शहर का बहुत पुराना मोहल्ला था वह। निम्नवर्ग, मध्यम वर्ग तथा उच्च मध्यम वर्ग, के, शिक्षित, अल्पशिक्षित, सभी प्रकार के परिवार इस मोहल्ले में रहते थे। सभी लोग अपने-अपने ढंग से अपना जीवन जी रहे थे। मोहल्ले के एक हिस्से में कुछ खाली जमीन पड़ी थी, जिस पर मोहल्ले के कुछ समर्थ लोगों ने कुछ तो अपने अंशदान से तो कुछ प्रशासन की मदद से एक छोटा-सा पार्क बनवाया था। पार्क में चार पत्थर की बेंच भी बनवाई गई थीं, जिन पर यदा कदा शाम के समय मोहल्ले के कुछ लोग आकर बैठते, बतियाते थे। पार्क की मुलायम दूब पर कुछ बच्चे उछलते-कूदते और खेला करते थे। उन्हीं बच्चों में से एक बारह वर्षीय छुटंकी लाल भी था।
छुटंकी लाल को बचपन में उसके माता-पिता 'छुटकू' कह कर पुकारते थे। जब वह आठ वर्ष का हुआ तो उसके छोटे भाई ने जन्म लिया। नये नन्हे मेहमान को घर में सब 'ननकू' कहने लगे। अब क्योंकि घर में एक छोटा सदस्य और आ गया था तो छुटकू ने अपना नाम 'छुटंकी लाल' मनोनीत कर मोहल्ले में घोषित भी कर दिया। शायद उसकी इस घोषणा को ही उसके माता-पिता ने उसका नामकरण संस्कार मान लिया था। कुछ लोग उसकी ख़ुशी देख कर उसे 'छुटंकी लाल' कह कर पुकारते थे, किन्तु उसके साथियों सहित अधिकांश लोग उसे 'छुटकू' ही कहते थे।
चार फीट नौ इंच का औसत कद, इकहरा श्यामल बदन, मुस्कराता चेहरा, उन्नत ललाट, हल्का भूरापन लिये बड़ी-बड़ी आँखें और बिखरे-बिखरे बाल, इस हुलिये के साथ गरीबी में पला-बढ़ा छुटंकी लाल सामान्य शक्ल-सूरत होते हुए भी देखने वाले को अपनी ओर आकर्षित कर सकने में समर्थ था। दसवीं कक्षा तक शिक्षित उसके पिता महादेव सहारिया बाज़ार के एक थोक व्यवसायी से छोटा-मोटा रोज़मर्रा का सामान खरीद कर लाते थे और मोहल्ले में अपने पिताजी के समय से चल रही छोटी-सी थड़ीनुमा दुकान से बेचान करते थे। छुटंकी वाचाल और साहसी होने के साथ ही उतावले स्वभाव का था। कुछ लोग उसकी वाचालता के कारण परेशान होते तो कई उसे पसन्द भी करते थे, क्योकि उसकी शरारतें ऐसी कभी नहीं होती थीं कि किसी का कुछ बड़ा नुकसान हो जाय। वह सब के साथ प्रेम-भाव रखता था तथा कभी किसी को कोई तकलीफ होती तो वह इस छोटी-सी उम्र में भी यथासंभव मदद करने को तत्पर रहता था।
एक दिन का वाक़या है, छुटंकी के एक साथी विनय का नन्हा-सा कुत्ते का पिल्ला पानी भरे एक बड़े गड्ढ़े में गिर गया। विनय के साथ दो और बच्चे भी वहाँ मौजूद थे, पर गड्ढ़े में उतर कर उसे निकालने की हिम्मत कोई भी नहीं कर सका। पिल्ला पानी में पड़ा कूँ-कूँ कर रहा था और विनय उसको देख कर रोता जा रहा था। उसी समय संयोग से छुटंकी वहाँ आ गया और पिल्ले को गड्ढे में पड़ा देख विनय को आश्वस्त कर गड्ढ़े में उतर गया। उसने पिल्ले को उठा कर ऊपर की तरफ उछाल दिया। पिल्ले को सुरक्षित बाहर निकला देख विनय ने उसे गोद में उठा लिया और प्यार से सहलाने लगा। अब छुटंकी गड्ढ़े से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उसका हाथ गड्ढ़े के किनारे से बार-बार फिसल जाता था। कोई बड़ा आदमी आस-पास नहीं था जो उसकी मदद कर पाता। विनय के पास खड़े एक बच्चे ने छुटंकी की परेशानी देखी और वह विनय और अपने दूसरे साथी के साथ छुटंकी की मदद करने के लिए गड्ढ़े के पास पहुँचा। एक बच्चे ने जमीन पर लेट कर अपना हाथ छुटंकी की तरफ बढ़ाया। छुटंकी ने अपना हाथ उसके हाथ में दिया और ऊपर आने की कोशिश की, लेकिन हाथ छूट जाने से वह नीचे गिर पड़ा। बच्चों ने जब देखा कि वह उसे नहीं निकाल पाएँगे तो एक बच्चा पड़ोस के मकान में जाकर एक युवक को बुला कर लाया और तब जाकर उस युवक की मदद से छुटंकी बाहर आ सका।
स्वयं की तकलीफ की चिंता न कर दूसरों की मदद करने को तत्पर रहने के गुण के कारण वह अपने हमजोलियों में बहुत लोकप्रिय था। बड़े भी उसके स्वभाव को जानते थे, अतः वह भी उसे प्यार करते थे। कभी कोई बच्चा उससे लड़-झगड़ भी लेता तो पहल करके पुनः उससे दोस्ती कर लेता।
छुटंकी की वाचालता के किस्से भी कम न थे। कई किस्सों में से एक किस्सा इस प्रकार है। एक दिन उसका एक साथी राजू अपना एक खूबसूरत-सा प्लास्टिक का स्केल सभी दोस्तों को दिखा कर बता रहा था कि स्केल सुन्दर तो है ही, मज़बूत भी बहुत है। छुटंकी भी पास में ही खड़ा था। उसने स्केल अपने हाथ में लेकर मोड़ा। मोड़ते ही स्केल के दो टुकड़े हो गये। राजू रुआँसा होकर दोनों हाथों से उसे मारने लगा और छुटंकी 'अरे, तूने ही तो कहा था कि मज़बूत है', कहते-कहते जोर से हँसते हुए वहाँ से भाग छूटा। अगले ही दिन राजू और छुटंकी सब-कुछ भूल कर अन्य दोस्तों के साथ पार्क में खेल रहे थे। शैतानी, झगड़ा और पुनः दोस्ती, यही इन बच्चों का रोज़मर्रा का हाल था।
तीन चार बच्चों के अलावा मोहल्ले के अन्य सभी बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते थे। आर्थिक अक्षमता के चलते छुटंकी को उसके माता-पिता ने स्कूल में दाखिल नहीं कराया था। छुटंकी को भी पढ़ने की इच्छा होती थी सो जब भी अवसर मिलता, वह अपने किसी दोस्त के पास बैठ जाता और उससे पढ़ना-लिखना सीखने की कोशिश करता। उसके दो-तीन ख़ास दोस्त इसमें उसकी पूरी मदद भी करते थे। सौ तक की गिनती बोलना तो वह छः वर्ष की उम्र होते-होते ही सीख गया था। इसके बाद गिनती लिखना व हिन्दी की बारहखड़ी भी उसने सीख ली। फिर ग्यारह वर्ष की उम्र होने तक हिन्दी के कुछ शब्द लिखना, छोटी-छोटी संख्याएँ लिखना और छोटे-छोटे जोड़-बाकी, गुणा-भाग, आदि भी उसने सीख लिया।... और अब तो वह अपने दोस्तों की पुरानी किताबें मांग कर पढ़ने का प्रयास भी करने लगा था।
