"चिन्टू! .....ओ चिन्टू! कहाँ है रे?"
दो मिनट ही हुए थे चिन्टू को विनीता के पास आये कि अनुराधा की तेज़ आवाज़ विनीता के कानों में पड़ी। सहम कर विनीता ने अपने पास बैठे चिन्टू को चूम कर कहा- "जा बेटा, तेरी मम्मी बुला रही है।"
"नहीं चाची, मैं अभी यहीं रहूँगा आपके पास।"- मचल कर चिन्टू बोला।
"ना बेटे, मम्मी बुला रही हैं न! अभी जा, बाद में फिर आ जाना।"- विनीता ने प्यार से समझाया।
चिन्टू विनीता के द्वारा दी गई टॉफ़ी मुँह में घुमाते हुए अनिच्छापूर्वक कमरे से बाहर निकल कर अपनी मम्मी के पास चला गया।
विनीता ने सुना, अनुराधा चिन्टू पर बरस रही थी- "फिर गया तू चाची के वहाँ? कितनी बार कहा है तुझसे मुँहजले कि वहाँ मत जाया कर।....और यह मुँह में क्या है ...निकाल, थूक इसे!" -और फिर दो-तीन थप्पड़ के बाद चिन्टू के जोरों से रोने की आवाज़ आई। विनीता का कलेजा मुँह को आ गया, चाहा, दौड़ कर जाये और चिन्टू को अपने ह्रदय से लगा ले, लेकिन अनुराधा के डर से ऐसा न कर सकी।
विनीता के लिए अनुराधा का यह व्यवहार कोई नई बात नहीं थी,लेकिन आज पहली बार उसके कारण अनुराधा ने चिन्टू की पिटाई की थी। वह चिन्टू से बहुत प्यार करती थी और चिन्टू भी माँ के बार-बार मना करने के बावज़ूद चुपके-से उसके पास चला आता था, लेकिन अनुराधा को यह कतई नहीं सुहाता था।
विनीता अपने पति केशव गुप्ता के साथ मकान के एक हिस्से में रहती है और उसके ज्येष्ठ परेश गुप्ता और उसकी पत्नी अनुराधा अपने तीन वर्षीय बच्चे चिन्टू के साथ दायीं ओर वाले हिस्से में रहते हैं। चिन्टू के विषय में सोचते-सोचते विनीता पिछले समय के ख़यालों में खो गई।
....चार वर्ष पहले केशव से उसकी शादी हुई थी। ससुर गुप्ता जी ने दोनों बेटों की शादी एक ही साथ करवा दी थी। उन्होंने मकान में दो पोर्शन अपने दोनों बेटों को दृष्टिगत रखते हुए बनवाए थे, लेकिन तब सभी लोग साथ-साथ ही रहते थे। बेटों की शादी के छः माह बाद गुप्ता जी का एक दुर्घटना में देहांत हो गया था। उनकी वसीयत के अनुसार दोनों बेटे मकान व अन्य संपत्ति का आपस में बंटवारा कर अपने-अपने हिस्से वाले पोर्शन में रह रहे थे। प्रत्येक के हिस्से में दो कमरे, एक रसोईघर तथा एक स्नानघर (आधुनिक शौचालय सहित) आया था।
सासू माँ उसके और केशव के साथ रहती थी। पति-वियोग में वह दुखी रहती थी तथा मन से सांसारिकता के प्रति विरक्त-सी हो गई थी और अन्ततः चिन्टू जब पांच माह का हुआ, वह भी संसार छोड़ गई। अल्पायु में ही दोनों के एक-एक कर चले जाने से घर में शोक छा गया था, लेकिन समय के साथ फिर सब लोग सामान्य स्थिति में आ गए थे।
