"बस दो सौ- तीन सौ रुपये का जुगाड़ और हो जाए तो हम लोग अपने गाँव के लिए निकल चलेंगे। पता नहीं, हालत कब तक सुधरेगी और कब काम-धंधे शुरू होंगे! कब तक लोगों से दान-दक्षिणा लेते रहेंगे! मेहनत से जो मिलता है, मुझे तो उसी में सुख मिलता है संतोषी!" -गणेश ने अपनी पत्नी से कहा। "हाँ जी, सही बोला आपने। कारखाने में बित्ते भर पगार मिल रही थी तो भी मन राजी था कि मेहनत की खा रहे हैं। मेरा मन भी नहीं मानता जी कि कोई दया कर के कुछ हाथ में रख देवे और हम खुश हो लेवें। दसवीं के बाद आप थोड़ा और पढ़-लिख गए होते तो ये दिन नहीं देखने पड़ते। पर एक बात बताओ, अपने पास तीन सौ रुपये ही तो पड़े हैं। अगर दो-तीन सौ और मिल भी गये तो भी बस का किराया पूरा कैसे होगा। आधी टिकट तो अपनी बाँसुरी की भी लगे है अब।" -सातवीं पास संतोषी ने संदेह व्यक्त किया। "अरे, तो थोड़ा बस में और थोड़ा पैदल भी चल लेंगे। घर तो पहुँचना ही है, यहाँ कब तक पड़े रहेंगे?" माता-पिता की बातों से बेखबर आठ वर्षीया बाँसुरी वहाँ पड़ी किसी पुरानी मासिक पत्रिका