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जुलाई, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

'डबल पेनल्टी' (लघुकथा)

                                                        "बस दो सौ- तीन सौ रुपये का जुगाड़ और हो जाए तो हम लोग अपने गाँव के लिए निकल चलेंगे। पता नहीं, हालत कब तक सुधरेगी और कब काम-धंधे शुरू होंगे! कब तक लोगों से दान-दक्षिणा लेते रहेंगे! मेहनत से जो मिलता है, मुझे तो उसी में सुख मिलता है संतोषी!" -गणेश ने अपनी पत्नी से कहा।   "हाँ जी, सही बोला आपने। कारखाने में बित्ते भर पगार मिल रही थी तो भी मन राजी था कि मेहनत की खा रहे हैं। मेरा मन भी नहीं मानता जी कि कोई दया कर के कुछ हाथ में रख देवे और हम खुश हो लेवें। दसवीं के बाद आप थोड़ा और पढ़-लिख गए होते तो ये दिन नहीं देखने पड़ते। पर एक बात बताओ, अपने पास तीन सौ रुपये ही तो पड़े हैं। अगर दो-तीन सौ और मिल भी गये तो भी बस का किराया पूरा कैसे होगा। आधी टिकट तो अपनी बाँसुरी की भी लगे है अब।" -सातवीं पास संतोषी ने संदेह व्यक्त किया।  "अरे, तो थोड़ा बस में और थोड़ा पैदल भी चल लेंगे। घर तो पहुँचना ही है, यहाँ कब तक पड़े रहेंगे?"    माता-पिता की बातों से बेखबर आठ वर्षीया बाँसुरी वहाँ पड़ी किसी पुरानी मासिक पत्रिका

अपहरण (कहानी)

                                            एक नवयौवना युवती की कोमल भावनाओं से सजी दास्तान:-                 करिश्मा को जब होश आया तो वह एक अनजान कमरे में एक पलंग पर लेटी हुई थी और दो अपरिचित व्यक्ति उसके सामने एक दीवान पर बैठे हुए थे। वह हड़बड़ा कर उठ बैठी और अपने पहने हुए कपड़ों की ओर देखने लगी। कपड़े वही थे जो वह घर से पहन कर निकली थी। उसका पर्स उसके पास ही पड़ा हुआ था।    उसने सामने बैठे व्यक्तियों की तरफ देख कर क्रोधित व आशंकित स्वर में पूछा- "मैं कहाँ हूँ?... तुम लोग कौन हो और मुझे यहाँ क्यों ले कर आये हो? तुम लोगों ने मेरे साथ कुछ गलत तो नहीं किया?"   "सब बताएँगे तुम्हें। हमने कुछ भी गलत नहीं किया है। चिंता मत करो, तुम मेरी बेटी के सामान हो।" -एक व्यक्ति ने जो कुछ अधिक उम्र का था, जवाब दिया।   "तो फिर यहाँ क्यों लाये हो मुझे? यह कौन-सी जगह है?" -करिश्मा का क्रोध कुछ कम हुआ। उसने अपनी रिस्टवॉच देखी, रविवार ही था और रात के आठ बज रहे थे। उसे याद आया, शाम पाँच बजे इवनिंग वॉक के लिए वह अपनी सहेली को साथ लेने उसके घर जा रही थी कि सुनसान राह

यह कैसी बेबसी?

        कृपया इस पोस्ट को पूरी पढ़ें, आपके पास समय नहीं हो तो भी पढ़ें। ईश्वर करे आप या आपके परिवार का सामना कोरोना से नहीं हो, क्योंकि यदि ऐसा हो गया तो आप की रक्षा करने वाला ईश्वर के अलावा कोई भी नहीं है। बड़े-बड़े दावे करने वाली सरकार के किसी भी नेता के पास है कोई जवाब इस बात का कि जब इस पोस्ट के एक प्रभावशाली पत्रकार जैसे विशिष्ट नागरिक को कोरोना की जांच व इलाज के लिए यूँ ठोकरें खा कर भी निराशा हाथ लगी, तो एक सामान्य नागरिक का क्या हश्र होता होगा? सरकार ने ईश्वर व आप पर भरोसा कर के लॉक डाउन को कुछ पाबंदियों के साथ हटाया है क्योंकि शायद लॉक डाउन जारी रखने में सरकार कई कारणों से सक्षम नहीं है। लॉक डाउन हटने के बाद की घर से बाहर वाली दुनिया के हालात डराने वाले हैं। हम सब देख रहे हैं कि आवश्यक पाबन्दियों की किस तरह से धज्जियाँ उड़ रही हैं। इसी कारण इस एक सप्ताह में ही कोरोना पॉज़िटिव मामलों में ज़बरदस्त इजाफ़ा हुआ है। अब आपको यदि सुरक्षित रहना है तो आप और केवल आप ही स्वयं को सुरक्षित रख सकते हैं। कई मामलों में झूठ कहने के लिए बदनाम अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने भी यह तो सही ही कहा है कि भार

-:दावत:-

                                                                             "यार, थोड़ा जल्दी तैयार हो जाओ न, भूख के मारे प्राण निकले जा रहे हैं।" -कुछ झुंझलाते हुए मैंने कहा।    "दो दिन का उपवास करने के लिए मैंने कहा था आपसे? तैयार होने में लेडीज़ को तो टाइम लगता ही है। आधे घंटे से कह रही हूँ कि पांच मिनट में तैयार हो रही हूँ और तुम हो कि जल्दी मचाये जा रहे हो। कम्बख़्त ढंग की साड़ी तो दिखे।" -वार्डरॉब में लटकी साड़ियों पर से नज़र हटा कर श्रीमती जी ने मेरी ओर आँखें तरेरीं।   अलमारी में रखी पचासों साड़ियों में से उनको कोई ढंग की साड़ी नज़र नहीं आ रही थी, इसका तो मेरे पास भी क्या इलाज था? गले में लटकी टाई को थोड़ा लूज़ करते हुए मैं कुर्सी पर बैठ गया। अभी तक तो साड़ी का चुनाव ही नहीं कर सकी हैं श्रीमती जी! साड़ी पसंद आने के बाद तैयार होने में और फिर तैयार हो कर शीशे में हर एंगल से दस-बीस बार निहारने में कम से कम एक घंटा तो और लगेगा ही उनको, यह मैं जानता था।   आधे-पौन घंटे बाद जब मैंने देखा कि अभी भी उनका मेक-अप तो बाकी ही है तो मैंने धीरे-से उन्हें मज़ाक में चेताया- "ऐस