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'अदावत' (कहानी)







   किसी खड़खड़ के चलते अहमद की नींद अचानक खुल गई। आँखें मलते हुए उसने उठ कर देखा, कमरे में बेभान सो रही उसकी बेगम रशीदा के अलावा और कोई नहीं था। घड़ी में देखा, रात के दो बज रहे थे। धीमे क़दमों से वह खिड़की की ओर बढ़ा और बाहर निगाह डाली तो चौंक पड़ा, पड़ोसी कासिम की खिड़की अधखुली थी। उसे ताज्जुब हुआ, 'कासिम का परिवार ईद मनाने के लिए दो दिन के लिए आज ही अपने गाँव गया है और वह लोग अपनी सभी खिड़कियाँ बंद कर के गये थे, फिर इनकी खिड़की खुली कैसे पड़ी है?' ध्यान से सुनने की कोशिश की तो आहिस्ता-आहिस्ता बोलने की आवाज़ भी उसे सुनाई दी। कुछ ही देर में कासिम के कमरे में दो पल के लिए एक रोशनी झपकी। 'शायद मोबाइल की टॉर्च की रोशनी थी',अहमद ने अंदाज़ लगाया। वह समझ गया, कासिम के घर में चोर घुस आये हैं। चाँदनी रात थी और कासिम के घर के पीछे से आ रही बादलों में छिपे चाँद की रोशनी दोनों मकानों के बीच के गलियारे को हल्का-सा रोशन कर रही थी, लेकिन कासिम के कमरे में रोशनी नहीं के बराबर थी। 

   वह यूँ ही खिड़की के पास खड़ा देख रहा था कि उसे एक इन्सानी साया कासिम की खिड़की के भीतर नज़र आया। अहमद को केवल उसकी आकृति ही दिखाई दी। वह साया फुर्ती से एक तरफ मुड़ कर ओझल हो गया, शायद उसने अहमद को देख लिया था। घबरा कर अहमद ने अपनी खिड़की बंद कर ली। 'क्या करूँ, शोर मचाऊँ या नहीं?'- कुछ देर की इसी कशमकश के बाद उसने निश्चय किया, 'नहीं पड़ना मुझे इस झमेले में? क्यों दूसरे के फटे में अपनी टांग डाली जाय? अच्छा है, साले के यहाँ चोरी हो रही है। बहुत दिमाग दिखाता है, अब मज़ा आएगा।'

   दोनों परिवारों में बिल्कुल नहीं बनती थी। अहमद की मुर्गियाँ कासिम के बाड़े में जा कर उछल-कूद करतीं, तो कासिम की जोरू नरीमन इन्हें भला-बुरा कहती और कासिम की पालतू बिल्ली कभी इनके बरामदे में पेट खाली कर जाती तो रशीदा उनके परिवार के पुरखों को याद करती। छोटी-छोटी बातों में उनके बीच अक्सर तू-तू, मैं-मैं चलती ही रहती थी। खुश होने के आज आये इस मौके को अहमद खोना नहीं चाहता था, जा कर चुपचाप वापस सो गया। अब उसे और भी सुकून के साथ नींद आई। 

    अगले दिन सुबह उसने देखा, कासिम की खिड़की अब बंद थी। शायद चोर उसे वापस उढ़का गए थे, ताकि एकबारगी किसी और को शुबहा न हो। अहमद ने रशीदा को सारा वाक़या सुनाया तो उसकी तो बांछें ही खिल गईं।  जैसे कि उसकी कोई लॉटरी लग गई हो, चहक कर बोली- "वाह जी, अब निकल जाएगी इन मुओं की सारी हेंकड़ी।"... और दोनों खिलखिला कर हँस पड़े। 

    ईद थी, सो सिवइयाँ तो बननी ही थी। आज और भी खुशी और जोश के साथ सिवइयाँ बनाई गईं और दोनों ने चटखारे ले-ले कर खाई। आस-पास के परिवार भी ईद मनाने में मशगूल थे। कुछ लोगों के यहाँ मेहमान आये थे तो कुछ लोग अपने दोस्तों-रिश्तेदारों के वहाँ चले गये थे। अहमद ने भी शाम अपने भाई आशिक़ अली के वहाँ गुज़ारने की योजना बनाई। रशीदा आशिक़ अली और उसके परिवार को ज़्यादा पसंद नहीं करती थी, पर आज राजी-राजी हामी भर ली। 'कितना मज़ा आएगा कासिम के यहाँ कल गुज़रे हादसे को उनके रूबरू बयां करने में', सोच कर खुश थी वह। 

