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कुण्ठा (लघुकथा)

   पिछले दिन पड़ोसन कल्याणी के बच्चे के द्वारा फेंकी गई गेंद अहिल्या के रसोईघर में आ गई थी। कल्याणी से अनबन रहने के कारण अहिल्या वैसे भी उस बच्चे से चिढ़ती थी। आज फिर उसी बात को ले कर पति के सामने उस बच्चे के लिए लगातार भला-बुरा कहे जा रही थी। "कल की बात अभी तक मन में लिये बैठी हो। बख़्शो यार उसको।" -अमित अब तंग आ गया था। "कोई प्रॉब्लम है आपको मुझसे? न जाने क्या बात है इस कल्याणी के बेटे में कि जो भी उसे देखता है, दीवाना हो जाता है, चाहे उसके घर का मेहमान हो या हमारा। मेहमान तो मेहमान, आप भी तारीफ करते नहीं थकते उसकी। कल्याणी भी कितना इतराती है अपने बेटे को देख-देख कर, जैसे कि और कोई तो बेटे वाला होगा ही नहीं। दिमाग़ तो उसका बस आसमान में ही रहता है। हर समय ‘मेरा वीनू, मेरा वीनू’ गाती रहती है।" -अहिल्या मुँह फेर कर बर्तन मांजते हुए बोली। "अरे, तो वह उसका बेटा है भई। हमें क्यों परेशानी हो उससे?" -अमित बाज़ार जाने के लिए तैयार होने लगा था। "कई बार तो हद ही कर देती है, बोलती है- 'मेरा कन्हैया, मेरा कान्हा'। अब कान्हा कहाँ से हो गया वह? मुझे तो वह कहीं

इंसानियत की कीमत (लघुकथा)

            शाम का वक्त था। मनसुख बैसाखी एक तरफ रख कर सड़क के किनारे दूब पर बैठ गया। उसे यहाँ सुकून तो मिला ही, साथ ही उसे यह उम्मीद भी थी कि शाम को यहाँ आने वाले लोगों से कुछ न कुछ मिल भी जायगा। दिन भर वह समीपस्थ भीड़-भाड़ वाले बाज़ार में था, लेकिन उसे अब तक भीख में मात्र तीन-चार रुपये मिले थे। यहाँ दूसरी तरफ सड़क थी तो इस तरफ चार-पांच फीट मुलायम दूब वाले भाग के बाद चार फीट का फुटपाथ व उससे लगी हुई छोटी-बड़ी दुकानें थीं। इन दुकानों पर आने वाले ग्राहक सामान्यतया सम्पन्न वर्ग के लोग हुआ करते थे। यह छोटा-सा बाज़ार शहर के सबसे पॉश इलाके के पास स्थित था। नगरपालिका ने विशेष रूप से इस बाज़ार की रूपरेखा तैयार की थी।  यहाँ आने के बाद कुछ लोग उसके पास से गुज़रे भी और उसने मांगने के लिए उनके समक्ष हाथ भी फैलाया, किन्तु वह लोग  उसके कोढ़-ग्रस्त बदन पर एक हिकारत भरी नज़र डाल कर दूर हटते हुए आगे बढ़ गये। वह पहले भी कई बार परमात्मा को कोस चुका था और आज फिर उसने शिकायत की कि लंगड़ा तो उसे बना ही दिया था, उसे कोढ़ देने के बजाय दूसरी टांग भी ले लेते, तो ही ठीक था। उससे नफ़रत न करके कुछ लोग तो उसे कुछ दे जाते। सुबह से

परिमार्जन (कहानी)

                                               (1) मुश्ताक अली ने कुछ वर्षों की नौकरी से अच्छी बचत राशि एकत्र कर ली थी। अब वह अपनी नौकरी छोड़ कर कोई व्यवसाय शुरू करना चाहते थे। संयोग से उनकी मुलाकात एक व्यावसायिक मेले में वीर प्रताप सिंह नामक एक व्यवसायी से हुई। प्रारम्भिक परिचय, आदि के बाद मुश्ताक अली ने बात ही बात में जाहिर किया कि वह कोई व्यवसाय शुरू करना चाहते हैं और किसी व्यवसाय को सुचारु रूप से चलाने का गुर सीखने के इच्छुक हैं। परिचय की प्रक्रिया में ही वीर प्रताप ने भी उन्हें बताया कि उनका 'नूतन प्लास्टिक इंडस्ट्रीज़' नाम से पाइप-निर्माण का व्यवसाय है और औद्योगिक क्षेत्र स्थित उनकी फ़ैक्ट्री में ही फर्म का ऑफिस है। औपचारिकतावश वीर प्रताप ने उन्हें अपना परिचय कार्ड देकर अपनी फ़ैक्ट्री पर आने का निमंत्रण भी दिया। अगले ही दिन मुश्ताक अली नूतन प्लास्टिक इंडस्ट्रीज़ के ऑफिस पहुँच गए। कुछ औपचारिक बातों के बाद मुश्ताक अली ने उनकी फ़ैक्ट्री देखने की इच्छा व्यक्त की। वीर प्रताप ने अपने मैनेजर को साथ भेज कर उन्हें अपनी फ़ैक्ट्री विज़िट करवाई। मुश्ताक अली ने फ़ैक्ट्री से लौटने के बाद वीर प