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'कमरा नं. 7' (कहानी)

बहुत आग्रह-मनुहार के बाद नीरव ने मेरी इच्छा पूरी करने के लिए पुष्कर जी जाने का कार्यक्रम बनाया। मनुहार कराने में उनकी भी ग़लती नहीं थी, उनका जॉब ही ऐसा था कि छुट्टियाँ बहुत मुश्किल से मिलती थीं। आज भी वह ऑफिस की ड्यूटी कर के आये थे। तीन दिन के सफर की पूरी तैयारी मैंने दिन में ही कर ली थी। एक सूटकेस और एक बैग में सारा सामान समा गया था। रात सवा आठ बजे की बस थी, सो हम साढ़े सात बजे घर से रवाना हो गये। विक्की तो घूमने जाने के नाम से कल से ही उछल रहा था।    बस में बहुत भीड़ थी, लोग ठसाठस भरे हुए थे। बस में ही पता चला कि ख्वाजा साहब का उर्स है, इसीलिए भीड़ ज़्यादा है। हमें तो इसका ध्यान ही नहीं रहा था। शुक्र है कि हमने अजमेर तक का रिज़र्वेशन करवा लिया था सो सीट तो मिल ही गई। इस रूट पर अभी निगम की कोई ए.सी. बस नहीं थी, अतः सामान्य बस का टिकट लेना हमारी मजबूरी थी। रात का वक्त था फिर भी गर्मी लग रही थी। गर्मी से हम तो परेशान थे ही, किन्तु विक्की का हाल बुरा था। मैं बार-बार उसे पानी का घूँट पिला रही थी। मोबाइल में डूबे नीरव कभी-कभी हमारी ओर देख लेते थे।     बस अपनी रफ़्तार से चलती चली जा

'और कोहरा छँट गया' (कहानी)

                                                                                                      "तुम खुद को समझती क्या हो वैभवी? क्या तुम्हें नहीं पता कि कितनी लड़कियाँ मुझ पर जान छिड़कती हैं? एहसान मानो कि तुम्हें मैंने इतनी तवज़्ज़ो दी और अपने प्यार के काबिल समझा। अरे, प्यार तो क्या, तुम तो मेरी दोस्ती के लायक भी नहीं हो।"    "मैं तुम्हारे उस एहसान को कभी नहीं भूलूँगी श्रीकान्त! मैं वास्तव में तुम्हारी दोस्ती के लायक भी नहीं हूँ और इसीलिए आज से मैं तुम्हारी सारी रिलेशनशिप से स्वयं को मुक्त करती हूँ। भूल जाऊँगी मैं तुम्हें और तुम्हारी दोस्ती को, एक बुरा ख्वाब मान कर।... गुड बाय!"- आहत वैभवी ने श्रीकान्त की आँखों में आँखें डाल कर गम्भीर स्वरों में उत्तर दिया व श्रीकांत की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा न कर अपनी क्लास की ओर चल दी। "हाँ-हाँ, गुड बाय! 'हमारे बीच इतनी दूरी आ चुकी है वैभवी कि अब हम कभी नज़दीक आ ही नहीं सकते। मैं अब तुमसे कभी बात नहीं करूँगा।"-श्रीकान्त की तल्खी भरी आवाज़ जा रही वैभवी के कानों में पड़ी।     श्रीकान्त और वैभवी किंग मेमोर

'प्रायश्चित' (लघुकथा)

 नमन करता हूँ मैं मेरी इस कहानी के वन्दनीय पात्र को और इसके जैसे सभी महामनाओं को!          पेंशनर चपरासी छगन लाल का उन्नीस वर्षीय बेटा मोहन आज फिर बैंक में बैंक-कर्मी शर्मा जी के सामने था। वह रो रहा था और आक्रोश में भी था- " एक्सीडेंट हो जाने से मेरे बापू जीवित प्रमाण-पत्र देने के लिए यहाँ आ नहीं सकते थे। 'बैंक में आ कर हस्ताक्षर करने पड़ते हैं' , यह कह कर कल आपने मेरे बापू के हस्ताक्षर हॉस्पिटल में करवाने के लिए जीवित प्रमाण-पत्र का फॉर्म नहीं दिया। उनकी पेंशन नहीं मिलने से हम दवाइयाँ नहीं ला सके। मेरे बापू दवा नहीं मिलने से आज सुबह मर गये बाबूजी! नेता,अफसर, व्यापारी, सब के सब कानून जेब में रखते हैं और आप हम गरीबों पर नियम-कानून लगाते हो। बापू तो गये ही, हम बेसहारा हो गए, पैसे-पैसे को मोहताज़ हो गए। अगर आपने बापू से अंगूठा लगवाने के लिए कल मुझे फॉर्म दे दिया होता तो वह बच जाते और नहीं भी बचते तो कम से कम हमारी एक साल की आमद का जुगाड़ तो हो जाता।" शर्मा जी हतप्रभ थे। अपने मन का गुबार निकालने आया मोहन रोता-रोता धीमे कदमों से बैंक से निकल गया।      मोहन घर पहुँचा, तो पास-प