दिन में सब बच्चे स्कूल में पढ़ने जाते थे व शाम के वक्त पार्क में इकठ्ठा होते और विभिन्न प्रकार के खेल खेलते थे। पार्क से कुछ ही दूरी पर एक गली के मोड़ से कुछ आगे स्थित बंगले में रहने वाले ठेकेदार मदन मोहन भाटिया का दस वर्षीय पुत्र बिपिन भी उन बच्चों में शामिल था। भाटिया जी को बिपिन का अन्य बच्चों के साथ रहना, खेलना तो नापसंद नहीं था, किन्तु वह उसे छुटंकी लाल के साथ खेलना तो दूर, उसके साथ देखना भी पसंद नहीं करते थे। छुटंकी अनुसूचित जाति से था, गरीब घर से था और स्कूल में पढ़ने नहीं जाता था। यही वह कारण थे कि भाटिया जी उसे बिपिन की दोस्ती के लायक नहीं समझते थे। भाटिया जी की अहंकारी प्रवृत्ति के कारण मोहल्ले के अन्य निवासी उनसे काम-चलाऊ व्यवहार ही रखते थे।
एक दिन छुटंकी बिपिन के साथ उसके घर के अहाते में चला आया तो संयोगवश भाटिया जी अपने लॉन में बैठे हुए थे। भाटिया जी ने दोनों को साथ देखा तो बिपिन को थप्पड़ लगा कर भीतर भेज दिया।
छुटंकी ने भाटिया जी से पूछा- "अंकल, आपने बिपिन को क्यों मारा? उसने तो अभी कोई गलती नहीं की थी।"
भाटिया जी ने कुपित दृष्टि से उसकी ओर देखा- "तू जा यहाँ से।"
छुटंकी को उसके पापा ने सिखाया था कि बड़ों से 'जी' लगा कर बात करनी चाहिए। उसने सोचा, शायद 'अंकल जी' न कहने से अंकल नाराज़ हो गये हैं, सो अपनी समझ से सुधार कर डरते-डरते वह पुनः बोला- "अंकल जी, बिपिन ने कोई गलती नहीं की थी, फिर आपने क्यों मारा उसे?"
इस बार भाटिया जी ने छुटंकी को झिड़कने के अंदाज़ में कहा- "चला जा छुटकू और फिर कभी बिपिन के साथ मत रहना।"
छुटंकी रुआँसा हो वहाँ से घर लौटा। घर के भीतर न जाकर वह बाहर चबूतरे पर बैठ गया। उसकी माँ बाहर आई तो उसे उदास बैठे देख कर पूछा- "क्या हुआ रे छुटकू, यहाँ क्यों बैठा है और इतना उदास क्यों है, क्या हो गया?"
"कुछ नहीं मम्मी, वो भाटिया अंकल बिना कारण मेरे ऊपर गुस्सा हो रहे थे और बिपिन बिचारे को तो थप्पड़ ही मार दिया।"
छुटंकी की माँ आश्चर्य से उसकी तरफ देखती हुई मामला समझने की कोशिश कर ही रही थी कि छुटंकी ने पुनः कहा- "और मम्मी, उन्होंने मुझे बिपिन के साथ रहने से भी मना किया है। कैसे अंकल हैं वो?" छुटंकी फिर उदास हो गया।
छुटंकी की माँ को भाटिया जी की सोच का पता था सो उसकी समझ में आ गया कि माज़रा क्या है और उन्होंने ऐसा क्यों कहा होगा। उसने प्यार से छुटंकी का हाथ पकड़ा और भीतर ले जाकर समझाया- "बेटा, परेशान मत हो। तेरे तो कई दोस्त हैं, तुझे किस बात की चिन्ता है?"
अवज्ञा-भाव नहीं हो, तब भी बच्चों का मासूम दिल किसी भी निर्मम आदेश का पालन कब तक कर सकता है? दो दिन तो दोनों बच्चे मन मार कर एक-दूसरे से अलग-थलग रहे, किन्तु वापस पहले की तरह ही घुल-मिल गये। हाँ, छुटंकी इस घटना के बाद कभी बिपिन के घर के पास भी नहीं फटका।
बिपिन की उम्र दस वर्ष की थी और वह एक अच्छे स्कूल में पांचवीं कक्षा में पढ़ता था। बिपिन को अपने पिता की पाबन्दी अच्छी नहीं लगती थी। वह उनके सामने तो छुटंकी से दूरी बनाये रखता था, लेकिन जब भी अवसर मिलता, वह छुटंकी के साथ अन्य दोस्तों की तरह ही खेलता था और छुटंकी के साथ अपेक्षाकृत अधिक मित्र-भाव रखता था।
कुछ दिन बाद -
सर्दी इन दिनों चमकने लगी थी। संध्या का समय बीत चुका था और स्ट्रीट-लाइट ऑन हो गई थीं। छुटंकी और बिपिन काफी देर से बिपिन के मोबाइल पर गेम खेल रहे थे। सहसा छुटंकी को याद आया कि उसकी माँ बीमार है सो उसने कहा- "यार बिपिन, अब चलते हैं। मम्मी की तबियत ख़राब है।"
दोनों साथ-साथ बाहर निकले। अन्य सभी बच्चे पंद्रह-बीस मिनट पहले अपने-अपने घर चले गये थे। आज पार्क से घर लौटने में देर हो गई थी सो बिपिन डाँट के भय से डर रहा था। बीस फीट की दूरी पर बायीं ओर जाने वाली गली के मोड़ से आगे कुछ कदम ही वह चला था कि गली से निकल कर आये एक व्यक्ति को अपने घर की दिशा में आते उसने देखा। वह व्यक्ति भी बिपिन के साथ ही उसके घर की ओर बढ़ रहा था। वह आश्वस्त हुआ कि शायद उसके पापा से कोई मिलने आ रहा है, अतः उसकी मौज़ूदगी के कारण वह डाँट से बच जाएगा। बिपिन ने पार्क के पास खड़े छुटंकी की ओर अपना हाथ हिला कर विदा ली और आगे बढ़ने लगा। छुटंकी भी विपरीत दिशा में अपने घर के लिए रवाना हुआ। अचानक कुछ आहट-सी होने से छुटंकी ने पीछे मुड़ कर देखा तो चौंक पड़ा। उसने देखा, बिपिन के साथ चल रहे व्यक्ति ने बिपिन को एक हाथ से अपनी बगल में दबा रखा था और दूसरे हाथ से उसके मुँह को दबाये उसे गली के मोड़ की तरफ ले जा रहा था।
सर्दी के दिन थे सो सब लोग साँझ होते ही अपने-अपने घरों में दुबक गये थे। सड़क पर कोई अन्य व्यक्ति नज़र नहीं आ रहा था। घबरा कर छुटंकी ने चिल्लाना चाहा, किन्तु उसे इस बात का डर लगा कि उसके चिल्लाने से कहीं वह व्यक्ति बिपिन को नुकसान न पहुँचा दे। त्वरित निर्णय लेकर वह हल्के पाँव उसकी तरफ भागा। वह बदमाश गली में मुड़ कर करीब पचास-साठ फीट दूर खड़ी अपनी कार के करीब पहुँचा। तब तक छुटंकी भी वहाँ पहुँच गया। उसके पास पहुँचते ही छुटंकी ने निर्भीकता से उसे ललकारा- “कौन हो तुम? छोड़ दो मेरे दोस्त को। कहाँ ले जा रहे हो इसे?”