दोनों भाई अलग-अलग रह रहे थे पर दोनों परिवारों में आपसी लगाव में कोई कमी नहीं आई थी। चिन्टू अपनी माँ और विनीता की देख-रेख में पलते हुए दो साल का हो गया था।
विनीता के कोई सन्तान नहीं हुई थी व डॉक्टर-वैद्य, आदि के अनुसार भविष्य में भी संतान पैदा होने की सम्भावना नहीं के बराबर थी। सन्तान नहीं होने के बावजूद केशव उससे बहुत प्यार करता था लेकिन वह स्वयं बहुत दुखी रहती थी। कभी-कभी वह पति से दूसरी शादी करने के लिए भी कहती, किन्तु केशव उसे प्यार से झिड़क दिया करता था।
दोनों परिवारों का समय अच्छा-भला निकल रहा था कि अचानक एक दिन चिन्टू को बहुत बुखार हो आया औरअस्पताल में इलाज के बावज़ूद स्वस्थ नहीं होने पर उसे ICU में भर्ती कराना पड़ा। डॉक्टर्स की अथक मेहनत से वह स्वस्थ हुआ और 12 दिन बाद अस्पताल से उसे छुट्टी मिल गई। उसकी अस्वस्थता के दौरान उसकी देखभाल में अनुराधा से कहीं अधिक विनीता लगी रही थी। विनीता तो उन दिनों जैसे अपनी सुध-बुध ही खो चुकी थी, न तो उसे अपने खाने-पीने का ध्यान था और न ही अच्छा ओढने-पहनने का। यहाँ तक कि वह केशव का भी पूरा ध्यान नहीं रख पाती थी। दो-तीन बार तो ऐसा भी हुआ कि केशव को बिना टिफिन ही अपनी ड्यूटी पर जाना पड़ा था।
उसकी सेवा देख कर अनुराधा ने उसके प्रति आभार जताया तो विनीता ने कहा- ''भाभी ऐसा क्यों कहती हो, क्या चिन्टू मेरा बेटा नहीं है?''
अनुराधा ने तब अनुरक्त भाव से कहा था- ''अरे वह मुझसे पहले तो तुम्हारा बेटा है। देखती नहीं हो, ज्यादातर तो वह तुम्हारे पास ही रहता है। ज़रूर तुम पिछले जनम में उसकी माँ रही होगी।''
और दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ी थीं।
चिन्टू के घर लौटने के लगभग एक माह बाद न जाने ऐसा क्या हो गया कि अनुराधा चिन्टू को उससे दूर-दूर रखने लगी। विनीता नहीं जान पा रही थी कि अचानक अनुराधा में उसके प्रति इतना बदलाव व कटुता क्यों आ गई है!
एक दिन अनुराधा से मिलने उसकी एक सहेली आई थी। विनीता की ऐसी आदत नहीं थी कि कभी गुप-चुप किसी की बात सुनने की कोशिश करे पर उस दिन जब वह बाहर के बरामदे की ओर जा रही थी तो अनुराधा की आवाज़ उसके कमरे के पास से निकलते समय कानों में पड़ी- ''अरे कुमुद, मेरे मन में पहले ऐसी बात कहाँ थी, वह तो चांदनी ने मुझे समझाया तब समझ आया। फिर मैंने भी काफी सोचा इस बात पर। अब बता, यदि कोई टोना-टोटका नहीं किया होता तो अचानक अच्छे-भले मेरे चिन्टू की ऐसी दशा क्योंकर हो जाती! तभी न मैं कहूँ कि इतना लाड़ क्यों लुटाती थी मेरे छोरे पर, खुद के तो कोई औलाद है नहीं तो यही सब तो करेगी?''
