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अपहरण (कहानी)

                                           एक नवयौवना युवती की कोमल भावनाओं से सजी दास्तान:-
           

   करिश्मा को जब होश आया तो वह एक अनजान कमरे में एक पलंग पर लेटी हुई थी और दो अपरिचित व्यक्ति उसके सामने एक दीवान पर बैठे हुए थे। वह हड़बड़ा कर उठ बैठी और अपने पहने हुए कपड़ों की ओर देखने लगी। कपड़े वही थे जो वह घर से पहन कर निकली थी। उसका पर्स उसके पास ही पड़ा हुआ था।

   उसने सामने बैठे व्यक्तियों की तरफ देख कर क्रोधित व आशंकित स्वर में पूछा- "मैं कहाँ हूँ?... तुम लोग कौन हो और मुझे यहाँ क्यों ले कर आये हो? तुम लोगों ने मेरे साथ कुछ गलत तो नहीं किया?"

  "सब बताएँगे तुम्हें। हमने कुछ भी गलत नहीं किया है। चिंता मत करो, तुम मेरी बेटी के सामान हो।" -एक व्यक्ति ने जो कुछ अधिक उम्र का था, जवाब दिया।

  "तो फिर यहाँ क्यों लाये हो मुझे? यह कौन-सी जगह है?" -करिश्मा का क्रोध कुछ कम हुआ। उसने अपनी रिस्टवॉच देखी, रविवार ही था और रात के आठ बज रहे थे। उसे याद आया, शाम पाँच बजे इवनिंग वॉक के लिए वह अपनी सहेली को साथ लेने उसके घर जा रही थी कि सुनसान राह होने से अचानक किसी ने पीछे से आकर कुछ तेज़ गंध वाला रुमाल उसकी नाक पर रखा था और वह अपना होश गवां बैठी थी। अभी जब होश आया तो उसने स्वयं को इस पलंग पर पाया। अपने पापा की याद आने से उसकी आँखें छलछला आईं।

    करिश्मा ने मोबाइल के लिए पहले अपना पर्स टटोला और फिर अपनी जीन्स पैंट की जेब में हाथ डालने का उपक्रम किया, लेकिन उसे याद हो आया कि वह सेलफोन तो साथ लाना भूल ही गई थी।

  "सुरक्षित हो तुम यहाँ पर। अभी आराम करो, फिर बताते हैं सब-कुछ।" -उसके युवक साथी ने कहा और बुजुर्ग की ओर कुछ संकेत कर कमरे से बाहर निकल गया। कमरे में रह गये बुजुर्ग ने उठ कर दरवाजा भीतर से बंद कर ताला लगाया और चाबी अपनी जेब में रख ली।

  "क्यों लाये हो मुझे यहाँ? आपका नाम क्या है?" -इस बार करिश्मा अपेक्षाकृत कुछ नर्म थी।

  "तुम्हें यहाँ कोई तकलीफ नहीं होगी। हम एक मकसद से तुम्हें यहाँ लाये हैं। तुम्हारा नाम क्या है?" -बुजुर्ग ने पूछा। 

  "पहले आप मुझे बताओ, क्यों लाये हो यहाँ? मुझे दो घंटे से अधिक हो गये हैं घर से निकले। अब अगर मैं आधे घंटे में घर नहीं पहुंची तो पापा जमीन-आसमान एक कर देंगे।"

  "मेरे भतीजे को आ जाने दो, फिर बताते हैं तुम्हें सारी बात। तब तक तुम आराम करो, तुम्हें यहाँ कोई खतरा नहीं है बेटी! मैं सामान्यतः यहाँ अकेला ही रहता हूँ इसलिए खाना भी अक्सर बाहर ही खाता हूँ। मेरी तबीयत ख़राब होने से कुछ दिनों से मेरा यह भतीजा मेरे साथ रह रहा है। वह रेस्टोरेंट से खाना लाने गया है, आता ही होगा।" -कहते-कहते वह बुजुर्ग अचानक खाँसते हुए हाँफने लगे।

  "आपको शायद कुछ तकलीफ हो रही है। आप ज़्यादा मत बोलिये।" -उन्हें हाँफते देख कर करिश्मा कुछ घबराई।
 "हाँ बिटिया, मुझे अस्थमा है। कभी-कभी खतरनाक अटैक भी आ जाता है।"
  करिश्मा ने अब खामोश रहना ही बेहतर समझा। वह कुछ भी कयास नहीं लगा पा रही थी कि यह लोग आखिर उसे यहाँ क्यों लाये हैं!

