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अतिक्रमण (कहानी)

 

(1)

इंटरवल के बाद रजनी अपने विद्यालय का राउन्ड लगा कर अपने कार्यालय-कक्ष में लौटी तो दसवीं कक्षा की छात्रा अरुणा के साथ कोई सज्जन वहाँ बैठे थे। वह समझ गई कि अरुणा उसके आदेशानुसार अपने पिता को लेकर आई है। जैसे ही वह अपनी कुर्सी पर बैठी, अरुणा ने अपने पिता का परिचय कराया -मैडम, यह मेरे पापा हैं।

ठीक है, तुम जाओ अपनी क्लास में।” -रजनी ने कहा।   

अरुणा के उसकी कक्षा में जाने के उपरान्त रजनी ने परिचय की व्यावहारिकता पूरी होने पर अरुणा के पापा ओम प्रकाश जी के साथ लगभग तीस मिनट तक बातचीत की। वार्तालाप की समाप्ति के बाद ओम प्रकाश जी ने विदा लेते हुए कहा-आपका बहुत-बहुत शुक्रिया मैडम कि आपने मुझे सारी बात बताई। अब से हम इस बात का पूरा ध्यान रखेंगे।

ओम प्रकाश जी के जाने के बाद रजनी कुर्सी पर सिर टिका कर बैठ गई। विचार-श्रंखला ने उसे अपने जीवन के बीस वर्ष पहले के समय में धकेल दिया, जब वह ब्याह कर इंजीनियर चंद्र कुमार के धनाढ्य व प्रतिष्ठित परिवार में आई थी। 

 

 विवाह के बाद की पहली रात्रि ... 

 

 "तुम आकाश के चंदा नहीं, मेरे माथे के चाँद हो प्रियतम!"

"और तुम मेरी चांदनी! एक-दूजे से ही हम दोनों का अस्तित्व है। तुम नहीं, तो मैं नहीं और मैं नहीं तो तुम नहीं।"

"मुझे कभी अपने से दूर मत करना स्वामी! हर पल अपनी आँखों में बसाये रखना अपनी चांदनी को। रजनी का सौन्दर्य चाँद के बिना नितांत अधूरा होता है ना प्रिय!"... और फिर चंद्र ने उसे अपने आगोश में ले लिया था। एक अनिवर्चनीय तृप्ति की अनुभूति से उसका तन-मन सराबोर हो उठा था।

 

चंद्र के साथ प्रथम मिलन के समय हुए इस वार्तालाप की स्मृति मधुर होते हुए भी प्रायः रजनी के मन को उद्वेलित कर देती थी। "क्यों नहीं निभाया तुमने अपना वादा? क्यों चले गये मुझे इस दुनिया में अकेले बिलखता छोड़ कर?"- सुबक-सुबक कर रो पड़ती थी वह। दो वर्ष ही रह पायी थी वह अपने चंद्र के साथ कि एक असाध्य बीमारी ने उसे छीन लिया था उससे। 

 

चंद्र की मृत्यु हुए पांच वर्ष हो गये थे। समय घाव भरने के लिए सबसे प्रभावी औषधि का काम करता है। अब तक अपने दर्द पर बहुत-कुछ काबू पा लिया था रजनी ने भी। मानसिक तौर पर तो अपने पति-वियोग की पीड़ा से वह उबर चुकी थी, किन्तु जब वह किसी युगल को हाथ में हाथ डाले कहीं देखती या किसी मूवी में प्रेमालाप करते किसी जोड़े को देखती तो एक उन्माद-सा जाग पड़ता था उसके तन-बदन में। वह ईश्वर से मन ही मन झगड़ती, उलाहना देती कि इस युवावस्था में उसे यूँ तन्हा कर के उसे क्या मिल गया। उसका मन करता कि काश उसका भी अभी कोई साथी होता! 

 

रजनी के माता-पिता इस दुनिया में नहीं रहे थे। एक भाई था, वह भी अपने परिवार के साथ मस्त था। यहाँ घर में रजनी के अलावा दो सदस्य और थे, उसकी सास कल्याणी देवी और देवर उदय कुमार। श्वसुर की मौत उसकी शादी के तीन साल पहले ही हो चुकी थी। उदय ने MCA  कर लिया था और जॉब के लिए प्रयास कर रहा था। वह चंद्र से चार वर्ष व रजनी से मात्र एक वर्ष छोटा था। उसकी शादी अभी नहीं हुई थी। रिश्ते कई आये थे, किन्तु माँ और भाभी, दोनों के बहुत कहने पर भी वह शादी के लिए तैयार नहीं था। उसने स्पष्ट कह दिया था कि वह अपनी पसंद की लड़की के साथ विवाह करेगा। थक-हार कर दोनों ने उसे शादी के लिए कहना छोड़ दिया था। रजनी उन दोनों के होते हुए भी स्वयं को एकाकी महसूस करती थी। समृद्ध परिवार था, किसी चीज़ की कमी नहीं थी। सासु माँ उसका बहुत ख़याल रखती थी और उदय भी उसकी बहुत इज़्ज़त करता था। दोनों के अपने प्रति व्यवहार से रजनी बहुत संतुष्ट थी, किन्तु फिर भी उसे लगता था, जैसे वह जी नहीं रही, अपितु अपने शरीर के बोझ को ढ़ो रही है। अधिस्नातक तक की शिक्षा पाई थी उसने, किन्तु कोशिश कर के भी उसे कोई नौकरी नहीं मिल रही थी कि उसका मन लग सके। मन के एकाकीपन को ख़त्म करने के लिए उसने मीडिया का सहारा लिया। कल्याणी जी फेसबुक से चिढ़ती थीं, अतः फेसबुक पर अकाउंट बनाना उसके लिए मुश्किल था। उसे पता था कि उसकी एक सहेली किसी कृत्रिम नाम से फेसबुक पर थी। उसने भी फेसबुक में 'कामिनी' नाम से अपना एक अकाउंट बनाया और कुछ ही दिनों में उसके कई मित्र भी बन गये। 

