मीडिया में कुछ अपराध-सीरियल्स में तथा कुछ अपराध-आधारित मूवीज़ में अपराध के विभिन्न तरीकों को दर्शाया जाता है। इन कहानियों से जन-जागृति तो नहीं होती, अपितु अपराध के तरीकों को देख कर सामान्य अपराधियों को भी उन्हें आजमाने की प्रेरणा मिलती है। यह सब जानने के बावज़ूद अख़बार वाले सबक नहीं लेते। गैरज़िम्मेदारी का प्रमाण देखिये कि अभी हाल ही में एक अखबार ने खबर छाप दी कि शहर में एक ही सप्ताह में कई लोगों को श्वानों ने काटा है। इधर इस खबर का छपना था कि हमारी कॉलोनी के सीधे-सादे श्वानों ने भी दो ही दिनों में चार लोगों को काट खाया।
मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- मौसम बेरहम देखे, दरख्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है। बहार आएगी कभी, ये भरोसा नहीं रहा, पतझड़ का आलम बहुत लम्बा हो गया है। रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र का सिलसिला बेइन्तहां हो गया है। या तो मैं हूँ, या फिर मेरी ख़ामोशी है यहाँ, सूना - सूना सा मेरा जहां हो गया है। यूँ तो उनकी महफ़िल में रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन फिर भी तन्हा हो गया है। *****
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