   कुछ देर में युवक लौट आया। उसने आते ही प्लेट्स लगानी शुरू की।
  करिश्मा ने जब देखा कि युवक ने तीन प्लेट्स लगाई हैं तो उसने ऐतराज किया- "मैं खाना नहीं खाऊँगी। मुझे भूख नहीं है, मेरी प्लेट मत लगाओ।"
  युवक ने शून्य दृष्टि से उसकी और देखा और रूखे स्वर में बोला- "ठीक है, जब भूख लगे तो खा लेना। यहाँ कोई तुम्हारी खुशामद नहीं करेगा। अभी तुम्हें कई दिन यहाँ रहना है, कब तक भूखी रह सकोगी?"
 "ग़लतफ़हमी में हो तुम। मेरे पापा कल ही मुझे ढूँढ लेंगे। तुम उनको नहीं जानते। तुम बताते क्यों नहीं कि क्यों किडनेप किया है तुमने मुझे? अगर पैसा चाहिए तो बोलो कितना? मुझे फोन दो, मैं मगवा देती हूँ।"
 "तुम्हें तो भूख नहीं लग रही पर हमें तो लगी है न! हमें भोजन कर लेने दो, फिर  बात करते हैं।
  भोजन करते समय एक बार बुजुर्ग ने भी करिश्मा से भोजन के लिए आग्रह किया, किन्तु उसने स्पष्ट रूप से इन्कार कर दिया।
  भोजन के बाद युवक ने करिश्मा से कहा- 'देखो, यहाँ बचा हुआ खाना रखा है। जब भी भूख लगे, खा लेना। अभी कुछ दिन तुम्हें यहीं रहना है, जब तक हमारा मक़सद पूरा न हो जाए। अब हम सो रहे हैं, जब तुम्हें नींद आए, सो जाना। कल तुम्हें बताएँगे कि तुम्हें यहाँ क्यों लाये हैं।"
  युवक और उसका चाचा साथ वाले कमरे में अपने बिस्तर लगा कर सो गये। करिश्मा समझ गई थी कि अभी कुछ भी कहना व्यर्थ है सो करवट बदल कर वह भी सो गई। उसके पास अपनेआप को भाग्य भरोसे छोड़ने के अलावा कोई चारा नहीं था।
   रात को बुजुर्ग के खाँसने के कारण दो बार उसकी नींद खुल गई, किन्तु कोशिश कर के वह वापस सो गई। नींद ठीक से नहीं आने से सुबह करिश्मा जब उठी तो कुछ थकी-थकी थी, किन्तु वह आश्वस्त थी कि भले ही उसे किडनेप किया गया है, किन्तु यह लोग बहुत बुरे तो नहीं हैं। उसे एक नया टूथ ब्रश व टंग क्लीनर भी दिया गया था।
  युवक व बुजुर्ग जिस कमरे में सोये थे वहाँ एक पृथक टॉयलेट था सो वह लोग वहीं से  प्रातःकर्म से निवृत हो कर आये थे। करिश्मा के फ्रैश हो कर लौटने पर उसे चाय दी गई तो उसने इन्कार नहीं किया। सुबह की चाय उसकी कमजोरी थी।
  चाय पीते-पीते करिश्मा ने आज फिर से उसे यहाँ लाने के मकसद जानना चाहा, लेकिन दोनों ने अब भी कुछ नहीं बताया। 
  चाय पी कर युवक कहीं चला गया। बुजुर्ग दरवाजे पर पूर्ववत भीतर से ताला लगा कर अपने ध्यान-कर्म में व्यस्त हो गया। करिश्मा गुमसुम बैठी अपना समय निकाल रही थी। बीच-बीच में वह खिड़की के पास जा कर बाहर दिख रहे आसमान को निहार लेती थी तो कभी दूर खड़े पेड़ों पर नज़र डाल लेती थी। आस-पास कोई इन्सानी चहल-पहल नहीं थी और न ही उसे आस-पास कोई अन्य मकान नज़र आ रहा था। अगल-बगल खेतों जैसी हरियाली अवश्य थी, जिससे उसने अनुमान लगाया कि शायद यह दो कमरों वाला कोई फार्म-हाउस है। 
लंच के समय भोजन के पैकेट लेकर युवक वापस लौटा। करिश्मा ने कल रात से खाना नहीं खाया था सो भूख से कुलबुला रही थी वह। खाना खाने के लिए कहे जाने पर एक बार तो उसने मना कर दिया, किन्तु बुजुर्ग द्वारा आग्रह किये जाने पर वह खाने के लिए तत्पर हो गई। 
 भोजन के कुछ समय बाद करिश्मा को नींद आने लगी सो वह अपने पलंग पर जा कर सो गई। कितनी देर सोई, उसे पता नहीं था, किन्तु जब जागी तो धीमी आवाज़ में दोनों व्यक्ति बात करते सुनाई दिये। उसने अपनी ऑंखें बंद ही रखीं। उसने सुना, बुजुर्ग कह रहा था- “देखो दीपक, बच्ची को अधिक समय तक रोके रखना सही नहीं है। तुम आज ही किसी भी हालत में राम प्रकाश जी को सूचना भिजवा दो कि वह सवा लाख रुपया दे दें तो तुरन्त उनकी बेटी उनके घर पहुँचा दी जाएगी।”
 “मैं तो कल ही सूचित कर देता लेकिन मैं यह सन्देश भिजवाऊँ किसके साथ चाचा जी?...और फिर पैसा किस जगह मंगवायें, यह भी तो सोचना पड़ेगा। मैं फोन कर नहीं सकता क्योंकि अगर ऐसा करता हूँ तो पहचान लिए जाने से पुलिस मुझे ढूँढ लेगी और हम पकड़े जाएँगे। मैं यही सोच रहा हूँ कि इसके लिए किसकी मदद लूँ। आपको तो पता है, चतुर साहब के वहाँ से काम छूटने के बाद जो जॉब मिला था, वह भी पगार बहुत कम होने से मुझे छोड़ना पड़ा। अब मुझे नया जॉब भी तो ढूँढना है। अच्छा चाचा जी, मैं जल्दी ही लौटता हूँ।” -इतना कह युवक चला गया।
  'ओह, तो यह शख़्स पापा की फर्म में काम करता था। अब समझ में आया कि क्यों इन लोगों ने किडनेप किया है मुझे!... पर पापा में किस बात के पैसे निकल रहे हैं इसके? मेरे पापा किसी का पैसा रख लें, ऐसे इन्सान तो कतई नहीं हैं।', करिश्मा मन में सोचने लगी और फिर आँखें खोल कर उठ बैठी। बाहर बारिश होना शुरू हो गई थी। 
  तभी दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आई। दीपक वापस लौटा था। 
 "बारिश शुरू हो गई है। रेनकोट लेने आना पड़ा।" -दीपक ने कहा, फिर करिश्मा को जगी देख कर बोला- "जाग गईं तुम?"
  करिश्मा का उत्तर मिले बिना ही वह लौटने को हुआ था कि करिश्मा ने रोका उसे- "रुको दीपक!"
 "तुम मेरा नाम कैसे जानती हो?" -चौंका दीपक। सहसा उसके चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ उभर आईं, पुनः बोला- "ओह, निश्चित ही तुमने हमारी बातें सुन ली हैं।"
  दीपक पास में पड़ी कुर्सी पर धम्म से बैठ गया। 
 "हाँ, मेरी नींद खुल गई थी। पहले क्या बात कर रहे थे तुम लोग मुझे नहीं पता, किन्तु दोनों की आखिरी बातें मैंने सुन ली हैं। तो तुम मेरे पापा की फर्म में काम करते थे। किस बात का पैसा बकाया है तुम्हारा उनमें?"
   युवक ने बताया- " हाँ, मैं दीपक मल्होत्रा तुम्हारे पापा राम प्रकाश चतुर जी की फैक्ट्री में एकाउंट्स का काम करता था। किसी और की ग़लती की सज़ा उन्होंने मुझे दी। उसी दोषी व्यक्ति से जांच कराने के बहाने वह तीन माह तक मुझसे दूसरे सेक्शन में काम लेते रहे और जांच के समय तक का मेरा तीन माह का वेतन और मेरी सिक्योरिटी की राशि रोक ली और नौकरी से निकाल दिया। दो साल हो गये इस बात को, अभी तक मेरा पैसा मुझे नहीं मिला है। शुरू-शुरू के एक-दो माह उनके ऑफिस में जा कर और तीन-चार बार फोन कर के मैंने गुहार भी लगाई, पर उन्होंने एक नहीं सुनी।"
 "क्या ग़लती की थी तुमने?"
 "कहा न मैंने, मेरी कोई ग़लती नहीं थी। उनके रिश्तेदार चतुर्भुज ने मेरे साथ धोखा किया। चतुर साहब ने फर्म के एकाउंट्स के काम में उसे मेरा सहयोगी बनाया था। किसी से मिलीभगत कर उसने एक बेनामी फर्म के फर्जी खरीद बिल के भुगतान के लिए मेरे हाथों एक लाख रुपये का चैक बनवाया। मैं इस कुचक्र को समझ नहीं सका और चतुर साहब से हस्ताक्षर करवा के उसे सौंप दिया। कभी न कभी पकड़े जाने के भय से कुछ समय बाद उसने शिकायत कर स्वयं इस फर्जी भुगतान में मेरा हाथ बता कर मुझे कसूरवार और बेईमान ठहरा दिया। चतुर साहब ने मुझसे पूछताछ की। मैंने सच बात बताई, पर मेरी सफाई उन्होंने नहीं मानी। मैंने बाद में चतुर्भुज को उसके झूठ के लिए थप्पड़ मारा तो उसने इसकी भी शिकायत कर दी यह कह कर कि चोरी की शिकायत करने के कारण मैंने उसे मारा। तुम्हारे पापा ने उस पर विश्वास कर के सच्चाई जाने बिना मेरा पेमेन्ट रोक लिया और मुझे अपमानित कर के नौकरी से भी निकाल दिया।"
  "तुम्हें इस बात की शिकायत करनी चाहिए थी सरकारी अधिकारियों से।" -करिश्मा आश्चर्यचकित थी कि चतुर्भुज ऐसा भी कर सकता है। चतुर्भुज उसके पापा के चचेरे भाई का लड़का था।
  "कोई फायदा नहीं होता इससे। तुम्हारे पिताजी मैनेज करने में बहुत होशियार हैं। मैं लम्बे समय से जानता हूँ उन्हें और फिर मुझे सिस्टम (शासन-तंत्र) पर जरा भी भरोसा नहीं है। मेरे  इन बलदेव चाचा ने भी फोन कर के उन्हें सच बताने की कोशिश की थी, पर इनकी बात को भी तवज्जो नहीं दी उन्होंने।"
 "हो सकता है तुम्हारी बात सही हो, किन्तु इसमें मेरा क्या कसूर है? मुझे क्यों किडनेप किया है तुमने?"
 "हम तुम्हारे पापा से तुम्हें छोड़ने के बदले में दीपक की बकाया सारी राशि वसूलेंगे। हमें ज़्यादा कुछ नहीं चाहिए।" -इस बार बलदेव ने जवाब दिया।
 "आप लोग मुझे छोड़ दो। मैं वादा करती हूँ कि दीपक जी का सारा पैसा मैं दिलवा दूंगी।"
 "तुम चतुर साहब की ही तो बेटी हो। हम तुम पर भरोसा कैसे करें? किसी तरह से मैसेज कर दूँ तुम्हारे पापा को, फिर पैसा मिल जाने पर तुम्हें छोड़ देंगे। तब तक तुम रहो यहाँ आराम से।" -दीपक बोला।
 "तुम झूठ कह रहे हो। मुझे तुम पर ज़रा सा भी विश्वास नहीं है। तुम यह भी भूल रहे हो कि अगर तुम पापा से इस तरीके से अपना पैसा वसूलने में कामयाब हो भी गए तो वह बाद में तुम्हे पकड़वा देंगे!" -करिश्मा ने एक पैंतरा और चलाया। 
 "तुम हमारी चिंता न करो। मैंने यह सब पहले ही सोच रखा है।... और सुनो लड़की! तुम ज़्यादा स्मार्ट बनने की कोशिश मत करो। जब तक यहाँ हो, खामोश रहना ही अच्छा होगा तुम्हारे लिए।" 
  करिश्मा को अब कुछ भी बोलना उपयोगी नहीं लगा, सो चुप  हो गई। दीपक वापस घर से निकल गया। बलदेव ने उठ कर दरवाजा भीतर से बंद कर ताला लगाया और चाबी अपनी जेब में रख ली।
 बलदेव कोई पुस्तक ले कर पढ़ने लगे। करिश्मा मन ही मन सोच रही थी, 'मैं कैसे निकल पाऊँगी यहाँ से? इन लोगों को पापा से पैसा कब और कैसे मिलेगा? अगर पापा को इनका मैसेज मिल जाएगा तब तो पापा एक मिनट की भी देरी नहीं करेंगे। पापा ने अब तक तो पुलिस को सूचना भी दे दी होगी, पर पुलिस मुझे ढूंढेगी कैसे? यह जगह तो बिल्कुल एकान्त में है। दो साल पुरानी बात होने से इस दीपक पर भी उनका शक नहीं गया होगा।'
  करिश्मा यह सब सोच ही रही थी कि बलदेव को जोरों से खाँसी आई और कुछ ही देर में वह हाँफने लगे। उन्होंने हाँफते-हाँफते ही उसकी तरफ देख कर कहा- "बेटा, वहाँ उस आलमारी में इनहेलर रखा है। मुझे जल्दी से दो।"
 करिश्मा उठ कर आलमारी के पास गई और भीतर से इनहेलर ला कर बलदेव को दिया। इस इनहेलर पर लिखे नाम को देख कर उसे याद आया, अस्थमा के मरीज उसके मामा भी यही इनहेलर इस्तेमाल करते हैं।
 बलदेव ने इनहेलर मुँह से लगा कर जोर से श्वाँस भीतर खींची और फिर निराशा से इनहेलर नीचे फेंक दिया और बोले- "बेटा, मेरी दवा ख़त्म हो गई है। नया इनहेलर लाने के लिए मैंने दीपक को बोला था पर शायद वह भूल गया। मेरा फोन तो रिपेयर करने दिया हुआ है। क्या तुम दीपक को फोन कर के उससे यह दवा लाने को कह दोगी? अगर घण्टे भर में दवा नहीं आई तो... मेरे लिए मुश् ... किल  हो जा....ए...गी। दी...पक....का नम... ब " -बलदेव अब बुरी तरह से हाँफने लगे थे।
 करिश्मा ने घबरा कर कहा- "लेकिन अंकल, मेरे पास तो अभी सेलफोन नहीं है। होता तो अब तक घर पर फोन नहीं कर देती?"
 उसने देखा, बलदेव कुर्सी से नीचे झुक आये थे, शायद उन्हें दमे का दौरा पड़ा था। करिश्मा बुरी तरह से घबरा गई। उसे नहीं सूझ रहा था कि वह क्या करे! वह तेज़ी से उनके पास सहारा देने पहुँची, किन्तु वह अर्ध-चेतन अवस्था में ज़मीन पर लुढ़क पड़े। 
 किंकर्तव्यविमूढ़ करिश्मा हाथ मलते हुए बलदेव को देख रही थी। सहसा उसके मस्तिष्क ने तेज़ी से काम करना शुरू कर दिया, 'करिश्मा! यही मौका है, भाग निकल यहाँ से। तेरा अपहरण हुआ है और अगर अभी यहाँ से नहीं निकली तो आगे क्या होगा, कुछ पता नहीं। मत सोच कुछ भी, निकल जा यहाँ से।'
  करिश्मा ने निश्चय कर लिया कि उसे तुरंत भाग निकलना है, यही मौका है। उसने देखा था कि दरवाज़े में भीतर से ताला लगा कर बलदेव ने चाबी अपनी जेब में रखी थी। उसने बलदेव की जेब से चाबी निकाल ली। बलदेव ने प्रतिरोध करने की कोशिश की, किन्तु असफल रहे। उनके मुँह से एक-दो अक्षर के अलावा ढंग से आवाज़ भी नहीं निकल पा रही थी। फर्श पर शिथिल पड़े बलदेव को देख कर उसके मन में एक क्षण को करुणा उपजी, किन्तु मन को कठोर कर उसने अपना सिर झटका और अपना पर्स हाथ में ले दरवाज़ा खोल कर बाहर निकल गई।