 

अब घर के कामों से निपटने के बाद रजनी फेसबुक में व्यस्त रहने लगी। तीन-चार महिलाओं के अलावा एक युवक कनिष्क से भी फेसबुक में उसकी अच्छी मित्रता हो गई। उसे पता भी नहीं चला और कुछ ही समय में कनिष्क के साथ उसकी फेसबुकिया दोस्ती एक आकर्षण में बदल गई। अब तो सुबह-शाम, जब भी समय मिलता, उसके साथ मैसेंजर पर बतियाती रहती थी वह। रोज़ाना रात को  एक-एक घंटे तक रोमांटिक बातें होने लगी थी दोनों के बीच। उसे कनिष्क से प्यार हो गया था और अब जीवन में कुछ उत्साह की अनुभूति होने लगी थी। मोबाइल में अधिक डूबे रहने के कारण उसकी सासु माँ ने दो-एक बार उसे टोका भी, किन्तु फिर उसका मन लगता देख उसने इस बात पर ध्यान देना बंद कर दिया। जो रजनी अब तक घर में मायूस रहा करती थी, अब चहचहाने लगी थी। रजनी में आये इस परिवर्तन को उसकी सास व देवर उदय सकारात्मक मान कर प्रसन्न थे। 

 

घर का सामान सामान्यतः उदय लाया करता था, किन्तु अब रजनी भी बाज़ार जाने लगी। कभी उदय के साथ चली जाती तो कभी वह अकेली ही रोज़मर्रा की चीज़ें लेने निकल पड़ती थी। इससे उसका मन भी लग जाता था और लोगों से मिलने, बात करने का उसका सलीका भी बेहतर हो गया था। घर में एक कार तो थी ही, उदय के पास एक बाइक भी थी। रजनी की ज़रुरत को समझ कर उसे भी एक स्कूटी कल्याणी जी ने खरीदवा दी थी। आस-पास जाना होता तो रजनी पैदल ही चली जाती और दूर-दराज़ के स्थानों पर स्कूटी से जाती। तीनों या उदय व रजनी कभी साथ जाते तो और कभी अकेले भी कार का प्रयोग कर लेते थे।  

 

दोपहर लगभग एक बजे का समय था। लंच के बाद वह अपने कमरे में आराम कर रही थी। तभी कनिष्क का मैसेज आया- 'हाय कामिनी, क्या हो रहा है?' ... और फिर दूसरा मैसेज - 'कब तक हम यूँ ही औपचारिक बातें करते रहेंगे कामिनी? तुम भी जानती हो और मैं भी कि हम लोग कितने बेचैन हैं एक दूसरे से मिले बिना। एक ही शहर में रहते हुए हम कब तक यूँ दूरी बनाये रखेंगे?'

'तो क्या करूँ यार, मुझे बहुत डर लगता है।' -रजनी ने जवाब दिया। 

'थोड़ी हिम्मत तो करनी पड़ेगी। क्यों न हम आज शाम ही मिल लें?'

'कहाँ मिलेंगे, किसी ने देख लिया तो?'

'हम सेन्ट्रल पार्क में मिलते हैं। आज मौसम भी बहुत अच्छा है।'

'अरे, कैसी बातें करते हो? वहाँ तो शाम के वक्त बहुत भीड़ हो जाती है।'

'इसीलिए तो, भीड़ में हम आसानी से मिल भी सकते हैं और बातें भी कर सकते हैं। तुम कोई बहाना बना कर आ जाना।'

'लेकिन मैं पहचानूँगी कैसे तुम्हें? फेसबुक में न तो तुमने अपनी फोटो लगाई है और न मैंने😒?'

