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'डबल पेनल्टी' (लघुकथा)

                                                      



 "बस दो सौ- तीन सौ रुपये का जुगाड़ और हो जाए तो हम लोग अपने गाँव के लिए निकल चलेंगे। पता नहीं, हालत कब तक सुधरेगी और कब काम-धंधे शुरू होंगे! कब तक लोगों से दान-दक्षिणा लेते रहेंगे! मेहनत से जो मिलता है, मुझे तो उसी में सुख मिलता है संतोषी!" -गणेश ने अपनी पत्नी से कहा।

  "हाँ जी, सही बोला आपने। कारखाने में बित्ते भर पगार मिल रही थी तो भी मन राजी था कि मेहनत की खा रहे हैं। मेरा मन भी नहीं मानता जी कि कोई दया कर के कुछ हाथ में रख देवे और हम खुश हो लेवें। दसवीं के बाद आप थोड़ा और पढ़-लिख गए होते तो ये दिन नहीं देखने पड़ते। पर एक बात बताओ, अपने पास तीन सौ रुपये ही तो पड़े हैं। अगर दो-तीन सौ और मिल भी गये तो भी बस का किराया पूरा कैसे होगा। आधी टिकट तो अपनी बाँसुरी की भी लगे है अब।" -सातवीं पास संतोषी ने संदेह व्यक्त किया।

 "अरे, तो थोड़ा बस में और थोड़ा पैदल भी चल लेंगे। घर तो पहुँचना ही है, यहाँ कब तक पड़े रहेंगे?"

   माता-पिता की बातों से बेखबर आठ वर्षीया बाँसुरी वहाँ पड़ी किसी पुरानी मासिक पत्रिका में चित्र देख रही थी। आज सुबह उसे कल की बची हुई एक रोटी ही खाने को मिली थी सो पेट नहीं भरने के कारण वह कुछ उदास थी।
   अभी यह लोग बातें कर ही रहे थे कि उनकी झोपड़ी के दरवाज़े पर मास्क पहने एक आदमी खड़ा नज़र आया जो गणेश को बाहर बुला रहा था। गणेश बाहर आया।
  "भाई, मेरा नाम बनवारी लाल है। जो बन सके, लोगों की सेवा करता हूँ। तुम लोगों को कोई तकलीफ़ तो नहीं है यहाँ? कोई भी तकलीफ़ हो तो मुझे अपना समझ के बता सकते हो।" -उस व्यक्ति ने मास्क नीचे कर के कहा।
  उस व्यक्ति की सहानुभूति और सहयोग की बात से विचलित हो कर गणेश पत्नी को अभी कही अपनी आन की बात भूल गया। सोचने लगा, 'एक बार, केवल एक बार इस आदमी से जो भी मिले वह ले लूँ तो यहाँ से निकलने का रास्ता खुल जाएगा', प्रकट में बोला- "सा'ब, कोई काम हो तो बताओ, मैं कर दूँगा। ऐवज में मुझे मजदूरी दे देना। घर जाने के लिए बस के किराये में चार सौ रुपये कम पड़ रहे हैं।"
 "काम तो मेरे पास अभी कोई है नहीं। मैंने तो अभी कोरोना की इस विपत्ति के समय लोगों की मदद करने का ठान रखा है। ऐसा करो, अभी मैं तुमको दो सौ रुपये दे देता हूँ, फिर दो-एक दिन में और देखता हूँ। हाँ, तुमने अभी खाना खाया या नहीं?" -कहते हुए बनवारी लाल ने दो सौ रुपये निकाल कर गणेश को दे दिये।
 "नहीं खाया सा'ब। अभी दस मिनट पहले सुना था कि दायीं बाजू आधा कि.मी. दूर सड़क पर कोई संस्था वाले लोगों को खाने के पैकेट दे रहे हैं। अभी हम दोनों जाकर ले आएंगे।"
  बाँसुरी जो इनकी बात सुन रही थी, पास आकर बोली- "पापा, मुझे भूख लग रही है। मुझे भी ले जाओगे?"
 "नहीं बाँसुरी, बाहर तेज़ धूप है, तेरे लिए हम यहीं ले आएंगे।"
 "अरे बेटा, तुमने भी खाना नहीं खाया अभी तक?" -बनवारी लाल ने बाँसुरी से प्यार से पूछा।
  "खाया था अंकल, पर एक ही रोटी खाई थी।" -बाँसुरी ने जवाब दिया।
  "मैं अभी कुछ लोगों को खाना बांटते हुए ही आया हूँ। मेरे पास खाने का एक पैकेट बचा है। इसे यह बच्ची खा लेगी।" -कहते हुए बनवारी लाल ने अपने थैले में पड़ा पैकेट निकाल कर बाँसुरी को दे दिया।
   "तो तुम लोग जल्दी जाओ, वहाँ लाइन भी लम्बी ही होगी। ऐसा न हो कि वहाँ खाना मिलना बंद हो जाए। मैं चलता हूँ, मुझे आगे जाना है।" -गणेश का कन्धा थपथपा कर बनवारी लाल बाहर निकला।
  "अच्छा सा'ब, बहुत मेहरबानी।" -गणेश ने कहा और बच्ची को खाना खाने को कह कर  वह भी पत्नी को साथ ले बाहर निकल गया।
    गणेश और संतोषी भोजन का पैकेट ले कर अपनी झोपड़ी में लौटे तो देखा, बाँसुरी जमीन पर अस्त-व्यस्त दशा में पड़ी कराहते हुए बिलख रही थी। उसकी दशा देख कर दोनों सहम गये। ध्यान से देखा तो क्या हुआ था यह समझ कर लगभग चीखते हुए संतोषी बाँसुरी की ओर लपकी और रोते हुए बोली- "बेटा बाँसुरी, क्या हो गया यह?
  बच्ची माँ से लिपट गई, सुबकते हुए बोली- "वो अंकल वापस आये थे। माँ, वो गंदे थे... बहुत गंदे अंकल थे।"
बोलते-बोलते बाँसुरी काँप उठी और जोर से रो पड़ी। उस पर बेहोशी छाने लगी थी।
 "बेटा, किधर गया वह आदमी?" -गणेश ने बाँसुरी को लगभग झिंझोड़ते हुए पूछा।
 "वो उधर...।" -बांसुरी ने बाहर बायीं दिशा की तरफ इशारा किया ओर फिर माँ की गोद में बेहोश हो गई।
  "मैं अभी आया संतोषी।" -कहते हुए गणेश बाहर की ओर लपका। उसकी आँखें लाल-सुर्ख हो आई थीं। वह बनवारी लाल को ढूँढ कर ज़िन्दा ही निगल जाना चाहता था। बायीं ओर कुछ ही दूर गया था कि उसने सड़क पर चार-पाँच लोगों की भीड़ देखी। एक आदमी एक्सीडेंट हो जाने से वहाँ मृत पड़ा था।
 "बहुत अच्छे और परोपकारी थे यह सेठ जी। किसी गाड़ी की टक्कर लगने से चल बसे बेचारे।" -एक जानकार व्यक्ति की प्रतिक्रिया थी।
  पास ही खड़े दो सिपाहियों में से एक अपने अधिकारी को घटना के बारे में फोन पर बता रहा था।
   गणेश ने उत्सुकतावश पास में जा कर देखा। लाश को देखते ही उसने घृणा से थूक दिया।
  "ऐ! तुझे पता नहीं? सड़क पर थूकने पर पेनल्टी लगती है। चल, जमा करा सौ रुपये।" -दूसरे सिपाही ने उसे थूकते देख कर कहा।
  गणेश ने उस सिपाही की ओर विरक्त भाव से देखा और मृत व्यक्ति की लाश की ओर देखते हुए सड़क पर एक बार और थूका।
   "लो सा'ब, दो बार थूकने के दो सौ रुपये की रसीद बना दो।" -आज मिले दो सौ रुपये उसने सिपाही की ओर बढ़ा दिए।