   बाहर आ कर उसने देखा, यह एक फार्म-हॉउस ही था जिसमें यह दो कमरों का आवास बना हुआ था। थोड़ा सा चल कर वह फार्म-हाउस के गेट पर पहुँची। गेट से बाहर आई तो सामने दूर तक छोटे-बड़े पेड़ों व झाड़ियों से भरा जंगलनुमा खुला भाग नज़र आया। दायें-बायें दोनों ओर कच्चा रास्ता जा रहा था। किधर जाना चाहिए, यह जानना कठिन था सो बिना अधिक विचारे वह बायीं ओर के रास्ते पर तेज़ी से बढ़ गई। राह के एक ओर पेड़ों की कतार थी और दूसरी ओर कुछ-कुछ दूरी पर बॉउंड्री वाले बड़े-बड़े प्लॉट्स थे। कुछ देर तक तो वह चल नहीं, बल्कि भाग ही रही थी मानो कई भूत उसके पीछे आ रहे हों। उसने एक बार पीछे मुड़ कर देखा, पूरी राह सुनसान पड़ी थी। अब उसने अपनी गति धीमी कर दी। इधर पैरों की गति कम हुई और उधर उसका दिमाग तेज़ गति से काम करने लगा। पिछली शाम से अब तक का घटनाक्रम दो मिनट में ही चलचित्र की तरह उसके मस्तिष्क में घूम गया। एक अनिवर्चनीय संतोष की रेखाएँ उसके चेहरे पर उभर आयीं, आखिर में वह अब मुक्त हो गई थी। तेज़ गति से चलने के कारण अपने चेहरे पर उभर आये स्वेद-बिंदुओं को रुमाल निकाल कर उसने पोंछा।

