Skip to main content

प्रेम और वासना (कहानी)

 
 


    प्रेम और वासना में वैसे तो बहुत अंतर होता है, किन्तु कभी-कभी दोनों के मध्य का अन्तर एक धागे से भी महीन रह जाता है। यह भी सच है कि कई बार प्रतिकर्षण ही आकर्षण का कारण बन जाता है। मेरी इस कहानी में इन्हीं मानवीय भावनाओं का संगम देखेंगे आप!

       प्रेम और वासना                                                               

         

       



लवलीन को इस मकान में आये लगभग एक माह हो गया था। पहले वह इसी कॉलोनी के एक अन्य मकान में रहता था, किन्तु वहाँ कमरा छोटा होने से पिछले माह इस मकान में आ गया था। इस दोमंजिला मकान की ऊपरी मंज़िल में बायीं तरफ वाले पोर्शन में मकान-मालिक (पति-पत्नी) रहते थे और दायीं तरफ अटैच्ड बाथरूम वाला एक कमरा था जिसे लवलीन ने किराये पर लिया था। ग्राउंड फ्लोर पर दायीं तरफ दो कमरे, किचन व बाथरूम के एक पोर्शन में किराये पर कल ही एक परिवार रहने के लिए आया था और बायीं तरफ का भाग पार्किंग के लिए था। लवलीन आज बिस्तर से उठा तो सुबह के सात बज रहे थे। कल रात वह एक मूवी का अन्तिम शो देख कर आया था, सो सुबह नींद देर से खुली। उठ कर जल्दी से प्रातःकालीन कर्म से निवृत हुआ और ऑफिस के लिए तैयार हो कर उसने आलमारी में देखा तो नाश्ते के लिए कुछ भी नहीं था। उसे याद आया कि फ्रिज में दूध भी नहीं है। घड़ी देखी, आठ बजने वाले थे। कुछ समय था उसके पास, अतः ब्रैड, बटर व दूध ख़रीदने के लिए मकान से कुछ ही दूरी पर स्थित दुकान की ओर चल पड़ा।

    

घर लौटने पर जब वह अपने कमरे पर जाने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ रहा था, उसे सीढ़ियों के साथ की दीवार पर लगे जालीदार वैण्ट के भीतर से पानी गिरने व किसी के गुनगुनाने की आवाज़ आई। यह वैण्ट वस्तुतः ग्राउण्ड फ्लोर वाले किरायेदार के बाथरूम का था। उसने एक सीढ़ी नीचे उतर कर वैण्ट के भीतर देखा। बाथरूम में एक छोटे स्टूल पर बैठ कर नहा रही लड़की अपने पाँवों को मल रही थी। उसका चेहरा दूसरी ओर था और वह एक फिल्मी गाना गुनगुना रही थी। वस्त्रविहीन उसकी गोरी-चिकनी पीठ पर फिसल रही शॉवर की बूँदों के साथ ही लवलीन की नज़रें भी ऊपर से नीचे तक फिसलने लगीं। मन्त्र-मुग्ध लवलीन उसके सौंदर्य का रस-पान करने में मग्न हो गया। वासना के आवेग के चलते उसकी धमनियों में रक्त-प्रवाह तीव्र होने लगा। इसी स्थिति में दो  मिनट की मदहोशी से वह तब जागा जब सहसा लड़की खड़ी हो कर पलटने का उपक्रम कर रही थी। हड़बड़ा कर फुर्ती से वह सीढ़ियों पर चढ़ गया। कमरे में पहुँच कर वह

अपनी सांसों पर काबू पाने के लिए कुछ देर के लिए पलंग पर बैठ गया। कुछ संयत होने पर उसके दिमाग में विचार आया कि कहीं लड़की ने उसे देख न लिया हो। सिर झटक कर लवलीन पलंग से खड़ा होते हुए बुदबुदाया- 'अगर उसने देखा भी हो, तो अब क्या हो सकता है!'

स्टोव पर दूध गर्म करते वक्त फिर से उसकी आँखों में वह दृश्य उभरा और उसके पूरे शरीर में झुरझुरी हो आई। मूलतः वह एक संस्कारी युवक था, किन्तु इस दृश्य ने उसके तन-बदन को सुलगा दिया था। उसने आधा गिलास पानी पी कर स्वयं को संतुलित किया और फिर ब्रेड को बटर के साथ सेंक कर दूध के साथ नाश्ता किया।

  

लवलीन ने कॉलेज से निकलते ही L.I.C. की एक प्रतियोगिता परीक्षा दी थी और उसमें सफल हो जाने से अपने गाँव के नज़दीक ही इस शहर में L.I.C. में डेवलपमेंट ऑफिसर बन गया था। आज कुछ देर हो गई थी अतः उसने अख़बार को हाथ भी नहीं लगाया और नाश्ते के बाद जूते पहन कर तेजी से नीचे आया। अपनी बाइक उठा कर वह ऑफिस के लिए रवाना हो गया।