“तू अपना काम कर लड़के! चिल्लाएगा या बीच में पड़ेगा तो मैं इसका गला दबा दूँगा।" -वह व्यक्ति गुर्राया।
छुटंकी उस आदमी को देखते ही खुश हो गया। उसे उम्मीद हो आई कि भवानी अंकल अब बिपिन को छुड़ा लेंगे। तभी उस आदमी (भवानी) के पीछे-पीछे आई उसकी पत्नी ने भी छुटंकी सहित तीनों को देखा और अपने पति को भीतर की तरफ खींचते हुए धीमी आवाज़ में कहा- "अरे, चलो भीतर। पता नहीं कौन है वह और कितने लोग होंगे उसकी गाड़ी में!"
दरवाज़ा बन्द कर वह दोनों भीतर चले गये। लोगों की इसी भीरू मनोवृत्ति के चलते ही तो बदमाश अपनी कारगुजारी में सफल हो जाते हैं। बदमाश अब निश्चिन्त हो कार की ओर बढ़ा।
बिपिन उस व्यक्ति के बगल में दबा फड़फड़ा रहा था, लेकिन बहुत प्रयास के बावज़ूद वह अपने मुँह से उसका हाथ नहीं हटा पा रहा था। उस व्यक्ति से छुटंकी मात्र तीन फीट की दूरी पर था। छुटंकी पशोपेश में था कि क्या करे, क्या न करे! वह बच्चा ही तो था, सो दो पल के लिए घबराया। वह जानता था कि इस सुनसान गली में इस वक्त कोई उसकी मदद के लिए नहीं आयेगा और उसके किसी भी कदम का क्या हश्र होगा, फिर भी तुरन्त ही उसने एक निर्णय लिया और कार की ओर बढ़ रहे उस बदमाश की ओर तेजी से झपट कर उसके हाथ पर अपने दाँत गड़ा दिये। उस व्यक्ति ने दर्द से कुलबुलाते हुए अपने पाँव से प्रहार कर छुटंकी को धकेलने की कोशिश की, किन्तु छुटंकी ने दृढ़ता से अपने दांतों की पकड़ बनाये रखी। वह व्यक्ति पीड़ा से छटपटा उठा और बिपिन उसकी पकड़ से छूट गया। उसकी पकड़ से छूटते ही बिपिन रोता हुआ घर की ओर भाग छूटा। इधर उस बदमाश ने अपना पूरा ध्यान छुटंकी की ओर लगाया और अपने दूसरे हाथ का भरपूर प्रहार कर के उसे नीचे गिरा दिया। छुटंकी का सिर जमीन से टकराया। उसके मुँह से एक धीमी-सी चीख निकली और वह बेहोश हो गया। बदमाश का गुस्सा इतने से ही शान्त नहीं हुआ और जमीन पर बेहोश पड़े उस मासूम बच्चे पर लातों से प्रहार करने लगा। देवयोग से गली के मोड़ से आ रहे दो व्यक्तियों को देख कर वह भाग कर कार में घुस गया और फुर्ती से कार स्टार्ट कर निकल भागा।
दोनों व्यक्ति भाग कर छुटंकी के पास पहुँचे। उन्होंने कार का नंबर पढ़ने की कोशिश की, किंतु असफल रहे क्योंकि कार आगे निकल गई थी और गली में रोशनी भी पर्याप्त नहीं थी। दोनों यह नहीं जान सके कि कार वाला आदमी बच्चे को क्यों मार रहा था। छुटंकी को बेहोश देख दोनों में से एक ने दूसरे से कहा- "अरे, यह तो छुटकू है। दिनेश जी, इसे फ़ौरन अस्पताल ले जाना होगा। आप यहाँ रुको, मैं मेन रोड़ से ऑटो ले कर आता हूँ।"
"लेकिन महावीर जी, पहले इसके घर वालों को सूचित तो कर दें।"
"नहीं भाई, बच्चे की हालत नाज़ुक लग रही है, हमें पहले इसे अस्पताल ले जाना होगा।" -महावीर सिंह ने जवाब दिया।
महावीर ऑटो लेकर आ गये और दोनों छुटंकी को अस्पताल ले आये। अस्पताल में इमर्जेन्सी में बैठे डॉक्टर ने उसे तुरंत भर्ती कर लिया। छुटंकी को वॉर्ड में बैड पर ले जाया गया। वॉर्ड-डॉक्टर ने कुछ दवाइयों की तो अस्पताल से ही व्यवस्था करवा दी और शेष दवाइयाँ बाहर से लाने के लिए पर्ची बना कर महावीर को दी।
महावीर ने दिनेश से कहा- "अब हम में से किसी एक को जा कर छुटंकी के पापा को सूचित कर देना चाहिए।"
"मैं चला जाता हूँ।" -कह कर दिनेश जैन अस्पताल से निकल गये। महावीर व दिनेश, दोनों के घर छुटंकी के घर के आस-पास ही थे, सो दिनेश ने पहले अपने घर जा कर स्कूटर लिया और फिर छुटंकी के घर जा कर उसके पिता महादेव को सूचना दी। महादेव और उनकी पत्नी सुन कर रोने लगे, तो दिनेश ने सांत्वना दी। छुटंकी की माँ पिछले दिन से तेज बुखार से पीड़ित थी फिर भी उसने साथ चलने की ज़िद की, लेकिन फिर महादेव द्वारा समझाये जाने पर बिलखते हुए बोली- "मेरे छुटकू को जल्दी लेकर आओ। मेरा बेटा, पता नहीं किस हालत में है?"