   वह अब आराम से चल रही थी। लगभग पन्द्रह मिनट हो गये थे चलते-चलते, किंतु कोई इन्सान उसे इस रास्ते पर अभी तक दिखाई नहीं दिया था। सहसा उसे बलदेव का ध्यान हो आया, 'पता नहीं, उन्हें होश आया होगा या नहीं। अगर दीपक को आने में देर हो गई तो क्या होगा उनका? कहीं... नहीं-नहीं, उनके साथ कुछ बुरा नहीं होना चाहिए। उस व्यक्ति ने तो मेरे साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया है। हे भगवान, रक्षा करना उनकी! बहुत बुरा लग रहा है कि उनकी कोई मदद नहीं कर सकी मैं।'
  
 करिश्मा ने देखा, अब सड़क डामर की थी और सड़क के एक ओर कुछ-कुछ दूरी पर मकान भी नज़र आ रहे थे। तभी उसे सामने से एक ऑटो रिक्शा आता दिखाई दिया जो शायद किसी सवारी को लेकर आ रहा था। पचास-साठ फीट की दूरी पर एक मकान के पास वह ऑटो रिक्शा रुका और एक सवारी को उसने वहाँ उतारा। करिश्मा ने हाथ के इशारे से ऑटो-चालक को अपने पास बुलाया। अपने घर का पता बता कर वह ऑटो में बैठ गई। पांच-सात मिनट ऑटो चला था कि उसे अब कुछ दुकानें भी नज़र आने लगीं। उसे उन दुकानों में एक मेडिकल स्टोर भी दिखाई दिया।
 'शायद यहाँ बलदेव जी का इनहेलर मिल सकता है, लेकिन मैं यह सब क्यों सोच रही हूँ। इनहेलर यहाँ मिलता है या नहीं, मुझे इससे क्या?' -उसके दिमाग में उथल-पुथल हुई। ऑटो यथावत आगे बढ़ रहा था। मेडिकल स्टोर अब पीछे छूट गया था।
"भैया, ऑटो रोको।" -सहसा करिश्मा ने ऑटो-चालक से कहा।
"क्या हुआ मैडम?"
"वह पीछे एक मेडिकल स्टोर आया था न, वहाँ वापस चलो।" -करिश्मा की सुकोमल भावनाओं ने कुछ निश्चय कर लिया था।
"मैंने तो नहीं देखा, आप बता देना आ जाये तब।" -कह कर ऑटो चालक ने ऑटो पीछे घुमा लिया।

ऑटो-रिक्शा को मेडिकल स्टोर तक लौटने में दो-तीन मिनट ही लगे। चालक को रुकने को कह कर करिश्मा स्टोर पर गई और उसी नाम का इनहेलर माँगा जो बलदेव के काम आता था। दूकानदार रैक से इनहेलर ले आया। कीमत का भुगतान कर वह इनहेलर ले कर वापस ऑटो में आ गई और बोली- "अब हमें वापस इधर ही जाना है, जहाँ मैं आपके ऑटो में बैठी थी, उससे कुछ आगे तक।"
"अरे, आप दवाई ही लेने आई थीं तो मुझे यहाँ रोका क्यों नहीं था?" -ऑटो-चालक ने वापस उसी रास्ते पर लौटते हुए पूछा।"
करिश्मा ने कोई जवाब नहीं दिया। उसका दिमाग आगे की बात सोच रहा था।