संयोग ही था कि शाम को ऑफिस से लौट कर लवलीन जब घर के पोर्च में बाइक रख रहा था, उसने देखा, मकान के मुख्य दरवाजे से सामान्य कद-काठी वाली एक खूबसूरत लड़की अपने हाथ में पर्स थामे भीतर आ रही है। उसने अनुमान लगा लिया कि जिस बेतकल्लुफी से वह आ रही थी, निश्चित ही वह उसकी वही पड़ोसी लड़की है। जैसे ही लड़की नज़दीक आई, आगे बढ़ कर मुस्कराते हुए वह बोला- "हाय, मेरा नाम लवलीन है, लवलीन शुक्ला! L.I.C. में डेवलपमेन्ट ऑफिसर हूँ। मैं ऊपर वाले कमरे में रहता हूँ। आप लोग शायद कल ही आये हैं इस मकान में। आप का शुभ नाम जान सकता हूँ?"

"माधवी!" -लड़की ने भावविहीन चेहरे से संक्षिप्त जवाब दिया और अपने घर में चली गई।

माधवी का संक्षिप्त उत्तर व उसकी मुखमुद्रा देख कर लवलीन का माथा ठनका, ‘इसको शायद पता लग गया है कि मैंने वैण्ट से उसे नहाते हुए देखा है।’ वह धीमे क़दमों से सीढ़ियों की ओर बढ़ा। सीढियाँ चढ़ते समय उसकी नज़र वैण्ट पर पड़ी। उसपर भीतर से मोटा पर्दा लगा हुआ था। अब तो उसे पूरा विश्वास हो गया कि माधवी को मेरी चोरी का पता लग गया है। कमरे में पहुँच कर कपड़े बदल कर अनमना-सा वह पलंग पर लेट गया। उसे पछतावा हो रहा था, उसे चोरी-छिपे माधवी को नहीं देखना चाहिए था। 

कुछ ही देर में उसके विचारों ने करवट बदली, 'अरे, क्यों परेशान हो रहा हूँ मैं, क्या उसे ध्यान नहीं रखना चाहिए था कि पर्दा लगा कर नहाती? अगर कोई प्रदर्शनी लगाएगा तो दर्शक तो आकर्षित होंगे ही न! लड़की ही तो है, थोड़े नखरे तो दिखायेगी ही। आ जाएगी लाइन पर, थोड़ी कोशिश ही करनी पड़ेगी, बस! इसको छोड़ना नहीं है मुझे। कम्बख्त क्या बदन है उसका? खुली पीठ ही दिखी थी उसकी, पर उफ्फ़! निगाह हटाने को जी ही नहीं कर रहा था। मुझे उसे हासिल करना ही है।'

इस विचार के साथ ही लवलीन के तन-बदन में बिजली-सी दौड़ गई। वासना के आवेग के आगे उसके पारिवारिक संस्कार दम तोड़ रहे थे। उसने निश्चय कर लिया कि वह माधवी को पा कर ही रहेगा। 


अगले दिन जब लवलीन ऑफिस से ड्यूटी के बाद IDFC बैंक के पास से निकल रहा था कि उसकी नज़र बैंक से बाहर निकल रही माधवी पर पड़ी।

'ओह तो यह इस बैंक में काम करती है!' -वह मुस्कराया। 

लवलीन ने नोट किया, माधवी ने उसे नहीं देखा था। वह सड़क किनारे बाइक रोक कर माधवी के आगे निकल जाने की प्रतीक्षा करने लगा। माधवी चलते-चलते पास ही के बस-स्टॉप पर रुक गई। अब लवलीन ने बाइक आगे बढ़ाई व बस-स्टॉप के निकट ठीक माधवी के पास जा कर रुक गया। 

"हाय माधवी! घर जा रही हो?" -उसने माधवी से पूछा। 

'हाँ' की मुद्रा में माधवी ने सिर हिलाया। 

"पास में ही है हमारा ऑफिस। ड्यूटी कर के आ ही रहा था कि आप नज़र आ गईं। आओ, बाइक पर आ जाओ, मैं भी घर ही जा रहा हूँ।"

"नो थैंक्स! मैं बस से जा रही हूँ।" -माधवी का जवाब था। 

अपने प्रस्ताव के इन्कार से आहत लवलीन चुपचाप आगे बढ़ गया। 

कुछ दिनों तक माधवी और उसका व्यवहार लवलीन को उद्वेलित करते रहे। लवलीन लम्बे कद का सामान्य रूप से एक आकर्षक युवक था। कॉलेज के दिनों में तीन-चार लड़कियों ने उसके निकट आने का प्रयास किया था, किन्तु कोई भी उसकी निगाहों में चढ़ नहीं पाई थी। माधवी के प्रति अनायास ही उसके मन में प्यार की तरंगें फूटने लगी थीं। उसके प्रति वासना का भाव यूँ प्यार में बदल जायगा, उसे भी इसका अहसास नहीं था।

एक दिन जब माधवी बैंक से बस-स्टैण्ड की तरफ जा रही थी, लवलीन ने उसे रोका। माधवी को उसके द्वारा बीच राह यूँ रोका जाना अच्छा नहीं लगा, लेकिन फिर भी वह रुक गई, बोली- "क्या चाहते हो?"

