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आत्मबोध (कहानी)

                                                                      


    घर से बाहर आ कर आयुषी सड़क पर पहुँची और एक ऑटो रिक्शा को आवाज़ दी। ऑटो के पास में आने पर वह आदर्श नगर चलने को कह उसमें बैठ गई। आदर्श नगर यहाँ से करीब अठारह कि.मी. दूर था। ऑटो चलने लगा। ऑटो में लगी सी.डी. से गाना आ रहा था- 'जाने वाले, हो सके तो लौट के आना...'
  "उफ़्फ़, चेंज करो यह गाना।" -वह झुंझलाई व धीरे-से बुदबुदाई, 'नहीं आना मुझे लौट के।'
  "इतना तो अच्छा गाना है मैडम!" -ऑटो वाले ने बिना मुँह फेरे आश्चर्य से कहा। 
  "देखो, चेंज नहीं कर सकते तो बन्द कर दो इसे, मुझे नहीं सुनना यह गाना।"
  ऑटो वाले ने गाना बदल दिया। नया गाना आने लगा- 'आजा, तुझको पुकारे मेरा प्यार..।'
    गाना सुन कर आयुषी का मन खिल उठा। 'हाँ, आ रही हूँ तुम्हारे पास', मन ही मन मुस्करा दी वह। 
   गाना चल रहा था और वह खो गई उसके जीवन के उस  घटनाक्रम के चक्र में, जिसने उसके जीवन में हलचल मचा दी थी। 
  निखिल आलोक का दोस्त था। आलोक के ऑफिस में जॉब लगने कारण लगभग चार माह पहले ही वह इस शहर में आया था। बहुत ही मिलनसार और खुशमिजाज किस्म का आदमी था वह। कुछ ही दिनों में वह आलोक का अच्छा मित्र बन गया था। घनिष्ठता हो जाने से आलोक ऑफिस से आते वक्त प्रायः उसे अपने साथ घर ले आता था। कई बार तो वह उसे खाना खाने के लिए भी रोक लेता था। प्रारम्भ में आयुषी को बहुत अखरता था। जब-तब निखिल ऑफिस से आलोक के साथ ही आ जाता तो कभी एकाध घंटे के बाद आ टपकता। दोनों दोस्त साथ बैठे गप्पें लगाते और वह अपने ही घर में खुद को तन्हा महसूस करती। एक दिन उसने आलोक को अपनी व्यथा सुनाई तो हँसते हुए बोला- "पगली, तुम भी हमारे साथ ही आकर बैठा करो न। वह मेरा अच्छा दोस्त है यार!... और फिर तुम कोई घूँघट वाली ग्रामीण औरत तो हो नहीं।"
  
