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कुण्ठा (लघुकथा)

 

 पिछले दिन पड़ोसन कल्याणी के बच्चे के द्वारा फेंकी गई गेंद अहिल्या के रसोईघर में आ गई थी। कल्याणी से अनबन रहने के कारण अहिल्या वैसे भी उस बच्चे से चिढ़ती थी। आज फिर उसी बात को ले कर पति के सामने उस बच्चे के लिए लगातार भला-बुरा कहे जा रही थी।

"कल की बात अभी तक मन में लिये बैठी हो। बख़्शो यार उसको।" -अमित अब तंग आ गया था।

"कोई प्रॉब्लम है आपको मुझसे? न जाने क्या बात है इस कल्याणी के बेटे में कि जो भी उसे देखता है, दीवाना हो जाता है, चाहे उसके घर का मेहमान हो या हमारा। मेहमान तो मेहमान, आप भी तारीफ करते नहीं थकते उसकी। कल्याणी भी कितना इतराती है अपने बेटे को देख-देख कर, जैसे कि और कोई तो बेटे वाला होगा ही नहीं। दिमाग़ तो उसका बस आसमान में ही रहता है। हर समय ‘मेरा वीनू, मेरा वीनू’ गाती रहती है।" -अहिल्या मुँह फेर कर बर्तन मांजते हुए बोली।

"अरे, तो वह उसका बेटा है भई। हमें क्यों परेशानी हो उससे?" -अमित बाज़ार जाने के लिए तैयार होने लगा था।

"कई बार तो हद ही कर देती है, बोलती है- 'मेरा कन्हैया, मेरा कान्हा'। अब कान्हा कहाँ से हो गया वह? मुझे तो वह कहीं से भी कान्हा नहीं लगता। कहाँ हमारा कान्हा और कहाँ यह लंगूर? कान्हा तो हमारा बेटा था। काश, वह हमें छोड़ कर चला न जाता! कोई कुछ भी कहे, मुझे तो अब कोई भी बच्चा नहीं सुहाता, यह वीनू तो बिलकुल नहीं।" -अहिल्या अपना ही राग अलापे जा रही थी।

"बस भी करो अहिल्या, कब तक कोसती रहोगी उस छोटे-से बच्चे को? वैसे तो सभी बच्चे सुन्दर ही होते हैं, पर यह वीनू तो सच में ही सुन्दर और स्वीट है, हमारे कान्हा जैसा ही।" -अमित ने कहा और बाहर निकल गया।

"सुन्दर है तो हुआ करे, मुझे क्या? अब, अच्छे कपड़े पहना दो तो कुरूप बच्चा भी सुन्दर न दिखने लगेगा? सब पैसे की माया है। इनके पास पैसा है तो कुछ भी पहना देते हैं, चाहे वह कार्टून ही क्यों न लगे। मुआ कभी बीमार भी तो नहीं पड़ता, मुस्टण्ड हो रहा है। डेढ़ साल का भी नहीं हुआ और अच्छे से चलना सीख गया है। उधर मेरा भतीजा है कि बेचारा हर तीसरे-चौथे महीने बीमार पड़ जाता है।" -अहिल्या का टेप रिकॉर्डर बंद ही नहीं हो रहा था।

कोई जवाब न पा, अहिल्या ने सिर घुमा कर देखा, अमित जा चुका था। बर्तन मंज गये थे। कान्हा की याद ने उसे बेचैन कर दिया था। कमरे में आ कर कुर्सी पर सिर टिका कर वह बैठ गई। उसकी आँखें मुंद गई थीं। चार साल पहले की वह घटना उसके मस्तिष्क में कौंध गई, जिसने उसकी और अमित की दुनिया में तूफ़ान ला दिया था। 

