(1)
मुश्ताक अली ने कुछ वर्षों की नौकरी से अच्छी बचत राशि एकत्र कर ली थी। अब वह अपनी नौकरी छोड़ कर कोई व्यवसाय शुरू करना चाहते थे। संयोग से उनकी मुलाकात एक व्यावसायिक मेले में वीर प्रताप सिंह नामक एक व्यवसायी से हुई। प्रारम्भिक परिचय, आदि के बाद मुश्ताक अली ने बात ही बात में जाहिर किया कि वह कोई व्यवसाय शुरू करना चाहते हैं और किसी व्यवसाय को सुचारु रूप से चलाने का गुर सीखने के इच्छुक हैं। परिचय की प्रक्रिया में ही वीर प्रताप ने भी उन्हें बताया कि उनका 'नूतन प्लास्टिक इंडस्ट्रीज़' नाम से पाइप-निर्माण का व्यवसाय है और औद्योगिक क्षेत्र स्थित उनकी फ़ैक्ट्री में ही फर्म का ऑफिस है। औपचारिकतावश वीर प्रताप ने उन्हें अपना परिचय कार्ड देकर अपनी फ़ैक्ट्री पर आने का निमंत्रण भी दिया।
अगले ही दिन मुश्ताक अली नूतन प्लास्टिक इंडस्ट्रीज़ के ऑफिस पहुँच गए। कुछ औपचारिक बातों के बाद मुश्ताक अली ने उनकी फ़ैक्ट्री देखने की इच्छा व्यक्त की। वीर प्रताप ने अपने मैनेजर को साथ भेज कर उन्हें अपनी फ़ैक्ट्री विज़िट करवाई।
मुश्ताक अली ने फ़ैक्ट्री से लौटने के बाद वीर प्रताप से उनके व्यवसाय व फ़ैक्ट्री की प्रशंसा करते हुए कहा- "मि. सिंह, बहुत अच्छा लगा आपके यहाँ आकर और आपका बिज़नेस देख कर। बहुत ही अच्छे ढंग से आपने सब-कुछ मैनेज कर रखा है और आपके प्रॉडक्ट्स भी मार्केट में चलने वाले आइटम हैं। अगर आपको नागवार न गुज़रे तो मैं रोज़ एक-दो घंटे आपके यहाँ कुछ सीखने-समझने आना चाहूँगा। आप ठीक समझें तो मेरे लायक कोई काम भी मुझसे ले सकते हैं। पढ़ा-लिखा होने के साथ कुछ मेहनतकश भी हूँ और एक सरकारी विभाग से नौकरी छोड़ कर आया हूँ।"
"क्यों छोड़ी नौकरी आपने और कहाँ काम करते थे?"
"मैं गवर्नमेंट प्रेस में सीनियर टेक्नीशियन था। कुछ अपना करने की चाहत से नौकरी छोड़ दी।" -मुस्कुराते हुए मुश्ताक अली ने जवाब दिया।
"मुझे कोई ऐतराज़ नहीं, आप शौक से आइये, जब भी चाहें।" -वीर प्रताप ने सहमति दे दी।
तब से लगभग रोज़ाना मुश्ताक अली दो-तीन घंटे वीर प्रताप के ऑफिस में आने लगे। वह फर्म के हर काम को बड़े ध्यान से देखते थे। मुश्ताक अली की हर गतिविधि पर वीर प्रताप की पैनी नज़र रहती थी। दस-बारह दिन बाद उनकी रुचि व लगन देख कर वीर प्रताप ने उनके समक्ष अपने व्यवसाय से सम्बंधित कुछ महत्वपूर्ण काम करने व बदले में पारिश्रमिक देने का प्रस्ताव रखा।
"नहीं सिंह साहब, नौकरी करनी होती तो मेरा विभाग ही क्या बुरा था। आप मेरे लायक काम बेशक यूँ ही बताइये, मुझे करने में ख़ुशी होगी। मुझे आपने यहाँ आने की इज़ाज़त दी है, यही क्या कम है। क़ायदे से तो मुझे आपके यहाँ काम सीखने की फ़ीस देनी चाहिए।" -मुस्कुरा कर मुश्ताक अली ने जवाब में कहा।
वीर प्रताप मुश्ताक अली के व्यवहार से बहुत प्रभावित हुए। छिटपुट किसी काम में मदद लेने के अलावा उन्होंने कोई विशेष काम मुश्ताक अली को नहीं बताया।
लगभग दस दिन और गुज़रे और मुश्ताक अली एक दिन वीर प्रताप से रुख़सत लेने आ पहुँचे, बोले- "सिंह साहब, आपने मुझे अपने यहाँ इतने समय तक आने और इल्म हासिल करने में मदद की, इसके लिए बहुत शुक्रिया अदा करता हूँ और अब इज़ाज़त चाहता हूँ।"
"बहुत अच्छा मुश्ताक भाई! आपकी तरक्की के लिए मेरी शुभकामना!... और हाँ, आप जब भी चाहें, निस्संकोच यहाँ आ सकते हैं। किसी भी तरह के सहयोग के लिए मुझे आप कभी भी कह सकते हैं।"
"एक इल्तज़ा है आपसे! अगर आप मुझे इस शहर में आपके ही प्रॉडक्ट्स की बिक्री के रिटेल व्यवसाय का हक दे सकें, तो फिलहाल एक दुकान खोल कर मैं इसी शहर में व्यवसाय करना चाहता हूँ।"
"अरे, क्यों नहीं? आप शौक से ऐसा कर सकते हैं, मुझे ख़ुशी होगी।" -वीर प्रताप ने जवाब दिया।
... और इस तरह मुश्ताक अली ने अपना छोटा-सा व्यापार शुरु किया। अपने इस काम के सिलसिले में सप्ताह में एक बार तो वह वीर प्रताप से मिलने आ ही जाते थे। एक-दो बार वीर प्रताप का भी मुश्ताक अली की दुकान पर जाना हुआ। उनकी छोटी-सी उस दुकान में जिस करीने से सामान रखा हुआ था, देख कर वीर प्रताप प्रभावित हुए और उनकी तारीफ़ किये बिना नहीं रह सके। उन्हें यह जान कर भी अच्छा लगा कि उनके सामान की बिक्री भी अच्छी हो रही है।
कुछ महीनों में ही वीर प्रताप ने आकलन कर लिया कि मुश्ताक अली एक नेक बन्दा ही नहीं, व्यापार-कला में भी निपुण है। अकेले व्यवसाय सम्हालने में आने वाली दिक्कतों के कारण पिछले तीन वर्षों में वीर प्रताप को बहुत घाटा उठाना पड़ा था। उन्हें अपनी फर्म के लिए कुछ अतिरिक्त फण्ड व एक सहयोगी की ज़रुरत थी, सो उन्होंने मुश्ताक अली के समक्ष फर्म का भागीदार बनने का प्रस्ताव रखा। 'अन्धा क्या चाहे, दो आँखें' की तर्ज पर मुश्ताक अली ने प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया। भागीदारी के लिए निर्धारित कुछ पूँजी मुश्ताक अली के द्वारा फर्म में जमा करवाये जाने के बाद उनकी तीस प्रतिशत की हिस्सेदारी तय की जा कर पार्टनरशिप डीड भी तैयार कर ली गई। दोनों ही सक्रिय साझेदार थे, अतः तदनुसार ही ऑफिस में उपस्थिति दे कर नित्य-कार्य का जिम्मा भी दोनों ने बाँट लिया। फर्म का प्रशासनिक कार्य तथा आर्थिक लेखा-जोखा देखने का दायित्व वीर प्रताप के जिम्मे था।
दोनों भागीदार पूरी जिम्मेदारी से काम सम्हाल रहे थे। प्रॉडक्शन में विविधता लाने के चलते व्यवसाय भी विकसित होने लगा था। पी.डब्ल्यू .डी. व विद्युत् विभाग से भी इनकी फर्म का अनुबन्ध हो गया था। अब फर्म के घाटे की भरपाई धीरे-धीरे होने लगी थी।
व्यवसाय के साथ ही दोनों के परिवारों के बीच अच्छा दोस्ताना सम्बन्ध भी बन गया।
मुश्ताक अली का बेटा रहमत व वीर प्रताप सिंह का बेटा आकाश शहर के एक अच्छे स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ते थे और दोनों अच्छे दोस्त भी बन गये थे। स्कूल की दूरी अधिक नहीं होने से दोनों दोस्त अपने घरों से पैदल ही आते-जाते थे। कुशाग्र-बुद्धि दोनों बच्चे सामान्य बच्चों से बहुत अलग थे। पढ़ाई में होशियार होने के साथ ही दोनों खेलों में भी रुचि रखते थे। कैरम व बैडमिण्टन में तो उन्हें महारत हासिल थी। कैरम खेलने आकाश रहमत के घर चला जाता, तो रहमत बैडमिण्टन खेलने आकाश के वहाँ आ जाता। जब तक दोनों साथ खेल नहीं लेते, उनका मन ही नहीं लगता था। पढ़ते तब भी और खेलते तब भी, वह और सब-कुछ भुला देते थे।
...उस दिन से तो रहमत आकाश का मुरीद ही हो गया था। वाक़या तब का है, जब आकाश स्कूल में इण्टरवल के समय अपने एक अन्य दोस्त के साथ बतिया रहा था। तभी एक क्लासफेलो ने उसे सूचना दी कि स्कूल ग्राउण्ड में रहमत को किसी बात पर दो लड़के मिल कर पीट रहे हैं।
(2)
आकाश तुरन्त भाग कर वहाँ पंहुचा और उन लड़कों पर पिल पड़ा। क्रोध में आ कर उसने एक लड़के के मुँह पर ऐसा घूँसा मारा कि उसका एक दांत ही टूट गया। स्कूल के प्रिन्सिपल ने शिकायत मिलने पर न केवल आकाश को जुर्माने से दण्डित किया, अपितु उसके पिता वीर प्रताप को भी स्कूल में बुला कर उसकी इस हरकत की शिकायत की।
घर जाने पर वीर प्रताप ने उसे बहुत डाँटा, लेकिन उसके मासूम तर्क को सुन कर मुस्कुराये बिना नहीं रह सके। आकाश ने कैफ़ियत दी थी- "पापा, जब वह लड़के मेरे दोस्त को छोटी-सी बात पर बुरी तरह मार रहे थे, तो क्या मुझे चुपचाप देखते रहना चाहिए था?
