Skip to main content

पुरानी हवेली (कहानी)

   जहाँ तक मुझे स्मरण है, यह मेरी चौथी भुतहा (हॉरर) कहानी है। भुतहा विषय मेरी रुचि के अनुकूल नहीं है, किन्तु एक पाठक-वर्ग की पसंद मुझे कभी-कभार इस ओर प्रेरित करती है। अतः उस विशेष पाठक-वर्ग की पसंद का सम्मान करते हुए मैं अपनी यह कहानी 'पुरानी हवेली' प्रस्तुत कर रहा हूँ।


पुरानी हवेली



                                                  

मान्या रात को सोने का प्रयास कर रही थी कि उसकी दीदी चन्द्रकला उसके कमरे में आ कर पलंग पर उसके पास बैठ गई। चन्द्रकला अपनी छोटी बहन को बहुत प्यार करती थी और अक्सर रात को उसके सिरहाने के पास आ कर बैठ जाती थी। वह मान्या से कुछ देर बात करती, उसका सिर सहलाती और फिर उसे नींद आ जाने के बाद उठ कर चली जाती थी। 

मान्या दक्षिण दिशा वाली सड़क के अन्तिम छोर पर स्थित पुरानी हवेली को देखना चाहती थी। ऐसी अफवाह थी कि इसमें भूतों का साया है। रात के वक्त उस हवेली के अंदर से आती अजीब आवाज़ों, टिमटिमाती रोशनी और चलती हुई आकृतियों की कहानियाँ उसने अपनी सहेली के मुँह से सुनी थीं। आज उसने अपनी दीदी से इसी बारे में बात की- “जीजी, उस हवेली का क्या रहस्य है? कई दिनों से सुन रही हूँ कि वहाँ भूत रहते हैं। आपको कुछ पता हो तो बताओ न!”

“अरे भूत-वूत कुछ नहीं होते। तुझे भी ना, अभी सोते समय भूत याद आ रहे हैं। सो जा चुपचाप।” -कह कर चन्द्रकला ने उसके सिर पर प्यार से चपत लगाई। 

“नहीं दीदी, प्लीज़ बताओ न! क्या जानती हो आप उसके बारे में। आपको पता है, मैं डरती बिल्कुल नहीं हूँ।”

“अच्छा बाबा, सुन।” -चन्द्रकला ने कहा और जो कुछ भी उसने लोगों से सुना था, उसे बताया कि किस तरह की आवाज़ें आती हैं उस हवेली से और कैसे वहाँ कुछ लोगों के चलने-फिरने की आवाज़ें भी आती हैं। उसने यह भी बताया कि कुछ अफवाहें ऐसी भी हैं कि अगर उस हवेली में भूत नहीं हैं तो ज़रूर ही कुछ बदमाशों ने अपनी कारगुज़ारियों के लिए वहाँ डेरा डाल रखा है। 

चन्द्रकला ने देखा कि मान्या की पलकें बंद हैं, तो वह उसके सिर को सहला कर अपने कमरे में चली गई।  

मान्य को तेज़ नींद आ रही थी, किन्तु फिर भी वह अपने पलंग से उठ खड़ी हुई और एक टॉर्च ले कर सड़क पर निकल आई। बाहर बादलों में छिपे चन्द्रमा का मद्धम प्रकाश धरती पर पड़ रहा था। सुनसान सड़क पर पेड़ों से टकरा रही हवा की सनसनाहट एक अजीब-सा भय पैदा कर रही थी, लेकिन मान्या जिज्ञासु होने के साथ-साथ निडर भी थी। उसने निर्भीकता से आगे बढ़ना जारी रखा। अपने पीछे से आ रही गुर्राहट जैसी एक आवाज़ सुन कर उसने पीछे मुड़ कर देखा, एक मरियल-सा कुत्ता पीछे-पीछे मिमियाता हुआ चला आ रहा था। वह मुस्कुराई और आगे चलती रही। कुछ देर बाद कुत्ता वापस लौट गया। बीस-पच्चीस मिनट चलने के बाद वह हवेली तक पहुँच गई।  