 रास्ता सीधा ही आ रहा था, अतः ऑटो-चालक को कुछ विशेष बताने की ज़रुरत नहीं पड़ी। बलदेव के फार्म हाउस पर पहुँच कर करिश्मा ने ऑटो-चालक द्वारा बताये अनुसार भुगतान किया और फार्म हाउस के भीतर चली गई। अन्दर आवास पर पहुँची तो देखा, दरवाज़ा वैसा ही अधखुली हालत में था, जैसा वह छोड़ कर गई थी। भीतर जा कर देखा, बलदेव वैसे ही ज़मीन पर पड़े हुए थे। एक बार तो उन्हें देख कर वह घबरा गई पर उसने पास जा कर उनकी नब्ज़ देखी तो वह चल रही थी अर्थात वह ज़िन्दा थे। उसने इनहेलर निकाल कर उसका ढक्कन खोल कर उनके होठों पर लगाया, लेकिन वह श्वांस खींचने की स्थिति में नहीं थे।
 करिश्मा परेशान हो गई, 'क्या मेरा यह सारा प्रयास इनके काम नहीं आएगा? इनको अगर कुछ हो गया तो? क्या मैं वापस भाग जाऊँ यहाँ से? नहीं-नहीं,... हे ईश्वर, क्या करूँ मैं?'
 तभी दरवाज़े पर किसी के आने की आवाज़ आई। करिश्मा ने पीछे की ओर देखा, दीपक था।
भयभीत नहीं हुई करिश्मा, उसे देखते ही बोली- "देखो दीपक, अंकल को अस्थमा का अटैक आया है। उनकी दवा ख़त्म हो गई थी तो मैं यह नया इनहेलर ले कर आई हूँ, मगर यह श्वांस खींच नहीं पा रहे हैं।"
 दीपक ने बलदेव की ओर बढ़ते हुए करिश्मा की तरफ आश्चर्य से देखा और उसके हाथ से इनहेलर ले कर बलदेव के पास गया। उसने बलदेव को हिला कर पहले तो आवाज़ लगाई, फिर जवाब नहीं मिलने पर उनके मुँह से अपना मुँह लगा कर कृत्रिम श्वांस दिया। दो मिनट के प्रयास में ही बलदेव के शरीर में हरकत आई और उन्होंने अपनी आँखें खोलीं। दीपक ने सहारा दे कर उन्हें बिठाया और इनहेलर उनके मुँह से लगाया। बलदेव ने दो-तीन बार धीमे-धीमे इनहेलर से दवा खींचने की कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुए। दीपक ने उन्हें उत्साहित करते हुए कहा- "थोड़ा ज़ोर से चाचा जी, एक बार और कोशिश करो।"
  बलदेव ने इस बार अपनी सम्पूर्ण शक्ति से इनहेल किया और दवा उनके फेफड़ों तक पहुँच गई। दीपक ने एक और पफ लेने के लिए कहा। बलदेव के शरीर में पहले पफ से कुछ ताकत आ गई थी, अतः इस बार उन्होंने अपने स्वाभाविक तरीके से इनहेल किया। अब वह बहुत-कुछ सामान्य स्थिति में आने लगे थे। दीपक उन्हें सहारा दे कर धीरे-धीरे दीवान तक ले कर आया और उस पर सुला दिया।
 अब कुछ निश्चिन्त हो कुर्सी पर बैठ कर दीपक ने करिश्मा से पूछा- "क्या तुम्हें दवा लेने चाचाजी ने भेजा था?"
"नहीं।" करिश्मा ने जवाब दिया और फिर बलदेव के अस्वस्थ होने से ले कर अब तक का समस्त वृतान्त दीपक को यथावत कह सुनाया।
 दीपक यंत्रवत सुनता रहा। दो मिनट की ख़ामोशी के बाद दीपक ने कहा- "तुम्हें आसानी से यहाँ से निकल भागने का मौका मिल गया था, फिर भी तुम लौट आईं। मैं तो दवा लाना भूल ही गया था। यदि यहाँ आने के बाद मैं दवा लेने जाता तो शायद चाचाजी जीवित नहीं बचते। तुमने मेरे चाचाजी की जान बचाई है। मैं तुम्हारे प्रति अहसानमंद हूँ, लेकिन मुझे माफ़ करना, मैं तुम्हे यहाँ से जाने की इजाज़त तो नहीं ही दूंगा।"
करिश्मा चुप रही। दीपक पुनः बोला- "तुम मुझे बेशर्म और अहसान-फ़रामोश कहोगी, लेकिन यह मेरी मजबूरी है। मेरे पास नौकरी नहीं है और मैं पैसे-पैसे को मोहताज़ हो गया हूँ। अगर तुम्हें जाने देता हूँ तो निश्चित बात है कि तुम्हारे पापा मुझे पैसा नहीं देंगे।"
 "नहीं दीपक, इस बच्ची को जाने दो, बल्कि तुम खुद इसको शहर तक छोड़ आओ। तुम्हारे चाचा की हर साँस इस बच्ची की कर्जदार है बेटा!" -दोनों ने चौंक कर देखा, बलदेव बोल रहे थे। वह पूरे होश में थे और करिश्मा द्वारा कही गई सारी बात उन्होंने सुन ली थी।
 दीपक ने अधिक प्रतिवाद न कर केवल इतना कहा- "लेकिन चाचाजी, अपना पैसा... ?"
 "किस्मत में होगा तो और कमा लोगे बेटा, इस नेक लड़की को छोड़ आओ।"
 "चलो!" -अनमने भाव से दीपक ने कहा।
 करिश्मा ने बलदेव के पास जा कर उनके पाँव छूए और आँखों में आंसू लिए कृतज्ञ भाव से उनकी तरफ देखते हुए वह दीपक की ओर लौटी। बाहर निकलते-निकलते उसने पीछे मुड़ कर देखा, बलदेव आशीर्वाद की मुद्रा में अपना हाथ उठाये हुए थे, उनकी आँखें डबडबा आई थीं।

 मुक्ति पा कर प्रसन्न थी करिश्मा, किन्तु मन उसका बोझिल हो रहा था। वह पूरी राह ईश्वर से बलदेव के स्वस्थ रहने की कामना करती आ रही थी। दीपक ने अपनी बाइक से उसे उसके घर से कुछ दूरी पर छोड़ दिया। रास्ते भर दोनों के बीच कोई बात नहीं हुई थी, किन्तु बाइक से नीचे उतरने पर करिश्मा ने उसे 'धन्यवाद' अवश्य कहा। दीपक सिर हिला कर लौट गया। वह इस बात से आश्वस्त नहीं था कि करिश्मा उसकी शिकायत नहीं करेगी, साथ ही पैसा मिल पाने की सम्भावना नहीं रहने से दुखी भी था, किंतु मन में एक संतुष्टि-भाव अवश्य था कि चाचाजी के कहने से उसने इस लड़की को मुक्त कर दिया था। आखिर वह अपराधी-मनोवृति का तो नहीं ही था। जो होना है, सो होगा, उसने सोचा।
  करिश्मा तेज़ क़दमों से चल कर घर पहुँची तो साँझ का अँधियारा घिरने लगा था। उसने सोच लिया था कि अब  आगे क्या और कैसे करना है।
  घर में प्रवेश कर करिश्मा मुख्य द्वार तक पहुँची और बेल बजाई। प्रौढ़वया गृह-सेविका, लक्ष्मी ने दरवाज़ा खोला और उसे देखते ही ख़ुशी से लगभग चीख ही पड़ी वह- "अरे, करिश्मा बाई सा!... कहाँ थीं आप? साहब कितना परेशान हो रहे थे?"
 "और लक्ष्मी ताई, आप? आप तो परेशान नहीं हुईं न?" -मुस्करा कर सहजता से करिश्मा ने कहा।
"मुझे तो सच कहूँ, रात भर नींद नहीं आई बाई सा! आपने फोन भी तो नहीं किया एक बार भी।" -लक्ष्मी ने जवाब दिया।
"कोई ख़ास बात नहीं है, तुम घबराओ मत। मैं एक सहेली के वहाँ फंक्शन था, सो वहीं रुक गई थी। मेरा फोन यहीं रह गया था और फिर इतनी बिज़ी हो गई थी कि टाइम ही नहीं मिला। अच्छा, अब जल्दी से एक कप चाय बना लाओ।"
 लक्ष्मी चाय बनाने चली गई और इधर करिश्मा ने अपने हाथ-पैर धोये और आरामकुर्सी पर पसर गई।
लक्ष्मी चाय व पानी का गिलास टेबल पर रख कर वापस चली गई। पानी पी कर करिश्मा चाय के घूँट लेने लगी।

