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'कुत्ते की पूँछ' (हास्य-व्यंग्य)

                                                                   


जानकारी मिली कि कोरोना का प्रकोप थोड़ा मंदा हुआ है, तो अपने मित्र, विमलेश से मिलने की प्रबल इच्छा हो आने से पहुँच गया एक दिन उनके घर। 

  मेरे सद्भावी मित्र परेशान न हों, मैंने बाकायदा मास्क लगा रखा था और हर राह चलते शख़्स से छः-सात फ़ीट की दूरी बनाये रखते हुए सर्पाकार गति से चलते हुए विमलेश के घर तक की एक किलोमीटर की दूरी तय की थी। 

  विमलेश के वहाँ पहुँचा तो उनके घर का दरवाज़ा संयोग से खुला मिला। भीतर जा कर देखा, वह महाशय अपने सिर को एक हाथ पर टिकाये कुर्सी पर उदास बैठे थे। मुझे देख कर सामने रखी एक अन्य कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए फीकी हँसी के साथ बोले- “आओ भाई, अच्छे आये तुम!”

“क्या हुआ विमलेश जी, भाभी से झगड़ा हो गया या वह मायके गई हुई हैं?” -मैंने मुस्कराते हुए पूछा। 

“नहीं यार, ऐसा कुछ भी नहीं है। वह तो अपने रूम में बैठी स्वैटर बुन रही हैं।”

“तो फिर यूँ मुँह लटकाये क्यों बैठे हो? अगर दूध नहीं है घर में तो चिन्ता न करो, मैं चाय पी कर आया हूँ।”

 “अरे नहीं भाई, बात कुछ और ही है। मेरा कुत्ता कहीं चला गया है।”

“ओह, यह तो बहुत बुरा हुआ। लेकिन कहाँ गया होगा वह? कुत्ते को तुम बहुत प्यार करते होगे न?” -मैंने अपनी समझ से सहानुभूति दिखाई। 

 “प्यार-वार तो ठीक है, लेकिन मसला कुछ और है।” -गहरी नज़र से मेरी ओर देखते हुए विमलेश ने बात जारी रखी- “दरअसल मैं एक प्रयोग कर रहा था।” 

 मैंने प्रश्नसूचक निगाह उन पर डाली तो वह पुनः बोले- “मैं उसकी पूँछ सीधी करने की कोशिश कर रहा था।”

“वह कैसे?” -हँसी रोक कर मैंने पूछा। 

“प्लास्टिक का एक पाइप खरीद कर लाया था और उसमें उसकी पूँछ डाल रखता था।”

“फिर? कब से कर रहे थे ऐसा?” -एक साथ दो प्रश्न दागे मैंने। 

“कोरोना-काल में रोज़ाना आठ-दस घंटे तक पाइप पहनाये रखता था उसकी पूँछ पर, लेकिन उसकी पूँछ थी कि कम्बख्त सीधी होने का नाम ही नहीं ले रही थी।”

 “ओह, तो इसी से परेशान हो कर भाग गया होगा वह।” -मैंने ठहाका लगाया, फिर बात पूरी की- “तुम भी ना, अजीब आदमी हो! भले मानस, कुत्ते की पूँछ कभी सीधी हो सकती है क्या?”

 “क्यों नहीं हो सकती? मैं एक नया कुत्ता लाऊँगा और फिर कोशिश करूँगा। फिर भी सफल नहीं हुआ तो उसके कोई इंजेक्शन-विन्जेक्शन लगवाउँगा। कहते हैं न, ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती’।”

 अब भला क्या कहता मैं? बस, उस महान दार्शनिक का मुँह ताकता रहा। सोचने लगा, ‘अगर यह सम्भव हो पाता तो दुनिया की कई समस्याएं आसानी से नहीं सुलझ जातीं?’


                                                                    *********


Comments

  1. सादर नमस्कार ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-1-21) को "कैसे बचे यहाँ गौरय्या" (चर्चा अंक-3944) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    कामिनी सिन्हा



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  2. मेरी इस सहज-सामान्य हास्य-व्यंग्य रचना को सम्मान देने के लिए आपका आभारी हूँ आ. कामिनी जी!

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  3. ये कुछ बेपूछ वाले भी जाने पूछ वालों जैसी हरकत क्यों कर बैठते हैं?
    हर प्रकार की जीव यहीं मिल जाते हैं, ज्यादा दूर ढूढ़ने की जरुरत नहीं होती उन्हें

    बहुत खूब!

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    Replies
    1. सही कहा महोदया आपने! पूँछ वाले तो बेचारे पूँछ वाले हैं, किन्तु कुछ बेपूँछे पूँछ वालों से अधिक जाहिल होते हैं😊।

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  4. वाह!!
    मजेदार हास्य व्यंग।

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  5. आपका बहुत-बहुत शुक्रिया सुधा जी!

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  6. आपकी लिखी ये मजेदार रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 30 जुलाई 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ReplyDelete
    Replies
    1. अभिभूत हूँ आपके इस 'सांध्य दैनिक मुखरित मौन' के सुन्दर पटल पर अपनी रचना को आप द्वारा स्थान दिये जाने से ! मेरा आभार स्वीकारें महोदया!

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  7. 😀😀😀👌👌
    लगता है कोरोना ने माननीय विमलेश जी की बुद्धि पर भीषण आघात कर दिया, तभी उन्हें कुत्ते की पूंछ सीधी करने जैसे अनर्गल शोध की सूझी। सदियां गुज़र गई, इस महान पराक्रम का दम किसी में भी नहीं रहा!!!!
    रोचक बतरस । हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई आपको रोचक पोस्ट के लिए 🙏🙏🙏🌷🙏🙏💐😕

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    Replies
    1. हा हा हा... मेरी इस कहानी के पात्र 'विमलेश जी' को धिक्कारने से पहले आपको ज़रा भी मुलाहिजा नहीं हुआ इस बात का कि काल्पनिक ही सही, कहानीकार यानी कि मैंने उसे अपने मित्र का दर्जा दिया था? कुछ तो नरमी बरततीं आप 😏! बहरहाल, आपको फिर भी शुक्रिया तो अदा करूँगा ही😊।

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