एक बड़े दरवाज़े से वह हवेली के अंदर दाखिल हुई। उसके साथ ही प्रकाश की कुछ किरणें भी भीतर आईं। दो धूल भरे कमरों से घूमती हुई वह एक हॉल में पहुँची। हॉल के बड़े-बड़े झरोखों से आती चन्द्रमा की रौशनी में उसे वहाँ धुंधले चित्र, पुराना फर्नीचर और मकड़ी के जाले दिखाई दिए। रहस्य जानने तक वह टॉर्च जलाना नहीं चाहती थी, अतः मद्धिम प्रकाश में वह चलती रही। बंद कक्ष में बेचैनी के साथ उसे ठंडक भी महसूस हुई, जो उसकी हड्डियों में भीतर तक सिहरन पैदा कर रही थी। उसने इसे नज़रअंदाज कर दिया और अपनी खोज जारी रखी। कुछ आहट न पा कर उसने तेज़ आवाज़ में पुकारा- “कोई है यहाँ?” कोई प्रत्युत्तर नहीं मिलने पर उसने एक बार और ज़ोर से पुकारा- “हेलो, कोई यहाँ है?” कोई जवाब नहीं मिला। उसने देखा, एक कोने में ऊपर की ओर जा रही घुमावदार कुछ सीढ़ियाँ हैं। वह सीढ़ियाँ चढ़कर दूसरी मंजिल पर पहुँची, जहाँ उसे एक दरवाज़ा मिला, जो थोड़ा खुला हुआ था। उसने उसे धक्का दिया और भीतर प्रवेश किया। भीतर एक छोटे-से झरोखे से आ रही कुछ चंद्र-किरणों के कारण धुंधला-सा प्रकाश था, जिससे पता लगा कि यह एक कमरा है। रौशनी कम होने से यहाँ आसानी से कुछ दिखाई देना कठिन था, अतः उसने अपनी जेब से टॉर्च निकाल कर चारों ओर चमकाई। यह एक बड़ी कोठरी थी, जिसमें बिस्तर बिछा हुआ एक पलंग और एक ड्रेसिंग टेबल थी। इस कोठरी में भीतर की तरफ खुलने वाला एक दरवाज़ा और भी था। बिस्तर पर एक गुड़िया लेटी हुई थी, जिसने चमचमाती सफेद पोशाक पहनी हुई थी। उसके बाल सुनहरे और आँखें नीली थीं। गुड़िया बहुत सुन्दर और सजीव नज़र आ रही थी। मान्या को एक अजीब-सा आकर्षण महसूस हुआ और वह उसकी ओर चल पड़ी। उसने अपना हाथ बढ़ाया और उसके खूबसूरत चेहरे को छूआ।


अचानक गुड़िया की आँखें झपकीं और वह मुस्कुरा दी। मान्या हांफने लगी और उसके हाथ से टॉर्च नीचे गिर गई। गुड़िया उठ बैठी और मान्या की कलाई पकड़ कर मधुर स्वर में बोली- "हैलो, मेरा नाम टीना है। मैं कब से तुम्हारा इन्तज़ार कर रही थी। तुम मेरी नई दोस्त हो, हो ना? तुम मुझे छोड़ कर कभी नहीं जाओगी ना?"