लवलीन को ऐसे सपाट प्रश्न की उम्मीद नहीं थी। हड़बड़ा कर उसने बिना किसी भूमिका के कह दिया- "माधवी, मैं तुमसे प्यार करता हूँ। प्लीज़ मेरा दिल मत तोडना।"

 "प्यार?... हुँह!" -कह कर माधवी आगे बढ़ गई।

माधवी के इस जवाब से लवलीन को बहुत आघात लगा। अब उसके मन में माधवी को येन-केन-प्रकारेण पाने की लालसा और भी बलवती हो उठी।

वह उसके विषय में अधिक जानकारी हासिल करने में जुट गया। कुछ सूत्रों से उसे पता लगा कि माधवी के पिता RAS अफ़सर हैं और किसी अन्य शहर में पद-स्थापित हैं। माधवी के नज़दीक आने का उसने दो-तीन बार और भी प्रयास किया, किन्तु माधवी ने उसे कोई तवज्जो नहीं दी। लवलीन मन ही मन माधवी से बुरी तरह चिढ़ गया, लेकिन एक ही मकान में पड़ोसी होने के कारण वह नहीं चाहता था कि अब और उसकी निगाहों में आये, अतः उसने उसका पीछा करना छोड़ दिया। 

एक तरफ लवलीन के मन में माधवी के प्रति गुस्सा था तो दूसरी तरफ उसके प्रति कोमल भावना  उसे बेचैन करती थी। प्यार के अहसास को वह स्वयं पर हावी नहीं होने देना चाहता था, सो जब भी उसके मन में ऐसे भाव उपजते, वह सिर झटक कर उनसे मुक्त होने का प्रयास करता।


उस दिन माधवी को बैंक में कुछ देर हो गई थी। जब वह बस स्टैण्ड पर पहुँची तो बस निकल चुकी थी। इस रूट पर बस एक-एक घण्टे में आती थी, अतः माधवी घर पैदल ही चल दी, जैसा कि उसे कभी-कभी करना पड़ जाता था। उसका घर बैंक से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर ही था। मुख्य सड़क छोड़ कर वह गली में मुड़ कर कुछ दूर ही चली थी कि स्कूटर पर आये एक युवक ने उस पर फ़ब्ती कसी और उसकी चुन्नी खींच कर आगे बढ़ गया। माधवी को याद आया, यह वही युवक है जो पिछले तीन-चार दिनों से बस-स्टैण्ड के पास खड़ा रह कर उसे घूरता रहा है। वह क्रोध में आ कर चिल्लाई- "यू... रास्कल!"

अचानक सामने से आ रहे लवलीन ने यह देखा और बाइक स्कूटर के सामने ला कर उस युवक को पकड़ लिया। लवलीन ने एक घूँसा उस युवक की बाँह पर जड़ कर उसके हाथ से चुन्नी छीन ली। उसने फिर उस पर प्रहार करने का प्रयास किया, किन्तु वह युवक वहाँ से सरपट भाग निकला।   

लवलीन ने माधवी को चुन्नी थमाते हुए कहा- "कैसे-कैसे बदमाश होते हैं! खैर, अब वह कभी ऐसी हिम्मत नहीं करेगा। तुम कहो तो मैं छोड़ दूँ घर?"

"मदद के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद लवलीन जी! आप चिंता न करें, घर पास में ही है, मैं चली जाऊँगी।" -चुन्नी कंधे पर डालते हुए माधवी हौले से मुस्कुरा दी। 

"ओके, टेक केयर" -कह कर लवलीन चल दिया। 


इस घटना के अगले दिन ऑफिस के लंच-टाइम में लवलीन अपने दोस्त धर्मेन्द्र के साथ ऑफिस से कुछ दूरी पर स्थित एक रेस्तराँ में बैठा था। आज अधिक क्लाइंट्स आ जाने के कारण वह थकान महसूस कर रहा था। कॉफी का ऑर्डर देने के बाद उसने अपनी आँखे बंद कर लीं। उसके दिमाग में पिछले पाँच-सात दिनों की सारी बातें घूमने लगीं। 

माधवी को परेशान करने के लिए उसने धर्मेंद्र से बात की थी, क्योंकि लड़कियों के मामले में वह काफी चलता-पुर्जा था। "यार धरम, कुछ ऐसा कर कि इस लड़की का दिमाग ठिकाने आ जाए।" -लवलीन ने माधवी के बारे में बता कर धर्मेन्द्र को कहा था। 

"तू उसको पटाना चाहता है या परेशान करना?"

"कम्बख्त पट ही तो नहीं रही है, बहुत मिजाज है इसको।"

"यह सब मुझ पर छोड़ यार! देख, ऐसा करते हैं, एक प्लान बनाते हैं। मुझे भरोसा है कि तेरा मामला जम जाएगा।" -धर्मेन्द्र अपनी एक आँख दबाते हुए मुस्करा कर बोला था।  

"क्या आइडिया है तेरे दिमाग में?"

