आज राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित समाचार (जो यहाँ शेयर कर रहा हूँ ) पढ़ कर मन आश्वस्त हुआ कि धार्मिक सहिष्णुता सभी धर्मों के अनुयायियों में अभी
जीवित है और रहेगी, चाहे धर्मों के ठेकेदार और राजनीतिज्ञ निहित स्वार्थ के चलते इसे निर्मूल करने का कितना भी प्रयास क्यों न कर लें। मनुष्य मूल रूप से एक विवेकशील प्राणी है और अपने द्वारा किये गए प्रत्येक कार्य के गुण-अवगुण का भी पूर्ण आभास उसे होता है। हाँ, वह ऐसे कई कार्य अपनी आत्मा की स्वीकार्यता के विपरीत भी कर लेता है जो जाने-अन्जाने ऐसे लोगों को प्रसन्न करने के लिए होते हैं जिन्हें वह पसंद नहीं करता। विचित्र-सा मनोविज्ञान है यह, किन्तु वस्तुतः ऐसा ही होता है।
तो मैं बात कर रहा था उपरोक्त समाचार की। केरल प्रदेश के तिरुवनंतपुरम, जहाँ मुस्लिम बहुतायत में हैं, की 'वालिया जुमा मस्जिद' ने निश्चय किया है कि वहां केवल एक नमाज लाउडस्पीकर से होगी। अन्य 17 छोटी मस्जिदें उस अजान को धीमी आवाज़ में ही दोहरायेंगी। आस-पास स्थित अस्पतालों एवं विद्यालयों को देखते हुए यह निर्णय लिया गया है। यहीं पर स्थित प्रसिद्ध 'श्री नरसिम्हामूर्ति मन्दिर' भी सदियों पुरानी इस मस्जिद की मरम्मत में यदा-कदा सहयोग देता रहता है। सामाजिक व धार्मिक समन्वय का इससे अच्छा उदाहरण और क्या होगा!
यहाँ मैं गोधरा में घटित उस विभीषिका को उद्धरित करना चाहूँगा जिसमें दोनों ही सम्प्रदाय के लोगों ने मानवता को तार-तार कर दिया था। अयोध्या से गोधरा लौट रहे 59 हिन्दू कार-सेवकों को कुछ धर्मान्ध मुस्लिमों ने साबरमती ट्रेन में जीवित ही जला कर मार डाला था। बाद में इस घटना के प्रतिकार-स्वरूप गुजरात में दंगा भड़का और 1200 से अधिक लोग इसमें मारे गए। दोनों ही घटनाओं में किया गया कुकृत्य योजनाबद्ध था। कितने हिन्दू मरे या कितने मुसलमान मरे- यह बात दुनिया तय करे, मैं तो यह समझता हूँ कि इसमें मनुष्य मरे, मानवता मरी। कोई असंवेदनशील व्यक्ति भी यदि इन घटनाओं का प्रत्यक्षदर्शी रहा होता तो वह भी भीतर तक सहम जाता। क्रूरता की सीमाओं को लांघने वाली यह घटनाएं किसी भी सभ्य समाज के लिए स्वीकार्य नहीं हो सकतीं। यदि कानूनी प्रक्रिया सहज-सुगम हो, यदि अपराधों के लिए कठोरतम दण्ड का प्रावधान क़ानून में हो तो सम्भवतः कानून हाथ में लेने की घटनाएं कम-से-कम होंगी। जलती जनता की चिता की आग में अपनी रोटी सेंकने वाले राजनीतिज्ञ क्या कभी इस विषय पर चिंतन करेंगे ?
सुझावात्मक रूप से मैं यह कहना चाहूँगा कि एक 'सर्वधर्म समन्वय-समिति' (यदि संभव हो तो सरकारी सहमति के साथ ) की स्थापना की जानी चाहिए जो किसी भी राजनैतिक हस्तक्षेप से मुक्त हो। उद्देश्य यह हो कि इस समिति के सदस्य पूरी गम्भीरता से अपने-अपने समाज (सम्प्रदाय) की पारस्परिक गतिरोधात्मक समस्याओं का विवेचन कर सकें और उचित समाधान की दिशा में निर्णयात्मक स्थिति तक पहुंच सकें।
जब हम सब को साथ रहना है तो मनुष्यों की तरह क्यों न रहें ?
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