दोनों बच्चों को अपने-अपने घर से पॉकेट मनी मिलती थी। आकाश को साप्ताहिक राशि पचास रुपया और रहमत को तीस रुपया मिलती थी। आकाश को राशि भले ही रहमत से अधिक मिलती थी, किन्तु बिना भेद-भाव दोनों एक-दूसरे के साथ समान रूप से खर्च करते थे। रहमत ने एक बार आकाश से यूँ ही पूछ लिया कि जब उसे ज़्यादा पॉकेट मनी मिलती है तो फिर वह अपनी अतिरिक्त राशि बचा कर क्यों नहीं रखता। रहमत को जवाब में यह सुनने को मिला कि वह दोनों दोस्त हैं और दोस्ती का रिश्ता भाई से भी बढ़ कर होता है और यदि फिर कभी उसने ऐसी बात की तो वह उससे दोस्ती नहीं रखेगा। रहमत ने दुबारा कभी आकाश से इस विषय में बात नहीं की। उनके माता-पिता को भी पता नहीं होता था कि बच्चे पॉकेट मनी को किस तरह खर्च करते हैं। हाँ, वह लोग इस बात का ध्यान अवश्य रखते थे कि बच्चे अपने हाथ-खर्च का दुरुपयोग न करें।
वीर प्रताप व मुश्ताक अली के साथ ही उनकी पत्नियाँ भी दोनों बच्चों में फर्क नहीं करती थीं। ईद के दिन आकाश रहमत के घर सिवइयों का मज़ा लेता, तो दीवाली के दिन आकाश के घर दोनों बच्चे पटाखे चलाते और मिठाइयाँ खाते। कभी-कभी दोनों परिवारों का भी एक-दूसरे के वहाँ आना-जाना हो जाता था।
समय-चक्र के चलते एक वर्ष निकल गया। इसी बीच फर्म के मुनीम गिरधारी लाल किसी गम्भीर बीमारी से ग्रस्त हो गये और उन्हें लम्बे अवकाश पर जाना पड़ा।
बुजुर्ग गिरधारी लाल कार्यकुशल होने के साथ ही बहुत नेक इंसान थे। वीर प्रताप के पिताजी के समय से वह उनकी फर्म का हिसाब-किताब देखते आ रहे थे और उनके प्रति बहुत वफ़ादार थे। उनका बीमार हो जाना फर्म के व्यवसाय के लिए ही तकलीफ़ का कारण नहीं बना, व्यक्तिगत रूप से वीर प्रताप के परिवार के लिए भी अखरने वाला रहा। वह एक तरह से उनके परिवार के सदस्य की तरह थे। वह आकाश को बहुत प्यार करते थे, अतः कई बार उनके घर भी आ जाया करते थे। इस कारण रहमत भी उनसे हिल-मिल गया था।
उनकी अनुपस्थिति में वीर प्रताप ने अपने किसी मित्र के जरिये किशन लाल नामक एक नये मुनीम को काम पर रख लिया।
किशन लाल को फर्म का हिसाब-किताब सम्हालते पाँच माह होने को आये थे। किशन लाल चतुर तो बहुत था, किन्तु काम में उतना होशियार नहीं था, फिर भी जैसे-तैसे फर्म का काम चल रहा था। एक दिन दोपहर में वीर प्रताप व मुश्ताक अली फर्म के ऑफिस में बैठे व्यवसाय-सम्बन्धी कुछ फाइल्स देख रहे थे। तभी किशन लाल ने वहाँ आ कर बताया कि कम्पनी का एक पुराना क्लाइंट, 'कपूर एण्ड सन्स' का मालिक शहर छोड़ कर भाग गया है, जिसमें तीस लाख रुपया बकाया चल रहा है।
किशन लाल ने जाहिर किया- "तीन-चार दिन पहले कपूर & सन्स के मालिक ने बकाया के भुगतान के लिए आज की तारीख को चैक देने का वादा किया था। चैक लेने के लिए मैं 'कपूर एण्ड सन्स' की दूकान पर गया था। उनकी दूकान व गोदाम पर ताला टंगा था। आस-पास के व्यापारियों से जानकारी मिली कि वह दूकान दो दिन से खुली नहीं है। बाजार से मिले समाचार के अनुसार उस क्लाइंट की फर्म का दिवाला निकल गया था, इसलिए अचानक वह शहर छोड़ कर कहीं चला गया है।"
इस सूचना से खिन्न दिखाई दे रहे वीर प्रताप ने मुश्ताक अली को बताया कि सामान्यतः वह क्लाइंट सौदों का भुगतान जल्दी ही कर दिया करता था। पॉंच-सात लाख से अधिक उसका बकाया कभी नहीं रहता था। प्रोडक्शन का काम बढ़ जाने के कारण अभी पिछले छः माह से उस क्लाइंट में चल रही बकाया की जानकारी अलबत्ता उनको नहीं थी।
दोनों भागीदार दो-तीन दिन तक विचार-विमर्श करते रहे। अपने ऑर्डर्स को पूरा करने के लिए फर्म में खरीदारी के लिए पैसे की ज़रुरत थी और अचानक इस विपत्ति ने विघ्न डाल दिया था। फर्म की प्रतिष्ठा का सवाल बन गया था, अतः इस बात पर सहमति बनी कि दोनों पन्द्रह-पन्द्रह लाख रुपये फर्म के खाते में जमा करा दें। मुश्ताक अली ने पन्द्रह लाख रुपया फर्म में जमा करने के लिए वीर प्रताप को सौंप दिया। नुकसान तो हो गया था, किन्तु बात आई-गई हो गई और काम फिर यथावत चलने लगा।... और इस तरह व्यवसाय शनैः शनैः सात-आठ माह में फिर पटरी पर आ गया।
वीर प्रताप की पत्नी संजना धार्मिक स्वाभाव की महिला थी। उसका अधिकांश समय अपने ठाकुर जी, कृष्ण कन्हैया की सेवा-आराधना में ही बीतता था। वह अपने हाल में मस्त रहती थी। फलतः मुनीम किशन लाल की नई ब्याहता, राधा कुछ ही दिनों में मुश्ताक अली की बीवी शगुफ़्ता से अधिक हिलमिल गई। राधा अपने पति किशन लाल के शराब पीने की आदत से परेशान रहा करती थी। शगुफ़्ता से मिल कर उसे बहुत सुकून मिलता था। शगुफ़्ता भी उसके साथ अपनापन व हमदर्दी रखती थी। राधा फर्म के मुनीम की पत्नी थी, इसके बावज़ूद उसके प्रति किसी प्रकार की छोटे-बड़े की भावना शगुफ्ता के मन में नहीं थी। सप्ताह में एक-दो बार तो दोनों का मिलना हो ही जाता था। अक्सर राधा इनके घर आ जाती तो कभी-कभार शगुफ़्ता भी उसके घर चली जाती।
अधिक अनुभवी नहीं होने से किशन लाल का काम दोनों भागीदारों को संतोषजनक नहीं लग रहा था। गाहे-बगाहे वह अग्रिम पैसा भी मांग लिया करता था। कोई अन्य अच्छा मुनीम नहीं मिल पाने से उसे निभाना मजबूरी बनी हुई थी। एक दिन मुश्ताक अली को किसी से सूचना मिली कि गिरधारी लाल अब स्वस्थ हो चले हैं। उन्होंने वीर प्रताप को यह बात बताई व सुझाया कि गिरधारी लाल को वापस क्यों न बुला लिया जाए। वीर प्रताप ने तुरन्त सहमति दे दी।
गिरधारी लाल अपने घर में निपट अकेले थे। उनके कोई संतान नहीं थी और उनकी पत्नी का देहान्त भी तीन साल पहले हो गया था। वह भी यहाँ वापस बुलाये जाने का इन्तज़ार कर रहे थे। वीर प्रताप ने किशन लाल को उसका वेतन व कुछ अतिरिक्त रुपया देकर चलता किया और गिरधारी लाल को वापस काम पर रख लिया।
किशन लाल को फर्म से निकले एक माह हो गया था, लेकिन राधा व शगुफ़्ता के संबंधों में कोई फ़र्क नहीं आया था। आपस में उनका मिलना बदस्तूर जारी था।
एक दिन राधा सुबह ही शगुफ्ता के यहाँ आ गई। वह बहुत उखड़ी-उखड़ी लग रही थी। शगुफ्ता उस समय एक फ़िल्मी गीत गुनगुनाते हुए घर के आँगन में रखे गमलों में पानी दे रही थी।
(3)
"क्या बात है राधा, बहुत परेशान लग रही हो? क्या तुम्हारे किशन कन्हैया ने कल माखन ज़्यादा खा लिया था?" -शगुफ़्ता ने उसे देखते ही पूछ लिया।
"हाँ दीदी, पी तो ज़्यादा ही गए थे कल।... और तो और कल रात पहली बार मुझ पर हाथ भी उठाया।" -शगुफ़्ता के प्रश्न के जवाब में राधा ने रुँधे स्वर में कहा।
"ओह, ऐसा क्या हो गया था?" -चिंतित हो शगुफ़्ता ने पूछा और पौधों की पिलाई बंद कर शगुफ़्ता को भीतर ले आई।
लगभग एक घंटे तक दोनों बातों में मशगूल रहीं।
राधा के जाने के बाद भी शगुफ़्ता की मनःस्थिति सामान्य नहीं हो पाई। दोपहर में मुश्ताक अली के घर लौटने पर उनसे बात करने के बाद ही उसके मन का आफरा मिटा। शगुफ़्ता से बातचीत के बाद मुश्ताक अली भी कुछ विचलित ज़रूर हुए, लेकिन वीर प्रताप आज ऑफिस नहीं आये थे, अतः लंच लेकर जल्दी ही वापस ऑफिस के लिए निकल गये।
मुश्ताक अली के जाने के बाद शगुफ़्ता अपने कमरे में जा कर बिस्तर पर लेट गई। कुछ देर सोचते रहने के बाद उसे नींद आ गई। उसकी नींद तब खुली जब बाहर बरामदे से बच्चों के बोलने की आवाज़ आई। समझ गई वह कि आकाश आया हुआ है। सो कर उठते ही उसे चाय की तलब लगती थी, सो बाहर निकल कर किचन की ओर आई। रहमत आकाश के साथ कैरम खेल रहा था। उसने बच्चों से चाय के लिए पूछा और उनके 'हाँ' कहने पर चाय बनाने में जुट गई। चाय के साथ शगुफ़्ता एक प्लेट में बिस्किट भी लेती आई। तीनों ने बरामदे में बैठ कर चाय पी।
चाय पीते-पीते आकाश ने चहकते हुए कहा- "आंटी, आज तो तीनों गेम मैंने जीते हैं।"
"अरे तो क्या हुआ? कल दो गेम मैं जीता था।" -अंगूठा दिखाते हुए रहमत बोला।
"अच्छा भई अच्छा, तुम दोनों ही नम्बर एक खिलाड़ी हो। चलो रहमत, अब तुम अपना होमवर्क पूरा कर लो और आकाश बेटा, तुम भी अब घर जाओ और पढाई करो।" -मुस्करा कर शगुफ़्ता ने प्यार से दोनों को समझाया।
आकाश ने हाथ हिला कर विदा ली और अपने घर चला गया।
अगले दिन शनिवार को दोनों बच्चे पढाई के बाद स्कूल से निकले तो आकाश रहमत को अपने घर ले आया। आकाश के आग्रह पर संजना ने शगुफ़्ता को फोन किया- "शगुफ़्ता जी, रहमत आज आकाश के साथ ही लंच करेगा और उसके बाद दोनों यहीं बैठ कर होमवर्क कर लेंगे। शाम को बैडमिण्टन खेलने के बाद रहमत घर आ जायगा। ठीक है न!"
