इन दिनों कतिपय लेखिकाओं की कुछ ऐसी रचनाओं की बाढ़-सी आ गई है जिनसे प्रतीत होता है जैसे महिला-वर्ग एक सर्वहारा वर्ग है। अधिकांश रचनाओं में उन्हें शोषित व पुरुष-वर्ग को शोषक के रूप में प्रक्षेपित किया जा रहा है। उन रचनाओं को पढता हूँ, किन्तु कितना भी अच्छा लिखा गया हो, यथासम्भव अपनी टिप्पणी देने से परहेज करता हूँ। उन रचनाओं को पढ़ कर ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि महिलाओं के सभी कष्टों का मूल पुरुष मात्र है। कुछ लेखिकाएँ निरन्तर किसी प्रताड़ित महिला के संपर्क में रही हों, ऐसा भी सम्भव है। उन रचनाओं में स्त्रियों को निरीह गाय व पुरुषों को क्रूर भेड़िये का प्रतीक बना दिया जाता है। कहीं-कहीं तो उनमें आक्रोश इस कदर नज़र आता है जैसे स्त्रियों को पुरुष का वज़ूद ही स्वीकार्य न हो। मन व्यथित हो उठता है यह सब देख कर! हमें मनन करना होगा कि क्या सच में ही पुरुष स्वभाव से इतना आक्रान्ता है? स्त्री विधाता की सर्वश्रेष्ठ रचना है, पुरुष के सहयोग से जीवन की उत्पत्ति की कारक है, वाहक है। अपने हर रूप में वह स्नेह व प्रेम के साथ ही शक्ति का अजस्र स्रोत है। वह स्वयं को