"अरे वही, पुराना फ़िल्मी स्टाइल आजमायेंगे। मैं उसे दो-तीन बार छेड़ूँगा।... अरे हाँ, वह कपडे क्या पहनती है?"

"सलवार-कुर्ता"

"बस फिर, मैं उस पर निगाह रखूँगा। बैंक एम्प्लॉइज़ को कई बार बैंक में काम करते-करते देर हो जाती है। जिस दिन वह बस चूक जाएगी और घर पैदल जा रही होगी, मैं तुझे सूचना दे कर उसको रास्ते में छेड़ूँगा। बस, तू वहीं आ कर मुझ पर हीरोगिरी दिखाना और मैं वहां से भाग छूटूँगा। अब, यार के लिए एकाध-दो घूँसे खा भी लिए तो क्या फर्क पड़ता है।"

और दोनों ठहाका मार कर हँस पड़े थे।... फिर कल प्लान में कामयाबी भी मिल गई।


यह सब याद आते ही लवलीन के चेहरे पर मुस्कान तैर आई। 

"क्या बात है डियर, किस बात पर खुश हो रहा है?" -धर्मेन्द्र ने उसे झकझोरा। 

"अरे वही धरम, कल वाले नाटक का ध्यान आ गया था।" -लवलीन ने आँखें खोलीं। 

 "ऐश कर लवी, अब तेरा काम बन जायेगा। तुझसे इम्प्रेस तो हो ही गई है वह।" 

... और दोनों हँस दिये। 

अब तक कॉफी आ गई थी। कॉफी का पहला सिप उन लोगों ने लिया ही था कि लवलीन को रेस्तराँ के दरवाजे से माधवी उसकी किसी सहेली के साथ आती दिखाई दी। माधवी ने भी दोनों को देखा और बुरी तरह से चौंक पड़ी। उसे सारा माज़रा समझ में आ गया। उसने अपनी सहेली का हाथ पकड़ा और 'चल, वापस चलते हैं', कहते हुए रेस्तराँ से बहार निकल गई। 

लवलीन घबरा गया, 'उफ्फ़ सारे नाटक का पर्दाफाश हो गया, क्या पता था कि यह कम्बख्त भी यहाँ और इसी समय आ जाएगी।'

दोनों दोस्तों का मूड उखड़ गया, जैसे-तैसे कॉफी खत्म कर वापस ऑफिस चल दिये। 

  

लवलीन ने ऑफिस में बैठे-बैठे ही माधवी को बताने के लिए मन में एक स्पष्टीकरण तैयार किया। ऑफिस से छूटते ही वह बाइक उठा कर बस स्टैण्ड की और लपका। माधवी वहीं बस का इन्तज़ार करती मिल गई। 

"माधवी, दरअसल ...।" -लवलीन आगे और कुछ कहता, इसके पहले ही माधवी ने एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसके मुँह पर जड़ दिया। 

"यह थप्पड़ तुम्हें बहुत महंगा पड़ेगा माधवी।" -आस-पास खड़े, यह सब देख रहे लोगों से नज़रें चुरा कर लवलीन ने गुर्राते हुए कहा और बाइक ले कर वहाँ से चल दिया। 

घर पहुँच कर इधर लवलीन माधवी से बदला लेने की योजनाएँ बना रहा था और उधर माधवी भयभीत थी कि पता नहीं अब क्या होगा। बस में बैठी वह सोच रही थी कि अपनी मम्मी को सब बता दे और पापा को भी फोन करे, किन्तु फिर सोचा, अनावश्यक बात बढ़ेगी। चिन्तित मन से वह घर पहुँची। 

रात के नौ बज रहे थे। माधवी ने देखा, उसकी मम्मी अपने कमरे में कोई उपन्यास पढ़ते-पढ़ते सो गई हैं। मन ही मन एक कठोर निश्चय कर के वह अपने कमरे से निकली और ऊपर लवलीन के कमरे पर गई। कुछ क्षण की झिझक के बाद उसने हौले से दरवाज़ा खटखटाया। 

"कौन" -कहते हुए लवलीन ने दरवाज़ा खोला। 

माधवी को सामने देख पहले तो वह चौंका, फिर संतुलित हो कर बोला- "आओ माधवी! यह अचानक मेरे गरीबखाने में आने की मेहरबानी कैसे कर दी तुमने? आओ बैठो।"

"मैं यहाँ बैठने नहीं आई हूँ लवलीन! मैं कुछ कहने आई हूँ तुमसे। तुम अपना हर दांव-पेच आजमा चुके हो मुझ पर। अब आगे और क्या करना चाहते हो, यह भी बता दो।" -माधवी ने तल्ख़ आवाज़ में कहा।

"देखो माधवी, तुमने दो बार मेरा ऑफर ठुकराया है और आज थप्पड़ मार कर मेरा अपमान भी किया है, फिर भी मैं तुमसे प्यार करता हूँ।"