शगुफ़्ता ने हँसते हुए स्वीकृति दे दी।
"थैंक यू मम्मी!" -आकाश ने कहा और दोनों बच्चे अपने स्कूल बैग एक तरफ रख कर गप्पों में मशगूल हो गए।
तीन-चार दिन से वीर प्रताप व मुश्ताक अली दोनों बहुत व्यस्त थे। आज गुरुवार था और एक बड़े ऑर्डर के तहत माल की सप्लाई की जानी थी। दोनों ने सुबह से कर्मचारियों को काम पर लगा रखा था और उन्हें आवश्यक हिदायतें दे रहे थे। फ़ैक्ट्री से लंच के लिए भी वह लोग अपने घर नहीं जा पाए थे। डेढ़ बजे के आस-पास दोनों ऑफिस में बैठे बाहर से मंगवाया नाश्ता कर रहे थे कि वीर प्रताप का मोबाइल घनघनाया। उन्होंने फोन उठाया। संजना का फोन था। उसकी बात सुन कर वीर प्रताप ने जवाब दिया- "अरे, तो इतना घबरा क्यों रही हो? आधा घंटा ही तो ऊपर हुआ है, आ जायेगा। फ़िज़ूल ही परेशान हो रही हो।" -कह कर उन्होंने फोन बंद कर दिया।
"क्या हुआ प्रताप भाई?" -मुश्ताक ने पूछा।
"अरे कोई खास बात नहीं। यह औरतें भी न, कुछ जल्दी ही घबरा जाती हैं। कह रही थीं, आकाश स्कूल से नहीं आया अभी तक। मैंने समझा दिया है, आ जायेगा। एक काम करो न मुश्ताक भाई! अपने घर पर फोन कर के पूछ लो, रहमत आया है या नहीं। हो सकता है दोनों साथ ही हों।"
मुश्ताक अली ने घर पर फोन लगाया और शगुफ़्ता से बात करने के बाद बताया- "रहमत तो घर आ गया है। वह बता रहा है कि स्कूल से तो हमेशा की तरह दोनों साथ-साथ निकले थे, वह अपनी गली की तरफ मुड़ गया था और आकाश सीधा अपने घर के रास्ते पर चला गया था।
अब तो वीर प्रताप भी घबराये। मुश्ताक अली पर फ़ैक्ट्री का काम छोड़ कर कार से सीधे आकाश के स्कूल गये। वहाँ पता चला कि एक घंटा पहले ही सभी बच्चे अपने-अपने घर चले गए हैं। घर पर फ़ोन किया तो रोते हुए संजना ने बताया कि बच्चा अभी तक नहीं आया है। वीर प्रताप ने आस-पास की गलियों व चौराहों के चक्कर लगा कर देखा, कहीं आकाश नज़र नहीं आया। थक-हार कर घर लौटे। संजना दरवाजे पर खड़ी मिली। रोते-सिसकते वह बोली- "ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ। वह तो हमेशा समय से घर आ जाता है।"
वीर प्रताप संजना को ले कर भीतर आये। वह उसे तो समझा रहे थे, तसल्ली दे रहे थे, किन्तु स्वयं मन ही मन बहुत उद्विग्न थे। दस मिनट बाद वह उठे और बोले- "हमें पुलिस में रिपोर्ट करनी होगी संजना! आकाश का कोई और दोस्त ऐसा है ही नहीं, जिसके साथ वह कहीं रुक जाए।"
वह घर से निकल ही रहे थे कि मुश्ताक अली का फोन आया- "मिला आकाश? घर आया या नहीं?"
"नहीं अभी तक तो नहीं मिला है।"
"मैं आता हूँ अभी प्रताप भाई।"
"नहीं, नहीं, अभी आप वहाँ का काम देखो। मैं यहाँ सम्हाल रहा हूँ।" -वीर प्रताप ने जवाब दिया और संजना को दिलासा दे कर बाहर निकल गये।
वीर प्रताप सीधे पुलिस स्टेशन पहुँचे और आकाश के गुम होने की रिपोर्ट दर्ज़ कराई। थानेदार ने उन्हें आश्वस्त किया कि बच्चे को जल्द ही ढूंढ़ निकालेंगे। वीर प्रताप ने मुश्ताक अली को फोन किया और कहा कि आज वह वापस ऑफिस नहीं आ सकेंगे, घर पर ही रहेंगे। मुश्ताक अली ने जवाब में कहा- "आप यहाँ की बिलकुल चिंता न करें। माल के लदान का काम ख़त्म होने को है।"
फ़ैक्ट्री का काम ख़त्म होने पर मुश्ताक अली वीर प्रताप के घर आये। उन्होंने वीर प्रताप से बात करने के बाद संजना को भी दिलासा दिया- "भाभी जान, जल्द ही मिल जायगा आकाश, आप फ़िक्र न करें। हम लोग पूरी कोशिश करेंगे। आप भरोसा रखें, अल्लाह सब अच्छा करेंगे।"
लगभग आधा घंटा वहाँ रुकने के बाद मुश्ताक अली लौट गये।
(4)
वीर प्रताप और संजना आकाश के गुम हो जाने से बेहाल हो रहे थे। मन ही मन मना रहे थे कि वह जहाँ भी हो, सुरक्षित रहे और शीघ्र ही घर आ आए। शाम हुई, रात भी हो गई, लेकिन आकाश का कुछ भी पता नहीं चला। बीच-बीच में वीर प्रताप घर से निकल कर इधर-उधर सड़कों पर चक्कर भी लगा आते थे, किन्तु नतीजा शून्य ही रहा।
दोनों पति-पत्नी रात भर सो नहीं सके, बमुश्किल एकाध घंटा ही आँख लगी होगी उनकी। बीच-बीच में संजना बिस्तर से उठ कर अपने ठाकुर जी के पास जाती और रोते-रोते आकाश की कुशलता के लिए प्रार्थना करती। सुबह हुई, नौ बज गए, तब तक भी आकाश नहीं आया। कोई भी समस्या या अनहोनी पेश आए, मनुष्य को अपने दैनिक कार्य तो मन मसोस कर करने ही होते हैं। कल का काम देखना आवश्यक था, सो वीर प्रताप नहीं चाहते हुए भी ऑफिस के लिए तैयार हुए। संजना ने प्रातः कर्म से निवृत हो कर अनमने मन से ही खाना बना कर पति को खिलाया। खाना खाकर वीर प्रताप ने गेराज से अपनी कार निकाली और ऑफिस के लिए निकल गये। संजना ने स्वयं के लिए भी खाना लगाया, लेकिन एक कौर जैसे-तैसे निगला और उठ खड़ी हुई। जब कलेजे के टुकड़े का कहीं पता नहीं चल रहा था, तो माँ के गले से निवाला उतरता भी तो कैसे? वह फिर अपने एक मात्र सहारा, ठाकुर जी के पास जा कर बैठ गई। वह अपने लाल के लिए प्रार्थना कर रही थी। उसकी आँखों से आँसू झर-झर बह रहे थे।
उधर रहमत भी आकाश की गुमशुदगी के बारे में जान कर पिछली रात बहुत रोया था और आज भी सुबह उठा, तब से गुमसुम था। वह स्कूल गया, तो केवल इसलिए कि शायद आकाश की कोई खबर मिल जाए। उसने अपने सभी साथियों से किसी पुलिस वाले की तरह पूछताछ की, किन्तु मायूसी ही उसके हाथ लगी। पढाई में उसका मन बिल्कुल नहीं लगा। क्लास में पढाई के बीच खोया-खोया दिखाई दिये जाने से उसे शिक्षकों से डाँट भी खानी पड़ी। छुट्टी होने पर उतरा चेहरा लिए वह घर लौटा।
आकाश से जुदाई के कारण रहमत के मन में उदासी ने घर कर लिया था। उसके चेहरे से मुस्कान गायब हो गई थी। उसने अपने अम्मी व अब्बा, दोनों के समक्ष अपना शुबहा भी जाहिर किया कि कहीं आकाश को किसी शख़्स ने अगवा तो नहीं कर लिया है। उस मासूम के दिमाग़ में यह सवाल कौंधा भले ही था, किन्तु उसे इसका कोई माकूल जवाब मिलता भी तो कैसे?