  ... और तब से वह भी यदा-कदा जब भी मूड होता, अपना काम निपटा कर उनके साथ गप्पों में शरीक हो जाती। 
 उसका संकोच निखिल के उन्मुक्त व्यवहार व वाक-पटुता में कहीं खो गया और वह भी उन दोनों के साथ हँसी- मजाक में बढ़-चढ़ कर भाग लेने लगी। प्रारम्भ में 'भाभी' कहते-कहते निखिल उसे नाम से सम्बोधित करने लगा था और यह बात उसे अच्छी भी लगी थी। 
   एक दिन बातों-बातों में ही आलोक ने निखिल से कहा- "यार निखिल, तुम शादी क्यों नहीं कर लेते? अब तो सैटल भी हो गये हो।"
   "अभी क्या जल्दी है यार? जिस दिन आयुषी जैसी सुन्दर लड़की मिल जाएगी, कर लूँगा शादी।" -आयुषी की ओर देखते हुए मुस्करा कर निखिल ने जवाब दिया था। आलोक भी मुस्करा कर रह गया था। ...और आयुषी का चेहरा कुछ प्रसन्नता तो कुछ लज्जा से रक्तिम हो उठा था।  
   शामें कुछ यूँ ही खुशगवार गुज़र रही थीं। आयुषी कभी-कभी आलोक से निखिल की मन ही मन तुलना करती। आलोक उससे प्यार तो बहुत करता था, लेकिन उसमें वह चातुर्य व हाज़िरजवाबी नहीं थी, जिसमें निखिल को कुशलता हासिल थी। आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी निखिल की खिलखिलाती हँसी उसके मन को दीवाना कर देती थी। निखिल जिस दिन घर नहीं आता, उसे घर में कुछ अधूरापन लगने लगता था। उसे पता ही नहीं चला कि कब और कैसे वह उसके आकर्षण में बंध गई है! उसे लगता था कि वह मन ही मन उसे प्यार करने लगी है और यह भी कि सम्भवतः निखिल भी उसे चाहता है। 
  परसों रात की घटना ने तो सब कुछ ही बदल दिया था। रात के सात बजे थे जब निखिल घर आया था। आयुषी का तीन वर्षीय बेटा अतिन दिन भर की उछल-कूद से थक कर कुछ नाश्ता कर के सो गया था और आलोक उसके किसी दोस्त के साथ मूवी देखने गया था। यह पहला अवसर था जब निखिल आलोक की अनुपस्थिति में आयुषी के साथ घर पर था। आयुषी उसे देख कर खिल उठी थी। पांच मिनट दोनों बैठे यूँ ही बातें करते रहे। फिर आयुषी उठ कर निखिल के लिए किचन में पानी लेने गई। जब पानी का गिलास लेकर ड्रॉइंग रूम में वह लौट रही थी, तभी अनायास ही गिलास से पानी की कुछ बूँदें छलक कर फर्श पर गिरीं और उन पर उसका पाँव पड़ गया। पाँव फिसलने से गिलास नीचे जा गिरा और वह स्वयं भी नीचे गिरने को हुई कि निखिल ने दौड़ कर उसे थाम लिया। आयुषी उसकी बाँहों में झूल गई। निखिल उसे बाँहों में थामे खड़ा ही रह गया। पिछले कई दिनों से उन दोनों के बीच का आकर्षण एकान्त पाकर मुखर हो उठा था। आयुषी चाह रही थी कि निखिल उसे यूँ ही अपनी बाँहों में थामे रहे, उससे पृथक न हो। यही हाल निखिल का भी था। वह भी चाहता था कि समय वहीं थम जाए और आयुषी यूँ ही उसकी बाँहों में झूलती रहे। निखिल उसकी आँखों में आँखें डाले अनवरत उसे निहार रहा था। उसने शर्मा कर
अपनी पलकें मूँद ली थीं। दोनों इसी अवस्था में इस कदर मदहोश थे कि उन्हें पता ही नहीं चला कि आलोक ने कब ड्रॉइंग रूम में प्रवेश कर लिया है। कुछ क्षण देखते रहने के बाद आलोक ने हल्के-से खाँसा। दोनों ने चौंक कर पीछे की ओर देखा और आलोक को देख कर हड़बड़ा कर एक-दूसरे से पृथक हो गये। 
  आलोक ने उन्हें उस हालत में देख लिया है, इसे जान कर आयुषी ने सहमी आवाज़ में स्पष्टीकरण दिया- "फर्श पर पानी गिर गया था और उस पर पाँव पड़ने से फिसल गई थी तो निखिल ने मुझे सहारा दे कर गिरने से बचाया।"
 "फिसल तो गईं पर निखिल की बाँहों में ही गिरी, यही गनीमत है।" -आलोक मुस्कराया। 
  दोनों ने महसूस किया कि आलोक के शब्दों में ही नहीं, उसके स्वर में भी व्यंग्य था। 
  "बैठो निखिल, मैं एक पुराने मित्र के साथ मूवी देखने के लिए गया था. लेकिन टिकट नहीं मिलने से वापस लौटना पड़ा। तुम कब आये?" -आलोक ने निखिल के कुर्सी पर बैठने के बाद पूछा। 
  आयुषी अभी तक यंत्रवत् खड़ी थी। आलोक के इशारा करने पर वह भी कुर्सी पर बैठ गई। 
  "बस अभी पाँच-सात मिनट पहले ही आया था। आयुषी मेरे लिए पानी लेकर आईं, तभी यह हादसा हो गया।" -निखिल ने जवाब दिया। 
  "हादसा ही तो होने को था निखिल, शुक्र है कि नहीं हुआ।" -आलोक मुस्कराया। 
  निखिल के चेहरे पर भी झेंप भरी मुस्कान उभरी। 
  कुछ क्षणों की ख़ामोशी के बाद आलोक ने आयुषी की ओर देखा- "निखिल को चाय नहीं पिलाओगी आयुषी?"
  आयुषी वहाँ बैठी रहने में असहज महसूस कर रही थी, आलोक की बात सुनते ही तुरंत उठ खड़ी हुई। 
 "नहीं आलोक, अभी मैं चलूँगा। चाय का अभी कोई मूड नहीं है।" -कहते हुए निखिल उठ खड़ा हुआ। 
 "चलो, कोई बात नहीं। चाय के लिए दुराग्रह नहीं करूंगा।"
  निखिल चला गया। आलोक व आयुषी हमेशा उसे दरवाज़े तक छोड़ने जाते थे, किन्तु आज वह ऐसा नहीं कर सके। उसके जाने के बाद आयुषी खाना बनाने किचन में चली गई। 
   डिनर के वक्त आलोक ने अब तक की चुप्पी तोड़ी- "अतिन आज जल्दी सो गया। उसे खाना खाने के लिए उठाओगी नहीं?" 
 "नहीं, उसने अच्छे-से नाश्ता कर लिया था। अब उसे उठा कर खिलाना ठीक नहीं होगा।"
  भोजन के बाद आयुषी ने आलोक से कहा- "आलोक, निखिल ने मुझे नहीं सम्हाला होता तो मैं नीचे गिर गई होती।"
  "हाँ, ठीक से सम्हाल लिया उसने, पर मैं नहीं आ गया होता तो तुम नीचे गिर ही जाती।... मेरा मतलब है वह तुम्हें अधिक देर तक सम्हाल नहीं पाता और तुम गिर जाती।"
  आयुषी इतनी भी नादान नहीं थी कि आलोक का आशय समझ नहीं पाती। मन ही मन वह जानती भी थी कि आलोक शायद सही कह रहा है। अगर वह उस समय नहीं आ गया होता तो कुछ भी हो सकता था। 
 "मुझे अचानक चक्कर-सा आ गया था आलोक! इसीलिए उसने सम्हाले रखा था।" -अचकचा कर आयुषी ने सफाई दी।
  "देखो आयुषी, मैं भी उसी आटे की रोटी खाता हूँ जिसकी कि तुम!" -आलोक ने गहरी नज़र से उसे देखा और बैडरूम की ओर चल दिया। 
  रात को दोनों को पूरी तरह से नींद नहीं आई। 
 अगले दिन की सुबह -
   प्रातः-कर्म से निवृत हो कर आयुषी ने स्नान भी कर लिया था। कल खूब सोया था अतिन, सो आज जल्दी जाग गया था। उसने अतिन को भी नहला-धुला कर तैयार कर दिया। नाश्ते के बाद वह अपने कमरे में जा कर टीवी में कार्टून फिल्म देखने लगा। आलोक थोड़ी देर से उठा था। निवृत हो कर वह भी लिविंग रूम में आ गया। 