"मत बदनाम करो प्यार को। लवलीन, तुम क्या जानो कि प्यार होता क्या है? तुम जैसे हवस के पुजारी औरत को केवल एक शरीर समझते हैं। यह तो तुमने अपनी पहली हरकत से ही दिखला दिया है।... और फिर तुम्हारी वह घटिया फ़िल्मी चाल! यह तो अच्छा हुआ, जो मैंने तुम दोनों नाटकबाजों को कल एक साथ देख लिया।"

लवलीन तिलमिला गया, कुछ क्रोध से बोला- "माधवी, तुम फिर मेरा अपमान कर रही हो। प्यार में सब-कुछ जायज़ होता है। यह सब मैंने तुम्हें पाने के लिए किया था।"

"मुझे पाने के लिए तो कल को तुम मेरा अपहरण भी करवा सकते हो, मेरे साथ रेप भी कर सकते हो!... तुमने मेरा जीना हराम कर रखा है।… नहाते हुए मेरे बदन के कुछ भाग को तुमने चोरी से देखा है, लेकिन पूरा नहीं देखा। मैं तुम्हें अपना पूरा शरीर दिखाने आई हूँ। अगर इससे भी तुम्हें संतोष न मिले तो तुम बहुत कुछ कर सकते हो।" -आक्रोश में भर कर एक ही श्वांस में यह सब बोलते हुए माधवी ने कमरे का दरवाजा बन्द कर दिया और अपने वस्त्र उतारने शुरू कर दिये।   

उसने एक-एक कर अपने अंतर्वस्त्रों के अलावा अन्य सभी वस्त्र शरीर से उतार दिये। वह अपने अंतर्वस्त्र भी उतारने का उपक्रम कर रही थी कि काँपते हुए लवलीन ने अपनी आँखें बन्द कर लीं व करुण आवाज़ में बोला- "बस करो माधवी! अपने कपड़े पहनो और चली जाओ यहाँ से... प्लीज़ चली जाओ।" -वह रो पड़ा और पलंग पर उल्टा लेट गया। उसकी आँखों से आँसुओं की धारा फूट पड़ी थी। 

माधवी एक बार तो लवलीन का यह अप्रत्याशित रूप देख कर हकबका गई, फिर अपने कपड़े पहने और दरवाज़ा खोल कर बाहर निकल गई। 

लवलीन की आत्मा उसे धिक्कार रही थी, 'ओह, मैं वासना में अन्धा हो कर कितना भटक गया था! मुझ पर किस तरह का पागलपन सवार हो गया था इन दिनों! हे ईश्वर, मुझे माफ़ कर दो।' बड़ी देर तक सुबकता रहा वह।

उसने अभी डिनर भी नहीं लिया था। यूँ ही पलंग पर बिना कपड़े बदले, बिना कुछ ओढ़े पड़ा रहा और पता नहीं कब उसे नींद आ गई। 

सुबह नींद खुली, तो उसका सिर बहुत भारी था। रात की बात अभी भी मन में घुल रही थी। नित्य-कर्म से निवृत हो कर उसने चाय बना कर पी। नाश्ते का आज उसका मन नहीं हुआ। उचाट मन लिए वह ऑफिस पहुँचा, पर वहाँ भी उसका मन उद्विग्न ही रहा। सुबह से कुछ खाया नहीं था उसने, तो भूख भी लग रही थी, सो समय से कुछ पहले ही वह ऑफिस से निकल आया और एक रेस्तरॉं में खाना खाने घुस गया।

लवलीन घर पहुँचा तो छः बज रहे थे। कुछ देर कुर्सी पर खामोश बैठा रहा और फिर एक निश्चय कर उसने माधवी को पत्र लिखना प्रारम्भ किया। पत्र लिख कर तसल्ली के लिए उसने उसे पढ़ा और एक लिफाफे में बन्द कर के अपने पास रख लिया।

लवलीन ने निश्चय कर लिया कि अब वह इस मकान में नहीं रहेगा। उसमें अब यह साहस नहीं रहा था कि माधवी का सामना कर सके। उसने शीघ्रता से एक नया मकान तलाश किया और दो ही दिन के भीतर वह वहाँ शिफ्ट भी हो गया। अब उसने माधवी को अपना लिखा पत्र कूरियर कर दिया। 

माधवी को बैंक में लवलीन का पत्र मिला। घर पहुँचते ही अपने कमरे में जा कर उसने पत्र खोला। पत्र छोटा ही था सो एक ही साँस में पूरा पत्र पढ़ डाला, लिखा था-

'माधवी, मैं किन शब्दों में तुमसे क्षमा माँगूँ, समझ नहीं पा रहा। दरअसल मेरा अपराध क्षमा करने लायक है ही नहीं। तुम विश्वास नहीं करोगी, किन्तु इस तरह की सोच मेरे संस्कारों में नहीं है। पता नहीं कैसे मुझ पर वह पागलपन सवार हो गया था। मैं बेहद शर्मिंदा हूँ माधवी! अपनी उस बेहूदा हरकत के बाद मुझे कभी-कभी ऐसा भी लगता था कि शायद मैं तुम्हें पसन्द करने लगा हूँ, लेकिन जिस पसन्द की शुरुआत एक घिनौने तरीके से हुई हो, उसे 'प्यार' का नाम और अन्जाम नहीं दिया जा सकता था। उस घटना के बाद मैं तुम्हारा सामना नहीं कर सकता था, इसीलिए मैंने वह मकान भी छोड़ दिया है। क्षमा के योग्य नहीं हूँ, फिर भी हो सके तो मुझे क्षमा कर देना। 