आकाश की गुमशुदगी को तीन दिन हो गये थे। वीर प्रताप ने अपने रसूख का इस्तेमाल कर इलाके के पुलिस अधीक्षक से भी संपर्क किया। पुलिस अधीक्षक ने शीघ्र प्रयास का आश्वासन दिया, लेकिन चौतरफा कोशिशें भी अब तक कोई परिणाम नहीं दे सकी थीं। पुलिस ने गिरधारी लाल, किशन लाल व मुश्ताक अली से भी पूछताछ की, लेकिन नतीजा शून्य ही रहा।
कोई भी तीसरा आदमी इन दिनों रहमत का चेहरा देखता तो समझ सकता था कि शायद आकाश के माता-पिता से भी अधिक गमगीनी उसके चेहरे पर है। न तो वह ढंग से खाना खाता था, न ही पढ़ पाता था, खेलने-कूदने की बात तो दूर की कौड़ी थी। दिन में कई बार वह अपने अम्मी-अब्बा से पूछता कि आकाश अब कैसे और कहाँ मिलेगा। तसल्ली का कोई शब्द उसके गमज़दा मन को सुकून नहीं दे पाता था। शगुफ़्ता समझ नहीं पा रही थी कि कैसे रहमत को बहलाए, समझाए। रहमत अपने अम्मी-अब्बा के कमरे के पास वाले कमरे में सोता था। उसे देर रात तक नींद नहीं आती थी। उसे कभी-कभी अम्मी-अब्बा की बातें सुनाई दे जाती थीं। वह अक्सर रहमत की मनःस्थिति के बारे में बातें करते व चिन्ता करते थे।
वीर प्रताप व मुश्ताक अली, दोनों के परिवार पिछले तीन दिनों से वैसे ही परेशान थे कि उनकी परेशानी बढ़ाने के लिए एक और घटना घट गई। उस दिन रहमत स्कूल से घर नहीं आया। शगुफ़्ता तो रोते-रोते बेहोश हो गई। दोनों परिवार हैरान थे कि यह हो क्या रहा है? शाम तक रहमत घर नहीं आया और हर जगह ढूँढ़ने के बावज़ूद वह नहीं मिला तो मुश्ताक अली ने वीर प्रताप के साथ थाने में जाकर रिपोर्ट लिखवाई। वीर प्रताप की थानेदार से ज़ोरदार बहस भी हो गई थी कि एक बच्चा तो अब तक नहीं मिला और दूसरा और गायब हो गया है, आखिर पुलिस कर क्या रही है।
दूसरे दिन सुबह शगुफ़्ता संजना के घर आई। संजना इस समय अपने बरामदे में ही खड़ी थी। शगुफ़्ता उसे देखते ही बिलखते हुए बोली- "बहना, यह क्या हो रहा है? पहले आकाश गायब हो गया और अब रहमत! अल्लाह कैसा कहर बरपा कर रहा है हम लोगों पर! क्या करें हम, कहाँ ढूंढें उन्हें? आप कुछ करती क्यों नहीं?"
संजना क्या जवाब देती? वह तो स्वयं अपने दिल पर पत्थर रखे बैठी थी, बोली- "जिसकी खुद की झोली खाली हो, वह दूसरे के दामन में क्या डाले शगुफ़्ता जी? रोते -रोते मेरे तो आंसू भी सूख चले हैं। एक ज़िन्दा लाश बन गई हूँ मैं। रोज़ इस बरामदे में आकर खड़ी-खड़ी बाट जोहती हूँ अपने आकाश की। पता नहीं कौन राक्षस उठा ले गया है मेरे लाल को? सत्यानाश होगा उसका तो, नामलेवा नहीं रहेगा उसका कोई। बस अब तो मुझे मेरे कृष्ण का ही आसरा है। वही लाएगा हमारे बच्चों को। जाने क्या गुज़र रही होगी उन नन्हे मासूमों पर?", कहते-कहते संजना की आँखें भर आईं। उसकी नज़रें आसमान की ओर उठ गईं।
शगुफ़्ता उसकी बात सुन कर और मायूस हो गई। बिना और कुछ कहे लौट आई वहाँ से।
एक दिन और निकल गया। शहर से दो-दो बच्चे गायब हो गये और पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी है, इस आक्षेप से
अख़बारों के पन्ने रंगे जा रहे थे। पुलिस भी समझ नहीं पा रही थी कि आखिर माज़रा क्या है। बच्चों को ज़मीन खा गई या आसमान निगल गया? पुलिस अधीक्षक के निर्देश पर थानेदार शहर के आठ-दस घोषित अपराधियों की धर-पकड़ कर पुलिसियाना तरीके से पूछताछ भी करवा चुका था, लेकिन कुछ भी पता नहीं लग सका था।
वीर प्रताप व मुश्ताक अली का मन व्यवसाय में बिलकुल नहीं लग रहा था। सारा काम फर्म के मैनेजर के हवाले किया हुआ था।
(5)
रहमत के गायब होने के तीसरे दिन सुबह पाँच बजे रहस्यमयी ढंग से आकाश घर लौट आया। संजना तो संजना, वीर प्रताप भी बेटे को अपने आगोश में ले ख़ुशी से भावविह्वल हो उठे। लगभग आठ बजे मुश्ताक अली को फोन पर यह खुशखबरी सुनाई तो उन्होंने भी खुशखबरी दी- "मुबारक हो प्रताप भाई, एक खुशखबरी और भी, रहमत को भी अगवा करने वालों ने आज़ाद कर दिया है। हम उसे लेकर अभी घर पहुँचे ही हैं। ताज़्ज़ुब है कि दोनों बच्चे अगवा हुए और सलामती के साथ लौट भी आये, खुदा की बड़ी मेहर है।"
दोनों परिवारों के लिए यह एक सुखद आश्चर्य था। दोनों ने पुलिस को सूचना दे दी कि बच्चे घर आ गए हैं। रहमत उसी दिन आकाश से मिलने आया। दोनों दोस्त एक-दूसरे को देखते ही गले लिपट कर रो पड़े। मन हल्का होने पर दोनों लॉन में बैठ कर बहुत देर तक बातें करते रहे। लगभग एक-डेढ़ घण्टे बाद रहमत वहाँ से अपने घर लौट गया।
वीर प्रताप सिंह के यहाँ छः दिन बाद आज ऐसा मौका आया था, जब सब ने साथ बैठ कर लंच लिया। आकाश से उसकी गुमशुदगी के बारे में पूछा तो उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी अन्यमनस्कता देख उस समय दोनों ने उससे दुबारा कुछ पूछना उचित नहीं समझा। खाना खाकर आकाश सो गया।
शाम को आकाश के जागने से पहले ही दो पुलिस वाले आ गये। आकाश को बुलवा कर पुलिस ने उससे पूछताछ की।
पुलिस- "तुम कहाँ थे इतने दिन? क्या तुम्हें कोई उठा कर ले गया था?"
"उस दिन जब मैं स्कूल से घर आ रहा था तो अचानक एक कार मेरे पास आकर रुकी। कार से उतर कर एक आदमी ने मेरे नाक पर रुमाल रखा। इसके बाद शायद मैं बेहोश हो गया था। जब होश में आया तो एक बंद कमरे में एक बिस्तर पर पड़ा था। मेरे हाथ-पाँव बंधे हुए थे।"
"उस कमरे में तुम कब तक रहे?"
"मुझे नहीं पता। उस कमरे में कोई खिड़की भी नहीं थी।"
"तुम्हें खाना कौन देता था?"
"एक आदमी नकाब पहन कर मेरे कमरे में खाना देने आता था। खाना खाते वक्त वह मेरे हाथ खोल देता था।"
"क्या तुम्हें हमेशा बांध कर ही रखा जाता था?"
"दो दिन के बाद मेरे हाथ-पैर खोल दिये थे। मैं चिल्लाया तो उसने मुझे थप्पड़ मार कर कहा कि चिल्लाने से कोई फायदा नहीं है, क्योंकि दूर-दूर तक कोई मेरी आवाज़ सुनने वाला नहीं है। उसके जाने के बाद भी मैं कई बार चिल्लाया, पर कोई भी नहीं आया।"
"तुम्हें मारता-पीटता तो नहीं था कोई?"