मान्या ने चिल्ला कर दूर जाने की कोशिश की, तो गुड़िया ने उसे छोड़ दिया। 

मान्या ने चारों ओर देखा, कमरा कई गुड़ियाओं से भरा हुआ था। वे सभी मुस्कुराती हुई उसे घूर रही थीं और अपने हाथ फैलाये उसकी ओर बढ़ रही थीं।  

उनमें से एक गुड़िया बोली- “टीना मक्कार है। उसने हम सब को काट लिया था और उसके जैसी ही गुड़िया बना दिया है। तुम उससे दूर ही रहना। मेरे साथ आओ, मैं तुम्हारे लिए यह दरवाज़ा  खोल दूँगी, ताकि तुम बाहर निकल सको।”

 वह सकपकायी-सी अपनी जगह खड़ी रही। तभी एक-एक कर सभी गुड़ियाएँ एक ही बात बोलने लगीं- “यह सब झूठी हैं। तुम मेरे साथ आओ, मैं तुम्हें बाहर ले चलूँगी।” 

उसे एहसास हुआ कि उससे बहुत बड़ी भूल हो गई है। उसने भूत गुड़िया के क्षेत्र में प्रवेश कर लिया है, जिसने यहाँ आने वाले लोगों को मार डाला था और उनकी आत्माओं को भूत गुड़िया में बदल दिया था। निश्चित ही अब वह इनकी अगली शिकार थी। वह नहीं सोच पा रही थी कि क्या करे। तभी कमरे का दूसरा वाला दरवाज़ा खुला और भीतर से एक बेहद खूबसूरत युवती बाहर आई। 

“टीना ही नहीं, यह सभी गुड़ियाएँ भूत हैं। मेरा नाम सुमुखी है। शायद यह मुझे भी भूत गुड़िया बना देतीं, लेकिन सौभाग्य से मैं बची हुई हूँ। भूल कर भी तुम इनके धोखे में मत आना। इनमें से जो भी गुड़िया किसी इन्सान को पहले काट कर भूत गुड़िया बना देती है, उसकी उम्र पांच वर्ष बढ़ जाती है। इसीलिए हरेक गुड़िया तुम्हें काट कर अपनी उम्र बढ़ाना चाहती है।” -उस युवती ने उसके पास आते हुए कहा। फिर वह गुड़ियाओं की तरफ मुखातिब हुई- “दूर हटो दुष्ट भूतनियों, इस मासूम बच्ची को जाने दो।” 

तब तक वह मान्या के पास आ चुकी थी। वह मान्या का हाथ पकड़ कर सीढ़ियों की तरफ बढ़ी। राहत की सांस ले मान्या ने उसके साथ चलते-चलते चेहरा पीछे घुमा कर देखा, सभी गुड़ियाएँ मुस्कुरा रही थीं। अचानक मान्या को अपनी बांह में तेज़ दर्द महसूस हुआ और वह चीख पड़ी। उसने देखा, उसका हाथ पकड़े चल रही सुमुखी एक गुड़िया के रूप में बदल रही थी और उसके होठों पर खून लगा हुआ था। मान्या समझ गई कि उस बहरूपिया गुड़िया सुमुखी ने उसे काट लिया है। 

"हा हा हा... बेवकूफ लड़की, मैं इन सब गुड़ियाओं की रानी हूँ। तू अब यहाँ से बाहर नहीं जा सकती।" -गुड़िया का रूप ले चुकी सुमुखी ने अट्टहास लगाया। उसके साथ ही अन्य गुड़ियाएं भी ज़ोरों से हँसने लगीं।

"तो क्या अब मैं भी भुतहा गुड़िया बन जाऊँगी?" -काँप उठी मान्या। वह मदद के लिए चिल्लाई, लेकिन वहाँ कोई उसकी मदद  करने वाला नहीं था। सभी गुड़ियाएँ उसके करीब आ गई थीं और सब मिल कर उसके कपड़े नोच रही थीं। उसने देखा, सामने खड़ी  टीना मुस्कुरा रही थी। 


“अरे, आँखें फाड़ कर क्या देख रही है? और तू चिल्ला क्यों रही थी मेरी बहादुर बहन? क्या कोई सपना देख रही थी?” -मान्या का हाथ थामे चन्द्रकला मुस्कुरा रही थी। 