'सही जनगणना' (लघुकथा)

  जनसंख्या गणना विभाग की वार्षिक बैठक थी। पाँच वर्षों के बाद करवाई गई जन-गणना की रिपोर्ट विभाग के निदेशक की टेबल पर रखी थी। रिपोर्ट देख कर निदेशक चौंक पड़े, सहायक निदेशक से पूछा- "जनसंख्या में 40 % की कमी कैसे आ सकती है, जबकि बढ़ती जनसंख्या को लेकर सरकार परेशान हो रही है। किसने तैयार की है यह रिपोर्ट?" मीटिंग में मौज़ूद विभाग में नवनियुक्त गणना-अधिकारी अविनाश ने खड़े होकर कहा- "सर, रिपोर्ट मैंने तैयार की है। मैंने अपने विभाग के सात होशियार कर्मचारियों की मदद से गणना करवाई है। सब की रिपोर्ट मिलने के बाद मैंने स्वयं रैण्डम चैकिंग कर सत्यापन करने के बाद ही सावधानी से रिपोर्ट तैयार की है। मैं इस रिपोर्ट के सम्बन्ध में तथ्यात्मक जानकारी दे सकता हूँ सर!", कहते हुए आत्मविश्वास से परिपूर्ण दृष्टि से उसने निदेशक की ओर देखा। निदेशक अविनाश के इस अप्रत्याशित उत्तर से चौंके और प्रश्न भरी नज़र अविनाश पर डाली। मौन स्वीकृति पाकर अविनाश ने अपनी बात कहना शुरू किया- "सर, मैंने तीन आदमियों को सड़क के चौराहों व उनके आस-पास की सड़कों पर लगाया और पुलिस विभाग, भ्रष्टाचार विभाग, नगरपालिका व

याराना (लघुकथा)

    शहर के पास का जंगल, फल-फूलों से लदे वृक्षों का इलाका! यहाँ टोनू और मिन्कू रहते थे अपने समाज के कुछ अन्य बन्दरों के साथ। दोनों बहुत पक्के दोस्त थे, लेकिन पिछले कुछ दिनों से उनकी दोस्ती में दरार आ गई थी। इस दरार का कारण थी कुछ ही दिन पहले पास के जंगल से अपने परिवार के साथ यहाँ आ बसी रिमझिम! गुलाबी होठों, मदमस्त आँखों वाली, छरहरे बदन की थी बन्दरिया रिमझिम। हाँ, उसकी चाल हिरणी जैसी नहीं थी, बस उछलती-कूदती रहती थी बन्दरों की तरह और यह भी कि वह जितनी सुन्दर थी, उतनी ही आलसी भी थी, कभी-कभी तो दो-दो दिन तक नहाती ही नहीं थी। अब जैसी भी थी वह, मिन्कू के मन को बहुत भाती थी। रिमझिम  को भी मिन्कू पसन्द था। उधर टोनू को अब मिन्कू आँखों देखे नहीं सुहाता था, क्योंकि वह भी रिमझिम को चाहने लगा था।     आज जब मिन्कू और रिमझिम दो पेड़ों पर इधर से उधर कूदते हुए अठखेलियाँ कर रहे थे कि अचानक टोनू आ गया। आते ही उसने मिन्कू को एक करारा थप्पड़ मारा। मिन्कू अकस्मात हुए इस प्रहार से घबरा कर बोला- "क्यों मारा तुमने मुझे?"    "मैं रिमझिम से प्यार करता हूँ। आज से तू कभी इसके पास आने की कोशिश भी