"नहीं, बस एक बार ही थप्पड़ मारा था। उसके बाद से तो वह अच्छी तरह बोला करता था। खाना भी रोज टाइम से ले आता था।"
"तुम नहाना-धोना कैसे करते थे?"
"फ्रेश होने के लिए एक टॉयलेट कमरे में ही था। नहाया तो आज यहाँ आने के बाद ही।"
"तुम उसके चंगुल से बच कर कैसे आए?"
"आज सुबह वही आदमी आया और कहा कि वह मुझे छोड़ रहा है। उसने मुझे बिल्कुल खामोश रहने को कहा व मेरी आँखों पर पट्टी बाँध कर बाहर लाया। एक कार में बिठाया और करीब आधा घंटा गाड़ी चलाने के बाद मेरी आँखों की पट्टी थोड़ी ढ़ीली कर के मेरे स्कूल के पास उतार कर तुरंत कार में बैठ कर रवाना हो गया।"
"तुमने उस कार का नंबर देखा?"
"नहीं, मैंने आखों से पट्टी हटाई, तब तक कार दूर निकल गई थी।"
"तुम्हें कुछ अंदाजा है, वह कमरा जिसमें तुम्हें रखा गया था, यहाँ से किस तरफ और कितनी दूर होगा?"
"नहीं, मुझे कुछ भी अंदाजा नहीं है।"
आकाश ने अपनी उम्र के हिसाब से बहुत ही संतुलित जवाब दिये थे।
पुलिस वालों को इतनी पूछताछ के बाद भी कोई विशेष क्लू नहीं मिला। निराश हो कर वह लौट गये। पुलिस ने रहमत के वहाँ जाकर भी पूछताछ की, किन्तु वहाँ से भी कोई उपयोगी जानकारी हासिल नहीं हो सकी।
पुलिस के जाने के बाद संजना किचन में खाना बनाने चली गई और वीर प्रताप आकाश के साथ सामान्य बातचीत करते रहे। पुलिस ने हर तरह से पूछताछ कर ली थी, सो और कुछ पूछा जा सके, ऐसा कुछ सूझा भी नहीं उन्हें। डिनर के एक घंटे बाद बाद आकाश ने सोने की इच्छा व्यक्त की। तब तक आकाश लगभग खामोश ही रहा। वीर प्रताप ने अलग से संजना को हिदायत दे दी थी कि आज और कोई बात आकाश से उसकी गुमशुदगी के बारे में न की जाए। आकाश के सो जाने के बाद टीवी देखते-देखते वीर प्रताप ने पत्नी से फिर कहा कि अभी दो-एक दिन, जब तक आकाश तनावमुक्त न हो जाए, उससे उसकी रुचि की बात के अलावा और कोई बात न करना ही ठीक रहेगा।
अगले दिन भी आकाश दिन भर गुमसुम रहा और पूछे जाने पर उसने कह दिया कि सिरदर्द होने से अभी वह अधिक बात करना नहीं चाहेगा। वीर प्रताप टिफ़िन लेकर अपने ऑफिस के लिए निकल गये। अधिकांश समय आकाश अपने कमरे में लॉन की ओर खुलने वाली खिड़की के पास बैठा पुरानी कॉमिक्स की किताबों में मन लगाने की कोशिश करता रहा। बहुत आवश्यक होने पर ही उसने यदा-कदा अपनी मम्मी से बात की।
कोई नहीं जानता था कि सब को हतप्रभ करने वाली एक बात और होने को है।
आकाश के घर लौटने के तीसरे दिन वीर प्रताप सिंह अपने ऑफिस गये हुए थे। इधर घर पर लंच के बाद संजना व आकाश सो रहे थे। घंटे-डेढ़ घंटे की नींद लेकर संजना जागी तो आकाश बिस्तर पर नहीं था। संजना ने पूरा घर छान मारा, आकाश कहीं नहीं था। उसने स्वयं ने दो दिन के लिए स्कूल जाने से मना कर दिया था, अतः उसके घर से बाहर कहीं जाने की कोई सम्भावना ही नहीं थी। "अक्कू! अक्कू! कहाँ है बेटा तू?" -बेटे को पुकारते वह एक ही जगह पर बार-बार जा कर देख रही थी, ठीक वैसे ही जैसे चाबी नहीं मिलने पर इन्सान दो-दो, तीन-तीन बार अपनी जेबें टटोलता है। परेशान हो उठी संजना, 'कहाँ गया होगा वह?'
थक-हार कर उसने वीर प्रताप को कॉल लगाया। वीर प्रताप भी चौंके कि आखिर गया कहाँ आकाश?मुश्ताक अली आज ऑफिस नहीं आये थे, सो मैनेजर को बता कर वह तुरंत घर के लिए रवाना हो गये। घर आते समय उनकी नज़र चारों ओर इस तरह घूम रही थी, जैसे आकाश कहीं राह में ही दिखाई दे जाएगा।
(6)
वीर प्रताप घर आये तो संजना ने देखा, उन्होंने टिफ़िन खाया ही नहीं था। कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि फ़ैक्ट्री में काम ज़्यादा था, इसलिए अकेले होने के कारण खाना खाने का समय ही नहीं मिला। संजना बोली- "मैं फुल्के बना देती हूँ, आप हाथ-मुँह धो लो।"
वीर प्रताप ने कहा- "मेरा खाने का मन नहीं कर रहा, अब शाम को ही खाऊँगा।"
शाम तक प्रतीक्षा करने के बाद संजना ने वीर प्रताप से कहा- "आप थाने में एक बार फिर रिपोर्ट दर्ज करा आइये न कि आकाश फिर घर से गायब हो गया है।"
"पहले भी कराई थी रिपोर्ट, क्या निहाल किया पुलिस वालों ने? निकम्मे हैं यह लोग।"
"तो फिर क्या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें हम?"
"जाता हूँ बाबा, कुछ तो करना ही पड़ेगा। मेरा तो दिमाग़ ही चकरघिन्नी हो गया है। कुछ भी नहीं सूझ रहा।" -बाहर निकलते हुए वीर प्रताप ने कहा।
वीर प्रताप से दुबारा यह शिकायत सुन कर थानेदार ने तो अपना माथा ही ठोक लिया, बोला- "लगता है, आपके बच्चे तो हमें नौकरी से निकलवा कर ही मानेंगे। यह क्या बात हुई भला कि पहले एक गायब हुआ और फिर दूसरा। फिर दोनों लौट आये और पहला दुबारा गायब हो गया। अब क्या दूसरा वाला भी दुबारा गायब होगा?"
"थानेदार साहब, हमारे बच्चे लापता हैं और आपको ठिठोली सूझ रही है।"
"अरे नहीं दादा, ठिठोली काहे की! हमारी तो जान सांसत में है। अफसरों की फटकार सुनो और मीडिया वालों की बकवास भी बर्दाश्त करो। आप लोगों की तो एक परेशानी होती है और हम तो दिन में पचासों मामलों में उलझे रहते हैं। चलो, फिर शुरू करते हैं तलाशी अभियान! आप चिंता ना करो जी।"
'आप चिंता ना करो जी', थानेदार द्वारा कहे शब्दों को मन ही मन दोहराते, बड़बड़ाते वीर प्रताप थाने से बाहर निकले।
घर पहुँचे, तो संजना बरामदे में विचारमग्न खड़ी मिली। उसका चेहरा दूसरी तरफ था। आहट सुन, चौंक कर पलटी- "अरे, आप आ गये? रिपोर्ट लिखवा दी न ?"