'वैसे तो मैसेंजर पर पिक भेज सकता हूँ, पर वहाँ पहली बार देखेंगे एक-दूसरे को, तो मज़ा और ही होगा। मैं व्हाइट टीशर्ट और ब्ल्यू जीन्स पहने हूँगा और छः बजे पार्क में फाउंटेन के पास खड़ा मिलूँगा। और हाँ, मैं अपनी कलाई पर रुमाल बांधे मिलूँगा, ताकि तुम आसानी से पहचान सको😊।' 

'ओके डिअर, बाय! मिलते हैं फिर शाम को।-रजनी का चेहरा खिल उठा था।

 (2) 

रजनी शाम को कनिष्क से मिलने की कल्पना में खो गई। 'कैसा होगा दिखने में वह? बातें बहुत प्यारी करता है तो होगा भी बहुत प्यारा ही। बातों का सिलसिला बहुत हो गया, अब मिलूँगी अपने प्यारे कनिष्क से। अगर वहाँ भीड़ वाली जगह नहीं होती तो मैं तो मिलते ही उसके सीने से लिपट जाती। खैर, अब तो जब भी समय मिलेगा, हम मिला करेंगे। हे ईश्वर, तूने मुझेकनिष्कदे कर कितना उपकार किया है, तू नहीं जानता। अब मुझे तुझसे कोई शिकवा नहीं है। थैंक यू गॉड!', प्रसन्नतातिरेक में रजनी ने स्वयं को ही अपनी बाँहों में भर लिया।  

 

शाम होने में अभी तीन-साढ़े तीन घंटे का समय शेष था। रजनी को एक-एक पल पहाड़-सा लग रहा था। कब शाम होगी और कब पहुँचेगी वह अपने कनिष्क के पास? वह बेचैनी से पलंग पर लेटी करवटें बदल रही थी। मीठी-मीठी तड़पन उसके तन-मन को पागल बनाये दे रही थी। वैसे तो वह दिन में एकाध घंटा सो लेती थी, किन्तु आज तो नींद ने उसकी आँखों में आने से इन्कार ही कर दिया था।  

 

जैसे-तैसे शाम के पौने पांच बजे और वह उठ कर तैयार होने लगी। अपना सबसे सुन्दर सलवार सूट पहन कर हल्का-सा मेकअप किया और फिर कई बार खुद को हर एंगल से देखा। उसने महसूस किया कि आज वह बहुत सुन्दर लग रही है। वह मुग्ध-भाव से बार-बार दर्पण में स्वयं को निहारती रही। तैयारी से पूरी तरह संतुष्ट हो कर वह सासू माँ के कमरे में गई। वह कोई पत्रिका पढ़ रही थीं। रजनी को सजे-धजे देखा तो चौंक कर बोली- "आज तो बहुत अच्छी लग रही हो रजनी!। कहाँ जा रही हो?"

'बस मम्मी जी, कुछ सामान लाना है, तो कुछ देर के लिए बाज़ार हो आती हूँ।"

"कुछ लाना था तो उदय को कह देती। खैर, अब क्या हो सकता है, लंच के बाद वह तो अपने किसी दोस्त के वहाँ चला गया है।"

"मुझे तो पता ही नहीं चला, उदय कब गये। कोई बात नहीं, वैसे भी मेरा बाहर निकलने का मूड हो रहा था। जा आती हूँ मैं। आपको कुछ मंगवाना हो तो बोलिये।"

"नहीं, मुझे तो कुछ नहीं मंगवाना। अच्छी तरह से जाना और जल्दी घर आ जाना।" -कल्याणी जी ने जवाब दिया। 

"हाँ जी, मम्मी जी" -रजनी ने कहा और अपने कमरे में जा कर पर्स कंधे पर डालते हुए घड़ी देखी, साढ़े पांच बजने को थे। फुर्ती से बाहर आ कर उसने अपनी  स्कूटी ली और सेंट्रल पार्क की ओर निकल चली। बीस मिनट में वह अपने गंतव्य पर पहुँच गई। 

पार्क के गेट में घुस कर रजनी सीधी फाउंटेन की तरफ गई। फाउंटेन के रंग-बिरंगे फव्वारे को निहारते एक युवक को उसने देखा। वही कपड़े पहने था वह युवक, जैसा कनिष्क ने बताया था और बाईं कलाई में रुमाल भी बंधा था। ठीक उसके पीछे जा कर रजनी ने धीरे-से पुकारा- "कनिष्क!"

कनिष्क पीछे घूमा और रजनी को देख कर यूँ चौंका, जैसे अचानक साँप देख लिया हो। नेत्र फैल गए उसके- "भाभी आप?"

रजनी भी बुरी तरह से चौंक पड़ी, यह तो उदय था, उसका देवर। उसके मुँह से भी निकल पड़ा- "उदय तुम?"

इस अप्रत्याशित स्थिति से दोनों हकबका गए थे। प्रश्नसूचक शब्द तो दोनों के मुख से निकले, पर जवाब किसी से भी देते नहीं बना। उहापोह की स्थिति से उबर कर रजनी कुछ प्रकृतिस्थ हुई और मुस्करा कर सहज होने की कोशिश करते  हुए बोली- "तो यह बदमाश तुम थे?"

उदय के लिए यह स्थति सहज नहीं थी। उसकी आँखें भर आईं, कातर स्वर में बोला- "यह क्या भाभी, आप... कामिनी? मैंने तो किसी मजबूरी में फेसबुक में अपनी आइडेंटिटी छिपाई थी, पर आपने ऐसा क्यों किया? उफ्फ़ अनजाने में  यह कैसा पाप हो गया मुझसे?"

