में खो गई। 

अनामिका की नींद तो हमेशा की तरह समय पर खुल गई, किन्तु रुद्र अभी भी सोया पड़ा था। प्रातः के कार्यों से निवृत हो कर उसने रुद्र को जगाया। 

“अरे, बहुत देर हो गई। आज मैं इतनी देर सोया कैसे रहा?” -आँखें मल कर घड़ी की ओर देखते हुए रुद्र बोला। अनामिका बिना कोई जवाब दिए उसे देखती रही। 

कुछ देर तक की अलसाई हालत से मुक्त होने के बाद रुद्र पुनः बोला- “आज ऑफिस जाने का बिल्कुल मूड नहीं है, छुट्टी ले लेता हूँ।” कह कर सबसे पहले उसने कंपनी के अपने वरिष्ठ अधिकारी को फोन कर के अस्वस्थता का हवाला दे कर कहा कि वह आज ड्यूटी पर नहीं आएगा। अनामिका  ने महसूस किया, रुद्र की आवाज़ में एक अजीबोगरीब उदासी थी। 

“आप फ्रैश हो लें। मैं चाय बना कर लाती हूँ।” कह कर वह किचन में चली गई। 

रुद्र फ्रैश हो कर लिविंग रूम में आया, तब तक अनामिका भी चाय ले कर आ गई थी। चाय पीने के दौरान अनामिका  सोच रही थी, ‘रुद्र वर्क फ्रॉम होम भी तो कर सकते थे, छुट्टी लेने की क्या ज़रुरत थी। वह अभी भी नॉर्मल नहीं हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि ऑफिस में इनके साथ कोई प्रॉब्लम आ गई है।’ 

“रुद्र, क्यों परेशान हो? कल आप शराब पी कर घर आये थे और वह भी देर रात को। क्या ऑफिस में कोई प्रॉब्लम आई है?”

“नहीं।… अनामिका, तुम अपना काम करो। मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो।” -रुद्र बोला और टेबल पर अपना सिर टिका दिया। 

अनामिका कुछ देर वहाँ बैठी रही और फिर उठ कर बाथ के लिए वॉशरूम में चली गई। 

अनामिका ने अपने रोज़ के समय के हिसाब से खाना बना लिया। खाना खाने के बाद रुद्र कहीं के लिए निकल गया। 

रात को वह फिर देर से घर आया। आज भी उसने पी थी, किन्तु कल जितनी नहीं। अनामिका  ने देखा, आज वह लड़खड़ा नहीं रहा था। उसके चेहरे पर आज भी उद्विग्नता झलक रही थी। ‘तो क्या रुद्र अब रोज़ शराब पीयेंगे?’, अनामिका  व्याकुल हो उठी। दुश्वारियां बढ़ती जाती देख उसका तन-मन काँपने लगा। 

रुद्र स्वयं बैडरूम में गया, अपने कपड़े बदले और बाहर आया। 

“खाना लगा दूँ?” -अनामिका ने धीरे-से पूछा। 

“हाँ, तुमने खा लिया?”

“नहीं, अब खाऊँगी।”

“कितनी बार कहा है, खाने के लिए मेरा इन्तज़ार मत किया करो। तुम खाना खा क्यों नहीं लेती हो?”

अनामिका को अच्छा लगा, आज रुद्र इतनी बात तो कर रहे हैं, बोली- “अकेले खाना अच्छा नहीं लगता जी!” रूद्र ने उसकी तरफ देखा और जा कर डाइनिंग टेबल पर बैठ गया। अनामिका ने खाना लगा दिया। खाना खाते समय अनामिका ने डरते-डरते पूछ लिया- “आज भी आपने शराब पी है और घर भी देर से आये हो। कारण पूछने का मेरा अधिकार तो नहीं है, पर प्लीज़ मुझे बताओ। मुझे बहुत चिंता होती है।”

“यूँ ही, दोस्तों के साथ देरी हो जाती है।” -रुद्र का संक्षिप्त उत्तर था। अनामिका जान गई कि अधिक कुछ कहने का कोई लाभ नहीं है, उसका जवाब सुन कर चुप रह गई। 