  चाय-नाश्ते के बाद आलोक ने आयुषी को हाथ पकड़ कर अपने सामने सोफे पर बिठाया और बोला- "आयुषी, मेरे प्यार में ही शायद कुछ कमी थी कि तुम भटकने को मजबूर हुई। जब निखिल ने तुम्हें थामा था तो तुम सम्हल कर अलग हट सकती थीं। लेकिन नहीं, मैं जानता हूँ, मैं उसके जितना न तो खूबसूरत हूँ और न ही स्मार्ट! मुझे उसकी तरह चतुराई भरी बातें करना भी तो नहीं आता।... तो तुम्हारा उसकी ओर झुकाव होना स्वाभाविक ही तो था। पिछले दिनों तुम दोनों का तौर-तरीका देख कर मुझे कुछ-कुछ आभास तो हो ही गया था, कल मेरा शक सही भी सिद्ध हो गया। लेकिन आयुषी, अगर यूँ किसी के व्यक्तित्व से कोई इतना प्रभावित होने लगे तो कई घर टूट नहीं जायेंगे? क्या हमें ज़िन्दगी में सब-कुछ हमारा चाहा मिल सकता है?" कुछ पल चुप रह कर उसने अपनी बात आगे कही- "लेकिन आयुषी, मैं तुम्हें आज़ादी देता हूँ। तुम चाहो तो अपनी राह बदल सकती हो। मैं स्वयं तो तुम्हें यहाँ से जाने के लिए नहीं कहूँगा, किन्तु यदि निखिल और तुम दोनों एक दूसरे को पसंद करते हो तो तुम मुझे छोड़ कर उसके पास जा सकती हो।" 
  आलोक इतना कह कर स्नान करने चला गया। 
   आयुषी ध्यान से सब-कुछ सुन रही थी। उसके दिमाग़ में शुरू हुई उथल-पुथल आलोक की बात पूरी होते-होते बहुत अधिक बढ़ चली थी। 'ओह, तो आलोक को मुझ पर पहले से शक था! हुआ करे, मुझे अब कोई चिन्ता नहीं इस बात की। लेकिन, क्या सच में ही मैं आलोक व अतिन को छोड़ कर निखिल के पास जा सकती हूँ? क्या निखिल इसके लिए तैयार हो जायेगा? आलोक मुझे कितना प्यार करता है, क्या मैं उसे भुला सकूँगी? क्या अतिन को छोड़ कर जाना मेरे लिए आसान होगा? नहीं, यह कैसे संभव है? क्या करूँ मैं?', घर छोड़ कर जाने की कल्पना मात्र से उसकी आँखों में आँसू आ गए थे।
 ... लेकिन निखिल के मोह-पाश से निकलना भी तो उसके लिए बहुत मुश्किल था। उसे पिछले दिन के वह चन्द मिनट स्मरण हो आये जब वह निखिल की बाँहों में झूल रही थी। 'आह! कितने मादक क्षण थे वह! मैं चाह रही थी कि समय की घड़ी वहीं रुक जाए और निखिल मुझे यूँ ही थामे रहे। मैंने उस समय निखिल की आँखों में झाँका था। कितना उन्माद था, कितनी बेचैनी थी उसकी मदभरी आँखों में!'... उसने शर्म से अपनी आँखें बंद कर ली थीं।... और तभी आलोक ने अचानक आकर उसके उस स्वर्गिक अहसास को उससे छीन लिया था। नहीं, वह निखिल के उस मादक स्पर्श को नहीं भूल सकती। वह हमेशा के लिए उसकी हो कर रहेगी, चाहे कितनी ही बाधाएं उसकी राह क्यों न रोकें। बस, निखिल हाँ कर दे, उसे स्वीकार कर ले। क्यों नहीं करेगा वह स्वीकार? उसने उसकी आँखों में उसके प्रति तृष्णा का ज्वार उमड़ते देखा है। कल पहली बार उसने उसे स्पर्श किया तब ही नहीं, पहले भी कई बार वह आलोक से नज़रें चुरा कर लोलुप निगाहों से उसे निहारता रहा है। जब भी वह ऐसे देखता था, उसके तन-मन में एक मादक सिहरन दौड़ जाती थी। सदैव के लिए निखिल को पाने की कल्पना कर उसकी आँखें प्रसन्नातातिरेक से मुंद गईं। 
  आलोक के बाथरूम से निकलने से उसका स्वप्नजाल टूटा। विचारों को झटक कर वह उठी और किचन की तरफ चल दी। 
  खाना खा कर आलोक ऑफिस चला गया। खाना खाने के बाद हमेशा की तरह अतिन ने उससे पूछा- "मम्मा, मैं टिंकू के साथ खेलने जाऊँ? 
 "हाँ बेटा जाओ, पर जल्दी आ जाना। तुम्हें पढ़ना भी है न!"
  अतिन पड़ोसी बच्चे के साथ खेलने चला गया। आयुषी लंच से निपट कर 'सहेली' पत्रिका लेकर अपने कमरे में जा कर लेट गई। पत्रिका में उसका मन नहीं लगा और सुबह वाले ख़यालात उसे फिर से झकझोरने लगे। कभी घर छोड़ कर जाने की सुखद कल्पना उसके मन में उभरती तो कभी आलोक के साथ गुज़ारे सुख-दुःख के बीते समय के बारे में सोचती और कभी अतिन से जुदा होने का विचार उसे परेशान करने लगता। फिर यह सोच कर खुद को तसल्ली देती कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है। इसी सब ऊहापोह के बीच उसे लगा कि ख़याली पुलाव बनाने से पहले एक बार निखिल से बात कर लेनी चाहिए कि वह उसके बारे में क्या सोचता है। 'अभी समय ठीक है, उसका लंच ब्रेक होगा अभी, सो ठीक से बात भी हो जाएगी', सोच कर उसने फोन उठाया और उसे अब तक की सारी बातें बताने के अलावा उसके मन की बात पूछी। लगभग आधे घण्टे तक बतियाने के बाद आयुषी का चेहरा ख़ुशी से दमक रहा था। अब उसने अपनी राह निश्चित कर ली थी। बातों ही बातों में उसने निखिल के फ्लैट का पूरा पता भी पूछ लिया था और कह दिया था कि दो-तीन दिन में ही वह उसके पास चली आएगी। 
  आयुषी ने पत्रिका एक तरफ रख सोने की कोशिश की, किन्तु उसे नींद कैसे आती? ख़यालों-ख़यालों में बस यूँ ही करवटें बदलती रही वह। 
 थोड़ी देर में अतिन आ गया। आते ही उसने शोर मचाना शुरू कर दिया- "मुझे नींद आ रही है मम्मा, मुझे सोना है।"
 "अरे...रे...रे! यह क्या बात हुई? इतनी देर से आया है और आते ही सोने की बात! मैंने कहा था न कि तुमको पढ़ना है। तुम्हें दस के बाद की गिनती सीखनी है आज। चलो, ले आओ अपनी कॉपी और पेन्सिल।" -पलंग से उठते  हुए आयुषी ने कहा। 
  रुआंसा हो कर अतिन गया और कॉपी-पेन्सिल ले कर वापस आया। आयुषी उसे 'ग्यारह' लिखना सिखा रही थी, लेकिन अतिन की आँखें नींद से मुंदी जा रही थीं। आयुषी ने उसके हाथ से पेन्सिल ले कर टेबल पर रख दी और उसे गोद में उठा कर बिस्तर पर सुला दिया। आयुषी उसके सिर पर हाथ फिरा कर दुलारने लगी। वह मन ही मन सोचने लगी कि उसके जाने के बाद अतिन का क्या होगा, क्या उसके बिना रह सकेगा वह?... और क्या वह स्वयं भी उसके बिना रह सकेगी? उसकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे। उसने झुक कर अतिन का ललाट चूम लिया और फिर उसके कोमल चेहरे व सिर पर चुम्बनों की झड़ी कर दी। अतिन अब तक सो गया था। आयुषी भी कुछ समय के लिए उसके पास लेट गई। 
   शाम को आलोक ऑफिस से घर पर आया, तब तक अतिन जाग चुका था। रोज़ाना की तरह अतिन को अपने हाथों में लेकर हवा में उछाला और फिर वापस हाथों में थाम कर दो-तीन बार चूम कर नीचे उतारा। आज आलोक ने आयुषी की ओर देखा तक नहीं और अपने कपड़े बदलने के लिए चला गया।
  आयुषी अपनी सारी भावुकता व भावनाओं से मुक्त हो कर घर छोड़ कर चले जाने का निश्चय कर चुकी थी।  काफी सोचने के बाद अतिन के लिए अब उसके मन में अधिक चिन्ता नहीं रह गई थी। वह जानती थी कि आलोक अतिन से बहुत प्यार करता है और उसका पूरा ख़याल रखेगा। उसे चिंता थी तो केवल इतनी कि जब वह ऑफिस जायेगा तो अतिन घर पर कैसे रहेगा? उसके लिए कोई आया ही रखने पड़ेगी जब तक वह दूसरी शादी न कर ले। 'लेकिन मैं यह सब क्यों सोच रही हूँ, आलोक को ही सोचना होगा यह सब।', उसने अपना सिर झटका।