आस-पास से लोगों को गुज़रते देख उदय ने अपना चेहरा पुनः फाउंटेन की तरफ कर लिया। 

" परेशान मत होओ उदय! एक मज़ाक समझ कर भूल जाओ इसे।" -रजनी से और कुछ कहते नहीं बना। 

"चलो, अब घर जाओ। मैं भी कुछ सामान खरीद कर पहुँचती हूँ।" -रजनी दो मिनट रुक कर फिर बोली और पार्क से बाहर निकल आई। किस्मत द्वारा किये गये इस मज़ाक से वह भी मन ही मन दुखी थी। वह उदय को जानती थी कि वह कितना संवेदनशील है। इस घटना से उसे कितना दुःख पहुँचा है, इसका अहसास था उसे। घर जाते वक्त भी वह यही कुछ सोच रही थी। 

रजनी के घर पहुँचने के लगभग एक घंटे बाद उदय घर आया। माँ व भाभी को रसोई घर में व्यस्त देख वह सीधा अपने कमरे में चला गया। कुछ देर बाद रजनी झिझकते-झिझकते उसके कमरे में गई। उसने देखा, उदय उल्टा लेटा हुआ था। उसने उसकी पीठ पर हाथ रख कर आवाज़ दी। 

उदय ने पलट कर देखा और कुछ शुष्कता से कहा- "आप जाइये भाभी। मुझे अकेला छोड़ दें।"

"पर उदय खाना तो खा लो। मम्मी जी इंतज़ार कर रही हैं।"

"मुझे भूख नहीं है।" -कह कर उदय ने दूसरी तरफ करवट ले ली। 

रजनी ने सासू माँ को बताया तो वह उदय को बुलाने आईं। उदय ने उन्हें भी मना कर दिया- "माँ, मेरा सिर दर्द कर रहा है, मैंने दर्द की गोली ली है। मुझे भूख नहीं है। प्लीज़ आप लोग खाना खा लो।"

रजनी ने देखा, सासु माँ भी अकेली लौट आई हैं। दोनों ने उदय के बिना खाना खाया। रजनी को दुःख तो बहुत हुआ, पर विवश थी, करती भी क्या?

 

रात देर तक रजनी को नींद नहीं आई। आज हुआ तमाम घटना-क्रम उसकी आँखों के आगे घूमता रहा। साथ ही कनिष्क-रूप में उदय के साथ हुई तमाम बातें भी उसके दिमाग़ में उथल-पुथल मचाती रहीं। कभी अपराध-बोध तो कभी उदय के साथ बतियाए क्षणों की मादकता के मध्य उसकी विचार-श्रंखला झूलती रही। कब नींद आई, पता भी नहीं चला उसे। नींद खुली तो सुबह के आठ बज रहे थे। 'उफ्फ़, इतनी देर तक सोई रही मैं!', झटके से उठ खड़ी हुई वह और एक गिलास पानी पी कर वॉशरूम में घुस गई। 

 (3)

उदय तो और भी देर से उठा। उठ कर फ्रेश होने के बाद अपनी माँ के पास आ कर बोला- "सॉरी मम्मा, रात को देरी से नींद आई तो उठने में देर हो गई।"

"कोई बात नहीं बेटा। अब कैसा महसूस कर रहा है?" 

"अब ठीक हूँ।

रजनी भी कल्याणी जी के पास ही बैठी थी, किन्तु उदय ने उसकी तरफ देखा भी नहीं। बहुत आहत हुई रजनी। वह जानती थी कि उदय को वह सब नागवार गुज़रा है, लेकिन वह करे भी तो क्या, अनजाने में हुई भूल को बदला तो नहीं जा सकता था।

 

तीन दिन हो गए थे, किन्तु रजनी ने देखा, उदय अभी तक सहज नहीं हुआ था। कल्याणी जी की मौज़ूदगी में तो वह जरूरत होने पर उससे बात कर लेता था, मगर अकेले सामने आ जाने पर निगाहें चुरा कर निकल जाता था। वह इन दिनों में लगातार इसी मुद्दे पर सोचे जा रही थी। आखिर एक घर में रहते यह बेगानापन कब तक चलेगा! अपराध-बोध से ग्रस्त उदय भले ही अन्यमनस्क रहता था, लेकिन रजनी के मन में अब अनुताप नहीं रहा था। 'इतना भी कोई गज़ब नहीं हो गया है', मन ही मन वह कहती। 

 

रात के साढ़े बारह बज रहे थे। कल्याणी जी सो गई थीं। रजनी अपने बिस्तर पर करवटें बदल रही थी, पर कोशिश कर के भी उसे नींद नहीं आ रही थी। हठात उसने कुछ निश्चय किया और उदय के कमरे की ओर गई। सोते समय उदय कमरा भीतर से बंद नहीं करता था, सो रजनी धीरे से दरवाजा खोल कर भीतर चली आई और दरवाजा भीतर से बंद कर दिया। उदय पलंग पर सोया हुआ था। रजनी पलंग पर ही एक किनारे बैठ गई और धीरे से अपनी हथेली उदय के ललाट पर रखी। उदय शायद सोया नहीं था, उसने चौंक कर आँखें खोलीं और रजनी को देख, उसका हाथ अपने माथे से हटा कर हड़बड़ा कर बोला- "आप? अभी यहाँ?"