 करिश्मा की माँ का देहावसान हुए डेढ़ वर्ष हो गया था। उन्हें कैंसर हो गया था। घर पर बेटी को तकलीफ न हो इसके लिए चतुर साहब ने पत्नी के देहांत के तीन माह बाद ही इस महाराष्ट्रीयन विधवा महिला को अपने एक परिचित के माध्यम से घर पर सेवा लिए रख लिया था। लक्ष्मी स्वभाव से गम्भीर किन्तु मिलनसार महिला थी। सारा काम समझ कर उसने घर अच्छी तरह से सम्हाल लिया था। उस समय करिश्मा बी. कॉम. के प्रथम वर्ष में अध्ययन कर रही थी। लक्ष्मी के आ जाने से उसका एकाकीपन तो ख़त्म हुआ ही था, उसे अपनी पढ़ाई करने के लिए अधिक समय भी मिलने लगा था।

  करिश्मा के द्वारा मना किये जाने के कारण लक्ष्मी ने चतुर साहब को उसके आने की सूचना नहीं दी थी। अपने आने के समय से भी आधा घंटा देरी से घर आये चतुर साहब। आते ही करिश्मा को देखा तो पहले तो वह चौंके फिर हर्षातिरेक से उनकी आँखें अनियंत्रित हो जल-प्लावित हो आईं, उसे अपने सीने से लगा कर बोले- "कहाँ थी मेरी बेटी तू? कहाँ चली गई थी?"
करिश्मा ने स्वयं को संयत करने की कोशिश की, पर अपने आँसू रोक न सकी, बोली- "सब बताती हूँ मेरे प्यारे पापा! पहले यह बताओ कि आप इतने लेट क्यों आये हो?"
करिश्मा का माथा चूम कर उसकी बाहें पकड़ कर चतुर साहब ने कृत्रिम रोष से कहा- "मुझसे कैफ़ियत पूछ रही है शैतान लड़की! मैं तो अभी थानेदार साहब से मिल कर आ रहा हूँ। पता करने गया था तेरे बारे में कि वह कुछ पता लगवा सके या नहीं। हाँ, अब बता कहाँ थी तू? मैं तो बावला ही हो गया था तू नहीं मिली थी अब तक तो।"
"सब बताती हूँ बाबा, पहले आप फ़्रेश हो लो और फिर चाय के साथ बात करते हैं।" -मुस्करा कर करिश्मा ने जवाब दिया और लक्ष्मी को आवाज़ लगा कर चाय बनाने की हिदायत देते हुए कहा- "मेरे लिए आधा कप ही बनाना।" 

 दस-पंद्रह मिनट बाद चतुर साहब लिविंग रूम में लौटे। चाय की सिप लेते हुए उन्होंने प्रश्नसूचक निगाह करिश्मा के चेहरे पर डाली।
 "पापा, मैं जानती हूँ कि आप बहुत बेचैन होंगे यह जानने के लिए कि मैं कहाँ थी। मैं फोन घर पर भूल गई थी इसलिए आपको कॉल भी नहीं कर सकी, लेकिन पापा मैं अब आपके सामने हूँ और सुरक्षित हूँ। मुझे आप से बहुत सी बातें करनी हैं, किन्तु अभी कोई बात नहीं करुँगी। मैंने लक्ष्मी ताई से तो कह दिया है कि मैं अपनी सहेली के वहाँ फंक्शन होने से रुक गई थी। कल शाम को मैं आपसे बात करूँगी। आज मैं थोड़ा आराम करना चाहती हूँ।"
चतुर साहब ने महसूस किया, करिश्मा के स्वर में गम्भीरता थी। उन्होंने दुराग्रह नहीं किया, बहुत भरोसा था उन्हें अपनी बेटी पर।
 अब उन्होंने मोबाइल उठा कर थानेदार को करिश्मा के घर लौट आने की सूचना दी। औपचारिक अभिवादन के बाद उन्होंने कहा- "जी, अब चिंता की कोई बात नहीं है। वह मेरे पास ही बैठी है। कुछ ग़लतफ़हमी हो गई थी, दरअसल वह उसकी एक फ्रेंड के वहाँ गई थी और वहाँ किसी फंक्शन में व्यस्त हो गई थी।... नहीं-नहीं, मोबाइल वह घर भूल गई थी। आजकल के बच्चे तो आप जानते ही हैं, चिंता ही नहीं करते कि पैरेन्ट्स पर क्या गुज़रती है।... आपका बहुत शुक्रिया!... आपको तकलीफ दी उसके लिए क्षमा चाहता हूँ।"
 करिश्मा ने गर्व और प्यार से अपने पापा की आँखों में झाँका व स्निग्ध भाव से मुस्करा दी।

 डिनर जल्दी ही करते थे सब लोग, सो डिनर के बाद करिश्मा जल्दी ही सो गई। सोते समय आज वह बहुत सुकून महसूस कर रही थी। कुछ देर तो उसके मस्तिष्क में कल से आज तक हुए घटनाक्रम की बातें ही घूमती रहीं, पर फिर कुछ ही देर में उसे गहरी नींद आ गई।
  अगले दिन सुबह वह आराम से उठी, देखा आठ बजने वाले थे। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ, वह दस-साढ़े दस घंटे तक सोई रही थी। बिस्तर से उठ कर बाहर आई। उसके पापा तैयार हो कर बैठे अखबार पढ़ रहे थे।
"सॉरी पापा, मुझे देर हो गई। आपने चाय पी ली है न?" -अपराध-बोध से ग्रस्त करिश्मा ने पूछा
"अकेले कैसे पीता बेटा? कल बड़ी मुश्किल से पी थी। चल, तू जल्दी से ब्रश, वगैरह कर के आ जा, फिर पीयेंगे।"
करिश्मा की आँखें भर आयीं। वह पापा से नज़रें बचा कर फ़्रेश होने चली गई। 

  जुलाई माह का दूसरे सप्ताह का मंगलवार था आज। चाय पीते-पीते करिश्मा की नज़र खिड़की से बाहर की ओर गई। सुबह हुई हल्की बूंदा-बांदी के कारण मौसम कुछ खुशगवार हो गया था। चतुर साहब को आज ऑफिस जल्दी जाना था, सो अख़बार की मुख्य-मुख्य खबरें देख कर उठ खड़े हुए और करिश्मा से बोले- "बिटिया, मैं चलता हूँ। कुछ ऑर्डर्स को आज ही इम्प्लीमेंट करना है। मैं लंच में नहीं आ पाऊँगा, शाम को मिलते हैं।"
"ओके पापा! ऑल द बेस्ट... लव यू!"
"लव यू टू बेटा।"- चतुर साहब ने कहा और बाहर निकल गये। लक्ष्मी टिफ़िन ले कर पीछे-पीछे गई और कार में रख आई।
 लंच लेने के बाद बाहर के लिए निकलते वक्त करिश्मा ने लक्ष्मी से कहा- "ताई, मैं एक घंटे में लौटती हूँ। आज बाहर नहीं रुकूँगी, इसलिए आज रात तुम्हारी नींद ख़राब नहीं होगी।... कह कर जाते-जाते पलटी और लक्ष्मी को देख कर मुस्करा दी।
"आप  भी ना... बाई सा!" -लक्ष्मी भी बरबस मुस्करा दी।                                                