खाना खाने के बाद रुद्र लॉन में देर तक टहलता रहा। अनामिका कुछ देर लिविंग रूम में बैठी अख़बार की कुछ अनपढ़ी ख़बरें पढ़ने लगी और फिर बैडरूम में आ कर अपने पलंग पर लेट गई। आज वह रुद्र के बिस्तर पर जाने का साहस न कर सकी। लगभग दस मिनट बाद रुद्र भीतर आया और बिस्तर पर चला गया। रुद्र को जल्दी ही नींद आ गई, किन्तु अनामिका को नींद नहीं आ रही थी। वॉशरूम जाने के लिए वह पलंग से उतर कर बाहर निकली। वापस जब आई तो उसे रुद्र के पलंग के पास फर्श पर पड़ा एक तह किया हुआ कागज़ दिखाई दिया। शायद कपड़े बदलते समय रुद्र की जेब से गिरा है, उसने सोचा। उत्सुकतावश उसने उसे उठाया। कागज़ खोल कर देखा तो नाईट लाइट की रौशनी में जो कुछ शब्द वह देख पाई, उसको चौंकाने के लिए काफ़ी थे। यह हाथ से लिखा गया एक पत्र था। वह फुर्ती से बाहर निकली व लिविंग रूम में पहुँची। रुद्र के अभी जाग जाने की सम्भावना नहीं के बराबर थी, अतः लाइट जला कर इत्मीनान से पत्र की इबारत पढ़ने लगी। 

(8)

‘मेरे रुद्र! तुम्हें ‘मेरा’ कहने का अधिकार तो मुझे नहीं है, मगर आखिरी बार कह लेती हूँ। सबसे पहले तो तुमसे दिल से क्षमा चाहती हूँ कि तुम्हारी बात, तुम्हारा आग्रह मैं स्वीकार नहीं कर सकी। कारण तुम अच्छी तरह से जानते हो। तुम्हारे प्यार पर केवल अनामिका  का अधिकार है, जो सम्भवतः तुमने उसे अभी तक नहीं दिया है, जैसा कि तुम्हारी बातों से मैं अनुमान लगा सकी हूँ। तुमने मुझे बताया था कि शादी से पहले तुमने उसे बताया ही नहीं कि तुम मुझसे प्यार करते हो। उस बेचारी को अंधेरे में रख कर तुमने उसके साथ अन्याय ही नहीं किया, एक बड़ा अपराध भी किया है। मेरा इसमें प्रत्यक्षतः तो कोई दोष नहीं, परन्तु फिर भी अपराधबोध से ग्रस्त हूँ, स्वयं को क्षमा नहीं कर पा रही हूँ। काश, मैं अनामिका से मिल पाती और उससे क्षमा मांग पाती! 

अनामिका  पत्र पढ़ रही थी और उसकी आँखें बरस रही थीं। उसने आगे पढ़ा…  

तुमने शादी नहीं भी की होती तो भी क्या आज की स्थिति में मैं तुम्हारी हो पाती? बासी और रौंदे हुए फूल देवता को अर्पित नहीं किये जाते रुद्र! मेरा दुर्भाग्य मुझे बहुत पहले ही तुमसे दूर ले जा चुका है। इस जन्म में तो मैं तुम्हारी नहीं हो सकी, लेकिन ईश्वर से प्रार्थना अवश्य करूँगी कि अगले जन्म में तुम्हें पा सकूँ। बहुत निर्लज्ज हूँ कि इतनी बड़ी बदनसीबी झेलने के बाद भी मैं अब तक मरने की हिम्मत नहीं कर पाई थी। 

रुद्र, यह पत्र तुम्हें मिलने तक मैं तुमसे दूर जा चुकी हूँगी… बहुत दूर। ऐसा कर के मैं तुम्हें बहुत कष्ट दे रही हूँ, लेकिन मेरी कमी को पूरा करने को अनामिका तुम्हारे पास है। उसे अपना लेना रुद्र, मेरे खातिर, मेरे प्यार के खातिर और सब से बढ़ कर उस तपस्विनी के प्यार के खातिर। विश्वास है, मेरी यह अंतिम इच्छा तुम ठुकराओगे नहीं। मुझे तलाशने की कोशिश मत करना। मैंने तुमसे कहा था न कि मैं बदनामी नहीं सह सकती, जीते-जी भी और मर कर भी। इसीलिए मैं यहाँ से इतनी दूर जा रही हूँ कि कोई मुझे पहचान न सके। मैं ट्रेन का टिकट ले चुकी हूँ और यहाँ से बहुत दूर कहीं जा कर अपनी दूषित देह से मुक्ति पा लूँगी। मेरी आरजू है कि मेरे बारे में पुलिस में रिपोर्ट मत करना। मैं नहीं चाहती कि मरने के बाद मेरा नाम अखबारी पन्नों पर उछले। दुःख है तो केवल इस बात का कि मुझे बर्बाद करने वाले पापियों से मैं बदला नहीं ले सकी हूँ। शायद ईश्वर को यही मंजूर था। मेरे साथ क्या हुआ था, केवल तुम जानते हो रुद्र! इस त्रासदी भरे राज़ को अपने दिल में ही दफ़न कर देना। मुझे इससे ही मुक्ति मिल जाएगी। करोगे न रुद्र ऐसा?