महादेव पत्नी को आश्वस्त कर के कि वह जल्दी ही छुटंकी के साथ लौटेंगे, अपने पास पड़े दो सौ रुपये लेकर दिनेश के साथ अस्पताल पहुँचे।
छुटंकी के बैड के पास बैठे इनका इन्तज़ार कर रहे महावीर महादेव को देखते ही डॉक्टर की पर्ची देकर बोले- "महादेव जी, यह दवाइयाँ लानी पड़ेंगी। हम लोग घूमने निकले थे सो पैसा-वैसा साथ ले कर नहीं निकले थे।"
महादेव ने छुटंकी के पास जाकर उसके सिर पर हाथ रख कर उसे सहलाया और दो मिनट उसके पास ही खड़े उसे देखते रहे। उनकी आँखें छुटंकी को बेहोश देख कर भर आईं। महावीर ने जब पुनः उन्हें दवा लाने की याद दिलाई, तब वह वहाँ से हटे और अस्पताल-परिसर में ही स्थित मेडिकल स्टोर पर पहुँचे। केमिस्ट को पर्ची देकर उन्होंने दवाइयों की अनुमानित कीमत की जानकारी चाही, तो केमिस्ट ने गणना कर के बताया कि कुल सात सौ रुपये होंगे।
महादेव ने मायूस होकर कहा- "भाई, अभी तो जो ज़रूरी हो, दो सौ रुपये तक की दवाई दे दो।"
केमिस्ट ने जवाब दिया- "दो इंजेक्शन सहित एक और दवाई दे देता हूँ जो मेरी जानकारी से पहले काम में आएँगी।"
महादेव ने सहमति दी और दवा की कीमत रुपया एक सौ सित्तर भुगतान कर वॉर्ड में लौटे। तब तक दिनेश अस्पताल से चले गये थे, किन्तु महावीर वहीं छुटंकी के पास बैठे थे। महादेव इंजेक्शन व दवाइयाँ लेकर डॉक्टर के पास गये और बताया कि अभी वह मात्र यही दवाइयाँ ला पाये हैं। डॉक्टर के निर्देशानुसार नर्स ने इंजेक्शन लगाने के बाद दवाई वाली गोलियाँ छुटंकी को होश आने के बाद खिलाने की विधि बता दी और शेष अन्य दवाइयाँ सुबह तक ले आने की हिदायत दी।
नर्स की बात सुनने के बाद महादेव ने महावीर को धन्यवाद देते हुए हाथ जोड़ कर कर कहा- "भाई महावीर जी, आप दोनों ने समय पर छुटकू को अस्पताल में लाकर मुझ गरीब पर बहुत मेहरबानी की है। रात हो गई है, अब आप अपने घर जाओ। दिनेश जी को भी मेरा धन्यवाद कहना।"
"नहीं महादेव जी, इसमें मेहरबानी की कोई बात नहीं है, इंसान ही इंसान के काम आता है। ठीक है फिर,अभी मैं चलता हूँ। कल सुबह आ जाऊँगा।"
महावीर के जाने के बाद महादेव ने एक भरपूर नज़र छुटंकी पर डाली। उसे अब तक होश नहीं आया था। महादेव समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर उसे कार वाले ने क्यों मारा होगा। उन्हें यह चिंता भी हो रही थी कि सुबह और दवाइयों की व्यवस्था कैसे होगी। उन्हें अपनी पत्नी का भी ख़याल आ रहा था, घर पर अकेली वह चिंता के मारे परेशान हो रही होगी। छुटंकी के पलंग पर सिर टिकाये सोचते-विचारते एक घंटा निकल गया और फिर उन्हें बैठे-बैठे ही नींद आ गई।
आधे घंटे बाद महादेव की आँख खुली। उन्होंने आँखें मलते हुए खड़े होकर छुटंकी को ध्यान से देखा और हाथ लगा कर उसे हिलाया, लेकिन छुटंकी के शरीर में कोई हलचल नहीं दिखाई दी। घबरा कर उन्होंने नर्स को बुलाया। नर्स छुटंकी के पास आई, उसे हल्के हाथ से झकझोरा और स्टेथिस्कोप से जांच की।
"बच्चा अभी भी बेहोश है। डॉक्टर ने मुझे कहा था सो एक और इंजेक्शन मैं लगा देती हूँ। होश में आने के बाद शायद एक एक्स-रे भी करवाना पड़ेगा। अगर सुबह के पहले होश आ जाए तो होश में आने के आधे घंटे बाद उसे दवाई की गोली दे देना।"
इंजेक्शन लगा कर नर्स अपनी सीट पर चली गई।
सुबह सात बजे छुटंकी को होश आया तो महादेव की जान में जान आई। उन्होंने छुटंकी के सिर पर हाथ रख कर प्यार से सहलाया। साढ़े सात बजे उसे दवाई की गोली भी खिला दी। छुटंकी के पास कुछ देर बैठने के बाद महादेव दातुन-कुल्ला कर के वापस आ गये।
रात की ड्यूटी वाला डॉक्टर चला गया था। नर्स ने ड्यूटी पर अभी आई नई नर्स व नये आये डॉक्टर को अन्य रोगियों के साथ ही छुटंकी की भर्ती होने से अब तक की स्थिति बताई। डॉक्टर ने आकर छुटंकी की नब्ज़ देखी और बैड पर रखे 'रोगी विवरण चार्ट' पर कुछ लिख कर अपने सीनियर से फोन पर बात की। बात ख़त्म कर महादेव से "बच्चे का एक्स-रे करवाना पड़ेगा", कह कर डॉक्टर ने नर्स को पर्ची बना कर दी और अगले रोगी को देखने चला गया। नर्स ने एक अन्य गोली छुटंकी को पानी के साथ खिलाने के बाद महादेव को पर्ची देकर कहा- "एक्स-रे के लिए आउटडोर के पास वाली फीस जमा करने की खिड़की पर रसीद कटवा लो। और हाँ, कल की बकाया दवाई भी लेते आना।"
दवाई खरीदने के लायक पैसे भी नहीं हैं, तो एक्स-रे के लिए पैसे कहाँ से आयँगे, यही सोचते परेशान महादेव आउटडोर के पास पहुँचे और फीस वाली खिड़की पर पर्ची दिखा कर एक्स-रे की फीस के बारे में पूछा। वहाँ बैठे कर्मचारी ने बताया- "चैस्ट का एक्स-रे होगा, तीन सौ रुपए जमा करने होंगे।"
महादेव वापस वॉर्ड में आये तो नौ बज रहे थे। नर्स इस समय बड़े डॉक्टर के साथ राउंड पर थी और संयोग से डॉक्टर छुटंकी को ही देख रहे थे। नर्स ने महादेव की तरफ संकेत कर डॉक्टर को बताया कि यह पेशेंट के पिता हैं।
"बच्चे को कोई अन्दरूनी गहरी चोट लगी है। एक्स-रे की रसीद कटवा ली आपने? जल्दी ही इसका एक्स-रे करवाना होगा।" -डॉक्टर ने महादेव से कहा।
महादेव रुआँसे स्वर में बोले- "डॉक्टर साहब, मेरे पास अभी न तो एक्स-रे के पैसे हैं और न ही दवा खरीदने के।"
डॉक्टर झुंझलाया- "तो ले जाओ बच्चे को यहाँ से। अगर इलाज नहीं करवा सकते तो फ़िज़ूल यहाँ क्यों रख छोड़ा है?"