वह लोग पहले एक अन्य मकान में पहली मंज़िल पर किराये पर रहते थे। उसका पति अपने ऑफिस गया हुआ था। वह अपने रसोईघर में काम रही थी और उसका दो साल का बेटा योगेश कमरे में सो रहा था। प्यार से दोनों उसे 'कान्हा' कहते थे। अहिल्या को पता भी नहीं चला कि कमरे में सो रहा उसका कान्हा कब नींद से जागा और बाहर की बरामदानुमा छत पर पहुँच गया। अचानक उसे 'धम्म' की आवाज़ सुनाई दी। वह भाग कर कमरे की ओर गई और वहाँ कान्हा को न पा, फुर्ती से बाहर छत की तरफ भागी। कान्हा को वहाँ भी नहीं देखा तो छत के नीचे झाँका। उसके कलेजे का टुकड़ा नीचे पथरीले चौक पर लहूलुहान पड़ा था। 

"कान्हा!" -चिल्लाते हुए गिरती-पड़ती वह सीढ़ियॉं उतरी व चौक में जा कर कान्हा को उठा कर सीने से लगा लिया और फूट-फूट कर रो पड़ी। आवाज़ सुन कर पड़ोसी भी आ गये। अहिल्या को सांत्वना देने की कोशिश कर एक ने उसके पति अमित को फोन किया। आनन-फानन में अहिल्या पड़ोसियों की मदद से बच्चे को अस्पताल ले गई। डॉक्टर ने जांच कर के कान्हा को इमर्जेन्सी में भर्ती कर लिया। तब तक अमित भी अस्पताल आ गया था। अमित सारी स्थिति जानने के बाद एकबारगी अहिल्या पर चिल्लाया- "बच्चे के मामले में इतनी लापरवाह कैसे रह सकती हो तुम?"

लोगों ने उसे समझाया कि उसकी पत्नी पहले ही बहुत दुखी है अतः उसे धैर्य रखना चाहिए। आवश्यक दवाएँ मंगवा कर बच्चे का गहन उपचार किया गया, लेकिन लगभग एक घंटे बाद डॉक्टर ने निराशा से सिर हिलाते हुए बताया- "सॉरी, हम बच्चे को बचा नहीं सके। सिर के बल गिरने से घातक चोट लगी थी और बहुत ज़्यादा रक्त-स्राव हो जाने के कारण हमारी सारी कोशिश बेकार रही।" 

बच्चे के निर्जीव शरीर को ले कर दोनों रोते-बिलखते घर लौटे थे। उनकी तो जैसे दुनिया ही उजड़ गई थी। बच्चे की गैरमौज़ूदगी में घर काटने को दौड़ता था। दोनों को समय गुज़ारना भारी हो रहा था। बच्चे को खोने के पंद्रह-बीस दिन बाद ही उस मकान को छोड़ कर वह इस नये मकान में शिफ्ट हो गये थे। मकान की पहली मंजिल पर कल्याणी का परिवार रहता था, जबकि यह लोग निचले भाग में रहते थे। इस मकान में यही दो किराये दार थे। मकान-मालिक कहीं और रहता था और हर महीने इन लोगों से अपना किराया लेने आ जाता था। 

विचार-श्रृंखला टूटी और अहिल्या उठ कर कमरे में टहलने लगी। बच्चे की मौत के बाद से अभी तक अहिल्या के और कोई संतान नहीं हुई थी, इसका भी उसे बहुत रंज था। उसका स्वभाव अब बहुत चिड़चिड़ा हो चला था। जब-तब वह कल्याणी से छोटी-छोटी बात पर उलझ पड़ती थी। ग़लती हो जाने के बाद कभी-कभी अहिल्या को उसका अहसास भी होता था, किन्तु उसका स्वयं पर नियंत्रण नहीं रहा था।

टहलते-टहलते अहिल्या बाहर खुले चौक तक आ गई। कल्याणी के घर के बाहर वाली छत पर उसका बेटा वीनू बॉल उछाल-उछाल कर खेल रहा था।