"हम्म", कह कर वीर प्रताप बरामदे में ही कुर्सी पर धम्म-से बैठ गये।
"परेशान मत होओ, मेरा मन कहता है, वह सुरक्षित ही होगा।"
"तुम मुझे ढाढ़स बंधाओ और मैं तुम्हें, इसके अलावा हम और कर ही क्या सकते हैं संजना?" -वीर प्रताप का स्वर उखड़ा हुआ था। बोझिल क़दमों से संजना भीतर चली गई।
वीर प्रताप अख़बार सुबह पढ़ चुके थे, लेकिन फिर भी टेबल से अखबार उठा कर उस पर निरर्थक ही निगाहें घुमाते रहे। सूर्य अस्ताचल के पीछे छिप जाने को उद्यत था, उजाला शनैः शनैः कम हो रहा था। वीर प्रताप का सिर भारी हो चला था, उन्होंने अखबार टेबल पर रख कर संजना को आवाज़ दी- "सुनती हो, एक कप चाय बना दो।"
"चाय? अब तो थोड़ी देर में डिनर का टाइम होने वाला है। आपने सुबह से खाना भी तो नहीं खाया।" -भीतर से पानी का गिलास ले कर आ रही संजना ने कहा।
"पता है मुझे, चाय नहीं बनानी, तो मत बनाओ। मुझे नहीं करना डिनर-विनर।" -झुंझला कर कुछ तेज स्वर में बोले वीर प्रताप।
संजना ने कोई जवाब नहीं दिया। वह उनकी मनःस्थिति समझ रही थी। वह किचन में गई और चाय बना कर ले आई।
ट्रे में एक कप ही देखा तो वीर प्रताप स्वर में तरलता ला कर बोले- "केवल मेरे लिए लाई हो? शायद नाराज़ हो गई तुम! क्षमा कर दो संजू मुझे। मन बहुत उद्विग्न हो रहा था, तो बोलने में कुछ कटुता आ गई थी।"
"नहीं जी, समझ सकती हूँ। मेरा मन क्या अशांत नहीं हो रहा? मेरी चाय पीने की इच्छा नहीं है अभी, आप ले लीजिये। तब तक मैं खाना बना लेती हूँ। खाने का मन तो मेरा भी नहीं कर रहा, पर आपने सुबह से नहीं खाया है, तो थोड़ा बहुत तो आपको खाना ही पड़ेगा।" -संजना ने संयत स्वर में कहा और चाय का कप वीर प्रताप के सामने टेबल पर रख कर भीतर चली गई।
दो दिन निकल गये। आकाश का कुछ पता नहीं चला था। शाम के साढ़े छः बज रहे थे। वीर प्रताप और संजना अपने घर के लॉन में लॉन-चेयर्स पर भावविहीन बैठे थे। पौधों को अपनी स्वर्णिम लालिमा से आवृत करती ढ़लते सूरज की रक्तिम किरणें वातावरण को खुशनुमा बना रही थीं। रातरानी के पुष्प अपनी मादक खुशबू बिखेरने को रात्रि-प्रहर के लिए प्रतीक्षा-रत थे। और कोई सामान्य दिन होता, सामान्य परिस्थितियाँ होतीं, तो शायद वीर प्रताप संजना से उसकी मधुर आवाज़ में कोई गीत सुनाने का अनुरोध कर रहे होते, किन्तु इस समय वह अपने हाथ में चाय का कप थामे कभी शून्य में तो कभी पल भर के लिए संजना की ओर देख लेते थे। संजना आँखे बंद किये सिर झुकाये निश्चल बैठी थी।
रात का अँधेरा गहराने लगा था। दोनों उठ कर भीतर जाने का उपक्रम कर ही रहे थे कि वीर प्रताप का मोबाइल बज उठा।
"हैलो!" -आशंकित स्वर में वीर प्रताप बोले। अपना कोई प्रिय हमारे निकट नहीं हो और हम बेसब्री से उसकी तीव्र प्रतीक्षा कर रहे हों, उस समय कोई फोन आ जाए तो अनहोनी का ख़याल पहले आता है।
"सेठ वीर प्रताप जी, अगर अपने बेटे की सलामती चाहते हो, तो बीस लाख रुपये ले कर सीमर घाट पुलिया के पास कल रात आठ बजे आ जाओ।... अकेले आना... और हाँ, बच्चे को ज़िन्दा देखना चाहते हो तो पुलिस को ख़बर करने की सोचना भी मत।"
"लेकिन तुम हो कौन और मेरा बेटा कहाँ है?" -कांपती आवाज़ में वीर प्रताप ने पूछा।
"तुम्हें इससे कोई मतलब नहीं होना चाहिए कि हम कौन हैं। लो बात करो अपने बेटे से।... 'पापा, मुझे बचा लो। इनको रुपये दे दो। यह लोग बहुत ख़राब हैं, मुझे जान से..." -रोता हुआ आकाश बात पूरी नहीं कर पाया क्योंकि फोन शायद उससे ले लिया गया था।
"हेलो, हेलो!" -वीर प्रताप के हाथ से मोबाइल लगभग छीनते हुए संजना चिल्लाई, लेकिन उधर से फोन काट दिया गया। वीर प्रताप ने फोन पर हुई बात संजना को बताई।
सुबक-सुबक कर रोने लगी संजना। वीर प्रताप उसका हाथ थाम कर भीतर ले गये। संजना सोफे पर लगभग गिर पड़ी।
"तुम चिंता मत करो। मैं पुलिस को फोन करता हूँ। बदमाश मुझे धमकी देता है कि पुलिस को फोन मत करना। देखता हूँ उसे।" -वीर प्रताप ने संजना को तसल्ली देते हुए कहा।
"नहीं-नहीं, पुलिस को फोन मत करना। आपको मेरी कसम है, अक्कू की कसम है। पता नहीं, वह लोग मेरे बच्चे के साथ कैसा सलूक करेंगे। कहीं वह उसको... " -कहते-कहते संजना भयाक्रांत हो उठी। कई तरह के बुरे विचार उसके मन में उठने लगे।
"जैसा वह कहते हैं, वही करो। बस मेरे बच्चे को ले आओ।" -कातर स्वर में पुनः वह बोली।
(7)
वीर प्रताप पत्नी के सामने बैठ गये व उस बदमाश के प्रस्ताव पर मनन करने लगे। सवाल बेटे की ज़िन्दगी का था, सो वह कोई रिस्क नहीं ले सकते थे। उन्होंने निश्चय कर लिया कि वह रुपया ले कर जायेंगे।
अगले दिन वह निर्धारित स्थान, सीमर घाट पुलिया पर अटेची में रुपये ले कर आठ बजे के पहले ही पहुँच गये। इस स्थान पर रात के वक्त लोगों की आवक नहीं के बराबर रहती थी, अतः पूरी तरह से सुनसान था वहाँ। कार से उतरने के बाद उन्हें कुछ ही देर इन्तज़ार करना पड़ा। एक काली कार वहाँ आई और उसमें से एक नकाबपोश बाहर निकला। उसके हाथ में चाकू था। उसने इशारे से अटेची मांगी।
"पहले मुझे मेरा बेटा सौंप दो। इसके बाद ही रुपया दूँगा।"
"बहुत जिगर वाले हो सेठ! चाकू से भी नहीं डरते? खैर, रुपया दो और ले जाओ अपने बेटे को।" -वह आदमी आकाश को कार से बाहर ले कर आया।
आकाश लपक कर वीर प्रताप के पास आ गया। वीर प्रताप ने उसका हाथ थामा और अटेची उसे पकड़ा दी। वह व्यक्ति अटेची ले कर कार में बैठा और वहाँ से चल दिया। अब वीर प्रताप ने आकाश को अपनी बाँहों में भर लिया। स्नेहातिरेक से उबरने के बाद वह बेटे को ले कर कार में बैठे और घर की और रवाना हुए।
बेसब्री से इंतज़ार कर रही संजना उनके घर पर आकर कार से उतरते ही आकाश को बेतहाशा चूमने लगी। उसके नयनों से स्रावित हो रहे प्रेमाश्रु आकाश के मुख को भिगो रहे थे और आकाश भी अपनी माँ से लिपटा हुआ अनिवर्चनीय सुख प्राप्त कर रहा था।
वीर प्रताप माँ-बेटे का यह मिलन मुग्ध भाव से निरख आनन्दित हो रहे थे।
ख़ुशी के इन लम्हों के गुज़रने के बाद अगले दिन वीर प्रताप लिविंग प्लेस में बैठे विचार कर रहे थे।
दो-दो बार आकाश का अपहरण होना उनकी समझ के बाहर था। उनका मन प्रश्न कर रहा था, 'क्या दोनों बार का अपहरणकर्ता एक ही व्यक्ति था या पृथक-पृथक थे? यदि एक ही व्यक्ति था, तो वह प्रथम बार में ही फिरौती मांग सकता था। नहीं, शायद दोनों बार अलग व्यक्ति थे।' उन्होंने सोच लिया कि आकाश तो आ ही चुका है, अब वह इस गुत्थी को सुलझाने व अपना रुपया वापस पाने के लिए पुलिस की मदद अवश्य लेंगे।
परिवार में जश्न का माहौल था। अगले दिन रविवार था, सो फ़ैक्ट्री में अवकाश था। वीर प्रताप ने मुश्ताक अली के परिवार को व गिरधारी लाल को भी अपनी ख़ुशी में शामिल करने के लिए अगले दिन शाम का निमंत्रण दिया।
मुश्ताक अली बीवी शगुफ़्ता व रहमत के साथ समय से कुछ पहले ही वीर प्रताप के घर आ गए। कुछ ही देर में गिरधारी लाल भी आ पहुँचे। स्वागत-अभिवादन के बाद चाय-नाश्ते का एक दौर चला। चाय ख़त्म होने के बाद मुश्ताक अली ने रहमत को कुछ इशारा किया। रहमत उठ कर बाहर गया। जब वह वापस लौटा तो वीर प्रताप व संजना बुरी तरह से चौंक पड़े, आँखें फ़ैल गई उनकी। रहमत के हाथ में वही अटेची थी जो वीर प्रताप ने अपहरणकर्ता को दी थी। दोनों ने अचरज भरी निगाह से मुश्ताक अली की तरफ देखा। आकाश भी आश्चर्य से कभी रहमत को तो कभी मुश्ताक अंकल को देख रहा था।
अब तक शान्त बैठे मुश्ताक अली का चेहरा कुछ गम्भीर हो गया। टेबल पर रखे गिलास से पानी का घूँट हलक से उतार कर वह वीर प्रताप की ओर मुखातिब हुए- "प्रताप भाई, मैं आपका गुनहगार हूँ, किन्तु सारी कहानी आप लोगों को यह बच्चे कहेंगे।... बेटा रहमत, पहले तुम ही बोलो।"
रहमत ने कहना प्रारम्भ किया- "अंकल आंटी, यह सब कुछ मैंने और आकाश ने किया है। मैंने आकाश के गायब होने के बाद एक दिन रात को अपने अम्मी-अब्बा के बीच हो रही बात सुन ली थी। दरअसल आकाश को अगवा अब्बा ने ही करवाया था...।"
वीर प्रताप व संजना, दोनों ने चौंक कर मुश्ताक अली की तरफ देखा, जिनकी नज़रें झुकी हुई थीं। क्रोध से तड़प उठे वीर प्रताप ने तीव्र स्वर में कहा- "आपने?... मुश्ताक जी आपने ऐसा किया?"
