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बन्धन (कहानी)

                       क्षमा और अनुज दो साल से एक-दूसरे के सम्पर्क में थे। वे कॉलेज के अन्तिम वर्ष में थे, तब से दोनों में दोस्ती थी जो बाद में प्यार में बदल गई। क्षमा एक परम्परावादी संस्कारी लड़की थी, जो शादी करने और परिवार बसाने का सपना देखती थी, जबकि अनुज एक आधुनिक लड़का था, जिसे एक स्वच्छन्द ज़िन्दगी पसन्द थी। दोनों की विचारधारा बुनियादी तौर पर भिन्न थी।  एक दिन, क्षमा ने अनुज से उनके भविष्य के बारे में बात करने का फैसला किया। क्षमा- “अनुज, मुझे तुमसे कुछ बात करनी है।” अनुज- “बोलो क्षमा!” क्षमा- “क्या तुम्हें नहीं लगता कि अब समय आ गया है कि हम अपने रिश्ते को अगले स्तर पर ले जाएँ?” अनुज- “तुम्हारा मतलब क्या है?” क्षमा- “अनुज, हमें अब शादी कर लेनी चाहिए।” अनुज- “शादी? क्षमा, हम इसके लिए अभी बहुत छोटे हैं।” क्षमा- “हम छोटे नहीं हैं अनुज! हम दोनों पच्चीस साल के हैं, हमने ग्रेजुएशन कर लिया है और अब नौकरी कर रहे हैं। हम दो साल से एक-दूसरे के करीब हैं, हमें किसका इंतज़ार है?” अनुज- “क्षमा, शादी एक बड़ा फैसला है। यह ऐसा कुछ नहीं है जो आप मनमर्जी से करते हैं।” क्षमा- “मैं यह सब यूँ ही नहीं क

बिछड़ा प्यार (कहानी)

कानपुर शहर के एक मोहल्ले में रहने वाले रिया और अमन बचपन के दोस्त थे, जो एक ही पड़ोस में पले-बढ़े थे। दोनों की ज़िन्दगी हँसते-खेलते अच्छे से गुज़र रही थी। कभी-कभी बचपन की उनकी आपसी चुहल कुछ इस सीमा तक बढ़ जाती थी कि दोनों आपस में झगड़ भी पड़ते थे। दोनों को फोटोग्राफी का शौक था और यदा-कदा जगह-जगह के कई तरह के फोटो लिया करते थे। कभी-कभार ऐसा भी होता था कि ‘मेरा फोटो तुझसे अच्छा’, कह कर एक-दूसरे के फोटो फाड़ डालने की नौबत भी आ जाती थी। बचपन का यह लड़ना-झगड़ना कब उनकी एक-दूसरे के प्रति आसक्ति में बदल गया, इसका उन्हें पता ही नहीं चला। उन्होंने अपने सपनों से लेकर अपने सभी रहस्यों तक को एक-दूसरे के साथ साझा किया था। वे अविभाज्य थे, एक शरीर और दो प्राण बन चुके थे। लेकिन अचानक उनकी किस्मत ने पलटा खाया और अमन का परिवार भीषण आर्थिक विषमता की जकड़न में आ गया। एक दिन अमन को अपने परिवार के साथ दूसरे शहर में जाना पड़ा। उन्होंने सम्पर्क में रहने का वादा किया और कुछ समय तक उन्होंने सम्पर्क बनाए भी रखा। उन्होंने एक-दूसरे को पत्र लिखकर अपने नये अनुभव और भावनाएँ साझा कीं। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, पत्रों का

'मैं तुलसी मेरे आँगन की' (कहानी)

  (1) आज रुद्र फिर खाना खाये  बिना ही ऑफिस चला गया था। कभी भी, कोई बात अच्छी नहीं लगती थी, तो वह अपना गुस्सा खाने पर उतार दिया करता था। आज भी ‘सब्जी अच्छी नहीं बनी है’, कहते हुए भोजन की थाली परे खिसका कर वह खड़ा हो गया था। अनामिका परेशान थी, 'दिन भर भूखे रहेंगे वह! यदि ऑफिस की कैन्टीन में कुछ नाश्ता कर भी लिया तो क्या? क्या घर के खाने की बराबरी हो सकती है? मैं अकेली कैसे खा लूँ, मैं भी नहीं खाऊँगी।' अनामिका खाना बनाने में प्रयुक्त  छोटे बर्तन हाथों से ही मांज कर व अन्य काम निपटा कर बाहर आ गई। कल उसका व्रत था, सो वह कल शाम से ही भूखी थी, किन्तु अब तो उसकी भूख ही मर गई थी। मोबाइल में गाने लगा वह लिविंग रूम में आ कर खिड़की के पास बैठ गई और बाहर आसमान को निहारने लगी। अगस्त का महीना था। आसमान में छाये बादलों से छन-छन कर आती हल्की धूप धरती को प्रकाशमान किये हुए थी। मौसम बहुत लुभावना था, फिर भी अनामिका  का मन व्याकुल था। मोबाइल से आ रही लता जी की मधुर आवाज़ में गाये गाने की स्वर-लहरी वातावरण में रस घोल रही थी, किन्तु अनामिका के मन के उद्वेग को कम करने में सफल नहीं हो पा रही थी। कुछ ही दे