   बाज़ार से लौट कर करिश्मा अपने बैडरूम में जा कर पलंग पर तकिये के सहारे बैठ गई व पहले अधूरा रह गया उपन्यास पढ़ने लगी।
  शाम को संध्या के पहले ही चतुर साहब घर आ गए थे। कुछ देर बाद पिता-पुत्री दोनों लॉन में बैठे चाय ले रहे थे।
 चाय ख़त्म कर के "एक मिनट में आती हूँ पापा!" -कह कर करिश्मा अपने कमरे में गई।
 दो मिनट में ही वह वापस लौटी और गम्भीर हो कर बोली- "पापा, मुझसे प्रॉमिस करो कि आप मेरी बात शांति से सुनोगे और मानोगे भी। मैं आज आपसे कुछ माँगना चाहती हूँ।"
 स्नेहसिक्त निगाहों से करिश्मा की और देखते हुए चतुर साहब ने कहा- "बेटी, तेरी कोई भी बात मैंने कभी टाली है? वैसे भी, तूने तो मुझसे कभी कुछ नहीं माँगा। और तो और, अपने मुँह से कभी बर्थडे गिफ़्ट भी तो नहीं मांगी तूने। बता, क्या चाहिए तुझे? मेरे बस में होगा तो ज़रूर दूँगा। तेरी मम्मी के जाने के बाद तेरे सिवा मेरा और है ही कौन मेरी बच्ची?" -कहते हुए उनकी आँखें नम हो आईं।
करिश्मा ने कुछ आगे की ओर झुक कर पापा की हथेली चूम ली। वापस सीधी हो कर बोली- "थैंक यू मेरे प्यारे पापा!"
करिश्मा ने अपनी जेब से निकाल कर एक चैक पापा के हाथ में रखा। चतुर साहब ने देखा, यह दीपक मल्होत्रा के नाम एक लाख पैंतीस हज़ार रुपये का एक एकाउंट पेयी चैक था।
"दीपक मल्होत्रा! यह तो हमारी फ़ैक्ट्री में काम करता था। क्या वही दीपक? तू कैसे जानती हो उसे? क्यों देना चाहती है उसे यह पैसा?" -एक साथ इतने प्रश्न कर निकले चतुर साहब के मुख से।
"आप जानते हो पापा कि मैंने यह चैक क्यों बनाया है, याद करो आप।"
"तू कब मिली उसे? क्या वह तुझे उठा ले गया था? उस चोर की इतनी हिम्मत कैसे हुई?" -चतुर साहब की आँखें क्रोध से लाल हो आईं।
"नहीं पापा, गुस्सा नहीं। आपने मुझसे प्रॉमिस किया है।"
 चतुर साहब ने दो मिनट के लिए आँखें बंद कर लीं। स्वस्थ-चित्त हो कर पुनः बोले वह- "बिटिया, तू नहीं जानती,
वह फर्म का कैश-सम्बन्धी काम देखता था और उसमें उसने घपला किया था। मैं उसके खिलाफ पुलिस में शिकायत भी कर सकता था, लेकिन मैंने उसे सिर्फ नौकरी से निकाला।"
 "उसका पैसा भी तो आपने नहीं दिया पापा।"
 "अरे, उसके द्वारा किया गया अपराध उसके रोके गये पैसे से ज़्यादा था बेटा! खैर, पहले तू यह बता कि तुझे यह सब कैसे पता चला और तू उससे मिली कैसे?"
 "यह भी तो  सकता है कि उसका कोई दोष नहीं हो, उसे किसी ने झूठा बदनाम किया हो। उसकी माली हालत अभी बहुत ज़्यादा ख़राब है।" -यह कह कर एक मिनट के लिए रुकी करिश्मा। उसने एक घूँट पानी पिया और फिर अपने अपहरण से वापस लौटने तक की लगभग सारी कहानी कह सुनाई।
 चतुर साहब शांति से सब सुन रहे थे। इस दौरान उनके चेहरे पर विभिन्न भाव आते-जाते रहे। सारी कहानी सुनने के बाद उन्होंने संतोष की सांस ली।
 "पापा, मैं चाहती हूँ, आप एक एक्स्टर्नल ऑडिटर से उस समय के सभी खातों की विस्तृत जांच करवाएँ।" -करिश्मा ने दो मिनट रुक कर सुझाव दिया।
 "ठीक है, तेरा सुझाव मान लेता हूँ। मैं तब से अब तक के खातों की जाँच करवाता हूँ।... लेकिन बेटा, उसने बहुत ग़लत कदम उठाया है। मैं इस अपराध के लिए उसे माफ़ नहीं कर सकता।" कहते हुए चतुर साहब ने करिश्मा द्वारा दिया गया चैक फाड़ डाला।
 "पापा, उसने आपकी बेटी को कोई नुकसान नहीं पहुँचाया और फिर उसके अंकल कितने भले आदमी हैं! जहाँ तक मेरा दिल कहता है, वह बेचारा बेक़सूर है।... आपने यह चैक फाड़ क्यों दिया?" -करिश्मा ने कुछ विचलित हो कर पूछा।
  "इसलिए कि उसको पैसा तभी देंगे जब वह निर्दोष सिद्ध हो जाएगा और उसे पैसा देय होगा तो भी फर्म के खाते से देना होगा। जांच का परिणाम क्या होगा, हम नहीं जानते, किन्तु तेरी सोच के लिए मुझे तुझ पर गर्व है बिटिया!" -चतुर साहब ने आर्द्र स्वर में कहा और अपने कक्ष की ओर चल दिये। 
 इसके बाद इस विषय में फिर कोई वार्तालाप दोनों के मध्य नहीं हुआ।

   दो दिन बाद ही चतुर साहब ने एक प्रतिष्ठित ऑडिटर को अपने खातों की जांच के लिए नियुक्त कर दिया।
एक सप्ताह में जांच समाप्त हो गई और चतुर साहब ने धन्यवाद के साथ ऑडिटर का हिसाब भी चुकता कर दिया।