"हाँ, नींद तुम्हें भी नहीं आ रही है और मुझे भी। तुमसे बात करने चली आई। यूँ उखड़े-उखड़े कब तक रहोगे उदय?" -रजनी ने पुनः अपना हाथ उदय के सिर पर रख दिया। 

इस बार उदय ने उसका हाथ हटाया नहीं, लेकिन शुष्क स्वर में जवाब दिया- "जो कुछ हुआ है, क्या नींद उड़ाने के लिए काफी नहीं है? आप आई क्यों हैं यहाँ?" 

"उदय, जो हो गया है, उस सच्चाई को हम स्वीकार क्यों नहीं कर सकते?" -उदय के बालों में हौले-हौले अपनी उँगलियाँ फिराते हुए कहा रजनी ने। 

"आप कहना क्या चाहती हैं भाभी?" -उदय कुछ समझ रहा था, कुछ नहीं भी समझ रहा था। उसके बदन में अजीबोगरीब सिहरन हो रही थी। 

"वही जो तुम समझना नहीं चाहते मेरे प्यारे देवर जी। चलो, मैं ही समझा देती हूँ। मुझे अपनी कामिनी मान कर तुम मेरे कनिष्क क्यों नहीं बन जाते उदय? अनजाने में जो रिश्ता हमारे बीच बन गया था, कुदरत की इच्छा मान कर उसे सच हो जाने दो।" -अपने आँखों की शराब उदय की आँखों में उंडेलते हुए रजनी ने कहा।

उदय के दिल की धड़कन बढ़ने लगी थी। उसे कमरे में भूचाल आता प्रतीत हो रहा था। उसने काँपते हाथों से रजनी को धकेलने की कोशिश की, किन्तु रजनी पर उन्माद हावी था। उसने फुर्ती से झुक कर उदय के होठों पर अपने होंठ रख दिये। उदय उसे धक्का दे कर पलंग से उठ खड़ा हुआ और अनुनय मिश्रित स्वर में बोला- "भाभी यह क्या अनर्थ कर रही हैं आप?" -अनिच्छित अवस्था के उपरांत भी अपने स्वभावगत सम्मान के कारण वह भाभी के प्रति अधिक कठोर नहीं हो पा रहा था। 

सुर्ख़ आँखों से उदय की आँखों में देखते हुए रजनी उसकी तरफ बढ़ी। संयम रख पाना अब रजनी के लिए दूभर हो रहा था। पलक झपकते ही वह उदय के सीने से बेसाख्ता लिपट गई व कांपती आवाज़ में बोली- "मुझे अपने में समा जाने दो उदय! मुझे निराश मत करो मेरे कनिष्क! स्मरण करो, मैसेंजर में तुम कितनी मादक बातें करते थे! अब मैं अपने बस में नहीं हूँ। देखो, कहीं सासु माँ जाग न जाएँ।" - उदय को धकेलते हुए वह उसके साथ पलंग पर आ गिरी। 

उदय का सारा विरोध तिरोहित हो गया था, अनचाहे ही उसका पौरुष जाग उठा था।

और उस दिन एक पवित्र रिश्ता सीमा के अतिक्रमण का शिकार हो गया।

    

रजनी सुबह देर तक सोती रही थी। आठ बजे कल्याणी जी ने उसे उठाया- "रजनी उठो, कब तक सोओगी? सूरज ऊपर चढ़ आया है। यह उदय भी वॉक से अभी तक नहीं आया है?" 

अंगड़ाई ले कर उठी रजनी। इतनी देर से उठने की शर्म उसके चेहरे पर थी, बोली- "पता नहीं मम्मी जी, कैसे सोई रह गई अब तक!"

कल्याणी जी 'कोई बात नहीं', कह कर स्नान करने बाथरूम में चली गई। 

बिस्तर से उठ कर रजनी उदय के कमरे में गई। उदय कमरे में नहीं था। 'देर से उठे होंगे उदय भी. वॉक करके आते ही होंगे', सोच कर मुस्करा दी वह और नित्य-कर्म में जुट गई। 

 

ग्यारह बज गए थे और उदय अभी तक नहीं आया था। कल्याणी जी के साथ रजनी भी चिन्तित हो उठी। 

इतनी देर कहाँ रुक गया वह? रजनी फोन तो कर उदय को।” -चिंतातुर कल्याणी जी बोलीं। 

रजनी ने फोन लगाया तो घंटी उदय के कमरे से आती सुनाई दी। जा कर देखा तो मोबाइल टेबल पर रखा था। 

"उदय का फ़ोन तो यहीं उनके कमरे में पड़ा है मम्मी जी।" -उसने कल्याणी को बताया।

मेरा मोबाइल ला रजनी! उसके दोनों पक्के दोस्तों का नम्बर है मेरे पास। पता तो करें।

रजनी ने मोबाइल लाकर दिया। कल्याणी जी ने दोनों दोस्तों को फोन लगाया। उदय उनके वहाँ भी नहीं था। कल्याणी जी घबरा कर सोफे पर बैठ गईं-हे भगवान, कहाँ गया है यह लड़का? सुबह-सुबह इतनी देर तो वह नहीं रुकता कहीं।” 