   आज वह सुबह से ही योजना बना रही थी और तदनुसार उसे शाम पाँच बजे घर से निकल जाना था। 'उस समय अतिन सोया हुआ होता है और सवा पाँच से साढ़े पाँच के बीच आलोक घर आ जाता है। अतिन के जागने का समय भी साढ़े पाँच से छः बजे के बीच हुआ करता है, तो आलोक आ कर उसे सम्हाल लेगा।', सोच कर वह आश्वस्त हुई। आज उसने अतिन को उसके दोस्त के यहाँ खेलने नहीं भेजा था। जी भर कर वह आज अतिन के साथ रहना चाहती थी, उसे प्यार करना चाहती थी। वह दिन भर उसके साथ खेलती रही, बतियाती रही। उससे बिछड़ने की बात उसे बार-बार कचोटती और उसकी आँखें भर आतीं, पर दूसरे ही पल वह अपने मन को कठोर कर लेती। निखिल का जादू उसके सिर पर इस कदर सवार था कि अतिन से दूर जाने के लिए भी उसने अपने मन को तैयार कर लिया था। 
   चार बजे के आस-पास अतिन सो गया। आयुषी ने एक छोटे बैग में अपने कुछ कपड़े व ज़रूरी सामान लिया और पर्स में कुछ रुपये डाल कर उसे भी बैग में रख लिया। उसने सोये हुए अतिन को प्यार किया, उसका माथा चूमा और फिर एक छोटा-सा पत्र लिख कर बिस्तर पर अपने तकिये के नीचे रख दिया। जी कड़ा कर के बैग लेकर वह बैडरूम से बाहर निकली। बाहर निकलते समय उसने पीछे मुड़ कर एक बार फिर अतिन को निहारा, नम हो आई अपनी आँखों को पोंछा और मुख्य दरवाज़े की ओर बढ़ गई। दरवाज़े पर इंटरलॉक लगा कर पोर्च पार कर वह बाहर निकल आई। 