-लवलीन'

माधवी कभी पत्र की ओर देख रही थी तो कभी अपने सामने की दीवार की ओर। उसका मस्तिष्क किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया के लिए तैयार नहीं था। वह दस मिनट के लिए अपने बिस्तर पर लेट गई। कई तरह के विचारों से जूझने के बाद वह उठी और फिर अन्य कामों में लग गई। 

   

लगभग दो माह हो गये थे लवलीन को नये मकान में आये हुए। ज़िन्दगी फिर से ढर्रे पर चलने लगी थी। इस बीच चार-पाँच बार ऑफिस आते-जाते माधवी को उसने देखा और माधवी की नज़र भी उस पर पड़ी थी, किन्तु लवलीन निगाह झुका लेता था। उससे नज़रें मिलाने का साहस लवलीन में नहीं रहा था।

एक दिन जब वह अपने ऑफिस में काम कर रहा था और अपने एक एजेंट के साथ किसी क्लाइंट से मिलने के लिए ऑफिस से निकलने ही वाला था कि उसके मैनेजर ने उसे बुलाया। मैनेजर ने उसे सूचित किया कि सिटी मजिस्ट्रेट साहब ने उसे अपने ऑफिस में बुलाया है। लवलीन को आश्चर्य हुआ कि सिटी मजिस्ट्रेट ने उसे किस लिए बुलाया होगा। अचानक उसके दिमाग में  ख़याल आया कि कहीं माधवी ने उसकी शिकायत तो नहीं कर दी है! ज़रूर ऐसा ही हुआ है। 'तो, माधवी अभी तक उसके लिए इतनी कड़वाहट दिल में लिये बैठी है...अभी तक!', लवलीन को चिन्ता हो आई और माधवी के प्रति कुछ आक्रोश भी उपजा। 

उसने बाइक उठाई और तुरन्त कलेक्टरेट जा पहुँचा। उसने सिटी मजिस्ट्रेट के कक्ष के बाहर बैठे अर्दली के हाथों अपना स्लिप भीतर भिजवाया। लवलीन की नज़र कक्ष के बाहर लगे सिटी मजिस्ट्रेट के नाम-पट्ट पर पड़ी। उस पर 'यज्ञ दत्त शर्मा' अंकित था। भीतर से एक व्यक्ति के बाहर निकलते ही उसको भीतर बुला लिया गया। 

लवलीन के अभिवादन का जवाब देने के बाद सिटी मजिस्ट्रेट यज्ञ दत्त शर्मा ने कहा- "तो तुम्हारा नाम लवलीन शुक्ला है!" 

"जी हाँ।" 

"क्या करते हो तुम?"

"जी, मैं L.I.C. में डेवलपमेंट ऑफिसर हूँ।"

"हम्म! तुम्हारे पापा क्या करते हैं?"

"वह हमारे गाँव के सरपंच हैं सर! पापा नौकरी के बाद राजनीति में आ गए हैं।" -लवलीन ने जवाब दिया। 

यज्ञ दत्त उससे बात भी कर रहे थे व साथ ही एक फाइल में भी नज़रें गड़ाये हुए थे। वह दो मिनट के लिए फाइल में व्यस्त हो गए। लवलीन मन ही मन कह रहा था, 'यह महाशय कोई इंटरव्यू ले रहे हैं क्या, आखिर मुझे बुलाने का मकसद क्या है इनका? सीधे-सीधे ही मतलब की बात क्यों नहीं कर रहे?'

फाइल से नज़र हटा कर उसे बंद करते हुए यज्ञ दत्त ने कुछ और इधर-उधर की बातें की लवलीन से और फिर अंत में बोले- "तुम माधवी को जानते हो न?"

"ज...जी हाँ। जो बैंक में है वही न?" -कुछ घबराहट भरी आवाज़ में लवलीन बोला। उसे यकीन हो गया, मामला गड़बड़ ही है।

"हाँ वही। वह मेरी बेटी है।"

"जी... जी सर, लकिन वो.... मैं...।" -लवलीन हकलाने लगा था।

वह कुछ और कहता, इसके पहले ही यज्ञ दत्त बोले- "हाँ-हाँ, मुझे सब पता है, माधवी ने मुझे सब-कुछ बता दिया है। तुम दोनों एक-दूसरे को पसन्द करते हो, यही न! मुझे कोई ऐतराज़ नहीं है बेटा! मुझे तो अपनी बेटी की ख़ुशी में ख़ुशी है। तो, मैं कब आऊँ तुम्हारे पापा से बात करने?”