   शाम तकरीबन छः बजे कुछ सिवइयाँ डिब्बे में साथ ले कर दोनों पहुँच गये आशिक़ मियां के घर। दो साल पहले हुई अहमद की शादी के बाद से उसकी बीवी रशीदा की बदमिजाजी के चलते दोनों परिवारों का एक-दूसरे के घर आना-जाना नहीं के बराबर था, सो एकबारगी आशिक़ और उसकी बीवी उन्हें देख कर चौंके। जो भी हो, आज छोटे भाई को अपने घर आया देख आशिक़ अली को ख़ुशी हुई। आशिक, उसकी बेगम और उनके बच्चों ने दिल खोल कर अहमद और रशीदा का इस्तकबाल किया। 

   सबने अहमद के घर की सिवइयाँ खाईं और अन्य मिठाइयों का लुत्फ़ भी लिया। कासिम के यहाँ कल रात चोर आये थे, यह बात मज़े ले-ले कर रशीदा ने आशिक़ और उसकी बीवी को सुनाई। दिमाग़ी तौर पर दोनों सुलझे हुए लोग थे अतः यह सब सुन कर उन्हें अच्छा नहीं लगा, मगर भाई की बीवी थी, सो मजबूरन मुस्कराते रहे। फिर और बातों का सिलसिला चला और दो-ढाई घंटे यूँ ही गुज़र गये। अहमद ने घड़ी देखी और 'बहुत देर हो गई', कह कर आशिक परिवार से रुखसत ली। 

   दोनों घर पहुँचे तो नौ बज रहे थे। हँसते-मुस्कराते इत्मीनान से अंदर गये, पर घर के हालात देख कर दोनों के होश फ़ाख्ता हो गए। घर का सारा सामान बिखरा पड़ा था। इकलौती आलमारी का सामान भी फर्श पर फेंका हुआ मिला। दौड़ कर रशीदा ने आलमारी का सेफ देखा, वह खुला हुआ था और उसमें रखे करीब डेढ़ लाख रुपये के ज़ेवर और तीस हजार रुपये गायब थे। 

   फफक-फफक कर रो पड़ी रशीदा! धम्म से लगभग नीचे गिरते हुए बिखर-सी गई- "हाय, मुएँ सब-कुछ ले गये। बर्बाद हो गये हम। अरे, देख क्या रहे हो? जाओ पुलिस को इत्तला करो। हाय अल्ला, अब क्या होगा हमारा। कमीनों ने कुछ भी तो नहीं छोड़ा।"

  अहमद की हालत भी ऐसी थी कि काटो तो खून नहीं। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा और रशीदा का हाथ थामते हुए ढाढ़स बंधाने की कोशिश करने लगा- "रशीदा, अल्लाह पर यकीं रखो। सब ठीक हो जायगा।"

   कहने को तो कह रहा था अहमद कि सब ठीक हो जायेगा , मगर उसके जेहन में यह भी था कि जब चोर सब-कुछ ले गए है तो अब ठीक क्या होगा। तभी उसकी नज़र पलंग की तरफ गई। वहाँ एक पर्चा पड़ा था। तेजी से जा कर उसने पर्चा उठाया और उस पर लिखी इबारत पढ़ने लगा, लिखा था- 

   'भैया जी, हमें कल पड़ोसी के घर में देख कर भी तुमने शोर नहीं मचाया, इसके लिए शुक्रिया! अगर तुम चिल्ला पड़ते तो मोहल्ले वाले शायद हमें पकड़ लेते। वैसे तुम्हारी ख़ामोशी का कोई ख़ास फायदा हमें नहीं मिला। कम्बख्त का पूरा घर छान मारा, मगर कुछ मिला नहीं। साला या तो कड़का है तुम्हारा पड़ोसी या शातिर कि घर में कुछ भी नहीं रखता। उसके कमरे की खिड़की की चिटखनी तो आसानी से टूट गई, लेकिन उसकी आलमारी को तोड़ने में हमें पसीने आ गये। इस सबके बाद भी हम उसके घर से कुल सात सौ बीस रुपये की नकदी ही ले जा सके। खैर, बदनसीबी हमारी! 