(4)

रजनी का चेहरा सफ़ेद पड़ गया।हे ईश्वर, कहाँ गये उदय? अभी तक आये क्यों नहीं। कहीं कोई अनहोनी... ! नहीं-नहीं, ऐसा कुछ नहीं हो’, वह मन ही मन ईश्वर को मनाने लगी। 

दोपहर का एक बज गया। दोनों का माथा ठनका। 

कल्याणी जी की अनुमति ले कर रजनी ने पुलिस को सूचना दी। 

थाने के एएसआई ने थाने में आ कर रिपोर्ट लिखाने को कहा। रजनी पड़ोस के एक बच्चे को साथ ले कर थाने पर गई। 

सामान्य जानकारी लेने के बाद एएसआई ने पूछा-घर पर किसी से झगड़ा कर के तो नहीं गया है आपका देवर?”

अरे नहीं साहब, वह तो सुबह वॉक पर गये, तब से ही नहीं लौटे हैं। हम लोग तो उस समय उठे भी नहीं थे। झगड़ा किससे करेंगे?… और फिर किसी से झगड़ा करने का तो स्वाभाव ही नहीं है उनका। प्लीज़ सर, जल्दी कुछ कीजिये।” -रुआँसे स्वर में रजनी ने अनुनय की। 

ठीक है, आप लोग जाओ। हम कोशिश करते हैं।” -रिपोर्ट दर्ज कर एएसआई ने सांत्वना दी। 

 

कल्याणी जी व रजनी दोनों दिन भर उदास बैठे रहे। दोनों ने भी कुछ खाया-पीया भी नहीं। कल्याणी जी मन ही मन उलझ रही थीं कि बिना बताये उदय आखिर गया कहाँ होगा, दिन भर से भूखा होगा सो अलग! शाम को छः बजे थाने पर फोन किया तो जवाब मिला-अभी कुछ पता नहीं चला है। दो सिपाही खोज-बीन के लिए भेज रखे हैं। सूचना मिलते ही आपको बता देंगे।

 

कल्याणी जी का रो-रो कर बुरा हाल था। रजनी भी अपने-आप को दोषी मान कर रो रही थी-अवश्य ही उदय रात की घटना से दुखी हो कर कहीं चले गये हैं। हे प्रभु, मेरी ग़लती के लिए मुझे माफ़ कर दे और उन्हें जल्दी घर भेज दे।’, आँखों में भर आये आँसू पौंछ कर कल्याणी जी को सांत्वना देने की कोशिश करने लगी-मम्मी जी, घबराइए मत, जहाँ भी गये होंगे, जल्दी ही आ जायेंगे।

 

रात निकल गई और उदय नहीं आया। कल्याणी जी और रजनी दोनों ही, इक्की-दुक्की झपकी के अलावा सो नहीं सके। सुबह साढ़े दस बजे डोरबेल बजने पर रजनी ने दरवाज़ा खोल कर देखा तो एक सिपाही खड़ा था। सिपाही ने कहा-ख़बर मिलने से हमने सुबह एक लाश बावजी वाले कुएँ से निकलवाई है। आप वहाँ आ कर शिनाख़्त कर लो, बॉडी उदय जी की ही लगती है।

 “नहींईईई… “- रजनी के मुँह से एक दर्दनाक चीख निकली। कल्याणी जी भीतर से दौड़ती हुई आईं। पूछने पर सिपाही ने अपनी बात दोहराई तो वह चीख मार कर नीचे गिर पड़ीं व बेहोश हो गईं। पुलिस वाला अपना दायित्व पूरा कर चला गया। 

किंकर्तव्यविमूढ़ रजनी रोते-सुबकते पड़ोस में गई और दो महिलाओं को बुला कर साथ लेकर आई। लौटते समय उसने उन्हें हादसे के बारे में बताया। तीनों ने मिल कर कल्याणी जी को सम्हाला और मुँह पर तीन-चार बार पानी के छींटे डाले। कुछ देर में कल्याणी जी होश में आ गईं और होश में आते ही बेतहाशा रो पड़ीं। बमुश्किल तीनों ने उन्हें सम्हाला। शिनाख्त के लिए कल्याणी जी ने भी रजनी के साथ आने की ज़िद की तो उन्हें भी साथ लेना पड़ा। एक पड़ोसन भी अपने पति को साथ ले कर उनके साथ गई। 

 

बावजी के कुएँ के पास तीन-चार पुलिस वालों के साथ लोगों की भीड़ भी खड़ी थी। इन लोगों के पहुँचने पर पुलिस ने भीड़ के बीच जगह करवाई। पास जा कर उन्होंने देखा, सच ही में यह उदय की लाश ही थी। कल्याणी जी फिर फफक पड़ीं-ओह! यह क्या हो गया? मेरा बेटा कुएँ में कैसे गिरा?”