लवलीन का मुँह खुला का खुला रह गया। वह किंकर्तव्यविमूढ़-सा उनकी ओर देखता रह गया। उसे अपने कानों पर भरोसा नहीं हो रहा था।

"तुमने जबाब नहीं दिया?" -यज्ञ दत्त ने उसकी तन्द्रा तोड़ी।

"जी सर, मैं उनसे पूछ कर बताता हूँ आपको।"

"ठीक है फिर, जल्दी ही बताओ मुझको।" -यज्ञ दत्त फिर एक नई फाइल देखने लगे।

लवलीन उन्हें नमस्कार कर के कक्ष से बाहर निकल आया।


दो-तीन दिन तक लवलीन सिटी मजिस्ट्रेट साहब की बातों पर मनन करता रहा। कहाँ तो सिर पर ओले गिरने की आशंका थी और कहाँ तन-मन को भिगोने वाली फुहार ने उसका स्वागत किया था। उसे मनचाही मुराद तो मिल गई थी, किन्तु यह चमत्कार हुआ कैसे? माधवी का पाषाण ह्रदय पिघला कैसे, उसने उसे क्षमा कैसे कर दिया? और यदि क्षमा कर भी दिया है तो भी शादी का निर्णय? 'हे ईश्वर! कैसे संभव हुआ यह? कहीं, मेरे पत्र में व्यक्त मेरे अनुताप के कारण तो नहीं?' सोच-सोच कर हैरान था वह।


आज ऑफिस पहुँचने के बाद लवलीन ने तय कर लिया कि आज ही वह माधवी से बात करेगा। ड्यूटी खत्म होने से आधा घण्टे पहले ही निकल कर वह माधवी के बैंक में जा पहुँचा। आज उसे किसी प्रकार का डर या संकोच नहीं था, सो माधवी की सीट पता कर सीधा उसके पास पहुँचा और वहाँ रखी एक कुर्सी उसके पास खिसका कर बैठ गया।

माधवी अचानक उसे देख कर पहले तो चौंकी पर दूसरे ही पल रूखे स्वर में बोली- "क्या बात है, यहाँ क्यों आये हो?"

"ओह सॉरी!" -कह कर पीड़ायुक्त आश्चर्य के साथ लवलीन कुर्सी से उठ गया।

"हा हा हा हा...।" -धीमे स्वर में, किन्तु खुल कर हँसते हुए माधवी ने लवलीन का हाथ पकड़ उसे वापस कुर्सी पर खींच लिया।

लवलीन के सहमे-से चेहरे पर मुस्कराहट खिल आई- "उफ्फ़! तुम्हारा यह शरारत भरा स्वागत! यू आर टू मच माधवी... सीरियसली!"

"अच्छा सुनो, हम लोग उसी रेस्तराँ में चलते हैं, वहीं बात करेंगे। तुम जरा बाहर इन्तज़ार करो, मैं अभी दो मिनट में आई।"

दस मिनट बाद दोनों रेस्तराँ में बैठे थे। लवलीन ने माधवी से पूछा- "क्या लोगी माधवी?"

"केवल कॉफी।"

लवलीन ने कॉफी का ऑर्डर दिया। दो मिनट तक दोनों खामोश रहे। दोनों ही नहीं समझ पा रहे थे कि बात कहाँ से शुरू की जाए। कॉफी आ गई थी, दोनों ने सिप लेना शुरू किया।

"कुछ कहोगी नहीं माधवी?" -लवलीन ने ही चुप्पी तोड़ी।

"अरे, कमाल है! मैं क्या बोलूँगी?" -माधवी मुस्कराई।

"ठीक है, तो मैं ही अपना प्रवचन प्रारम्भ करता हूँ।" -लवलीन हँस दिया, फिर कुछ गम्भीर हो कर बोला- "सबसे पहले तो मैं यह जानने को उत्सुक हूँ माधवी कि तुमने मुझे माफ़ कैसे कर दिया और फिर बजाय शिकायत करने के तुमने अपने पापा से कह कर मुझे पुरस्कृत करवा दिया? मेरा गुनाह माफ़ करने लायक तो नहीं था।"

"लवलीन, शिकायत करना मेरा स्वभाव नहीं है। मैं अपनी समस्या से स्वयं निपटना पसन्द करती हूँ। वैसे भी मैं बात को बढ़ाना नहीं चाहती थी। जब तुमने प्यार का प्रस्ताव रखा था तो उस समय वह बहुत बचकाना लगा था मुझे। तुमसे क्यों आकर्षित या प्रभावित होती मैं?" -इतना कह कर वह चुप हो गई।

लवलीन ने कुछ क्षण प्रतीक्षा की कि शायद माधवी अपनी बात जारी रखेगी, किन्तु उसने देखा, वह ख़ामोशी से कॉफी पी रही थी।

"फिर, फिर माधवी! तुमने मुझे माफ़ कैसे कर दिया?"