"पहले रहमत की पूरी बात तो सुन लीजिये पापा।" -आकाश ने बीच में ही टोका। सब लोग रहमत को देखने लगे।
रहमत ने अपनी बात आगे बढ़ाई- "अंकल, आकाश के गायब हो जाने के कारण मैं बहुत परेशान और दुखी था। मुझे रात को अच्छे-से नींद नहीं आती थी। उस रात अब्बा अम्मी से कह रहे थे- 'सोचता हूँ, आकाश को ठिकाने ही लगवा दूँ। वीर प्रताप ने मुझे धोखा दे कर हमारे पंद्रह लाख रुपये हड़प लिए हैं। अब इसकी सज़ा उनका बेटा भुगतेगा।', अब्बा की आवाज़ से बहुत नफरत टपक रही थी। उनकी बात सुन कर मैं काँप उठा था। इसके बाद दोनों के बीच और क्या बात हुई, मुझे नहीं मालूम। घबरा कर मैंने अपने कानों पर हाथ रख लिया था। उनकी बात मुझे पूरी तरह से समझ नहीं आई, लेकिन मैं जानता था कि सीधे ही उनसे बात करने से कोई फायदा नहीं होगा। मेरे दोस्त की जान खतरे में थी। यह तो तय था कि बिना वजह मेरे अब्बा ऐसा काम नहीं कर सकते थे। मैं पूरी रात सोचता रहा कि क्या किया जाय। मेरे अब्बा ने मेरे दोस्त के साथ बहुत ग़लत करना चाहा था, मगर फिर भी मैं नहीं चाहता था कि मेरे परिवार को कोई मुश्किल पेश आए।... और फिर मैंने निश्चय कर लिया कि मुझे क्या करना है।
अगले दिन मैं घर से निकल कर गिरधारी अंकल से मिलने गया। मुझे बस उन्हीं का सहारा था। मुझे जो भी बात पता लगी थी, मैंने गिरधारी अंकल को बता दी व खुदा का वास्ता दे कर मेरी मदद करने और किसी और को यह बात नहीं बताने का वादा लिया। मैंने उन्हें कहा कि उनके किसी दोस्त के साथ प्लान कर के वह मुझे किडनैप करने का नाटक करायें और मेरे अब्बा को कहलवाएँ कि उन्हें पता है कि आकाश उनकी गिरफ़्त में है। अगर वह मुझे पाना चाहते हैं तो आकाश को उसके स्कूल के पास छोड़ दें। आकाश के घर पहुँच जाने के बाद वह पीली कोठी पर आकर मुझे ले जा सकते हैं।
गिरधारी अंकल ने पहले तो साफ़ मना ही कर दिया कि ऐसा करना कानूनन बहुत बड़ा गुनाह है, लेकिन बहुत आजिजी करने व यह बताने पर कि आकाश की जान को ख़तरा हो सकता है, वह मान गये।
तो, मेरे अब्बा ने अगवा करने वाले अपने आदमी को कह कर आकाश को आज़ाद करवा दिया। आकाश को छोड़ने का सबूत मिल जाने पर मैं निश्चित समय पर पीली कोठी पहुँच गया, जहाँ से मेरे अम्मी-अब्बा मुझे घर ले आये। अब आगे की कहानी आकाश कहेगा।"
अपनी बात ख़त्म कर रहमत ने मुस्करा कर आकाश की ओर देखा। गिरधारी लाल मंद मुस्कराहट के साथ खामोश बैठे थे। अन्य सभी लोग विस्मित नज़रों से रहमत की तरफ देख रहे थे।
अब आकाश ने कहानी को आगे बढ़ाया- "पापा-मम्मी! मैं आपसे माफ़ी चाहता हूँ अपनी उस ग़लती के लिए, जिसके कारण आप दोनों को बहुत दुःख पहुँचा है, लेकिन मुझे कोई और रास्ता सूझा ही नहीं था। मुझे उस आदमी ने जिस दिन आज़ाद किया था, उस दिन दोपहर में रहमत अपने यहाँ मुझसे मिलने आया था। उसने मुझे वह बात बताई, जो उसे मालूम हुई थी। यह जान कर कि आपने अंकल को धोखे में रख कर उनसे पंद्रह लाख रुपये लिये हैं, मुझे बहुत तकलीफ़ और शर्म महसूस हुई। रहमत ने मुझे यह भी बताया कि कैसे उसने गिरधारी अंकल से मिल कर मुझे छुड़ाने की प्लानिंग की। अंकल ने मुझे किडनैप कराने की ग़लती की थी, पर ऐसा उन्होंने बदला लेने के लिए किया था। पापा, मैं चाहता था कि अंकल को उनका रुपया वापस मिल जाए, इसलिए रहमत को बिना बताये उसी का तरीका काम में ले कर मैं गिरधारी अंकल से मिला और वैसा ही ड्रामा कर के आपसे रुपये मंगवाए। आपने रुपये की अटैची गिरधारी अंकल के दोस्त, उस नकाबपोश को दी और मुझे अपने साथ ले आये।"
"मुश्ताक भाई ने बहुत खतरनाक काम कर डाला। मैंने उनके साथ ऐसा क्यों किया था, यह मैं बाद में बताऊँगा, लेकिन यह अटैची मुश्ताक भाई के पास कैसे पहुँची?" -वीर प्रताप ने गिरधारी लाल से पूछा।
"अटैची मैं लेकर गया था उनके वहाँ। मुझे माफ़ करें सेठ जी, मैंने आप दोनों के परिवारों की भलाई के लिए बच्चों की बात मान कर कानून अपने हाथ में लेने का खतरा मोल लिया। मैं जानता था कि आप दोनों ने जाने-अनजाने भूल की है, इसीलिए बच्चों का साथ दिया और एक ऐसा मकसद पूरा हो गया, जिसके सफल होने का मुझे भी पूरा भरोसा नहीं था। अगर कहीं पुलिस या मीडिया को इसकी ज़रा सी भी भनक लग जाती, तो नेता लोग इस मामले को हिन्दू-मुस्लिम की राजनीति में घसीट कर बखेड़ा खड़ा कर देते और सांप्रदायिक तनाव पैदा हो जाता। आप दोनों की पवित्र दोस्ती पर भी एक मतलबपरस्त आदमी के द्वारा पैदा की गई ग़लतफ़हमी के कारण लाञ्छन लग जाता। आप लोगों को गर्व होना चाहिए इन बच्चों पर कि दोनों घरों की इज़्ज़त बचाते हुए इन्होंने अपने नन्हे दिमाग का प्रयोग कर एकदम सफ़ाई से सब-कुछ सही कर दिया। मैंने मुश्ताक भाई को कल अटैची देकर सारी कहानी सुना दी थी। मैं एक बार फिर आप दोनों को अन्धेरे में रखने के लिए माफ़ी चाहता हूँ।" -गिरधारी लाल ने कहा।
(8)
अब तक चुप बैठे मुश्ताक अली की आँखें नम हो आईं। वह अपनी जगह से उठे और वीर प्रताप के पाँवों पर झुक गए- "प्रताप भाई, आपने मेरे साथ जो कुछ किया था, उससे मुझे सदमा ज़रूर लगा था, लेकिन इस मासूम बच्चे को उठा कर मैंने बहुत बड़ा गुनाह किया था। मैं बदले की आग में ऐसा जल रहा था कि कुछ अनहोनी भी कर बैठता। लेकिन जब मैंने और शगुफ़्ता ने देखा कि रहमत आकाश के लिए इस कदर परेशान और ग़मगीन है तो उनकी दोस्ती की गहराई देख कर हमारी आँखें खुल गईं और अल्लाह के फज़ल से मैंने अपनी बदनीयती पर काबू पाया। शगुफ़्ता के मन में हमारे साथ हुए धोखे की वजह से नाराज़गी तो थी, लेकिन वह मेरे इस तरह के इन्तकाम से कतई इत्तफ़ाक नहीं रखती थी।", कुछ रुक कर मुश्ताक अली ने आगे कहा- "फिर भी मैं आकाश को इतनी आसानी से रिहा नहीं करना चाहता था, लेकिन तभी रहमत गायब हो गया और उसने तरकीब लगा कर आकाश को छुड़वा लिया। गिरधारी लाल जी ने मुझे कल रुपयों की अटैची दी और सारी बात भी बयां की।... प्रताप भाई, मैंने अटैची को खोल कर भी नहीं देखा है। मैं यह आपको लौटने आया हूँ, नहीं चाहिए मुझे यह पैसा। मुझे अपनी करनी पर बेहद शर्मिन्दगी है। मुझे तो अब आपके साथ इन बच्चों जैसी पाक मोहब्बत और दोस्ती चाहिए। पैसे का क्या है, वह तो फिर आ जायेगा।"
वीर प्रताप अटैची की तरफ देखे बिना ही मुश्ताक अली से मुखातिब हुए- "किशन लाल ने मुझे बताया था कि फ़ैक्ट्री से आपने गुपचुप लगभग तीन लाख रुपये का माल किसी को बेच दिया है और पैसा अपने पास रख लिया है। फ़ैक्ट्री का पुराना घाटा ही पूरा नहीं हो रहा था और आपने ऐसा किया गया, यह जान कर मुझे आप पर बहुत क्रोध आया था। कुछ समय से कपूर & सन्स के फेल होने की खबर मिल रही थी, तो किशन लाल की सलाह से चालान के जरिये मैंने उस फर्म के नाम पुरानी तारीखों में कुछ फर्जी चालान बनवाये, जैसा कि हम इनकम टैक्स बचाने के लिए कई बार किया करते हैं और फिर आपके सामने उस फर्म में बकाया होने का दिखावा किया। आपके धोखे का यही बदला हो सकता... "
मुश्ताक अली ने "तौबा, तौबा, प्रताप भाई! खुदा गवाह है, मैंने ऐसा कुछ नहीं किया था, मेरे रहमत की कसम! साफ हो गया कि यह किशन लाल की ही बदमाशी थी। एक दिन मैंने उसे शराब पी कर काम पर आने की वज़ह से सख़्ती से डांटा था और कहा था कि वह शराब पी कर फिर कभी आया तो हम लोग उसे नौकरी से हटा देंगे। उस नामाकूल ने शायद उस बात का बदला लेके के लिए ही यह खतरनाक खेल खेला और मुझ पर यह नापाक इल्ज़ाम लगाया।... ओह, तो शायद इसी वज़ह से उन दिनों आप मुझसे कुछ खिंचे-खिंचे भी रहे थे और एक दिन वर्कर्स के सामने ही आपने मुझे एक छोटी-सी बात पर बेइज़्ज़त भी किया था। मुझे इस बात का इल्म ही नहीं हो सका था कि मेरी किस ग़लती की वज़ह से आप ने मेरे साथ ऐसी बदसलूकी की थी। मैं उस बेइज़्ज़ती को भी उस समय तो भूल गया था, लेकिन मन ही मन आपसे ख़फ़ा ज़रूर था। एक बार मुझसे किसी तरह इसकी कैफ़ियत पूछ लेते आप, तो यह सब कुछ नहीं होता। मैं, और आप के साथ ऐसा धोखा? आपने भरोसा कैसे कर लिया था उसकी बात का?"