हड़बड़ा कर मान्या उठ कर बैठ गई। उसने आँखें मल कर देखा, सामने टीना नहीं, उसकी दीदी थी और उसकी दोनों छोटी बहनें उसकी ओढ़ी हुई चादर खींच रही थीं। पलंग से उतर कर दीदी की बांहों में समाई मान्या समझ गई थी कि वह पुरानी हवेली का डरावना सपना देख रही थी। 


*******









Comments

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर शुक्रवार 13 अक्टूबर 2023 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

    ReplyDelete
    Replies
    1. प्रिय भाई रवीन्द्र जी, अत्यधिक व्यस्ततावश मैं 'पांच लिंकों का आनन्द' के सुन्दर पटल पर यथासमय उपस्थित नहीं हो सका, तदर्थ खेद है। मेरी रचना के चयन के लिए आपका बहुत आभार।

      Delete
  2. ओह!!!
    बहुत ही डरावनी कहानी...
    शुक्र है कि ये सपना था ।मैं भी पात्रों में खो सी गई...
    लाजवाब सृजन।

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद आदरणीया!

      Delete
  3. ओह! अद्भुत कल्पना।

    ReplyDelete
  4. आपकी कहानी और आपकी लेखन शैली प्रभावी है। कहानी जिस उद्देश्य को लेकर लिखी गई वो उद्देश्य को प्रकट करने में सफल है।सादर

    ReplyDelete
    Replies
    1. सुन्दर, सराहनात्मक टिप्पणी के लिए अंतःकरण से आपका आभार महोदया!

      Delete

Post a Comment

Popular posts from this blog

बेटी (कहानी)

  “अरे राधिका, तुम अभी तक अपने घर नहीं गईं?” घर की बुज़ुर्ग महिला ने बरामदे में आ कर राधिका से पूछा। राधिका इस घर में झाड़ू-पौंछा व बर्तन मांजने का काम करती थी।  “जी माँजी, बस निकल ही रही हूँ। आज बर्तन कुछ ज़्यादा थे और सिर में दर्द भी हो रहा था, सो थोड़ी देर लग गई।” -राधिका ने अपने हाथ के आखिरी बर्तन को धो कर टोकरी में रखते हुए जवाब दिया।  “अरे, तो पहले क्यों नहीं बताया। मैं तुमसे कुछ ज़रूरी बर्तन ही मंजवा लेती। बाकी के बर्तन कल मंज जाते।” “कोई बात नहीं, अब तो काम हो ही गया है। जाती हूँ अब।”- राधिका खड़े हो कर अपने कपडे ठीक करते हुए बोली। अपने काम से राधिका ने इस परिवार के लोगों में अपनी अच्छी साख बना ली थी और बदले में उसे उनसे अच्छा बर्ताव मिल रहा था। इस घर में काम करने के अलावा वह प्राइमरी के कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। ट्यूशन पढ़ने बच्चे उसके घर आते थे और उनके आने का समय हो रहा था, अतः राधिका तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दी। चार माह की गर्भवती राधिका असीमपुर की घनी बस्ती के एक मकान में छोटे-छोटे दो कमरों में किराये पर रहती थी। मकान-मालकिन श्यामा देवी एक धर्मप्राण, नेक महिल...

"ऐसा क्यों" (लघुकथा)

                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********

तन्हाई (ग़ज़ल)

मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- तन्हाई मौसम बेरहम देखे, दरख़्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है।   बहार आएगी कभी,  ये  भरोसा  नहीं  रहा, पतझड़ का आलम  बहुत लम्बा हो गया है।   रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र  का  सिलसिला  बेइन्तहां  हो  गया  है।    या तो मैं हूँ, या फिर मेरी  ख़ामोशी  है यहाँ, सूना - सूना  सा   मेरा   जहां  हो  गया  है।  यूँ  तो उनकी  महफ़िल में  रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन  फिर भी तन्हा  हो गया है।                          *****