रजनी की आँखों से भी आंसू झर-झर बहने लगे। अपने पाप के बोझ को सहना उसके लिए दूभर हो रहा था। उसका मन कर रहा था कि वह भी कुएँ में कूद जाए।हाय, मुझ पापिनी के कारण इस पाकदिल इन्सान ने अपनी जान दे दी और मैं बेहया की तरह यह देख कर भी ज़िन्दा हूँ।’, उसका मन उसे बारम्बार धिक्कार रहा था। 

अरे मैडम, आप सुन नहीं रही हो, दो बार कह चुका हूँ आपको। इस फॉर्म पर दस्तख़त कर दो। बॉडी को पोस्टमार्टम के लिए ले जाना है हमें।” -एक सिपाही बोल रहा था। 

पड़ोसन ने रजनी को हाथ लगा कर चेताया तब वह सजग हुई और कल्याणी जी के कहने पर उसने फॉर्म पर हस्ताक्षर कर दिये। 

उसी दिन पुलिस ने रजनी के अलावा कल्याणी जी व आस-पड़ोस के दो-तीन अन्य लोगों के बयान लिये। दो-तीन दिन के अनुसन्धान के बाद पुलिस ने यह मान कर कि या तो उदय ने आत्महत्या की है या वह कुएँ की मुंडेर पर बैठा होगा और अनायास ही भीतर गिर गया, उदय की फाइल बंद कर दी।  

 (5)

परिचितों व कुछ रिश्तेदारों के सहयोग से उदय से सम्बंधित सभी अंतिम क्रियाएँ संपन्न हुईं और सभी लोग अपने-अपने घर चले गये थे। अब घर में रह गये थे मात्र यह दो प्राणी। रजनी की ज़िन्दगी में अब कोई रस नहीं रह गया था। कल्याणी जी बीमार रहने लगी थीं। उन्होंने रजनी से दो-तीन बार आग्रह किया कि वह पुनर्विवाह कर ले, किन्तु रजनी ने दृढ़ता से इंकार कर दिया। रजनी ने सासु माँ का कई डॉक्टर्स से इलाज करवाया, किन्तु कोई दवा असर नहीं कर रही थी। दो माह के भीतर ही कल्याणी जी स्थायी रूप से बिस्तर पर आ गईं। घर के कामों में मदद व कल्याणी जी की सम्हाल के लिए एक सहायिका को रख लिया गया था।  

कल्याणी जी रोती और एक ही बात कहती रहती थीं-इस घर को किसकी नज़र लग गई? मेरे उदय ने क्यों किया ऐसा? किसी परेशानी में था तो मुझे तो कहता।... रजनी, पहले चंदू और अब उदय भी चला गया। मैं भी जीना नहीं चाहती अब।... भगवान, कहाँ है तू? मुझे उठा ले जल्दी से।

रजनी सुनती और अपने कमरे में जा कर तकिये में मुंह छिपा कर रोती-सिसकती-फेसबुकी दुनिया की चमक ने मुझे गुमराह कर दिया। मेरी हवस ने इस घर को जला दिया। मैंने मम्मी जी के बेटे को उनसे जुदा कर दिया। मेरे पाप का कोई प्रायश्चित नहीं हो सकता। अपराध मैंने किया था तो सज़ा मुझे मिलती। उस फ़रिश्ते को किस बात की सज़ा मिली है? यह कैसा न्याय है प्रभु तुम्हारा?... चंद्र, इस पापिन को तुम साथ ले जाते तो तुम्हारे इस घर की आज यह दशा नहीं होती।रजनी का विलाप कमरे की दीवारों से टकरा कर लौटता और पुनः उसी के कानों में गुंजारित होता। उसे लगता, अभी उसका सिर फट जाएगा।

 

 रजनी का सिर कभी नहीं फटा। पश्चाताप की आग में निरन्तर जीते हुए उसे यूँ ही जीवित रहना पड़ा। हाँ, लगभग एक माह बाद कल्याणी जी ने यह दुनिया अवश्य छोड़ दी। 

कल्याणी जी के देहांत के बाद रजनी कई दिनों तक बदहवास-सी अपना समय गुज़ारती रही। इस दुनिया में निपट अकेली वह समझ नहीं पा रही थी कि वह क्यों जी रही है, उसके जीने का उद्देश्य क्या है! कई-कई बार तो उसके मन में अपनी इहलीला समाप्त करने का ख़याल आता, किन्तु वह चाहती थी कि कुछ ऐसा कर के इस दुनिया से जाये कि मरते समय उसकी आत्मा उसके अपराध-बोध से जकड़ी न रहे। 

 

और एक रात जब वह सोने का उपक्रम कर रही थी, एक विचार ने उसके मन में जन्म लिया। एक घंटे तक उस पर स्वयं से ही विमर्श करती रही। वह सोई तब, जब उसके दिमाग़ में एक निर्णय ने जगह बना ली थी। 

 

 रजनी ने आवासीय भवन के बायीं ओर के विशालकाय भाग पर, जो अभी तक एक बड़े पार्क के रूप में खाली पड़ा था, निर्माण के लिए एक अच्छे आर्किटेक्ट को बुलाया। अपने विचार की सम्पूर्ण रूपरेखा उसने उसे अच्छी तरह समझा दी और तदनुरूप अठारह कमरों वाले एक विद्यालय भवन का नक्शा बनवाया। भूमि-पूजन व शिलान्यास के संस्कार पूरे करने के बाद युद्ध-स्तर पर काम चला कर मात्र सोलह माह में उसने विद्यालय भवन तैयार करवा लिया। 