   ऑडिट-कार्य ख़त्म होने के तीन दिन बाद...
 रविवार का दिन था। शाम के वक्त लिविंग रूम में बैठे चतुर साहब कुछ कागज़ात देख रहे थे और करिश्मा उपन्यास पढ़ने में व्यस्त थी कि डोरबेल बजने की आवाज़ आई। करिश्मा ने बाहर जा कर दरवाज़ा खोला तो चौंक पड़ी, यह दीपक था। उसके मुँह से निकला- "दीपक तुम!"
  "हाँ, साहब से मिलना है और आपसे भी।"
 करिश्मा उसे ड्रॉइंग रूम में ले गई और बोली- "मैं पापा को बुलाती हूँ, लेकिन अगर तुम अपने पैसे के लिए आये हो तो बता दूँ कि ऑडिटर फर्म के पिछले तीन वर्षों के खातों की जांच कर रहा है। अगर तुम सही प्रमाणित हुए तो पापा तुम्हारा पैसा दे देंगे। अभी इस बाबत तुम्हारा बात करना व्यर्थ होगा।"
 "ठीक है, आप साहब से तो मिलवा दो।"
"जैसी तुम्हारी इच्छा। भेजती हूँ उन्हें।" -कह कर करिश्मा भीतर चली आई व दीपक के आने की सूचना चतुर साहब को दी।
"अच्छा, दीपक आया है!" -चतुर साहब ने कहा और ड्रॉइंग की और चल दिये। पाँच-सात मिनट बाद ही ड्रॉइंग रूम से उन्होंने करिश्मा को आवाज़ लगा कर बुलाया। करिश्मा आई तो उन्होंने उसे बैठने का इशारा किया और बोले- "करिश्मा बिटिया, अब यह हमारी फर्म में बतौर अकाउंटेंट काम करेंगे।"
 दीपक ने हाथ जोड़ कर उसका अभिवादन किया। करिश्मा ने आश्चर्य से पहले दीपक की ओर देखा और फिर अपने पापा की ओर।
 "हाँ बेटा, अभी तीन दिन पहले ही फर्म के खातों का ऑडिट पूरा हुआ। पता लगा कि चतुर्भुज ने निकट की रिश्तेदारी और मेरे विश्वास का फायदा उठा कर न केवल दीपक के खिलाफ़ मेरे सामने ग़लतबयानी की थी, बल्कि तब से अब तक में वह करीब तीन लाख रुपये का गबन भी कर चुका है। जिस बेनामी फर्म को चैक जारी हुआ था, उसमें चतुर्भुज की लिप्तता का प्रमाण भी मिल गया है। मैंने परसों ही दीपक का बकाया पैसा अब तक के ब्याज सहित ऑनलाइन ट्रांसफर कर दिया था। कल इन्होंने मुझे फोन कर धन्यवाद देते हुए माफी भी मांगी। मैंने भी अपनी ग़लतफ़हमी के लिए खेद प्रकट करते हुए इन्हें वापस नौकरी का ऑफर दे दिया था। ड्यूटी कल जॉइन करेंगे पर यह चाहते थे कि घर पर आ कर तेरा शुक्रिया अदा करें, इसीलिए आज घर आये हैं।"
   दीपक ने बार फिर करिश्मा के आगे हाथ जोड़ कर कृतज्ञता-ज्ञापन किया और बोला- "करिश्मा जी, मैं अपनी उस दिन की भूल के लिए आपसे क्षमा चाहता हूँ। आपकी ही बदौलत मुझ पर लगा कलङ्क मिट सका है। मैं आपका यह अहसान कभी नहीं भूलूँगा।"
 मुस्करा कर करिश्मा ने भी हाथ जोड़ दिये व बोली- "बलदेव अंकल अब कैसे हैं? उन्हें मेरा नमस्कार कहना।"
 "वह अच्छे हैं करिश्मा जी! उन्होंने आपके लिए आशीर्वाद कहा है।"
 प्रत्युत्तर में सिर को एक हल्की जुम्बिश दे कर करिश्मा ने चतुर साहब की ओर देख कर पूछा- "और पापा, चतुर्भुज भैया का क्या रहा?"
  "वह तो अब पुलिस का मेहमान है बिटिया।" -क्षुब्ध स्वर में चतुर साहब ने बताया।
दीपक नमस्कार कर चला गया।

रात को डाइनिंग टेबल पर...
"क्या बात है बिटिया, देख रहा हूँ तुम बड़ी देर से कुछ परेशान नज़र आ रही हो? तुम्हारा न्याय तो पूरी तरह से फलीभूत हो गया है। अब भी क्या कोई परेशानी शेष रह गई है?" -चतुर साहब ने करिश्मा से पूछा।
"पापा, अब तो चतुर्भुज भैया को सज़ा मिलेगी। क्या उन्हें जेल हो जाएगी?"
"हाँ, हो तो सकता है ऐसा।"
"उनका इस दुनिया में कोई नहीं है। आपने ही उन्हें सहारा दिया था। अब तो उनका जीवन ही बर्बाद हो जाएगा।"
"उसने काम ही ऐसा किया है बेटा, हम क्या कर सकते हैं?"
दो मिनट खामोश रह कर करिश्मा चिन्तित स्वर में बोली- "पापा, यह सब मेरे कारण हुआ है। दीपक के साथ तो न्याय हो गया, पर चतुर्भुज भैया को जो कुछ भुगतना पड़ेगा, उसके लिए मुझे अफ़सोस हो रहा है। उनको काम से हटाना तो सही है, पर इतनी बड़ी सज़ा उन्हें मिलेगी, नहीं जानती थी।"
"तुम्हारी नन्ही जान किस-किस के लिए परेशान होती रहेगी? सब बात छोड़ो अब और मस्त रहो प्यारी बिटिया! इतनी संजीदगी इस उम्र में नहीं होनी चाहिए कि औरों के बारे में ही सोच-सोच कर परेशान होती रहो।"
चतुर साहब ने देखा कि करिश्मा की मुख मुद्रा अब भी यथावत गम्भीर ही बनी हुई है तो उठ कर करिश्मा के पास आये और उसके कंधे पर हाथ रख कर मुस्करा कर बोले- "क्यों चिंता करती है पगली? जब दीपक को मैंने मात्र नौकरी से ही निकाला था, तो चतुर्भुज को जेल कैसे भिजवाऊँगा? थानेदार साहब मेरे अच्छे मिलने वाले हैं। मैंने उन्हें कह दिया है कि उसे थोड़ा धमका कर आगे से नेकचलनी के लिए पाबन्द करवा दें। हाँ लेकिन, अब हमारा उससे कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा। उसे अपने तौर पर नये सिरे से ज़िन्दगी तलाशनी होगी।"
"सच पापा?... यू आर ग्रेट... आई लव यू सो मच!" -उल्लसित करिश्मा अपने पापा से लिपट गई।


                                                               *********

टिप्पणियाँ

  1. मेरी रचना को सम्मान देने के लिए हार्दिक आभार भाई रवीन्द्र जी!

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  2. सराहना के लिए आपका आभार बंधुवर!

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही कोमल मन होता है बच्चों का जिसके साथ वह समय व्यतीत करते है उन्हें तकलीफ़ में नहीं देख सकते। मन को छूती बेहतरीन कहानी।
    सादर

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  4. मुझे प्रसन्नता है कि आपने मेरी कहानी को पढ़ने के लिए अपना अमूल्य समय दिया। सराहना के लिए आपका बहुत-बहुत आभार महोदया!

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