''पर अनु, विनीता ऐसी तो नहीं लगती। फिर भी क्या कहा जा...।"
कानों पर हाथ रख वह उल्टे पाँव लौट गयी थी, 'उफ्फ! ऐसा घिनौना आरोप.... इतनी घृणा है भाभी के मन में मेरे लिए!' अनुराधा के विष-बुझे शब्द उसके ह्रदय को विदीर्ण किये दे रहे थे। 'शिक्षित होते हुए भी इतनी गन्दी सोच कैसे हो सकती है इनकी, कैसे किसी के बहकावे में इस कदर आ सकती हैं?', सोच कर हैरान थी विनीता।
विनीता ने अनुराधा के व्यवहार-परिवर्तन की बात अभी तक पति को नहीं बताई थी। वह नहीं चाहती थी कि दोनों परिवारों में किसी प्रकार का दुराव आये, किन्तु उस दिन वह स्वयं को नहीं रोक पाई। रोते-रोते उसने सारा वृतान्त रात को शयन के पूर्व केशव को कह सुनाया।
केशव बैंक में अधिकारी के पद पर कार्य करता था, अच्छे लोगों की सोहबत थी और शान्त स्वभाव का तो था ही, सहजता से बोला- "भाभी से ऐसी उम्मीद नहीं थी....खैर,तुम अधिक मत सोचो, मैं भैया से बात करूँगा।"
सुन कर मन ही मन झुंझला उठी थी विनीता- 'क्या खाक बात करेंगे भैया से! बात कर भी ली तो क्या भाभी के मन का मैल हट जाएगा!' करवट बदल कर सो गई थी वह। केशव भी उस दिन बैंक में अधिक काम होने से थका हुआ था सो वह भी सो गया।
न तो केशव परेश से कभी कुछ कह पाया न ही विनीता ने अपनी ओर से कभी कोई प्रतिक्रिया दी। बस दोनों परिवारों में खिंचाव बढ़ता चला गया। बातचीत भी तभी होती थी उनमें, जब बहुत ही आवश्यक होती थी। सम्भवतः परेश को भी अपनी पत्नी की उलझन और मनोदशा की जानकारी थी, किन्तु बात अधिक बिगड़ने के डर से वह भी खामोश ही रहा। कभी-कभार अपनी मम्मी से छिप-छिपा कर चिन्टू अपनी चाची के पास आ जाता था और जब नहीं आ पाता तो विनीता दूर से ही प्यार से उसे निहार कर अपने मन को तसल्ली दे लेती थी। आठ-दस महीने से यही क्रम चल रहा था।
दरवाज़ा आधा ही खोला अनुराधा ने- "कहो, कुछ काम है मुझसे?"
"हाँ भाभी, दो मिनट बात करनी है आपसे, अगर इज़ाज़त हो तो!"
" बोलो, वैसे मैं सोने जा रही थी। चिन्टू भी सो रहा है और उसके पापा भी थोड़ी देर में आते ही होंगे।"
"बस इतनी सी विनती है भाभी कि बच्चे पर हाथ न उठाया करें, मुझे चाहे कितना ही भला-बुरा कह लें।"- विनीता ने करुण स्वर में कहा।
"क्यों? क्या लगता है वह तुम्हारा?...और मैंने भला तुम्हें कब कुछ कहा है जो अब कहूँगी!"
"कुछ भी तो नहीं लगता वह मेरा, पर अबोध है वह! नहीं बुलाती तो भी जाने क्यों चला आता है। मैं सौगन्ध लेती हूँ, वह आ भी गया तो कमरे का दरवाज़ा बन्द कर लूंगी। बच्चा है वह, गलती से कभी मेरे पास आ ही जाय तो मेहरबानी करके उस पर हाथ मत उठाना भाभी, मैं हाथ जोडती हूँ।"- विनीता की आँखों में आंसू भर आये।
बिना कोई जवाब दिए अनुराधा ने दरवाज़ा बंद कर लिया। अपमानित विनीता वापस लौटी। अनुराधा बड़बड़ा रही थी- 'मुझे ही त्रिया-चरित्तर दिखा रही है।'
परेश की गारमेंट्स की दूकान थी, शाम को उसके घर लौटने पर अनुराधा चेतावनी भरे लहजे में गुर्राई- "देखो जी, साफ़-साफ़ कहे देती हूँ अगर हमने विनीता से कहीं दूर, अलग घर नहीं लिया तो मैं चिन्टू को ले कर पीहर चली जाऊँगी। मुझे अब यहाँ नहीं रहना है।"
उसने नमक-मिर्च लगा कर इस घटना की जानकारी उन्हें दी। विनीता के प्रति अपना सन्देह वह परेश पर पहले ही जाहिर कर चुकी थी, फिर भी उसका दोहरान करने से नहीं चूकी।
परेश ने अनुराधा का इतना रौद्र रूप पहले नहीं देखा था। वह उसके हठी स्वाभाव से भी परिचित था अतः सान्त्वना देते हुए बोला- "ठीक है, जल्दी ही कुछ करता हूँ, लेकिन तुम सोचो तो! वह बेचारी चिन्टू के खिलाफ कोई भी गलत काम क्यों करेगी? क्या तुम नहीं देखती कि वह उसे कितना प्यार करती है?"
