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भुतहा सड़क का रहस्य (कहानी)

                                                                                                                      अगस्त माह का प्रथम सप्ताह था। शहर में लॉक डाउन खत्म होने के बाद अचानक मिले एक प्राइवेट केस से निवृत होने के बाद प्राइवेट डिटेक्टिव रमेश रंजन शर्मा ने चैन की साँस ली थी। वह बुरी तरह उलझे हुए उस केस को सुलझाने के बाद तफ़री से अपना मूड ठीक करने के उद्देश्य से अपने मित्र आशुतोष खन्ना के यहाँ आया हुआ था। आशुतोष दूसरे शहर इंटोला में रहता था जो रमेश के अपने शहर विवेकपुर से क़रीब 205 कि.मी. की दूरी पर था। इंटोला प्रकृति की गोद में बसा एक खूबसूरत क़स्बा था। इंटोला के आस-पास की वादियों में भ्रमण और फिर अपने इस करीबी दोस्त का साथ पा कर तथा भाभी (मित्र की पत्नी) के हाथ की लज़्ज़तदार डिशेज़ खा कर रमेश का मन प्रफुल्लित हो गया था। यहाँ आये तीन दिन हो गए थे, सो आज वापस लौटने का उसका मन हो गया।   "अभी रात को क्यों निकल रहे हो यार, कल सुबह चले जाना।" -मित्र ने सलाह दी।  "नहीं दोस्त, अब मूड बन गया है तो निकल ही जाने दो।" -मुस्करा कर रमेश बोला।    वहाँ से विदा

आखिर कब तक ? (कहानी)

   "पापा मैं दो घंटे में ज़रूर लौट आऊँगी। मेरी कुछ फ्रेंड्स मुझे अलग से बर्थडे ट्रीट दे रही हैं। वहाँ से लौट कर मैं अपने घर के फंक्शन में शामिल हो जाऊँगी।… प्लीज़ पापा!... मम्मी, पापा को बोलो न, मुझे परमिशन दे दें।" -धर्मिष्ठा ने आजिज़ी करते हुए कहा।   "अरे बेटा, नहीं मानती तो जा आ। लेकिन देख, अपने रिश्तेदारों और तेरी फ्रैंड्स के अलावा मेरे स्कूल-स्टाफ से एक मित्र भी सपरिवार आ रहे हैं। अभी चार बज रहे हैं, छः बजे तक हर हालत में आ जाना। तब तक तेरी मम्मी और मैं पार्टी की व्यवस्था देखते हैं।" -धर्मिष्ठा के अध्यापक पिता प्रथमेश जी ने उसका कन्धा थपथपाते हुए प्यार से कहा।   धर्मिष्ठा कुलांचे भरती हुई अर्चना के घर पहुँची। अर्चना उसकी घनिष्ठ सहेली थी तथा कॉलेज में उसके साथ ही फर्स्ट ईयर में पढ़ती थी। उसके पापा बैंक में क्लर्क थे। अर्चना ने सजी-धजी धर्मिष्ठा को देखा तो देखती ही रह गई, बोली- "क़यामत ढा रही हो जान! आज तो यह बिजली कहीं न कहीं गिर कर ही रहेगी।” 'धत्त' कहते हुए धर्मिष्ठा ने उसके गाल पर हलकी-सी चपत लगाई। “अंकल-आंटी कहाँ हैं? उनसे भी मिल

'सुलगती चिन्गारी' (कहानी)

                                                मनोहर कान्त बहुत दुविधा में थे। पत्नी की मृत्यु हुए तीन वर्ष हो चुके थे, किन्तु उसकी याद अभी तक दिल से भुला नहीं सके थे। नज़दीकी रिश्तेदार लम्बे समय से उनसे दूरी बनाये हुए थे, क्योंकि उनकी उन्नति और समृद्धि से सबको कुढ़न थी। उनकी पत्नी के परिवार के लोगों ने भी अब इस परिवार में रुचि लेना बंद कर दिया था, लेकिन कुछ मित्र थे जो अपने-अपने तर्क दे रहे थे - 'एक कुँआरी बेटी है घर में, उसका अकेले मन कैसे लगेगा, फिर उसकी शादी भी तो करनी है। कहते हैं कि साठा उतना पाठा। अभी मात्र 53 वर्ष की उम्र ही तो है आपकी और फिर घर का चिराग भी तो आना चाहिए', कह कर फिर से शादी करने के लिए दबाव बना रहे थे। यही नहीं, उनकी स्वयं की बेटी रवीना भी इसके लिए ज़ोर दे रही थी।  अंततः सब लोगों के निरन्तर आग्रह से विवश हो कर मनोहर कांत ने विवाह के लिए हामी भर दी। आर्थिक रूप से वह समृद्ध थे सो कई विवाह-प्रस्ताव उनके पास आये। कुछ प्रस्तावों पर मनन करने के उपरांत अपने ही कायस्थ सम