"देखता हूँ डॉक्टर साहब, कहीं से कोई इन्तज़ाम हो जाय तो।" -दर्द और अपमान को पीकर महादेव ने कहा।
"कहीं जाने की ज़रुरत नहीं है आपको। मैं आ गया हूँ।" -पीछे से किसी व्यक्ति ने कहा। महादेव ने पीछे मुड़ कर देखा, महावीर खड़े थे। महावीर को नमस्कार कर वह बोले- "अरे महावीर जी, इतनी सुबह आ गये?"
"हाँ भाई, मुझे कल पता लग गया था कि आपके पास दवाई के पूरे पैसे नहीं हैं। कल मेरे पास पैसे नहीं थे, लेकिन अब ले आया हूँ। चाय लाया हूँ आपके और छुटकू के लिए, पी लो और फिर एक्स-रे और दवा लाने के लिए चलते हैं।"
छुटकू को चाय पिलाने की कोशिश की तो उसने चाय के प्रति अनिच्छा व्यक्त की और बोला- “मम्मी का बुखार अभी तक नहीं उतरा? उसे क्यों नहीं लाये यहाँ? पापा, मुझे मम्मी और ननकू से मिलना है, घर ले चलो न मुझे।”
“हाँ बेटा, बस तेरी तबियत अच्छी हो जाये। अगर आज यहाँ से छुट्टी नहीं मिली तो दोनों को शाम को साथ ले कर आऊँगा।” -महादेव ने उसे तसल्ली दी और बेमन से जैसे-तैसे चाय अपने कण्ठ में उंडेली।
महावीर महादेव के चाय पी लेने के बाद उनका हाथ पकड़ कर नीचे ले चले। महादेव महावीर के साथ यंत्रवत चलते रहे। एक्स-रे की फीस जमा करा कर महावीर ने महादेव को रसीद थमा कर वॉर्ड में भेजा और उनके हाथ से पर्ची लेकर दवा लेने बाहर चले गये।
कुछ देर बाद महावीर दवा लेकर लौटे तो उनके साथ भवानी प्रसाद भी थे। महादेव भवानी प्रसाद को अपने मोहल्ले का होने के अलावा इसलिए भी जानते थे क्योंकि वह कभी-कभी उनकी दूकान पर सामान खरीदने आते थे। महादेव ने भवानी प्रसाद को नमस्कार किया और महावीर से हाथ जोड़ कर विनम्रतापूर्वक कहा- "महावीर जी, आपने मुझ पर और मेरे बेटे पर बहुत बड़ी कृपा की है। मैं आपकी यह मदद कभी नहीं भूलूँगा।" महादेव यह कहते हुए भावातिरेक से महावीर के पाँव छूने लगे तो महावीर ने उन्हें रोक लिया। महादेव की आँखों से आँसू बह निकले, करुण स्वर में बोले- "महावीर जी, आप और दिनेश जी छुटकू को अस्पताल लाये और आपने अभी पुनः समय पर आकर मुझे संकट से बचाया है। आप मेरे लिए भगवान के समान हैं।"
"नहीं भाई महादेव जी, जो कुछ भाटिया जी ने आज सुबह बताया, उसके अनुसार तो आपका छुटकू बहुत बड़ा दिल और हिम्मत रखता है, वह हीरा है महादेव जी, हीरा।"
हतप्रभ महादेव महावीर की आँखों में देख रहे थे। उनकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। उन्हें तो केवल वही बात मालूम थी जो कल रात महावीर व दिनेश ने बताई थी।
तभी भवानी शंकर ने कहा- "महादेव जी, सुबह मोहल्ले के लोगों से पता चला कि मेरे मकान के सामने ही छुटंकी ने बिपिन को किडनेप होने से बचाया था तो किडनेपर ने छुटंकी को बुरी तरह से पीटा। हम घर में टीवी देख रहे थे तो पता ही नहीं चला कि बाहर क्या हो रहा है। अगर पता लगता तो मैं उस बदमाश को छोड़ता नहीं।"
महादेव- "हाँ भवानी भाई, कोई भी आदमी इतना बेशर्म नहीं हो सकता जो ऐसी घटना देख कर भी अपनी आँखें बंद कर ले। मुझे तो पूरी बात ही मालूम नहीं है। पता नहीं, कौन कर रहा था बिपिन का अपहरण करने की कोशिश और छुटकू ने कैसे बचाया उसे?"
महादेव की बात सुन कर भवानी शंकर का चेहरा उतर गया। शर्म के मारे उनकी नज़र नीचे झुक गई, पर उन्हें इस बात की तसल्ली थी कि यह लोग सच से अनभिज्ञ हैं।
महावीर सिंह ने महादेव को बताया- "महादेव जी, जब बदमाश छुटकू को पीटने लगा था, उसके पहले बिपिन वहाँ से निकल चुका था, इसलिए हम उसे नहीं देख पाए थे। वह तो बिपिन ने अभी सुबह अपने पापा को सारी बात बतायी और उन्होंने हमें, कि कैसे बिपिन को बचाने के लिए छुटकू ने अपनी जान हथेली पर रख कर उस बदमाश के हाथ पर अपने दांत गड़ा दिये थे। बिपिन तो छूट भागा, लेकिन छुटकू को उसने बुरी तरह से मारा। सच में ही आपका बेटा बहुत बहादुर है।"
छुटंकी ने किसी और के लिए अपनी जान ख़तरे में डाली थी। यह जान कर गर्व से महादेव का चेहरा दमक उठा।
इन लोगों की बातें सुन कर वॉर्ड में मौज़ूद अन्य लोग इनके आस-पास आ गये थे। नर्स ने जब यह माज़रा देखा तो इन तीनों के पास आकर बोली- "देखिये, आप लोग वॉर्ड से बाहर जाइये। यहाँ इस तरह इकट्ठे होकर गपशप मत कीजिये।"
नर्स की बात सुन कर तीनों वॉर्ड से निकलने को हुए कि छुटंकी को लेकर वॉर्ड-बॉय भीतर आता दिखा। स्ट्रेचर पर लेटे छुटंकी की नज़र भी इन पर पड़ी। भवानी को देख कर उसने अपना मुँह बिगाड़ा। महादेव और महावीर तो छुटंकी के साथ वापस उसके बैड की ओर लौटे, लेकिन भवानी 'मैं चलता हूँ', कह कर वहाँ से चलते बने।
छुटंकी बहुत बेचैनी महसूस कर रहा था। महादेव ने उसका हाथ अपने हाथों में लेकर पूछा- "बेटा, कैसी तबियत है तेरी?"