'कितना अच्छा हो, छोरा खेलते-खेलते नीचे गिर पड़े। मरे नहीं, पर एकाध हाथ-पाँव तो टूटे। पर यूँ थोड़े न गिरेगा। मरा, अच्छी किस्मत लिखा के जो आया है! तभी ना, कल्याणी इतनी हेकड़ी रखती है।', अहिल्या के दिमाग़ में चल रहा था।

तभी वीनू की बॉल उछल कर नीचे आ गिरी। वह बॉल लेने के लिए मुंडेर की तरफ आने लगा। अब वह मुंडेर से केवल एक-डेढ़ फीट पीछे था। अहिल्या ने मन ही मन कहा, 'भगवान करे, आज तो यह वीनू का बच्चा नीचे आ ही गिरे।'

वीनू अहिल्या की तरफ देखता, खिली मुस्कुराहट के साथ छोटे-छोटे डग भरते हुए आगे बढ़ रहा था। अहिल्या आतुर हो कर उसकी तरफ देख रही थी। मुंडेर के एकदम पास आ गया था वीनू।... अगले ही क्षण वह मुंडेर से नीचे झुक गया। नन्हे मासूम की निश्छल मुस्कुराहट ने अहिल्या की अंतरात्मा को झिंझोड़ दिया। पलक झपकने से पहले ही एक चीख के साथ अहिल्या के मुख से निकला- "कान्हा!"... और बिजली की गति से दौड़ कर उसने नीचे गिर रहे वीनू को अपने हाथों में थाम लिया।

'मैं कान्हा को दूसरी बार जाते हुए कैसे देख सकती थी?' -झर-झर बह रहे अहिल्या के आँसू उसके सीने से चिपके नन्हे वीनू को भिगो रहे थे।

हकबकाया वीनू भी अब रोने लगा था। अहिल्या की चीख व वीनू के रोने की आवाज़ कल्याणी तक पहुँची। भाग कर वह नीचे चौक में आयी। अहिल्या की गोद में वीनू को देखा तो तेज कदमों से उसके पास आ कर पूछा- "क्या हुआ अहिल्या, वीनू तुम्हारे पास कैसे, यह रो क्यों रहा है? इसे तो मैं ऊपर अपने साथ सुलाने की कोशिश कर रही थी और फिर पता नहीं कब मुझे नींद आ गई।" 

"क...कल्याणी भाभी, वीनू गेंद खेलते ऊपर से गिर गया। मैं यहीं चौक में खड़ी थी। देखा तो उसे झेल लिया।" तीव्र गति से चल रही अपनी सांसों को थाम कर बच्चा कल्याणी को सम्हलाते हुए अहिल्या ने बड़ी मुश्किल से जवाब दिया। उसकी पलकें झुक गई थीं, स्वर लड़खड़ा रहा था। 

कल्याणी तो वही जानती थी, जो उसने देखा था, बच्चे को सीने से लगा स्नेहादरित स्वर में बोली- "अहिल्या तुमने आज मेरे बच्चे को बचा लिया। तुम्हारा यह उपकार कभी नहीं भूलूँगी बहना!" आगे बढ़ कर उसने अहिल्या का माथा चूम लिया। 

"ऐसा न कहो भाभी।" -अहिल्या इससे अधिक कुछ नहीं कह सकी। कातर नज़रों से  एक बार उसने कल्याणी की आँखों में देखा और भाग कर अपने कमरे में चली आई। पलंग पर औंधे मुँह पड़ी वह देर तक सुबकती रही।

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टिप्पणियाँ

  1. 'मैं कान्हा को दूसरी बार जाते हुए कैसे देख सकती थी?' -झर-झर बह रहे अहिल्या के आँसू उसके सीने से चिपके नन्हे वीनू को भिगो रहे थे। ..........मां बाहर से कितनी भी कठोर हो लेकिन अंदर से वह ममतामयी ही होती है, उससे दूजा कोई नहीं

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  2. बहुत ही हृदयस्पर्शी कहानी
    आखिर माँ और ममत्व जीत ही गया ईर्ष्या और नफरत से ।

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