बहुत थक चुकी हूँ अपने-आप से संघर्ष कर के, मुझे अब जाने दो रुद्र!... अलविदा!’

पत्र अनामिका के हाथ से छूट गया। वह फफक-फफक कर रोने लगी, यहाँ तक कि उसकी हिचकियाँ बंध गईं। देर तक वह यूँ ही वहीं बैठी रही। उसे बेहद ग्लानि हो रही थी, ‘मोहिनी जैसी देवी को मैंने ग़लत समझ लिया था। ऐसी सरल लड़की के प्रति रुद्र का ऐसा समर्पित प्यार स्वाभाविक ही तो था। जिसको मैंने अपने लिए अभिशाप मान लिया था, वही मेरे लिए वरदान बन कर चली गई। यहाँ तक कि मुझसे हुई मुलाकात को भी उसने गुप्त रखा कि रुद्र इसे कहीं अन्यथा न ले लें। मैंने सोचा था, उससे कभी दुबारा नहीं मिलूँगी और सच में ही उसने मुझ अभागी को दुबारा मिलने का मौका नहीं दिया।’ कृतज्ञ भाव से उसने मोहिनी को मन ही मन नमन किया। उसे इस बात का भरोसा था कि मोहिनी जैसी मज़बूत लड़की आत्म-हत्या कभी नहीं करेगी। अवश्य ही उसने रुद्र को भरोसा दिलाने के लिए आत्म-हत्या करने की बात लिखी है, ताकि वह उसे तलाश करने की कोशिश न करे। उसने ईश्वर से प्रार्थना की कि वह जहाँ कहीं भी गई हो, सुख-शांति से रहे और उसके जीवन में अब और कोई दुःख न आए।  

अनामिका रुद्र की अभी की मनःस्थिति को अब समझ पा रही थी। उसे रुद्र के प्रति सहानुभूति भी हो रही थी, जिसका प्यार उससे यूँ दूर चला गया था। वह अपनी जगह से उठी और पत्र को हाथ में ही थामे बैडरूम में जा कर रुद्र के सिरहाने बैठ कर उसका सिर सहलाने लगी।  

कुछ ही मिनट में रुद्र जाग गया। अनामिका को अपने पास बैठी देख कर चौंका और उठ कर बैठ गया। अनामिका  के हाथ में पत्र पर देख कर तो वह और भी अधिक चौंका।

“यह पत्र तुम्हें कहाँ से मिल गया?” -उसने उसके हाथ से पत्र ले कर पूछा। 

“यहीं पलंग के पास पड़ा था। शायद कपड़े बदलते समय आपकी जेब से गिर गया था।” -अनजाने में ही अनामिका  के स्वर में कोमलता आ गई थी। 

“क्या तुमने पढ़ा है इसे?”

“हाँ।“ -झिझकते हुए अनामिका बोली। रुद्र खामोश रहा। इस बार उसने अनामिका  के चहरे को ध्यान से देखा। उसकी सूजी आँखें देख कर वह समझ गया कि वह बहुत रोई है।   

“आप इतनी वेदना सहते रहे रुद्र और मुझे बताया नहीं। संयोग से जब आपके साथ बन्ध ही गई हूँ, तो अपनी तकलीफ़ में तो मुझे शामिल करते। मोहिनी सच में आपके प्यार के योग्य थीं। मुझे बहुत दुःख हो रहा है कि उन्होंने ऐसा कदम क्यों लिया? काश, वह मुझे भी अपना दोस्त समझ लेतीं!”