"ठीक हूँ पापा।" -क्षीण मुस्कराहट के साथ छुटंकी ने जवाब दिया, फिर पुनः बोला- "लेकिन पापा, यह भवानी अंकल क्यों आये थे यहाँ? जब बिपिन को उस बदमाश आदमी ने पकड़ रखा था, उस समय उन्होंने घर का दरवाज़ा खोल कर देखा था। मैंने सोचा कि वह आकर बिपिन को बचा लेंगे, लेकिन उन्होंने तो हमें देख कर तुरंत भीतर जाकर दरवाज़ा बंद कर लिया था।"
आश्चर्य व क्षोभ के साथ महादेव और महावीर ने एक-दूसरे की ओर देखा।
"उफ्फ़! तो यह असलियत थी उस बात-बहादुर भवानी की! इसीलिए छुटकू के यहाँ आते ही वह भगोड़ा खिसक लिया। एक तो कायरता और फिर ऊपर से आडम्बर! कैसे-कैसे लोग होते हैं?" -महावीर के मुंह से निकला।
तभी छुटंकी ने करवट लेने की कोशिश की, किन्तु दर्द से कराह उठा। महादेव ने पास में जाकर उसके सिर को सहला कर पूछा- "बेटा छुटकू, बहुत दर्द हो रहा है?"
छुटंकी कोई जवाब दे, इसके पहले ही नर्स ने महादेव को एक तरफ ले जाकर बताया- "डॉक्टर साहब ने एक्स-रे देख लिया है। बच्चे की पसलियों में से एक क्रश हो गई है और उसके पास वाली दो पसलियों में भी सूजन है। अभी कुछ दिन उसे हमारी निगरानी में यहाँ अस्पताल में रखना ज़रूरी है। दवाइयाँ और लानी पड़ेंगी, ऐसा डॉक्टर साहब कह रहे थे। डॉक्टर साहब ने यह भी कहा है कि अगर अब बच्चा बेहोश हो तो तुरन्त सूचना दें।"
छुटंकी की हालत व दवाइयों के बारे में सोच कर महादेव का चेहरा विवर्ण हो उठा। महावीर ने महादेव के चेहरे के भाव पढ़े। छुटंकी के पास जाकर उसके सिर पर हाथ रख कर उन्होंने पूछा- "कैसा है हमारा बहादुर बेटा?"
"ठीक हूँ अंकल! बिपिन कैसा है?" -कराहते हुए पलकें खोल कर छुटंकी बोला।
"वह बिल्कुल अच्छा है। आज उसकी मासिक परीक्षा होने से वह स्कूल गया है, उसके पापा बता रहे थे। शाम को वह तुमसे मिलने आयेगा बेटा।"
महावीर ने अब महादेव के कंधे पर हाथ रख कर कहा- "महादेव जी, छुटकू के इलाज के मामले में आपको चिंता करने की ज़रुरत नहीं है। भाटिया जी कह रहे थे कि वह इलाज का सारा खर्चा उठायेंगे और उन्होंने कुछ नहीं भी किया तो मैं हूँ न! आप निश्चिंत रहो।"
"अरे नहीं महावीर जी, आप लोग क्यों तकलीफ करोगे? कुछ-न-कुछ इंतज़ाम हो जायगा उसके इलाज का। आपने तो वैसे भी आज बहुत खर्च कर दिया है।"
"छुटकू आपका ही बेटा नहीं है महादेव जी, पूरे मोहल्ले का बेटा है वह! जिसको भी इस बात का पता चला है, उसकी जुबान पर छुटकू का ही नाम है। दोपहर में सब इससे मिलने आयेंगे।"
महादेव की आँखों से अश्रुधारा बह निकली। गद्गद होकर वह महावीर के पाँवों में गिर पड़े। महावीर ने उन्हें उठा कर गले से लगा लिया, बोले- "मैं या कोई और भी कुछ कर के आप पर उपकार नहीं कर रहा होगा। उपकार तो आपके बेटे ने किया है भाटिया जी पर, पूरे मोहल्ले पर, कि उसने खुद की जान जोखिम में डाल कर मोहल्ले के एक बच्चे को बचाया है। भाटिया जी ने अभी सुबह पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज करवाई है पर थानेदार के अनुसार उस बदमाश के पकड़े जाने की कोई खास उम्मीद नहीं, क्योंकि कोई सुराग नहीं होने से उसे तलाश करना मुश्किल है।"
अनायास ही छुटंकी के मुँह से एक दीर्घ कराह निकली। दोनों ने उसकी ओर देखा, उसने पुनः अपनी चेतना खो दी थी। महादेव ने लगभग भागते हुए वॉर्ड डॉक्टर के पास जाकर बताया कि छुटंकी फिर बेहोश हो गया है। डॉक्टर ने आकर छुटंकी की नब्ज़ टटोली। सन्तोष की साँस लेकर उसने एक्स-रे रिपोर्ट दुबारा देखी और फिर बड़े डॉक्टर से बात की।
बड़े डॉक्टर अस्पताल में ही थे, दस मिनट में वॉर्ड में आ गये। छुटंकी की एक्स-रे रिपोर्ट को उन्होंने ध्यान से देखा और वॉर्ड डॉक्टर को एक्स-रे पर एक जगह उंगली रख कर दिखाते हुए अंग्रेजी में कुछ तकनीकी बात की, जिसे महादेव व महावीर नहीं समझ पाये। दोनों डॉक्टर बात करते हुए वॉर्ड डॉक्टर के कक्ष में गये।
पाँच मिनट बाद बड़े डॉक्टर के जाने के बाद नर्स ने आकर महादेव को बताया कि डॉक्टर उन्हें बुला रहे हैं। महादेव डॉक्टर के कक्ष में पहुँचे। डॉक्टर ने महादेव से कहा- "बच्चे की हालत थोड़ी ज़्यादा ख़राब है, इसलिए अभी एक घंटे के भीतर ऑपरेशन करना पड़ेगा।"
सिर हिला कर हताश महादेव वापस बैड के पास आये।
दो ही मिनट में ऑपरेशन के लिए आवश्यक सामान व दवाइयाँ लिखी डॉक्टर की पर्ची लेकर आई नर्स ने पर्ची महादेव को दे कर कहा- "फ़ौरन मेडिकल स्टोर से पर्ची में लिखी सभी दवाइयाँ व सामान ले आओ। जल्दी ही ऑपरेशन होगा।"
महावीर ने महादेव के हाथ से पर्ची लेकर कहा- "आप बैठो बच्चे के पास। मैं दवाइयाँ व अन्य चीज़ें लेकर आता हूँ।"
प्रतिरोध करने का न तो कोई हेतु था और न ही उचित समय। महादेव ने कातर दृष्टि से महावीर की ओर देखा और निश्शेषित भाव से कदम रखते हुए छुटंकी के पास आकर बेंच पर बैठ गये।
छुटंकी ऑपरेशन थिएटर में था। एक घंटा बीत चुका था। थिएटर के बाहर बैंच पर बैठे महादेव और महावीर को थिएटर से बाहर आये मेल नर्स ने बताया कि अभी एक घंटा और लगेगा। महादेव को कुछ उद्विग्न होते देखा तो महावीर ने उनसे कुछ देर के लिए बाहर चलने को कहा, लेकिन महादेव ने इन्कार कर दिया और बोले- "महावीर जी, आप सुबह से मेरे साथ हो। अब घर लौट जाओ, आपके भोजन का समय भी तो हो गया है।"
"आपने कौन-सा भोजन कर लिया है, आपको भी तो कुछ खाना पड़ेगा।... पर शायद आप ठीक कह रहे हो। मैं घर जा आता हूँ और आपके लिए भी टिफ़िन ले आता हूँ।"
"नहीं, मुझे तो बिल्कुल भूख नहीं है। मेरे लिए कुछ मत लाना। और हाँ, छुटकू की मम्मी तक सूचना करवा देना कि सब ठीक-ठाक है। ऑपरेशन की बात उसे अभी मत बताना, फ़िज़ूल चिंता करेगी।"
"हाँ-हाँ, आप निश्चिन्त रहो। मैं भाभी को कहलवा दूँगा। और टिफ़िन तो मैं लाऊँगा ही, जो इच्छा बने वो खा लेना।"
महावीर अस्पताल से निकल गये।
करीब डेढ़ घंटे बाद महावीर टिफ़िन लेकर अस्पताल के ऑपरेशन थिएटर पर पहुँचे तो देखा, थिएटर के बाहर कुछ लोगों की भीड़ जमा थी। भीड़ के बीच से उन्होंने झाँका तो पाया कि महादेव बैंच पर बेहोश पड़े थे। कुछ जगह बना कर वह बैंच के पास गये और थिएटर में जा रहे एक अस्पताल-कर्मी से पूछा- "भैया जी, आपको पता है, क्या हुआ है इन्हें?"