"आप क्या जानें, बाँझ औरतें डाह (जलन) के मारे क्या-क्या नहीं करतीं!"
परेश चकित हो देखते रह गया अनुराधा को, 'क्या हो गया है इसे? कहाँ तो यह विनीता को अपनी सगी बहिन की तरह मानती थी और कहाँ अब उसके खिलाफ यूँ आग उगल रही है! सच ही कहा है किसी ने, औरत को समझना विधाता के बस का भी नहीं है। अब इसका मन पलटना मुमकिन नहीं है।'
"रिश्तों को वापस सहेजना संभव नहीं हो पाता अनु, तोड़ने को तो दो मिनट में तोड़ दो! अगर तुमने ठान ही लिया है तो तुम्हारी मर्जी! वैसे यहाँ से चले जाना इतना आसान भी तो नहीं कि यह सोचा और वह हो गया। इस मकान का क्या करेंगे?"
"चाहो तो किराये पर दे देना या बेच ही देना, मुझे कोई मतलब नहीं है।"
उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना अनुराधा किचन में खाना बनाने चली गई।
परेश का दम घुट रहा था, कुछ देर के लिए वह भी घर से बाहर को निकल गया।
अनुराधा के व्यवहार से दग्ध हुई विनीता को जब पता लगा कि ज्येष्ठ कहीं और मकान ढूंढ रहे हैं तो उसे अधिक दुःख नहीं हुआ। कमज़ोर होते जा रहे रिश्ते के धागे को कब तक टूटने से बचाती वह अकेली! चिन्टू का स्मरण कर कभी कमजोर ज़रूर होती पर फिर कठोर हो कर अपने-आप से कहती- 'तेरा क्या लगता है वह, जो यूँ परेशान होती है!' केशव भी परिस्थिति से समझौता करने को विवश था। दोनों भाइयों ने विचार-विमर्श किया और बैंक से लोन ले कर केशव ही परेश के पोर्शन को ख़रीद लेगा, इस पर सहमति बनी।
पिता का मकान किसी और के हाथों में जाने से बच गया और केशव ने परेश के हिस्से वाला पोर्शन खरीद लिया। परेश ने उसी शहर की एक कॉलोनी में एक फ्लैट खरीद लिया।
बचपन से अब तक दोनों भाई और फिर दोनों की शादी के बाद दोनों के परिवार साथ रहे थे अतः अचानक यूँ अलग हो जाना और वह भी घर की महिलाओं के मनमुटाव के चलते, दोनों भाइयों को के लिए बेचैनी का कारण बन गया था। कुछ माह बीते, दोनों भाई अब धीरे-धीरे बिछड़न की रही-सही कसक से मुक्त हो रहे थे।
चिन्टू का अगले सत्र में एक स्कूल में नर्सरी में दाखिला करा दिया गया। वह अभी छोटा था और नया फ्लैट अन्जानी जगह पर था इसलिए चाची से मिलने उनके घर जाना उसके लिए संभव नहीं रहा था। एक दिन बाज़ार में जब वह अपने मम्मी-पापा के साथ था, संयोग से उसकी नज़र चाचा-चाची पर पड़ी और वह चाची से मिलने दौड़ पड़ा। परेश या अनुराधा उसे पकड़ते इसके पहले ही वह सड़क पर पहुँच गया और तेज़ी से आ रही एक बाइक से बुरी तरह टकरा कर नीचे गिर पड़ा। चीखती-बिलखती अनुराधा व घबराया परेश, चिन्टू के पास पहुँचे, वह बेहोश पड़ा था। बाइक वाला भाग गया था और भीड़ जमा हो गई थी। दोनों ऑटोरिक्शा में लेकर नजदीकी अस्पताल पहुंचे। डॉक्टर ने देखते ही कहा- "बच्चे की स्थिति बहुत नाज़ुक है, इसे फ़ौरन गुडविल हॉस्पिटल ले जाइये।" गुडविल हॉस्पिटल शहर का माना हुआ प्राइवेट हॉस्पिटल था पर बहुत मंहगा था। बच्चे की ज़िन्दगी का सवाल था सो दोनों उसे उस हॉस्पिटल में ले आये। चिन्टू को ऑब्जरवेशन रूम से बाहर लाया ही गया था कि केशव और विनीता भी वहाँ आ गये। विनीता सुबक-सुबक कर रो रही थी और केशव की आँखें भी लाल हो रही थीं।