   "मैडम, आदर्श नगर आ गया है। कहाँ उतरना है आपको?" ऑटो चालक की आवाज़ से उसकी तन्द्रा भंग हुई। 
 "अरे, आ गया आदर्श नगर? मुझे 'जीवन कॉम्प्लेक्स' पर छोड़ दो।" -आयुषी ने कहा। 
 जीवन कॉम्प्लेक्स के पास ऑटो चालक ने उसे उतार दिया और अपना किराया लेकर चला गया। 
  आयुषी बैग मे रखे पर्स से स्लिप निकाल कर कॉम्प्लेक्स के दरवाज़े के पास पहुँची व निखिल का फ्लैट नं. चैक किया। वह आगे बढ़ने को थी कि उसकी नज़र सड़क के किनारे से कॉम्प्लेक्स के दरवाजे की ओर बढ़ रही एक बिल्ली और उसके बच्चे पर पड़ी। बच्चा बिल्ली से कुछ पीछे था। 
 आयुषी ने देखा, एक छोटा कुत्ता धीरे-धीरे बिल्ली के उस बच्चे की तरफ बढ़ रहा था और उसे दबोचने को ही था कि बिल्ली की नज़र उस पर पड़ गई। बिल्ली तुरन्त उस कुत्ते पर झपटी व उसका मुँह नोच लिया। इस अप्रत्याशित आक्रमण से भयभीत हो कुत्ता दूर भाग गया और बिल्ली अपने बच्चे को साथ ले पूरी सावधानी के साथ कॉम्प्लेक्स के भीतर चली गई।  