"लेकिन, आपको मालूम कैसे हुआ कि घाटे वाली बात सही नहीं थी?" -वीर प्रताप ने मुश्ताक अली के प्रश्न के जवाब में प्रश्न किया।
"किशन लाल ने नशे की झौंक में उसकी बीवी राधा को यह बात बताई थी और फिर राधा ने शगुफ़्ता को। उसने यह भी बताया था कि आपने मुझसे लिये पन्द्रह लाख रुपये फर्म में जमा नहीं कर के अपने पास रख लिये थे। यह बात जान कर और पहले वाली बेइज़्ज़ती की बात याद कर के मैं गुस्से से पागल हो उठा था।", मुश्ताक अली का चेहरा पसीने से भीग गया था। जेब से रुमाल निकाल कर, पसीना पौंछते हुए रुंधी आवाज़ में वह फिर बोले- "प्रताप भाई, मेरा गुनाह माफ़ी के काबिल नहीं, लेकिन बरा-ए-मेहरबानी एक बार मुझे माफ़ कर दीजिये। अब से हम लोग एक दूसरे पर पूरा यकीं रखेंगे।"
"हाँ सेठ जी, माफ़ कर दो इनको। बचकाना ढंग से आप दोनों ने ऐसे काम कर डाले और उससे उलट इन बच्चों ने वह काम कर दिखाया, जो शायद बड़े भी नहीं कर सकते थे।" -गिरधारी लाल ने मुस्करा कर कहा।
"सही कह रहे हो आप! लेकिन, गिरधारी लाल जी, पुलिस को अब हम क्या बताएँगे?" वीर प्रताप ने अपनी दुविधा जाहिर की।
"कुछ भी नहीं, कह देंगे कि बच्चे सकुशल घर आ गए हैं, अब हमें कोई कार्यवाही नहीं करवानी। वह तो तुरंत चैन की साँस लेकर एफ.आर. लगा देंगे।" -गिरधारी लाल ने समाधान दिया।
वीर प्रताप कुछ आश्वस्त हुए और मुश्ताक अली की ओर देखा- "मुश्ताक भाई, सच में हमारे बच्चों ने हमें एक बहुत बड़ी मुसीबत से बचा लिया है। मुझे इनकी निस्वार्थ दोस्ती देख कर संदीप और राघव की दोस्ती याद आ रही है।", उनके स्वर में स्निग्धता थी।
"संदीप और राघव? कौन हैं यह लोग?"
"ओह, तो इसका मतलब है, आपने गजेन्द्र भट्ट 'हृदयेश' की कहानी 'अनजाने फ़रिश्ते' नहीं पढ़ी अब तक। क्या दोस्ती थी उनकी भी? बिल्कुल हमारे इन नन्हे फरिश्तों के ही जैसी! पढ़ना आप वह कहानी।... अब सबसे पहले तो मैं रहमत बेटे का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा, जिसके कारण मेरा आकाश मुझे वापस मिला है।" -वीर प्रताप ने आगे बढ़ कर रहमत का सिर चूम लिया।
"हृदयेश जी की वह कहानी पढ़ने का सौभाग्य तो मुझे नहीं मिला, पर हाँ, 'दोस्ती' पर उनकी एक कहानी 'विक्रम और बेताल' मैंने पढ़ी है। क्या मिसाल पेश की है उन्होंने 'दोस्ती' की उस कहानी में। मज़ा आ गया था पढ़ कर।" -मुश्ताक अली ने जवाब में कहा।
"हम लोग रहमत और आकाश, दोनों के शुक्रगुज़ार हैं। हीरे हैं हमारे बच्चे।" -इस बार शगुफ़्ता ने दोनों बच्चों को बाँहों में लेकर आकाश के मुख पर चुम्बनों की झड़ी लगा दी।
संजना ने शगुफ़्ता को गले लगा कर भीगी आवाज़ में कहा- "बहन, भूल जाएँ हम भी उस गुज़रे मनहूस समय को।"
"हाँ बहना!" -शगुफ़्ता की आँखों में भी नमी थी।
वीर प्रताप व मुश्ताक अली भी एक दूसरे के गले मिले। अब दोनों के मन में एक-दूसरे के प्रति कोई शिकवा-शिकायत नहीं रही थी।
मुश्ताक अली ने वीर प्रताप से अनुरोध किया- "यह पैसा आप अपनी फर्म में ही जमा कर लें। हमें तकलीफ में डालने वाला यह पैसा मुझे नहीं चाहिए।"
"नहीं, आपको आपका पन्द्रह लाख रुपया तो लेना ही होगा। अलावा पांच लाख रुपया मैं भले ही रख लूँगा।" -वीर प्रताप ने कहा और फिर आकाश से पूछा- “बेटा, तुमने फिरौती के बीस लाख रुपये क्यों मंगवाये थे, जब कि हिसाब से तो पन्द्रह लाख रुपये ही तुम्हारे मुश्ताक अंकल को देने थे?"
"पापा, पांच लाख रुपये ब्याज के थे।" -आकाश की आँखों में शरारत थी।
"बेटा हमारा ब्याज तो तुम लोग ही हो।" -मुश्ताक ने प्यार से आकाश के सिर पर हाथ रखा।
दोनों बच्चों की सूझ-बूझ से, एक दर्दनाक कहानी के सुखद अंत वाला यह दृश्य देख कर बुजुर्ग गिरधारी लाल की आँखें भी नम हो आईं।
दोनों बच्चों ने भी गिरधारी लाल सहित सभी के पाँव छुए और उनका आशीर्वाद लेने के बाद आकाश ने मुस्करा कर रहमत का हाथ पकड़ा व लॉन की तरफ ले चला।
रेस्तरां से आर्डर किया हुआ खाना आने को था। टेबल पर प्लेटें सजाते सभी लोगों ने देखा, दोनों बच्चे ढलती शाम के धुंधलके में भी लॉन में बैडमिण्टन खेल रहे हैं।... और बच्चे, जो कुछ अब तक हुआ था व जो कुछ उन्होंने किया था, उससे बेपरवाह खेलने में मग्न थे।
-: समाप्त :-
बेहतरीन कहानी आदरणीय👏🏼👏🏼
जवाब देंहटाएंआकाश और रहमत ने न केवल दोस्ती को परिभाषित किया वरन अपने परिवारों को फिर से एक सूत्र में बाँध दिया।प्रेरणादायक सृजन,
रिश्ते और व्यवसाय दोनों में ही पारदर्शिता अत्यंत आवश्यक है एक छोटी सी भूल क्या से क्या करा सकती ...
आपका प्रमोशन करने का तरीका बेहद पसंद आया👏🏼👏🏼👏🏼👏🏼
यह एक प्रयोग था पूजा जी और आपकी समीक्षा को देख कर आश्वस्त हूं कि मेरे प्रयोग ने सफलता पाई है। आपकी सफल लेखनी इतनी सुन्दर समीक्षा कर सकती है, यह देखना सुखद अनुभूति दे गया। आप एक अच्छी लेखिका ही नहीं सफल समीक्षक भी हैं, मेरी भावभीनी बधाई!
हटाएंलाजवाब कहानी👌👌👌👌
जवाब देंहटाएंआकाश और रहमत की दोस्ती, छोटी उम्र में बड़े कारनामे... हिन्दू मुस्लिम एकता का संदेश देती, साथ ही गलतफहमियों के कारण दोस्ती एवं रिश्तों में किस तृरह की दरारें आ जाती हैं .. बहुत सुन्दर संदेशप्रद भी ...
वाकई परमोशन का तरीका बहुत ही सुन्दर है।
🙏🙏🙏🙏🙏
बहुत बहुत शुभकामनाएं एवं बधाई।
मेरी रचनाओं की एक सजग व सुविज्ञ पाठिका हैं सुधा जी आप! मुझे अंतस्तल से प्रसन्नता है कि आपने मेरी इस कहानी को इतनी सुन्दर व सटीक टिप्पणी से गौरवान्वित किया है। आपका अपरिमित आभार महोदया!
हटाएंआदरनीय सर, लम्बी कहानी में सुखान्त पाकर पढ़ने पर संतोष हुआ।दो धर्म तो सांकेतिक है पर एक धर्म वाले लोग भी इस तरह हरकत कर एक दूसरे को धोखा दे सकते हैं।बड़ों की तुलना में बच्चों ने ना सिर्फ़ दोस्ती की महिमा को बढ़ाया बल्कि दोनों परिवारों को बर्बादी से भी बचा लिया।प्रेरक कथा के लिए बधाई और शुभकामनाएं स्वीकार करें।🙏🙏🌺🌺
जवाब देंहटाएंसुन्दर व सार्थक टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद!
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