  अब भाई, तुम हमारे रिश्तेदार तो हो नहीं कि हम तुम्हारा घर नहीं टटोलते। आज तुम्हारा नम्बर ले लिया। सच बोलें तो तुम लोग बहुत अच्छे हो, अपने घर का बाजू वाला दरवाजा भीतर से कुण्डी लगाये बिना छोड़ दिया था तुम लोगों ने, सो हम आराम से अन्दर आ गये। अन्दर आ कर भी ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी। तुम्हारी आलमारी में चाबी पहले ही लगी हुई थी और भीतर सेफ की चाबी भी पास में ही पड़ी थी। हमने अंदर जो कुछ भी था, निकाल लिया है। कितना माल है, घर जा कर गिनेंगे। अभी तो तुम्हें यह लव लेटर लिखने में ही बहुत समय खर्च हो रहा है यार! एक बात कहूँगा दोस्त, तुम किस्मत वाले हो। तुम्हारे यहाँ कोई तोड़-फोड़ नहीं की हमने। करनी ही नहीं पड़ी, सब-कुछ परोसा हुआ मिला। 

   सोच रहे होगे कि इतना लम्बा-चौड़ा क्यों लिख रहा है यह अहमक़! तो दोस्त, अहमक़ नहीं हूँ मैं, बी.ए. हिन्दी में किये हूँ। लेखक बनना चाहता था, कोशिश भी की, किन्तु लिखने से पेट तो नहीं भरता न! इसलिए वह फ़ितूर हटा दिया दिमाग़ से। जब भी हम अपने काम पर निकलते हैं, बस यूँ ही मन का गुबार निकाल लेता हूँ कभी-कभी, तुम जैसे भले लोगों के सामने। चलो यार, एक बार फिर शुक्रिया अदा करता हूँ तुम्हारा! शायद एकाध महीना मुझे और मेरे दोस्त को कहीं और हाथ-पैर नहीं मारना पड़ेगा।' 

   अहमद बोल कर पढ़ रहा था पर्चे को, सो रशीदा ने भी सुना। सिर पकड़ लिया उसने अपना। पड़ोस में हुई चोरी का किस्सा अपने जेठ-जेठौती को सुना कर अपने दिल को ठंडा करने के जुनून में वह अपना सूट निकालने के बाद आलमारी बन्द करना भूल गई थी। जल्दबाज़ी में बाजू वाले दरवाजे की कुण्डी भीतर से लगाने का ख़याल भी दोनों को ही नहीं रहा था । नहीं सोचा था दोनों ने कि पड़ोस में लगी आग उनका अपना घर जला देगी। 

                                                                     *********





Comments

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२०-०२-२०२१) को 'भोर ने उतारी कुहासे की शाल'(चर्चा अंक- ३९८३) पर भी होगी।

    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    अनीता सैनी

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    1. नमस्कार अनीता जी!... बहुत-बहुत आभार आपका महोदया!

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  2. Replies
    1. आभार आदरणीय डॉ. शास्त्री!

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  3. ये तो सत्य ही है न दूसरे का जलता घर देखकर छोड़ोगे या हँसोगे तो आग की लपटे खुद के घर भी पहुंचते देर नहीं लगेगी,
    शिक्षाप्रद कहानी,सादर नमन

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    1. नमस्कार आ. कामिनी जी! सराहना के लिए आपका बहुत आभार!

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  4. यही होता है । दूसरे का बुरा चाहने वालों का कभी भला नहीं होता । अच्छी कहानी।

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    1. हार्दिक धन्यवाद संगीता जी!

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  5. बहुत शानदार कहानी! दूसरे के गिरने पर हँसने वालों का ये ही हश्र होता है।

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    1. सराहना के लिए बहुत आभार आपका महोदया!

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  6. दूसरे का बुरा किया फलता नही.., संदेश देती बहुत और रोचक शैली में लिखी गई कहानी ।




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    1. आपकी इस सुन्दर समीक्षा से अभिभूत हूँ आ. मीना जी!

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  7. सारगर्भित संदेश से परिपूर्ण कहानी..

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    1. बहुत धन्यवाद महोदया जिज्ञासा जी!

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  8. बहुत अच्छा संदेश दिया है आपने कहानी में। आग पड़ोसी के घर लगे तो पहले हमें उसे बुझाना चाहिए ताकि हमारे घर तक ना पहुँच जाए।

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    1. आपका बहुत-बहुत धन्यवाद मीना जी!

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  9. बहुत सुंदर लेख

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  10. जो तोको कांटा बोये ... को सार्थक करते हुए आपने बहुत बढ़िया कहा है । अति सुन्दर सृजन के लिए हार्दिक नमन ।

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    1. सराहनात्मक सुन्दर टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार अमृता जी! मैंने पहले भी प्रत्युत्तर दिया था, पता नहीं अब तक क्यों नहीं पब्लिश हो पाया।

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  11. अच्छा संदेश दिया है कहानी में।

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  12. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 30 जुलाई 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. अभिभूत हूँ आपके इस 'सांध्य दैनिक मुखरित मौन' के सुन्दर पटल पर अपनी रचना को आप द्वारा स्थान दिये जाने से ! मेरा आभार स्वीकारें महोदया!

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  13. बढ़िया रचना आदरणीय सर,! दूसरों का बुरा चाहने वालों के साथ अच्छा क्यों हो!!!

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