 

विद्यालय में कक्षा छः से कक्षा दस तक की छात्राएँ अध्ययन कर सकें, ऐसी योजना रजनी ने बना रखी थी। उसने अपने पति, देवर व सासु माँ, तीनों आत्मीयों को श्रद्धांजलि अर्पित करने की भावना के साथ विद्यालय का नामचंद्रोदय छात्रा-कल्याण शिक्षा मन्दिरनिर्धारित किया। विद्यालय का विज्ञापन अख़बारों में देने के साथ ही शिक्षा को समर्पित अपनी परिचित दो स्नातक युवतियों के साथ शहर में जन-संपर्क कर अपने विद्यालय-अभियान को प्रचारित किया। परिणामतः शीघ्र ही कुछ बच्चियों का प्रवेश अपने विद्यालय में करवाने में उसे सफलता मिल गई। विद्यालय में आवश्यक फर्नीचर, आदि रखवाने के बाद जन-संपर्क में साथ देने वाली युवतियों का सहयोग ले कर उसने अध्यापन-कार्य भी शुरू कर दिया। कुछ ही समय में सफलता उसके कदम चूमने लगी व सभी कक्षाओं में छात्राओं की संख्या तीव्र गति से बढ़ने लगी। आवश्यकता के अनुसार वह अध्यापिकाओं की संख्या भी बढ़ाती रही। 

 

रजनी ने शहर के एक प्रतिष्ठित शिक्षाविद् को निमंत्रित करबाल-दिवस’ (14, नवम्बर) के शुभ अवसर पर अपने विद्यालय का विधिवत् उद्घाटन भी करवा लिया। तत्पश्चात सरकार-प्रशासन में आवेदन दे कर अपने विद्यालय को पंजीकृत भी करवा लिया। कुछ समय बाद प्रयास करने पर विद्यालय को सरकारी अनुदान भी मिलने लग गया। विद्यालय से अर्जित आय का अस्सी प्रतिशत भाग वह विद्यालय के उत्थान व छात्राओं के हित में व्यय करती थी। 

 

विद्यालय के चपरासी द्वारा बजाये गये घंटे की आवाज़ से रजनी की तन्द्रा टूटी और वह अपने वर्तमान में लौट आई। वह कुर्सी पर सीधी हो कर बैठ गई। अपने दिवंगत आत्मीयों के प्रति श्रद्धावनत होते हुए उसने मन ही मन कहा, ‘आप सब लोगों के पुण्य प्रताप से आज विद्यालय में तीन सौ छात्राएँ पढ़ रही हैं। विद्यालय का परीक्षा-परिणाम भी शहर के अन्य विद्यालयों से अधिक अच्छा रहता है। मेरा पाप तो शायद कभी नहीं धुलेगा, किन्तु इतना संतोष अवश्य है कि अब मैं एक अच्छे उद्देश्य के लिए जी रही हूँ।

 

एक अध्यापिका ने दो दिन पहले दसवीं कक्षा की छात्रा अरुणा के बारे में रजनी को बताया था कि उसके रंग-ढंग सही नहीं लगते, उसकी जानकारी में आया है कि अक्सर वह किसी पुरुष के साथ फेसबुक पर गपशप करती मिलती है। रजनी स्वीकार नहीं कर सकती थी कि किसी और के साथ उस इतिहास की पुनरावृत्ति हो, जो उसके साथ बीत चुका है। इसीलिए उसने अरुणा के पिता को सचेत करने के लिए बुलवाया था। प्रायश्चित की दिशा में यह उसका एक छोटा-सा कदम था। 

 

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समाप्त

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टिप्पणियाँ

  1. रजनी ने पच्छताप करने का बहुत सुंदर हाल निकाला।

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  2. नमस्कार आ. कामिनी जी! मेरी रचना को चर्चामंच के प्रतिष्ठित पटल पर स्थान देने के लिए आपका बहुत आभार !

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  3. फेसबुकिया दोस्ती इतनी कष्टप्रद हो सकती हैबिना जाने-पहचाने किसी पर विश्वास करना और रिश्ता कितना भारी पड़ सकता है इस संदेश को इंगित करती बहुत सुन्दर एवं सारगर्भित कहानी।

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    1. आ. सुधा जी, मेरी इस कहानी के उद्देश्य को आपने बखूबी समझा है और तदनुसार सुन्दर टिप्पणी अंकित की है... आपका हार्दिक आभार! जैसा कि आप भी समझ सकी हैं, मैंने यह कहानी मात्र मनोरंजन के लिए नहीं लिखी है। आपकी टिप्पणी देख कर मुझे मेरी रचना पूर्णतः सार्थक प्रतीत हो रही है। एक बार पुनः धन्यवाद महोदया!

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  4. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 19 अक्टूबर 2021 को साझा की गयी है....
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. बहुत आभार आपका महोदया, अवश्य उपस्थित रहूँगा।

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