  आयुषी के मस्तिष्क में घण्टियाँ-सी बजने लगीं, 'अरे, यह बिल्ली एक पशु है, फिर भी वह अपने बच्चे के प्रति इतनी संवेदनशील है कि अपने से अधिक सशक्त कुत्ते पर आक्रमण कर उससे अपने बच्चे को सुरक्षित बचा लिया और एक मैं हूँ जो मनुष्य हो कर भी अपने मासूम बच्चे को किसी अनजान औरत की परवरिश के भरोसे छोड़ कर चली आई हूँ! क्या कोई दूसरी औरत अतिन को, मेरे कलेजे के टुकड़े को मेरे जैसा प्यार और संरक्षण दे पाएगी? नहीं, मैं अतिन को यूँ अपने से दूर नहीं कर सकती। मैं आलोक से साफ़-साफ़ कह दूँगी कि अतिन को मैं अपने साथ रखूँगी। अगर वह नहीं मानेगा तो डिवोर्स के समय अतिन को साथ ले आऊँगी। वह बहुत छोटा है तो कोर्ट भी मेरे हक़ में फैसला दे ही देगा। हाँ, लेकिन पहले निखिल से तो पता कर लूँ कि क्या वह अतिन के साथ मुझे स्वीकार करेगा?'
  आयुषी ने निखिल के फ्लैट के लिए अपने कदम आगे बढ़ाये। उसने चौकीदार से पूछा तो पता चला कि निखिल ऑफिस से आ गया है और यह भी कि उसका फ्लैट चौथे माले पर है। वह लिफ्ट की मदद से चौथे माले पहुँची। फ्लैट की ओर बढ़ते  हुए वह इस ख़याल मात्र से आल्हादित थी कि अभी अचानक पहुँच कर निखिल को सरप्राइज़ देगी तो वह उसे देखते ही अपनी बाँहों में भर लेगा। फ्लैट के पास जा कर वह डोरबेल बजाने वाली ही थी कि भीतर से कुछ बातचीत की आवाज़ उसे सुनाई दी। भीतर से आ रही आवाज़ निखिल और एक युवती की थी। उसने दरवाज़े पर कान लगा कर ध्यान से सुनने की कोशिश की। उसे पूरी बातचीत तो स्पष्ट नहीं सुनाई दी, पर जो कुछ शब्द उसे सुनाई दिये, यह समझने के लिए काफी थे कि भीतर दोनों के बीच प्रेमालाप चल रहा है। 
  आयुषी स्तब्ध रह गई। वह समझ गई कि ऑफिस से आते वक्त वह किसी युवती को साथ लेकर आया है। उल्टे पाँव वह लिफ्ट की तरफ लौट आई। क्रोध और वितृष्णा से उसकी आँखें जलने लगीं, 'ओह, ऐसे आदमी के लिए मैं इतना प्यार करने वाले अपने पति और फूल-से कोमल बच्चे को छोड़ कर यहाँ चली आई थी? छिः! दैहिक आकर्षण ने मेरी मति ही हर ली थी। मैं सोने को छोड़ कर पीतल को अपनाने गई थी! हे ईश्वर, मेरे इस घोर पाप के लिए मुझे क्षमा कर दो!', पश्चाताप अश्रुधारा बन कर कपोलों से बहता हुआ आयुषी के आँचल को भिगो रहा था। वह तेज़ी से कॉम्लेक्स से बाहर आई और ऑटो बुला कर वापस घर के लिए चल दी। 
  