विनीता को देखते ही शेरनी की तरह दहाड़ी अनुराधा- "क्यों आई है डायन यहाँ? चली जा यहाँ से। मेरे बच्चे को खा कर ही मानेगी क्या?"- चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगी वह।
आस-पास खड़े कुछ लोग व हॉस्पिटल के स्टाफ वाले जो चिन्टू को लाये गए स्ट्रेचर के पास खड़े थे, हतप्रभ से अनुराधा का यह नाटक देखने लगे। शोर सुन कर डॉक्टर बाहर आये व अनुराधा को फटकारते हुए परेश से उसे बाहर ले जाने को कहा। परेश उसे लगभग खींचते हुए बाहर बरामदे की ओर ले गया।
सहमी-सहमी विनीता अर्धचेतन अवस्था में फर्श पर गिरने को हुई, लेकिन केशव ने उसे सम्हाल लिया और हॉस्पिटल के स्टाफ की मदद से स्टाफ रूम में रखी बेंच पर लिटा दिया। थोड़ी देर में विनीता पूर्ण रूप से होश में आ गई।
उधर परेश अनुराधा को डांट रहा था- "बहुत हुआ अनु, अच्छा तमाशा खड़ा कर दिया तुमने यहाँ! विनीता का भला क्या दोष था जो तुम इस तरह फूहडपने से उस पर चिल्ला रही थी?"
अनुराधा को अब अपनी गलती का कुछ-कुछ अहसास हुआ, नज़रें झुका कर बोली- ''मुझसे भूल हो गई।" फिर परेश का हाथ थाम शान्त चित्त हो चिन्टू के पास लौटी। तब तक हॉस्पिटल-स्टाफ चिन्टू को ICU में ले जाने की तैयारी कर चुका था।
होश में आते ही विनीता, केशव के रोकने के बावज़ूद वापस चिन्टू के पास पहुँच गई। अचानक चिन्टू के पास खड़ी नर्स ने देखा चिन्टू की सांस उखड़ रही थी, भागते हुए ऑब्जरवेशन रूम में जाकर उसने डॉक्टर को सूचना दी। डॉक्टर फोन पर किसी से बात कर रहा था, मोबाइल जेब में रख कर तेज़ी से चिन्टू के पास आया। उसने चिन्टू की नाड़ी देखी, आँखों को टटोला, फिर स्टेथेस्कोप से ठीक से जांच की और निराशा से सिर हिला दिया।
अनुराधा चिन्टू का हाथ थामे फफक-फफक कर रो रही थी और परेश डॉक्टर से अनुनय कर रहा था- "नहीं डॉक्टर साहब, ऐसा नहीं हो सकता। आप फिर से जांच कीजिये, हमारे चिन्टू को बचा लीजिये।" डॉक्टर समझ नहीं पा रहा था कि वह उन्हें कैसे सांत्वना दे।
और विनीता, उसकी तो आँखें ही जैसे पथरा गई थी, उसके होठों से एक भी शब्द नहीं निकला। सूनी निगाहों से चिन्टू को देखते-देखते अनायास ही वह लहरा कर नीचे गिर पड़ी। केशव जो अब तक हतप्रभ खड़ा था, तुरत नीचे विनीता के पास फर्श पर बैठ गया और उसका सिर अपनी गोद में रख कर काँपता हुआ डॉक्टर की और देखने लगा। डॉक्टर ने विनीता के पास आकर जाँच की और केशव की आँखों में देखते हुए अफ़सोस भरे शब्दों में बोला- "आए'म सॉरी, शी इज़ नो मोर!"
विनीता भी अपने चिन्टू के पास जा चुकी थी। उसकी खुली आँखों में शांति थी, अब अनुराधा उसे चिन्टू से दूर नहीं कर सकेगी।
****समाप्त****
अत्यंत भावपूर्ण एवं हृदयस्पर्शी कहानी..।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद महोदया सुधा जी!
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