रुद्र की आँखों से आँसू छलक आए। वह पहली बार अनामिका के सामने भावुक हुआ था। अनामिका  ने उसके निकट जा कर अपने दुपट्टे से उसके आँसू पोंछे। 

“मोहिनी चली गई अनामिका! वह सदा के लिए मुझसे दूर चली गई। मुझे डाक से यह पत्र मिला था। मैंने उसे बहुत ढूँढ़ा, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।” -बिखर गया रुद्र। 

अनामिका ने उसके गले में हाथ डाल कर अपना चेहरा उसके कंधे पर टिका दिया और बोली- “रुद्र, प्लीज़ शान्त हो जाओ! वह बहुत बड़ा दिल रखती थीं। मेरे मन में उनके लिए बहुत सम्मान है। वह अपना इरादा बदल लें और वापस आ जाएँ, हम ईश्वर से यही प्रार्थना कर सकते है।” 

रुद्र ने अनामिका का हाथ पर अपना हाथ रखा। अनामिका के लिए यह अहसास अभूतपूर्व था। इस छोटे-से सुख के लिए भी वह अब तक तरस रही थी। 

अपने इस नए अहसास से उल्लसित अनामिका अगले दो दिनों तक हर सम्भव प्रयास करती रही कि रुद्र अपने ग़म से उबर जाए। उसका प्रयास रंग लाया और रुद्र अपने अवसाद से मुक्त होने में बहुत-कुछ सफल हो सका। स्वस्थ-चित्त रुद्र शाम को अनामिका के साथ लॉन में टहल रहा था। साँझ होने जा रही थी। डूबते सूरज को निहार रहे रुद्र ने सहसा एक गहरी साँस ली और अनामिका  के निकट आ कर उसके दोनों कंधों पर हाथ रख कर करुण स्वर में बोला- “आय’म सॉरी अनामिका … सॉरी फॉर एवरी थिंग!”

“ऐसा न कहो रुद्र!” -बोली अनामिका और डबडबाई आँखों से रुद्र की ओर देखते हुए अपना सिर उसके सीने पर टिका दिया। अनामिका को प्रतीत हो रहा था, आज वह रुद्र के साथ एकाकार हो गई है। 

कुछ समय सुकून के साथ गुज़रे, इसके लिए रुद्र ने अपने ऑफिस में फोन कर के दो दिन का अवकाश बढ़वा लिया।

रात को अनामिका सोने के लिए जब अपने पलंग पर गई, तो रुद्र उसका हाथ पकड़ कर अपने पलंग पर ले आया और लाइट का स्विच बंद करते हुए बोला- “अब हम अलग-अलग नहीं सोएँगे अनामिका !”

 लजा कर अनामिका ने अपनी पलकें झुका लीं। कमरे के झरोखे से आ रही चांदनी के मद्धिम प्रकाश में रुद्र ने अनामिका  को देखा, तो अपलक देखता रह गया। लज्जा से रक्तिम हुआ अनामिका का सुन्दर चेहरा उसे किसी अप्सरा से भी अधिक रूपवती होने का आभास करा रहा था।

सुबह अनामिका  ने बिस्तर से उठना चाहा, तो रुद्र ने उसे अपने निकट खींच लिया। 

“अब तो छोड़ दो रूद्र, सुबह के आठ बज रहे हैं।” -अनामिका  ने मचल कर कहा। 

“मैंने ऑफिस से छुट्टी ली हुई है। अभी मुझ से दूर मत जाओ अनु!” -रूमानी अंदाज़ में रुद्र बोला। 

…और अनामिका फिर से रुद्र के आगोश में समा गई। 

*********


 


टिप्पणियाँ

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" सोमवार 31 जुलाई 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

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  2. त्याग , समर्पण,सच्चे प्रेम के ताने बाने से रची हुई सुंदर और मर्मस्पर्शी कहानी

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    1. ख़ुशी हुई कि मेरी यह कहानी आपको पसंद आई। सराहना के लिए आपका बहुत आभार महोदया!

      हटाएं
  3. वाह बहुत बहुत सुंदर कहानी

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  4. अच्छी कहानी है . ऐसे लोग भी दुनिया में होते हैं . अब यकीन तो नहीं होता लेकिन नहीं होते तो यह कगहानी कैसे बन जाती .

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