   घर लौट तो रही थी आयुषी, किन्तु उसका दिल जोरों से धड़क रहा था, कई आशंकाएँ उसको घेर रही थीं। आलोक यदि पूछेगा कि अतिन को अकेले सोया छोड़ वह कहाँ गई थी तो क्या जवाब देगी वह? यदि उसने उसका पत्र देख लिया होगा तो क्या होगा?... और तब यदि वह उसे घर में प्रवेश करने की इजाज़त नहीं दे तो क्या करेगी वह?
  वह ईश्वर से प्रार्थना करने लगी कि आलोक उसका पत्र न देख पाए! 
  घर पहुँचने पर ऑटो से उतर कर सहमे कदमों से वह भीतर गई। अनायास ही पोर्च में बायीं ओर पास-पास रखे दो गमलों पर उसकी नज़र पड़ी। उसने देखा, एक गमले में लगे चम्पा के पौधे के पास उग आई एक बेल, जो चम्पा से लिपटी हुई थी, ऊपर जा कर पास वाले गमले के पौधे से लिपट गई थी। वह इसे सहन नहीं कर सकी और दूसरे गमले के पौधे से लिपटे बेल के हिस्से को उसने तोड़ कर अलग कर दिया। ऐसा कर के उसे बहुत सुकून मिला। उसका ध्यान उस पर शायद आज पहली बार ही गया था। पोर्च पार कर वह दरवाज़े पर पहुँची और काँपते हाथों से डोरबेल दबाई। 
   तीन-चार मिनट तक दरवाज़ा नहीं खुला तो उसकी घबराहट बढ़ने लगी, 'क्या आलोक दरवाज़ा भी नहीं खोलेगा? अब क्या करूँ मैं? हे भगवान! इस बार मुझे माफ़ कर दो! मैं...।'
   तभी दरवाज़ा खुला और आलोक ने सपाट भाव से पूछा- "अरे, कहाँ गई थी तुम इस समय? यह तो शुक्र है कि बेटा अब तक जागा नहीं है। अगर वह मेरे आने से पहले जाग जाता तो रो-रो कर बेहाल हो जाता।"
 आयुषी को तसल्ली हुई कि चलो आलोक ने उसका पत्र नहीं देखा है। उसने सहज होने की कोशिश करते हुए भीतर प्रवेश किया और बैग आलमारी में रख कर बोली- "अर्चना ने बुलाया था तो थोड़ी देर के लिए उसके वहाँ गई थी, कुछ सामान भी खरीदना था। अतिन अभी तक नहीं जागा?" -कहते हुए वह अतिन के पास गई। उसके पास पहुँचते ही उसकी आँखें भर आईं। उसने हाथ बढ़ाये कि वह अतिन को गोद में लेकर अपने सीने से लगा ले, खूब प्यार करे, लेकिन रुक गई। उसके दिमाग ने उसे चेताया कि अभी वह ज़्यादा भावुक हुई तो आलोक को अजीब लगेगा।  
    वह वहाँ से वापस लौटी और बोली- "आलोक, तुमने चाय नहीं पी होगी, मैं बना कर लाती हूँ।" 
  "नहीं आयुषी, तुम अभी आई हो, आराम करो। मुझे आये देर हो गई है, चाय मैं बनाता हूँ।"
  आयुषी आलोक की सह्रदयता देख शर्म से जमीन में गड़ी जा रही थी। उसने आर्द्र निगाहों से आलोक की ओर देखा- "नहीं जी, मैं कौन-सा पहाड़ तोड़ कर आई हूँ! तुम बैठो, मैं अभी  दो मिनट में बना कर लाती हूँ।"
  वह तेज़ी से किचन की ओर गई। वहाँ जाते ही अभी तक रोके उसके आँसू बरबस ही बरस पड़े। आँचल से उन्हें पोंछते हुए उसने गैस पर केतली चढ़ाई। 
   चाय लेते हुए दोनों खामोश थे। चाय ख़त्म होने पर आयुषी ने कप की ट्रे उठाते हुए कहा- "मैं अतिन को जगाती हूँ, बहुत देर हो गई उसे सोये हुए।"
  आलोक एक कागज़ उसके हाथ में दे कर बोला- "यह डस्टबिन में फेंक देना।" 
   आयुषी ने कागज़ को देखा तो उसे लगा कि यह तो वही पत्र है जिसे वह तकिये के नीचे रख कर गई थी। 'तो क्या आलोक ने पत्र देख लिया है? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। अगर ऐसा होता तो क्या आलोक मुझे आसानी से माफ़ कर देता, इतनी सहजता से मेरे समक्ष पेश आता? नहीं, वैसा ही कोई और कागज़ है  शायद यह!', किचन में जा कर ट्रे सिंक में रख कर उसने उत्सुकतावश हाथ में मुड़े कागज़ को खोल कर देखा। देखते ही उसका सिर चकरा गया, यह वही पत्र था।  
  उसके पाँव जमीन पर जम-से गये, 'तो आलोक ने यह पत्र पढ़ लिया है। इसमें तो मैंने साफ़-साफ़ लिखा है कि मैं हमेशा के लिए निखिल के पास जा रही हूँ। तो क्या आलोक का दिल इतना बड़ा है कि सब-कुछ जान कर भी उसने मुझे माफ़ कर दिया है या फिर इस विषय में यह ख़ामोशी किसी बड़े तूफ़ान का संकेत है?' 
  आयुषी ने उस पत्र के टुकड़े कर डस्टबिन में डाला और डरते-डरते बाहर आई। आलोक गहरी नज़रों से उसकी आँखों में देखते हुए धीमे कदमों से उसकी तरफ बढ़ा। अज्ञात भय से आयुषी थर-थर काँपने लगी। निकट आ कर आलोक ने आयुषी के कन्धों पर हाथ रखा और बोला- "मैं तुमसे कुछ भी नहीं पूछूँगा। बस इतना कहूँगा कि पाप में आकर्षण तो होता है पर उसकी उम्र लम्बी नहीं होती और फिर आयुषी, सुबह का भूला शाम को घर लौट आए तो वह भूला नहीं कहलाता।" -कहते हुए उसने आयुषी को अपने सीने से लगा लिया। 
 आयुषी ने धीमे-से पृथक हो कर कातर दृष्टि से उसकी ओर देखा और  फफक कर रोते हुए उसके पाँवों में गिर पड़ी, रोते-रोते बोली- "आलोक, मुझ पापिन को क्षमा कर दो। मैंने तुम जैसे देवता के प्रति घोर अपराध किया है। मैं तुम्हें सब-कुछ बताऊँगी।"
  आलोक ने उसे ऊपर उठा कर स्निग्ध भाव से कहा- "आँसुओं ने तुम्हारे मन को निर्मल कर दिया है आयुषी! मुझे कुछ नहीं सुनना, कुछ नहीं जानना है तुमसे।"
  आयुषी ने अपना कम्पित चेहरा आलोक के सीने पर टिका दिया और आलोक ने उसके काँपते बदन को अपनी बाँहों में समेट लिया। 
                                                                            