"वह तुम्हारा उस दिन सुबक-सुबक कर रोना तुम्हारे पश्चाताप का प्रमाण था। उस दिन मैंने तुम में एक अलग इन्सान को देखा। तुम्हारी जगह कोई और  होता, जैसा मैं तुम को समझ रही थी, तो आक्रोश में की गई मेरी हरकत का नाजायज़ फायदा उठा सकता था। तुमने वैसा कुछ नहीं किया। इसके बाद भी तुम पश्चाताप की आग में जलते रहे थे, जैसा कि मैंने तुम्हें देख कर बाद में भी महसूस किया था। मैंने कई दिनों तक सारे मामले पर मनन किया और फिर बस..." -माधवी खिलखिला कर हँस पड़ी।

भावातिरेक में लवलीन ने माधवी के हाथ को अपने दोनों हाथों में थाम लिया। उसकी आँखों में खुशी की दो बूँदें छलछला आईं।

रेस्तराँ में बैठे कुछ लोगों ने माधवी की हँसी की आवाज़ से चौंक कर उन दोनों की ओर देखा, किन्तु इससे बेखबर वह दोनों तो एक-दूसरे की आँखों में आँखें डाले मीठे सपनों में खो रहे थे।

                                                       

                                                                +++++++++


Comments

Popular posts from this blog

बेटी (कहानी)

  “अरे राधिका, तुम अभी तक अपने घर नहीं गईं?” घर की बुज़ुर्ग महिला ने बरामदे में आ कर राधिका से पूछा। राधिका इस घर में झाड़ू-पौंछा व बर्तन मांजने का काम करती थी।  “जी माँजी, बस निकल ही रही हूँ। आज बर्तन कुछ ज़्यादा थे और सिर में दर्द भी हो रहा था, सो थोड़ी देर लग गई।” -राधिका ने अपने हाथ के आखिरी बर्तन को धो कर टोकरी में रखते हुए जवाब दिया।  “अरे, तो पहले क्यों नहीं बताया। मैं तुमसे कुछ ज़रूरी बर्तन ही मंजवा लेती। बाकी के बर्तन कल मंज जाते।” “कोई बात नहीं, अब तो काम हो ही गया है। जाती हूँ अब।”- राधिका खड़े हो कर अपने कपडे ठीक करते हुए बोली। अपने काम से राधिका ने इस परिवार के लोगों में अपनी अच्छी साख बना ली थी और बदले में उसे उनसे अच्छा बर्ताव मिल रहा था। इस घर में काम करने के अलावा वह प्राइमरी के कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। ट्यूशन पढ़ने बच्चे उसके घर आते थे और उनके आने का समय हो रहा था, अतः राधिका तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दी। चार माह की गर्भवती राधिका असीमपुर की घनी बस्ती के एक मकान में छोटे-छोटे दो कमरों में किराये पर रहती थी। मकान-मालकिन श्यामा देवी एक धर्मप्राण, नेक महिल...

तन्हाई (ग़ज़ल)

मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- तन्हाई मौसम बेरहम देखे, दरख़्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है।   बहार आएगी कभी,  ये  भरोसा  नहीं  रहा, पतझड़ का आलम  बहुत लम्बा हो गया है।   रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र  का  सिलसिला  बेइन्तहां  हो  गया  है।    या तो मैं हूँ, या फिर मेरी  ख़ामोशी  है यहाँ, सूना - सूना  सा   मेरा   जहां  हो  गया  है।  यूँ  तो उनकी  महफ़िल में  रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन  फिर भी तन्हा  हो गया है।                          *****  

दलित वर्ग - सामाजिक सोच व चेतना

     'दलित वर्ग एवं सामाजिक सोच'- संवेदनशील यह मुद्दा मेरे आज के आलेख का विषय है।  मेरा मानना है कि दलित वर्ग स्वयं अपनी ही मानसिकता से पीड़ित है। आरक्षण तथा अन्य सभी साधन- सुविधाओं का अपेक्षाकृत अधिक उपभोग कर रहा दलित वर्ग अब वंचित कहाँ रह गया है? हाँ, कतिपय राजनेता अवश्य उन्हें स्वार्थवश भ्रमित करते रहते हैं। जहाँ तक आरक्षण का प्रश्न है, कुछ बुद्धिजीवी दलित भी अब तो आरक्षण जैसी व्यवस्थाओं को अनुचित मानने लगे हैं। आरक्षण के विषय में कहा जा सकता है कि यह एक विवादग्रस्त बिन्दु है। लेकिन इस सम्बन्ध में दलित व सवर्ण समाज तथा राजनीतिज्ञ, यदि मिल-बैठ कर, निजी स्वार्थ से ऊपर उठ कर कुछ विवेकपूर्ण दृष्टि अपनाएँ तो सम्भवतः विकास में समानता की स्थिति आने तक चरणबद्ध तरीके से आरक्षण में कमी की जा कर अंततः उसे समाप्त किया जा सकता है।  दलित वर्ग एवं सवर्ण समाज, दोनों को ही अभी तक की अपनी संकीर्ण सोच के दायरे से बाहर निकलना होगा। सवर्णों में कोई अपराधी मनोवृत्ति का अथवा विक्षिप्त व्यक्ति ही दलितों के प्रति किसी तरह का भेद-भाव करता है। भेदभाव करने वाला व्यक्ति निश्चित रूप स...