"इनका बच्चा ऑपरेशन के दौरान मर गया है। खबर मिली तो यह बर्दाश्त नहीं कर सके और बेहोश हो गये।" -अस्पताल-कर्मी ने बताया।
हतप्रभ महावीर अपना सिर पकड़ कर बैठ गये, उनकी आँखें भर आईं। वह हो गया था, जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी।
"क्या आप इनके रिश्तेदार हो?" -अस्पताल-कर्मी ने पूछा।
"हाँ।" -महावीर ने बुझी-बुझी आवाज़ में जवाब दिया। उनके मस्तिष्क में छुटंकी का मासूम चेहरा घूम रहा था।
"मैं इस ऑपरेशन थिएटर में ही काम करता हूँ। आप भीतर आइये, आपसे एक फॉर्म पर साइन करवाने हैं। बच्चे का पोस्टमार्टम होगा।"
"पोस्टमार्टम?... क्यों?" -कुछ चैतन्य होते हुए महावीर ने पूछा।
"बच्चे को जिस तरह की चोट लगी थी, ऐसे मामलों में पोस्टमार्टम किया जाता है। चलो, जल्दी आ जाओ भीतर।" -चिकित्सा-कर्मी बोला।
चिकित्सा-कर्मी के पीछे-पीछे जा रहे महावीर पशोपेश में थे। महादेव बेहोश पड़े थे और अन्य कोई उनका अपना यहाँ था नहीं जो फॉर्म पर हस्ताक्षर करता। पोस्टमार्टम ऐच्छिक कार्य भी नहीं था कि वह टाल देते। अतः उन्होंने सामयिक निर्णय लेकर फॉर्म पर हस्ताक्षर कर दिये और थिएटर से बाहर गये। थिएटर के बाहर बैंच पर बेहोशी में लेटे पड़े महादेव के पास से भीड़ अब छँट चुकी थी। महावीर ने एक व्यक्ति से थोड़ा पानी मांग कर महादेव के मुँह पर छिड़का। इस तरह के दो-तीन प्रयासों के बाद महादेव की मूर्छा टूटी। होश में आते ही महादेव उठ कर बैठ गये। महावीर को देखते ही वह बच्चे की तरह सुबक-सुबक कर रो पड़े। महावीर जो अब तक संयत हो चुके थे, वह भी महादेव को रोते देख पुनः द्रवित हो उठे और बैंच पर बैठे-बैठे ही उन्हें आलिंगनबद्ध कर रुंधे गले से सांत्वना देने लगे- "भाई महादेव, शान्त हो जाओ। छुटकू ने पुण्य गति पाई है। उसकी दिलेरी हम सब के लिए गर्व की बात है। वह वापस तो नहीं आ सकता, किन्तु हम सबके दिलों में हमेशा के लिए जीवित रहेगा।"
उन्होंने छुटंकी के पोस्टमार्टम के लिए अपने हस्ताक्षर करने की बात भी महादेव को बताई। महादेव ने प्रतिक्रिया में रोते हुए कहा- "हम अभागों को अंतिम क्रिया के लिए उस मासूम का शरीर भी कटी-फटी हालत में मिलेगा। कितने अभागे हैं हम?"
महादेव कुछ देर तक रोते रहे और फिर महावीर की आँखों में देखते हुए करुण स्वर में बोले- "यह क्या हो गया महावीर जी! मेरा सब-कुछ ख़त्म हो गया, मैं कैसे शांत रहूँ। घर पर छुटकू की माँ छुटकू का इन्तज़ार कर रही होगी, उसे छुटकू कहाँ से लाकर दूँगा? छुटकू हमारे कलेजे का टुकड़ा था। मैं उसके बिना अकेला घर कैसे जाऊँगा?"
"धीरज धरो महादेव जी, हमें हालात को समझना होगा। छुटकू अब वापस नहीं आएगा।" -महावीर महादेव को समझाने का प्रयास भले ही कर रहे थे, किन्तु वह स्वयं विचलित हो रहे थे। उनके स्वयं के आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।
दोनों की हालत देख कर दो व्यक्ति, जो पहले इकठ्ठा हुई भीड़ का हिस्सा थे, पुनः इनके पास आकर खड़े हो गये। उन लोगों ने उन्हें ढाढस बंधाने की कोशिश भी की।
"क्या छुटकू की तबियत ज़्यादा ख़राब है?" -उनके निकट आये एक व्यक्ति ने व्यग्रता से पूछा। परिचित आवाज़ सुनकर महादेव व महावीर ने नज़रें आवाज़ की तरफ घुमाईं तो देखा भाटिया खड़े थे। महादेव के ह्रदय की पीड़ा भाटिया को देख कर दुगुनी हो गई। 'यही तो है वह घटिया आदमी जो मेरे लाड़ले से चिढ़ता था और इसी के लड़के को बचाने में मेरे छुटकू की जान चली गई', वितृष्णा व आक्रोश के कारण उनकी आँखें जलने लगीं। प्रत्यक्ष कुछ न कह कर महादेव ने अपनी नज़रें दूसरी तरफ फेर लीं। महावीर भी मौन रहे।
किसी से कुछ जवाब न पा कर भाटिया ने घबरा कर दुबारा पूछा- "छुटकू कहाँ है? कैसी तबियत है उसकी? आप लोग जवाब क्यों नहीं देते?"