                                                               **********

























टिप्पणियाँ

  1. मेरी रचना के चयन हेतु आपका बहुत आभार महोदया💐🌹!

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  2. सुन्दर और सराहनीय बेहतरीन प्रस्तुति

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  3. ओह!!!
    सचमुच परोपकार के नाम पर ऐसे घिनोने नरपिशाच भी घात लगा कर बैठे हैं...चलो अंत हुआ ऐसे धूर्त का एक्सीडेंट से...वरना कानून भी इनका कुछ नहीं बिगाड़ पा रहा।
    बहुत ही सुन्दर हृदयस्पर्शी लाजवाब लघुकथा

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  4. इस सुन्दर टिप्पणी के लिए हृदय-तल से आभार आपका सुधा जी!

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  5. ओह! स्तब्ध कर गयी एक वीभत्स मानसिकता वाले आदमी की ये कहानी | प्राकृतिक विपदा की आड़ में विकृत मनोवृत्तियां भी कहाँ चैन से बैठती | इसमें हाथ धोने उन्हें आना ही था | पर एक प्रश्न ये भी है कि यदि वह नराधम दुर्घटना में ना मरता तो कौन सा कानून उसे सजा देता ? दरिद्रता में एक स्वाभिमानी श्रमिक की विवशता पर बहुत दुःख हुआ |

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  6. आपने कहानी का बहुत सुन्दर विश्लेषण किया है रेणु जी! मेरी कहानी आपकी टिप्पणी पाकर गौरवान्वित हुई है। आपका हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।

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