                                                                   ************




टिप्पणियाँ

  1. बहुत भावपूर्ण कथा है आदरणीय सर
    आयुषी आलोक और निखिल के माध्यम से एक प्रेरक कथानक के साथ उद्देश्यपूर्ण कथा के लिए आपको बहुत -बहुत बधाई | आज के युग में दैहिक आकर्षण में बंधे कुंवारे युवक युवतियां तो क्या विवाहित भी बहे जा रहे हैं | ये आत्मबोध ही व्यक्ति को गलत करने से बचा सकता है | कहानी का सधा शिल्प बहुत सुंदर लग रहा है | सादर

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    उत्तर
    1. आधुनिक जीवन-शैली व तदनुसार उन्मुक्त आचरण वर्तमान पीढ़ी को पथभ्रष्ट कर रहा है। भारतीय संस्कार व जीवन-पद्धति लोगों को बेमानी लगने लगे हैं। यही कारण है कि परिवार टूट रहे हैं, गृहस्थ-जीवन अपना आकर्षण खो रहा है। आपकी गहन समीक्षा के लिए अंतरतम से आभार व्यक्त करता हूँ रेणु जी!

      हटाएं
    2. अतिसुन्दर अतिसुन्दर

      हटाएं
  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०३-१०-२०२०) को ''गाँधी-जयंती' चर्चा - ३८३९ पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    अनीता सैनी

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    उत्तर
    1. नमस्कार अनीता जी! आपका बहुत-बहुत धन्यवाद!... शुक्रगुज़ार हूँ कि आपने मेरी रचना को इस योग्य समझा।

      हटाएं
  3. बहुत सुंदर व सार्थक कहानी।

    जवाब देंहटाएं
  4. आज के हालात - आज के ऐसे तमाम विवाहातिरेक प्रेम प्रसंगों को सबक देनेवाली कहानी जिसकी यह पंक्ति शानदार लगी कि "पाप में आकर्षण तो होता है पर उसकी उम्र लम्बी नहीं होती और फिर आयुषी, सुबह का भूला शाम को घर लौट आए तो वह भूला नहीं कहलाता।"... इसमें मैं यह जोड़ना चाहूँगा कि ऐसी गलतियों को बार - बार दोहराना यानी अपनी बर्बादी को निमंत्रण देना होता है... एक समय ऐसा आता है कि जब ऐसा इन्सान कहीं का नहीं रह जाता... न वो किसी का रह जाता है न कोई उसका... हाथ आती है तो सिर्फ तन्हाई - अकेलापन... एक बेहद अच्छी - प्रेरक और सफल कहानी के लिये हार्दिक बधाई !!!

    जवाब देंहटाएं
  5. मुझे और अधिक अच्छा लिखने के लिए प्रेरणा देती आपकी इस खूबसूरत टिप्पणी के लिए आभार व्यक्त करने हेतु समुचित शब्द नहीं मिल पा रहे हैं प्रिय बन्धु विशाल जी! अन्तरतम से धन्यवाद देना चाहूँगा आपको!

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  6. बहुत सुन्दर और सीखप्रद कहानी ।

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  7. दैहिक आकर्षक में फंसकर विवाह जैसे पवित्र बंधन को त्याग कर न जाने कैसी कैसी मुसीबतें मोल ले रहे हैं आजकल के युवा...। नायिका की तरह वापस मुड़ना भी हर किसी को नसीब नहीं होता...बहुत ही सुन्दर सार्थक एवं संदेशप्रद कहानी।
    लाजवाब ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपकी इस सटीक टिप्पणी के लिए अन्तःस्तल से आभार महोदया सुधा जी!

      हटाएं
  8. बस इतना कहूँगा कि पाप में आकर्षण तो होता है पर उसकी उम्र लम्बी नहीं होती और फिर आयुषी, सुबह का भूला शाम को घर लौट आए तो वह भूला नहीं कहलाता।" .. बहुत सही
    बहुत बड़ा दिल चाहिए इसके लिए।
    सच्चा प्यार कभी नहीं मरता

    बहुत अच्छी प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  9. आप मेरे ब्लॉग पर आयीं , इस कहानी के मर्म को सराहा, बहुत अच्छा लगा कविता जी!... आपका बहुत आभार महोदया!

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