"इनका बेटा शान्त हो गया है।" -पास खड़े दोनों व्यक्तियों में से एक ने इस बार जवाब दिया।
भाटिया का मुँह खुला का खुला रह गया। अपराध-बोध से ग्रस्त तो वह पहले से थे, छुटंकी के देहान्त की बात सुन कर तो उनके हाथ-पाँव ही फूल गये। सान्त्वना का कोई शब्द वह उच्चारित नहीं कर सके। किंकर्तव्यविमूढ़-से वह वहीं खड़े रहे। छुटंकी के प्रति कृतज्ञता-भाव दर्शाने, उसे प्यार से चूम लेने की उत्कट भावना जो वह अपने मन में लेकर आये थे, मन में ही रह गई। अहंकारी भाटिया अपना समस्त दर्प भूल कर छुटंकी के प्रति मन ही मन नतमस्तक थे। वह अपने बेटे की रक्षा करने वाले इस बहादुर बच्चे के लिए मन में उमड़ते अपने स्नेह को उस पर उंडेलने के लिए आतुर थे। छुटंकी के प्रति अब तक की दुर्भावना व उसके साथ किये दुर्व्यवहार का प्रतिकार कर लेना चाहते थे वह।... लेकिन भाटिया को इस आत्मतुष्टि का अवसर छुटंकी ने नहीं दिया। वह तो अपना निष्काम कर्म कर शून्य में विलीन हो चुका था।
कुछ माह बाद -
भाटिया के सौजन्य से छुटंकी का छोटा भाई ननकू अब बिपिन के ही स्कूल में एल.के.जी. में पढ़ता है। भाटिया ने उसकी आगे की पढ़ाई की भी सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली है। महादेव ने पहले तो मदद स्वीकारने से बिल्कुल इन्कार कर दिया था, किन्तु जब मोहल्ले के अन्य लोगों ने उन्हें दृढ़ता से समझाया तो विवश हो कर उन्होंने अपनी सहमति दे दी। भाटिया में बहुत परिवर्तन आ गया है। अब वह सबके साथ मिल-जुल कर रहते हैं। महादेव के साथ ही पूरा मोहल्ला अब भाटिया की इज़्ज़त करता है। मोहल्ले के लोग और बिपिन व उसके सभी साथी ननकू को भी छुटंकी की तरह ही बहुत प्यार करते हैं।
बाहर से आने वाला कोई व्यक्ति जब इस मोहल्ले में स्थित नवीनीकृत किये गये पार्क के मुख्य द्वार पर लगे नाम-पट्ट पर ' छुटंकी बालोद्यान' अंकित किया देखता है तो स्वाभाविक रूप से इस नामकरण के पीछे की कहानी जानने को उत्सुक हो उठता है। मोहल्ले में जिससे भी वह इस विषय में पूछता है, वह व्यक्ति गर्व व उत्साह के साथ छुटंकी के साहसी व्यक्तित्व और कारनामे के बारे में विस्तार से बताता है। मोहल्ले के निवासी जब भी इस पार्क में टहलने के लिए आते हैं, उनकी आँखें छुटंकी की स्मृति में नम हो आती हैं, लेकिन उसका बलिदान याद कर उनके चेहरे पर एक गर्वभरी मुस्कान भी तैर जाती है।... और बिपिन! बिपिन को यदा-कदा उसके साथी पार्क में सबसे अलग एकान्त में एकाकी और उदास हालत में बैठा हुआ पाते हैं।
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सादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 04-12-2020) को "उषा की लाली" (चर्चा अंक- 3905) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।
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"मीना भारद्वाज"
धन्यवाद... आभार आपका आदरणीया मीना जी!
हटाएंप्रेरणादायी कहानी, प्रभावशाली लेखन - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंआपकी इस सहृदय टिप्पणी के लिए आभार प्रिय शांतनु जी!
हटाएंबहुत ही हृदयस्पर्शी कहानी ....छुटकू की दर्दनाक मौत के बाद भाटिया का हृदय परिवर्तन और जातिगत भेदभाव को छोड़ पूरे मोहल्ले का आपसी सौहार्द ननकू को पढाना अन्त सुखान्त....
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया... लाजवाब।
आपकी इस सुन्दर सराहनात्मक टिप्पणी ने मेरे लेखन को अर्थ दिया है महोदया सुधा जी... आभार आपका!
हटाएंबहुत ही हृदय स्पर्शी कथा।
जवाब देंहटाएंआभार आपका महोदया!
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी ।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद अमृता जी!
हटाएंबहुत मार्मिक व्यंग्य।
जवाब देंहटाएंएक विजेट फालोबर्स का भी लगा लीजिए।
आपका आभार डॉ. शास्त्री! आपके परामर्श के लिए भी हार्दिक धन्यवाद!
हटाएंइस मार्मिक सृजन के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई सर। पढ़ने में थोड़ा टाइम जरूर लगा लेकिन बढ़िया अनुभव रहा।
जवाब देंहटाएंसराहना के लिए बहुत आभार प्रिय रवीन्द्र भाई! आपने अपना बहुमूल्य समय दिया तो😊
हटाएंप्रेरणादायी लेखन
जवाब देंहटाएंधन्यवाद बन्धु !
हटाएंआदरणीय सर, सादर प्रणाम। आपकी यह कहानी बहुत ही सुंदर और प्रेरक है पर साथ ही साथ अत्यंत करुण है । समाज में सभी प्रकार की बुराइयों पर ठोस प्रहार करती सन्देश परक रचना। भाटिया और भवानी के किरदार में अभिमान, स्वार्थ और भिड़ूता का यथार्थ -पूर्ण चित्रण पर छुटंकी के बलिदान ने मन व्यथित कर दिया, विपिन की एकाकी ने भी। उसके नाम पर पार्क और ननकू का पढ़ पाना और भाटिया का हृदय परिवर्तन मन को संतोष देता है पर मन का एक कोना बार बार यह कह रहा है कि काश छुटंकी जीवित होता। इस कहानी को 9वी से लेकर 12वी कक्षा की किसी पाठ्यपुस्तक में होना चाहिए। पुनः प्रणाम।
जवाब देंहटाएंनमस्कार अनन्ता जी, आपका बहुत आभार! कहानी ने आपके मन को छूआ, यह देख प्रसन्न हूँ। समीक्षा में विस्तृत विवेचन देखना भी सुखद रहा। छुटंकी आज भी उस मोहल्ले व शहर के निवासियों की यादों में ज़िन्दा है, उसके अभिन्न मित्र विपिन की सांसों में ज़िन्दा है।
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